यदि घरवाले सच्चाई से मुँह चुराते हों || आचार्य प्रशांत, केदारनाथ यात्रा पर (2019)

Acharya Prashant

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यदि घरवाले सच्चाई से मुँह चुराते हों || आचार्य प्रशांत, केदारनाथ यात्रा पर (2019)

प्रश्नकर्ता: मैं अपने घर में अपने परिवारजनों को इस सत्संग से लाभान्वित करना चाह रहा था, परन्तु खुद के प्रयासों की वजह से वो विपरीत दिशा में ही जा रहे हैं।

आपने जो कहा कि स्वेच्छा से अपनी इच्छा का त्याग कर देना चाहिए, तो मुझे लगता है मेरी परिस्थिति तो वो है ही कि अब मैं खुद तो कुछ प्रयास कर नहीं सकता हूॅं। तो अब इसके आगे मैं क्या कर सकता हूॅं?

स्वेच्छा की जहाॅं तक बात है, तो मेरे पास कोई रास्ता तो है नहीं कि मैं उनको कुछ बता सकूँ। अपने में ही सुधार ला सकता हूॅं और तो कुछ नहीं कर सकता।

आचार्य प्रशांत: यही करो। यही करो। मैं भी यही करता हूॅं। बहुत आसान भी है, बहुत कठिन भी है, दूसरे में परिवर्तन लाना। दूसरे में वास्तविक परिवर्तन तो तुम्हारी हस्ती से ही आता है। पर वैसे देखो तो बहुत आसान है। लेकिन समझा-बुझाकर, बोल-बोलकर दूसरे में परिवर्तन लाना चाहो तो थोड़ा कठिन भी हो सकता है, बहुत ज़्यादा कठिन भी हो सकता है। दूसरे के पास वजहें हैं, अविश्वास करने की लेकिन “हाथ कंगन को आरसी क्या”। अगर तुम स्वयं ही प्रत्यक्ष प्रमाण बनकर खड़े हो गये कि मुझे देखिए, कितना अन्तर आ गया है; तो कौन फिर ठुकरा पाएगा या विवाद कर पाएगा?

ऑंखों देखी बात; इंसान ही बदल गया। बेटा दूसरा हो गया, भाई दूसरा हो गया। लोग इस उद्देश्य से भले न आएँ कि सुधरेंगे पर फिर इस उद्देश्य से आ ही जाऍंगे कि चल क्या रहा है। हम साधक हों, न हों; उत्सक तो ज़रूर रहते हैं न। अब ये छोटा बच्चा आकर झाॅंक गया। साधक तो नहीं है। पर क्या है?

प्र: उत्सुक।

आचार्य: अभी यहाॅं अन्य लोग भी रुके हुए हैं। साॅंझ होगी। देखिएगा, आप अगर तब तक यहीं रहे, तो जितनी जगहें हैं, उनसे सबसे झाॅंकते नज़र आऍंगे। और अगर दिखा आपमें उनको कुछ विशिष्ट, तो इधर-उधर पूछताछ भी करेंगे, ‘मामला क्या है? हो क्या रहा है?’ और यही तुम प्रचारक बनकर, पर्चा लेकर उनके तम्बुओं में घुसो, तो क्या कहेंगे? ‘माफ़ करो बाबा, ये सफ़ेदी तुम्हें ही मुबारक हो। हम ज़रा रंगीन हैं।’

तो दोनों बातों का महत्व होता है। लेकिन याद रखना ज़्यादा महत्व हमेशा तुम्हारी हस्ती का होता है। अगर सही जा रहे हो तो उदाहरण बन जाओगे; बिना जाने, बिना कोशिश किये। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा तुम उदाहरण बन गये पता नहीं कितनों के लिए, आदर्श बन गये। सूरज चमकता है, वो नहीं जानता है कि उससे कितनों को प्रकाश मिल रहा है। और प्रकाशित वो तब भी है जब तुमने उससे मुॅंह फे़र लिया है और तुम्हारे लिए रात हो गयी है। उसका काम है प्रकाशित रहना।

बहुतों को, बहुत कुछ मिल ही जाता है। थोड़ा बताओ, ज़्यादा दिखाओ। वो देख पायें, वो ज़्यादा ज़रूरी है। फिर थोड़ा भी बताने से काम चल जाएगा। हाॅं, जब पाओ कि किसी में वास्तविक उत्सुकता जगी है और वो जानना ही चाहता है तो उसको बताने से पीछे मत हो जाना। फिर वो थोड़ा पूछे, तुम थोड़ा और बताना, ज़्यादा बताना।

तो जब आप कोशिश करें, जैसा कि आप में से कई लोग करेंगे या कर चुके होंगे — दूसरों तक अध्यात्म को ले जाने की, तो याद रखिए कि पहला चरण उसमें सदा दर्शन का होता है। दर्शन से ही मिलता-जुलता शब्द है 'आदर्श'। जिसको देखने भर से दर्शन हो जाएँ — ये वास्तविक अर्थ है 'आदर्श' का। तो पहली बात यही है कि आप ऐसे हो जाओ कि आपको देखने भर से उनको दिखाई दे जाए कि कुछ तो हुआ है। और ये जो हुआ है, जो परिवर्तन है; ये वास्तविक होना चाहिए। ये प्रदर्शन की बात नहीं है। दर्शन की बात तो है पर प्रदर्शन की बात नहीं है, कि दिखाने भर के लिए कुछ और हो लिये।

आपने अध्यात्म बताना चाह रहे हो न, सांसारिकता तो वो पहले से ही जानते हैं खू़ब। और जो संसारी है वो झूठ, छ्ल-कपट तो जानता है। ये सब मत करना। वो पहचान भी लेंगे, पकड़ भी लेंगे और फिर खूब हँसेंगे, अध्यात्म के नाम पर। तुम जो उन्हें दिखाओ वो वास्तविक होना चाहिए। अनपेक्षित होना चाहिए, अनायोजित होना चाहिए, तात्कालिक होना चाहिए। वास्तविक हो अगर तुम, तो ऐसा होगा कि तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि तुमने क्या दिखा दिया और दूसरा देख भी लेगा; थोड़ा अचम्भित भी रह जाएगा। और उत्सुक भी हो जाएगा — बात क्या है? ये पहला चरण है।

फिर दूसरा चरण होगा कि वो खुद ही धीरे से टटोलेंगे। हौले से पूछेंगे कि चल क्या रहा है? अब तुम्हारा सक्रिय काम शुरू होगा। अब तुम्हें सक्रियता से और बुद्धिमता से बताना होगा कि क्या चल रहा है। जल्दबाज़ी, हड़बड़ाहट — ये शान्ति के कामों में नहीं चलते। जन्मों की मैल होती है। बहुत-बहुत पुराने संस्कार होते हैं। किसी के अतिशीघ्र नहीं घुल जाने वाले। समय लगता है, धैर्य लगता है।

ये आग्रह कि मिला है या जाना है तो सबसे पहले घरवालों में ही बाटूॅंगा, कोई बहुत उपयोगी या सात्विक आग्रह नहीं है। घरवाले तुम्हारे निकट रहते हैं, कोशिश करो कि वो जान जाएँ, समझ जाएँ। पर जैसा हमने अभी कहा कि बात पुरानी है, समय लम्बा लग सकता है; तो तब तक तुम प्रतीक्षा थोड़े ही करते रहोगे; तब तक औरों में बाॅंटो। ये भी देह से तादात्म्य रखने का ही फल है कि हम कहते हैं कि कुछ मिला है तो घर वालों को ही बाटूॅंगा।

घर वालों को बाॅंटने से मैं मना नहीं कर रहा। पर मैं कह रहा हूॅं कि यदि अभी घर में न हो समुचित स्थिति; तुम घर में प्रयास कर भी रहे हो और पा रहे हो कि बात बन नहीं रही। तो न तो हतोत्साहित हो जाने की ज़रुरत है और न ही काम रोक देने की। भला होता कि अगर घरवाले भी सुन लेते। पर अगर वो अभी नहीं सुन पा रहे, तो पड़ोसी को सुनाओ न। पड़ोसी भी नहीं सुन पा रहा तो और चार घर छोड़कर जो रहता है उसको सुनाओ। वो भी नहीं सुन पा रहा तो दूसरे मोहल्ले वाले को सुनाओ।

श्रोता: वो पूछते हैं कि घरवाले समझ गये हैं कि नहीं। वो पहला प्रश्न होता है।

आचार्य: किसी ऐसे को सुनाओ जो ऐसा सवाल न पूछे। सब नहीं यही प्रश्न करेंगे। आप बात समझ रहे हैं न? हम किन्हीं दायरों में रहते हैं। उन्हीं दायरों में रहते-रहते वैसा हमारा चित्त है और वैसे हमारे विचार हैं और संस्कार हैं। कैसे हैं? और उन्हीं विचारों और भावनाओं और वृत्तियों से परेशान होकर हम अध्यात्म की ओर गये थे। ठीक? ऐसा ही है न?

अध्यात्म की ओर तुम गये ही क्यों? क्योंकि जैसा जीवन चल रहा था उसमें कहीं कुछ उलझन थी। अब जैसा जीवन चल रहा था, वो तो एक छाया थी या प्रतिबिम्ब था, उस माहौल का जिसमें जी रहे थे। ठीक? जिस दायरे में जी रहे थे, उस दायरे में जीने के कारण ही उलझन थी इसलिए अध्यात्म की ओर गये। अब अध्यात्म से जो सीख मिली है; उसको, उसी दायरे में बाॅंटना चाहते हो। पर वो दायरा है ही क्या? — जिसने तुम्हें सुलझाव नहीं, उलझाव ही दिये थे।

ये हम क्यों भूल जाते हैं कि हमारे उलझाव और हमारा सामाजिक दायरा बड़ी मिलती-जुलती चीज़ें हैं? जिसका मन जैसा होता है उसका जीवन वैसा ही होता है। जैसा मन, वैसा जीवन, वैसी संगत, वैसा कर्म, वैसा रोज़गार, वैसा व्यापार। ये सब बातें देख रहे हो न, एक जैसी ही होती हैं। इन्हीं को लेकर के क्या था? उलझाव।

अब सुलझने के कुछ सूत्र मिले हैं, तो उसको तत्काल इन्हीं लोगों में बाॅंटना चाहते हो। तो ज़ाहिर सी बात है कि विरोध तो मिलेगा न। तुम सुलझाव को किस तक ले जाना चाहते हो तुरन्त? वो जो उलझाव के ही कारण हैं, जो उलझाव के ही दायरे में हैं।

करुणा की बात ये है कि वो उलझाव के दायरे में हैं। तो वो खुद भी दुःखी और त्रस्त हैं, तो उन्हें भी समाधान चाहिए। समाधान उन्हें चाहिए लेकिन अभी उनको अध्यात्म से उम्मीद नहीं है कि समाधान मिलेगा। त्रस्त वो भी हैं, दुःखी वो भी हैं; लेकिन वो ऐसा तो नहीं मान रहे न कि उनके भी दुःख का निवारण अध्यात्म में है। अगर वो दुःखी हैं तो कहते हैं, ‘थोड़ा पैसा और आ जाए तो दुःख कम हो जाएगा या थोड़ी सफलता और मिल जाए तो दुःख कम हो जाएगा।’ यही उन्होंने तुम्हें भी सिखा रखा था, इसीलिए तुम परेशान थे।

अब तुम्हारे जीवन में नया अध्याय शुरू हुआ। तुम्हारे जीवन में शुरू हुआ है, उनके जीवन में तो नहीं हुआ। तो उन तक जब ले जाओगे अपनी बात, तो या तो उनकी ओर से उपेक्षा मिलेगी या हो सकता है विरोध। तो इसीलिए अगर पाओ कि अपने निकट दायरे में समर्थन नहीं मिल रहा तो उस दायरे से थोड़ा बाहर निकलकर कोशिश करो। जो आग्रही है, जो सुपात्र है, जो सुनने को तैयार बैठा ही है, उस तक अपनी बात को पहुॅंचाओ न। उस बेचारे ने क्या अपराध किया है कि तुम उसकी मदद नहीं करना चाहते।

ये हमारी ज़िद भी खूब रहती है कि अध्यात्म से सीखा है, अब तो बाॅंटना है , बहुत बाॅंटना है। अच्छा! किसमें बाॅंटना है? ‘पति में बाॅंटना है, देवर में बाॅंटना है, बेटे में, बेटी में, सास में और देवरानी में।’ लेओ! ये कौनसा बाॅंटना है? इनको बाॅंटने से मैं मना नहीं कर रहा हूॅं। कोशिश करिए सर्वप्रथम इनको ही बाॅंटने की। पर फिर आप ही लौटकर के आते हैं, कहते हैं कि ये लोग तो मेरी सुन ही नहीं रहे। जब दिख जाए कि अभी नहीं सुन रहे, अभी इन्हें थोड़ा और समय लगेगा। तो मैं कह रहा हूॅं कि हतोत्साहित होकर के, घबराकर रुक मत जाइए।

ये लोग नहीं सुन रहे तो, अरे! उनको सुनाओ न जो सुनने को तैयार हैं। तो सुनाने का तुम्हारा भी थोड़ा फिर अभ्यास होगा। तुम भी फिर सुनाने और दर्शाने की कला में थोड़े प्रवीण होओगे। घरवाले भी देखेंगे कि हमने तो सुना नहीं और बाहर वालों को ये सुना आया। उनमें भी थोड़ी फिर स्पृहा जगेगी। पूछेंगे, ‘अरे, कौन है भई? तुम्हारी सुन रहा है।’

अभी एक दिन मुझे बोधस्थल में कोई कह रहा था, एक फ़िल्म आयी है 'गली ब्वॉय'। तो उसमें जो केन्द्रीय किरदार है, उसका पिता उसकी प्रतिभा इत्यादि को कोई महत्व नहीं देता। पिता भी उसकी तब सुनता है जब वो जाकर दिखाता है कि देखो यूटयूब पर एक मिलियन हो गये। तो कई बार घरवाले भी तुम्हारे तभी सुनेंगे जब बाहर दो-चार हो जाऍंगे। तब घरवाले कहेंगे, ‘अरे! सुननी चाहिए। कुछ बात है।’

रुक मत जाना। घरवालों के प्रति पूरी सहृदयता रखो। देखते रहो कि वो कब तैयार हो रहे हैं, कब उनके लिए सही समय आ रहा है। लेकिन उतने समय तक अपने प्रयत्न रोक मत दो। जो पानी पीने को तैयार हो, जो प्यासा हो; उसको पिलाओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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