आचार्य प्रशांत: ऐसों से बचना जो मिलते ही ये कहते हैं कि चल यार, वीकेंड (सप्ताहान्त) पर पीते हैं। ऐसों से बचना जो जब तुमसे मिलने आते हैं तो तुम्हारे लिए साथ में गलौटी कबाब लेकर आते हैं, बचना। ये तो आया ही है देह का सुख साथ लेकर के। जो तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे रहा है और साथ में क्या है उसके? कबाब का झोला। वो तो आया ही है देह को सुख देने के लिए, ये निश्चित रूप से मन को गन्दा करेगा।
'हें हें हें, लीजिए काजू की बर्फ़ी।' इनसे बहुत बचना। या बाहर एक डब्बा बना दो, ‘मिठाई का डब्बा यहाँ रखकर वापस चले जाएँ। सीसीटीवी में अपनी शक़्ल छोड़ जाएँ और स्कैनर में अँगूठे का निशान। आप वैसे भी नेटवर्किंग करने आये थे, वो हो गयी। पता चल गया कि आये थे। डब्बा वहाँ डाल दो टोकरे में, हम रिसाइकिल करा देंगे।'
दीवाली पर या तो कोई ऐसा हो जो तुम्हें काजू की बर्फ़ी देने आए, और कोई ऐसा होगा जो तुम्हें राम देने आएगा। जो राम देने आएगा न तुमको, पक्का समझ लो कि वो काजू की बर्फ़ी साथ लेकर नहीं आएगा। और जो काजू की बर्फ़ी साथ लेकर आया है वो रावण का ही एजेंट है। घूम रहा है दिवाली पर 'जय सिया राम' करता।
रामचन्द्र का वृत्त हिंदुस्तान को बहुत पसंद रहा है न? उन्होंने क्या चुना था, देह का सुख? बोलो। राजा ने बोला तो राज्य त्याग दिया और प्रजा ने बोला तो पत्नी त्याग दी। और दोनों ही जगह उन्हें त्यागने की कोई ज़रूरत नहीं थी और दोनों ही जगह देह का सुख होता है। दशरथ जो बात कर रहे थे वो अन्याय की थी, चाहते तो सीधे मना कर सकते थे, प्रजा उनके साथ थी और राज्याभिषेक होने वाला था, प्रजा बहुत चाहती थी। चाहते तो हथिया लेते और दशरथ को भी आपत्ति नहीं होती, वो ख़ुद ही उतर जाते, कहते 'ठीक है, भला करा तूने जो मेरी बात नहीं मानी।'
इसी तरह से एक साधारण व्यक्ति, प्रजा का, कपड़े धोने का काम करता था। उसने कुछ बोल दिया, कोई ज़रूरत तो नहीं थी कि कहते कि सीता, तुम जंगल जाओ, कोई ज़रूरत नहीं थी। प्रेम था सीता से, सीता वैसे ही चौदह साल स्वेच्छा से उनके साथ जंगल में रहकर आईं थीं और गर्भ से थीं। कोई ज़रूरत नहीं थी कि सीता जंगल जाओ।
तो दीवाली, मुझे बताओ, राम की अगर घरवापसी का त्यौहार है तो क्या शारीरिक सुख का त्यौहार हो सकता है? जिन राम ने ख़ुद कभी शारीरिक सुख को प्रधानता नहीं दी, उनकी दीवाली पर आप काजू की बर्फ़ी बाँट रहे हो। दीवाली तपस्या का त्यौहार होना चाहिए या बर्फ़ी-जलेबी का? बोलो। पर तपस्या तो कोई करता नज़र नहीं आता। यहाँ दुकानों में भीड़ लगी हुई है, शॉपिंग मॉल्स में मार-पिटाई चल रही है। ये राम के स्वागत की तैयारी हो रही है, शॉपिंग मॉल जा-जाकर? बोलो।
पर नहीं, आप भी खड़े हो जाएँगे, 'हें, हें, हें, मिसिज़ टंडन आई हैं। हें, हें, हें, बहुत सारा लड्डू लाईं हैं, हें, हें, हें।' सारे लड्डू मिसिज़ टंडन के ही मुँह में घुसेड़ दो। एक-सौ-पाँच किलो की वैसे ही हैं, एक-सौ-पन्द्रह की होकर लौटें। बोलो, 'खा, मोटी! सब तू ही खा, जो लायी है।' यही कर लिया करो कि दिवाली से दो हफ़्ते पहले जंगल चले जाओ और कहो, 'वो चौदह साल रह सकते थे, हम चौदह दिन तो रह लें। और फिर जिस दिन वो लौटे थे अयोध्या, उसी दिन हम भी लौटेंगे घर अपने।'
तुम चौदह दिन नहीं रह पाओगे। उस दिन आपके मन में श्री राम के प्रति वास्तविक सम्मान जाग्रत होगा। जब पता चलेगा कि चौदह दिन भी — आज के समय में भी जब जंगल बचे नहीं हैं, बस घास-फूस-झाड़ी रह गयी हैं। झाड़ वाले जंगल में भी चौदह दिन रहना कितना असम्भव होता है, वो उस समय चौदह साल जंगल में थे। और कोई स्टेन-गन नहीं थी उनके पास, पुराने तरीक़े का धनुष-बाण। कैसे जिए होंगे?
अभी तो बहुत गौरवशाली गाथा कि ऐसा कर दिया, वैसा कर दिया, फ़ौज बना दी, ये करा, वो करा। शबरी मिल गयी, अहिल्या को जीवन दे दिया, शूर्पणखा की नाक काट ली, इतने सारे राक्षस मार दिये। पूछो तो कैसे। तुम्हारे सामने तो अगर जंगल में सियार भी आ जाए, भागते पतन होगी, छुप नहीं पाओगे, और है कुछ नहीं सामने, बस सियार है, हालत ख़राब हो जाएगी। और तब कहाँ से वो जंगल में रक्षा कर पाये होंगे, सोचो तो।
चौदह दिन जंगल में ही रहे आओ, वो सच्ची दीवाली होगी। और जंगल से मेरा मतलब ऑर्गनाइज़्ड ट्रिप (आयोजित यात्रा) नहीं है कि जाकर जंगल ख़राब कर रहे हैं। वहाँ पॉलिथीन बिखरा दिया, पेड़-वेड़ काट दिये और जानवरों को परेशान किया, जो भी दो-चार जानवर बचे हों। कुछ समझ में आ रही है बात?
हमारा पूरा जीवन ही दैहिक सुख के इर्द-गिर्द घूम रहा है। मन के सुख को, जिसको आनन्द कहते हैं — शरीर का सुख कहलाता है सुख और मन का जो वास्तविक सुख होता है उसको कहते हैं आनन्द — आनन्द के प्रति हमने कोई मूल्य रखा ही नहीं है। कुछ नहीं। और उसका सबसे बड़ा प्रमाण हमारे क्या हैं? त्यौहार।
देख लो न, हर त्यौहार किसी ऐसे की याद में होता है जिसका जीवन जीने लायक़ था। जिसका जीवन ऐसा था कि अगर ठीक से देख लो तो जी साफ़ हो जाए। है न? हर त्यौहार किसी ऐसे की याद में होता है। और फिर देखो कि आप त्यौहार पर जो कुछ कर रहे हो वो क्या उस महापुरुष के जीवन से ज़रा भी मेल खाता है जिसकी याद में त्यौहार मना रहे हो? कोई मेल ही नहीं मिलेगा।
किसी से प्रेम हो जाए, और वो तुमको पहला तोहफ़ा लाकर दे परफ़्यूम (इत्र), पलक झपकते ग़ायब हो जाना। क्योंकि इस व्यक्ति का पूरा सरोकार किससे है? तुम्हारी देह से और देह की खुशबू या बदबू से, ये आदमी ख़तरनाक है तुम्हारे लिए। ये तुम्हें देह का सुख ही देना चाहता है; देह का सुख दे रहा है और देह का सुख माँगेगा। मन कैसा है तुम्हारा इससे उसको कोई मतलब नहीं।
दस साल पहले तक ऐसा हो जाता था कि कुछ लोग ग़लतफ़हमी में मुझे शादी-ब्याह या जन्मदिन इत्यादि पर बुला लेते थे। पिछले एक दशक में तो अब किसी ने ऐसी ज़ुर्रत करी नहीं है, लेकिन पहले कर लेते थे। तो मैं जाऊँ और मेरे पास देने को एक ही चीज़ हो — किताबें। और लोग बड़ा अपमान मानें, बड़ा अपमान। कह रहे हैं, 'शादी की एनिवर्सरी (सालगिरह) और तुम इतनी घिनौनी चीज़ ले आए, खलील जिब्रान की किताबें? धिक्कार है!' अब इतना उनकी कहने की हिम्मत नहीं मेरे सामने पर उनकी आँखों में ये बात नज़र आती थी। जैसे कोई आँखों से गाली दे रहा हो। कह रहे हैं, 'शादी की एनिवर्सरी पर खलील जिब्रान? डूब क्यों नहीं मरते? कुछ और लाना था न!' अभी क्या लाऊँ? लॉन्जरी (अंदर पहनने के कपड़े)? क्या चाहते हो?
फिर उन्हें समझ में आ गया धीरे-धीरे कि आदमी ऐसा ही है। ‘ये किताबें लाएगा और इस तरह की बकवास करेगा। ये साज़िश करके आता है, इसे हमारी खुशियाँ बर्दाश्त नहीं होतीं। यहाँ आकर अनाप-शनाप बोला करता है; शादियों में आकर के ये मौत के भजन सुनाना शुरू कर देता है।’ तो उन्होंने फिर बन्द ही कर दिया, 'बुलाओ ही मत इसको।'
बहुत आसान होता है जीवन में धोखे से बचकर रहना। अगर आपके मूलभूत आधार, बेसिक फ़िलोसॉफ़ी सही हों, आप तुरन्त समझ जाओगे कि ये चल क्या रहा है।
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