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याद रखने योग्य एक बात || (2020)

Acharya Prashant

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याद रखने योग्य एक बात || (2020)

भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च | अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ||

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् | जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ||

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी—इस प्रकार ये आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात् मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो! इससे दूसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा अर्थात् चेतन प्रकृति जान।

- श्रीमद्भगवद्गीता, (अध्याय ७, श्लोक ४, ५)

आचार्य प्रशांत: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, इनको आप जानते हैं, ये क्या हैं? पंचभूत हैं। कृष्ण पाँच पर नहीं रुक रहे, वो तीन और जोड़ रहे हैं — मन, बुद्धि और अहंकार। एक ही श्रेणी पर ला दिया, एक ही तल पर खड़ा कर दिया सबको। कह रहे हैं, "ये मेरी आठ अंगों वाली प्रकृति है।"

'अष्टांग', और कुछ आपको याद रहे न रहे, आठ अंगों वाली इस प्रकृति को याद कर लीजिए। इसको श्रीकृष्ण नाम देते हैं ‘अपरा प्रकृति’ या हीन प्रकृति। पाँच को नहीं, आठ को। आठ में क्या-क्या शामिल है? मन, बुद्धि, अहंकार। मन, बुद्धि, अहंकार किसके तुल्य खड़े हैं? मिट्टी, धूल, पानी, आग, हवा।

ये क्या कह गए कृष्ण! बुद्धि पर तो बड़ा नाज़ है आपको। हर चीज़ में दिमाग लगाते हैं, बात-बात में खोपड़ा घुमाते हैं। और क्या बता गए श्रीकृष्ण? ये जो तुम्हारा अहंकार है, चित्त है पूरा, मन, बुद्धि, अन्तःकरण के सब भेद, ये किस कोटि के हैं? पंचभूत ना बोलो, ऐसा लगता है कोई बड़ी दूर की, बड़ी शास्त्रीय, बड़ी महिमावान बात कह दी है; बोलो धूल, मिट्टी, कीचड़, हवा, पानी, आग, आकाश, पत्थर। अलग नहीं हैं, एक हैं।

और फ़िर कहते हैं कि ये सब तो प्रकृति ही है। और प्रकृति में भी ये कौनसी प्रकृति है? निचले तल की, अपरा। फ़िर कहते हैं कि एक दूसरी भी प्रकृति है, जिसको तुम पुरुष नाम से जानते हो, उसको वो कह रहे हैं ‘परा प्रकृति’।

गीता में बहुत कुछ है जो चमत्कारिक है। गीता में बहुत से श्लोक हैं जो गीता की पहचान ही बन गए हैं। पर श्रीकृष्ण के इस उद्घाटक वक्तव्य को अभी तक हम वो महत्व दे नहीं पाए हैं जिसका ये अधिकारी है। हमारी अज्ञानता है ये।

अगर हम समझ जाएँ जो बात यहाँ कृष्ण समझा रहे हैं, तो ये जो प्रश्नों का ढेर है ये बचेगा कहाँ? और जिसको हम संसार कहते हैं और संसार की समस्याओं का जो पूरा पहाड़ है, वो बचेगा कहाँ?

दोहराइए मेरे साथ, मन, बुद्धि, अहंकार क्या हैं? मिट्टी, और धूल, और पानी, आग और हवा, अर्थात् जड़ पदार्थ। जिसको आप चैतन्य समझ रहे हो, वो चैतन्य है ही नहीं, वो जड़ है बिलकुल, अपरा है वो। 'अ-पर' समझते हो? अभिन्न। किससे अभिन्न? जड़ से ही अभिन्न।

अब तीन कोटियाँ हो गईं, तीन श्रेणियाँ हो गईं। तीन श्रेणियाँ किसके लिए? ये 'किसके लिए' की बात बहुत महत्वपूर्ण है। मुझसे जब भी चर्चा करें तो ये पूछते रहा करें, स्वयं से भी और मुझसे भी – किसके लिए तीन श्रेणियाँ हैं? अहम् के लिए, आपके लिए, वो जो कहता है 'मैं', उसके लिए।

तीन श्रेणियाँ हो गईं। निम्नतम श्रेणी कौन सी हुई? अपरा प्रकृति। 'मैं' का काम क्या? साथी तलाशना। 'मैं' का काम क्या? जुड़ने के लिए कोई पहचान तलाशना। तो 'मैं' को तीन कोटियाँ उपलब्ध हैं जुड़ने के लिए, जिसमें से निम्नतम है अपरा प्रकृति। 'मैं' जुड़ सकता है आग से, पानी से, मन, बुद्धि, अहंकार से।

उससे ऊपर की कोटि है परा प्रकृति। परा प्रकृति है दृष्टा मात्र होना; जुड़ना नहीं, दृष्टा मात्र होना। अलग हो गए, पर हो अभी भी प्रकृति। देखना भी काम किसका है? प्रकृति का। जिसको अवलोकन कहते हो, वो भी साक्षित्व नहीं है, वो भी काम किसका है? प्रकृति का। बस वो ज़रा ऊँचे दर्ज़े की प्रकृति है तो उसको नाम दे दिया परा प्रकृति।

श्रीकृष्ण के देखे पुरुष कोई है ही नहीं। एक ही पुरुष है, उसका नाम है कृष्ण। बाकी सब प्रकृति-ही-प्रकृति है। जिसको आप प्रकृति बोलते हो, वो तो प्रकृति है ही, जिसको आप पुरुष बोलते हो, वो भी प्रकृति-मात्र है। पर आप चूँकि प्रकृति-पुरुष का खेल चलाते हो तो श्रीकृष्ण कहते हैं कि “देखो, हैं तो दोनों ही प्रकृति, पर चलो तुम्हारे लिए एक को कह दो अपरा प्रकृति और एक को कह दो परा प्रकृति।“

तो 'मैं' का दूसरा ठिकाना है परा प्रकृति और 'मैं' का तीसरा ठिकाना है? कृष्ण-मात्र, कृष्ण-तत्व, जिसको सत्य कह लो, जिसको कृष्णत्व कह लो, जिसको आत्मा कह लो, जिसको ब्रह्म कह लो, और बुद्ध में आस्था हो तो जिसको कह दो 'कुछ नहीं', शून्य-मात्र, मौन।

'मैं' को जुड़ने के लिए तीन कोटियाँ अर्थात् तीन विकल्प उपलब्ध हैं, बोलो कौन-कौन से? निचला सबसे अपरा प्रकृति। अपरा प्रकृति में क्या-क्या आ गया? पंचतत्व आ गए तुम्हारे और साथ में वो आ गया जिससे तुम हमेशा ही जुड़े रहते हो, मन, बुद्धि, अहंकार।

उससे ऊँचे उठे तो 'मैं' किससे जाकर जुड़ सकता है? साक्षी नहीं, दृष्टा से। उस दृष्टा को कृष्ण क्या कह रहे हैं? परा प्रकृति। उसमें कम-से-कम इतना वैराग्य तो आया है कि वो जड़ को जड़ की तरह देख पाता है, मन को मन की तरह देख पाता है, कह पाता है कि "बुद्धि काम कर रही है", यह नहीं कहता कि "मैं काम कर रहा हूँ।" वो कह पाता है, “अरे, अहंकार को बड़ी चोट लग रही है”, ये नहीं कहता है कि "मुझे चोट लग रही है।“ पर ये कह पाना भी अध्यात्म का शिखर नहीं है। ये भी मात्र दूसरी कोटि है। उच्चतम कोटि तब है जब अहम् कृष्ण में ही, आत्मा में ही पूरी तरह से लीन हो जाए।

हममें से अधिकांश लोग किस तल पर वास करते हैं? हम बिलकुल निचले तल्ले पर रहते हैं। क्यों रहते है? ये भी समझ लीजिए, हमें दिखाई ही नहीं देता कि मन पत्थर है, हमें दिखाई ही नहीं देता कि मन पानी है, हमें दिखाई ही नहीं देता कि मन धुँआ और बादल है।

क्रांतिकारी वक्तव्य है श्रीकृष्ण का, जब वो मन, बुद्धि, अहंकार को भी धुँआ, बादल, पत्थर, पानी के तल पर रख देते हैं, जब वो तोड़ ही देते हैं हमारा भ्रम, तोड़ ही देते हैं हमारी धारणा कि हम चैतन्य हैं। हम चैतन्य नहीं हैं, हम पत्थर हैं। हम अगर अहम् के तल पर जी रहे हैं, मन के तल पर जी रहे हैं, बुद्धि के तल पर ही जी रहे हैं तो हम किसके तल पर जी रहे हैं? पत्थर और पानी के तल पर। तो फ़िर हमें अधिकार क्या है यह कहने का कि ‘पत्थर और पानी तो जड़ हैं और मैं चेतन हूँ’? पर हम ऐसा ही कहते हैं न?

नहीं, पत्थर और पानी माने क्या? पदार्थ। पदार्थों में क्या होती है? मात्र रासायनिक घटनाएँ, और वैसा ही हमारा हाल है। हम रसायन के तल पर ही तो जीते हैं। हम जिसको चेतन मान बैठे हैं, वो चेतन है ही नहीं। बुद्धि चेतन नहीं है, बुद्धि पदार्थगत है, बुद्धि पत्थर-पानी है, बुद्धि अणु-परमाणु का खेल है, बुद्धि कोशिकाओं में निहित सूचना है। बुद्धि चैतन्य कैसे हो गई, भाई?

समय वो दूर नहीं है जब तुम्हारे मस्तिष्क की सारी जानकारी को निकाल करके किसी हार्ड-डिस्क या किसी क्लाउड पर रखा जा सकेगा। ये क्या हो गया! मस्तिष्क की सारी जानकारी निकाल ली गई और उसको क्या कर दिया गया? स्टोर (संचित) कर दिया गया। सिद्ध हो गया कि नहीं कि तुम्हारे चित्त में जो कुछ है स्मृति रूप में, वो पदार्थ ही था? हार्ड-डिस्क को जीवंत बोलते हो क्या? कि ज़िंदा है, चैतन्य है, बोलते हो? तो वैसे ही ये मस्तिष्क है।

देखा है कभी कोई स्टोरेज-डिस्क गिर जाए कई बार तो उसकी स्मृति गायब हो जाती है, और तुम भी गिर जाओ कई बार खोपड़े के बल, लग गई चोट, तो क्या होता है? स्मृति गायब हो जाती है। दिखाई नहीं देता कि यहाँ मामला सारा पदार्थगत है? यही बात श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि सब एक है, भाई। ये पंचभूत ही हैं तुम्हारी मन, बुद्धि और अहंकार। इनमें भेद क्यों करते हो?

मत कहो कि तुम पंचभूतों के दृष्टा हो, कहो – पंचभूत ही है दृष्टा भी मेरा। पत्थर को देखने वाला भी पत्थर मात्र ही है, बस वो पत्थर से भी ज़्यादा बुद्धू है। पत्थर कम-से-कम खून के आँसू नहीं रो रहा है अपनी ज़िंदगी में, पत्थर को कुछ हानि-लाभ नहीं हो रहा है, पत्थर पत्थर है, संज्ञाशून्य। ये जो देखने वाला है, ये अपने-आप को संज्ञ मानता है, चैतन्य मानता है और खूब दुःख पाता है।

जो कुछ भी घटना घट रही हो आपके साथ, उसके साथ आप 'चेतना' शब्द ज़रा हटा दीजिए, लगाइए मत, और फ़िर देखिए कितना आसान हो जाता है सब कुछ। इसको एक सूत्र की तरह मानिए। नुस्खे या विधियाँ आमतौर पर मैं सुझाता नहीं या बताता भी हूँ तो बड़े सूक्ष्म और गुप्त तरीके से। आज बात प्रकट हुई जा रही है।

चढ़ रही है कामना, ज्यों ही ध्यान धरेंगे कि कामना नहीं चढ़ रही, ये कोई केमिकल (रसायन) है जिसका स्तर बढ़ रहा है और कुछ नहीं हो रहा, त्यों ही आप तीसरे तल से उठकर दूसरे तल पर आ गए। और तीसरे तल पर बने रहने का तरीका क्या है? कि कामना उठी और आपने कहा, "मुझे कामना उठी है।"

कामना सताती है? मोह सताता है? क्रोध सताता है? होता है ये सब? जो भी भावोदय हो रहा हो भीतर, मन की जो भी लहर आपको अपनी गिरफ़्त में ले रही हो, अगर उसकी गिरफ़्त में बने रहना है तो कहिए, "मुझे क्रोध आ रहा है, मुझे कामना आ रही है, मुझे भय आ रहा है।" जितना ज़्यादा आप कहेंगे, "मैं डरा हुआ हूँ”, उतना ज़्यादा जो भी हो रहा है, वो आगे बढ़ेगा। जो हो रहा है उसको अब आपकी ऊर्जा मिल गई, आपका समर्थन मिल गया।

और अगर उस सबसे हटना है, बचना है जिसके शिकार हम सब हैं तो कहिए, "ये जो भी कुछ हो रहा है, हवा, पानी, आग, मिट्टी है, पंचभूतों का खेल है। कोई रसायन है, भीतर कोई ग्रंथि है जो आज सक्रिय हो गई है। कल रात लगता है कि ऐसा कुछ खा लिया कि आज खून में किसी द्रव्य का अनुपात थोड़ा बढ़ गया है, और कोई बात नहीं है।"

चार घण्टे प्रतीक्षा कर लो, जिस भी चीज़ का स्तर बढ़ा है, थोड़ी देर में गिर जाएगा, सामान्य हो जाएगा। ये जो अभी आग उठ रही है कामना की, अपने-आप शांत हो जाएगी। क्योंकि आग आग जैसी है, आग में प्राण होते हैं क्या? आग में चेतना होती है क्या? आग का कोई 'मैं' होता है क्या? तो वैसे ही हमें भी जो आग उठती है, चाहे वो शोक की हो, चाहे हर्ष की हो, चाहे राग की हो, चाहे द्वेष की हो, वो आग मात्र है, उसमें 'मैं' कहीं नहीं है।

कुछ खाया है, कुछ पिया है, कुछ सूँघ लिया है, कुछ देख लिया है, कोई सूचना मिल गई है, कुछ पढ़ लिया है, इन्द्रियगत तल पर कुछ ऐसा हो गया है, भौतिक-पदार्थगत तल पर कुछ ऐसा हो गया है कि दूसरे पदार्थ सक्रिय हो रहे हैं कि निष्क्रिय हो रहे हैं, कि उनका घनत्व बढ़ रहा है, घट रहा है, जो कुछ भी हो रहा है पूरी तरीके से जड़ है, उसका 'मैं' से कोई लेना-देना नहीं।

जिसने ये नुस्खा पकड़ लिया और श्रद्धापूर्वक अभ्यास किया वो बहुत दूर तक जाएगा। जो हो रहा है वो बस हो रहा है; तुम्हें नहीं हो रहा है। बारिश हो रही है बाहर, बारिश हो रही है या तुम्हें बारिश हो रही है? तब तो आसानी से कह देते हो, "बारिश हो रही है", ये थोड़े ही कहते हो, "मुझे बारिश हो रही है", या ऐसे कहते हो? और भीतर भी तो बारिश होती है। भीतर बारिश होती है कि नहीं होती है? कभी भीतर बाढ़ होती है और कभी रेगिस्तान।

किसी दिन धूल का बवंडर हो तो तुम ये कहते हो, "मुझे धूल हो रही है"? तो किसी-किसी दिन ऐसा भी होता है न कि भीतर सब धूल-धूसरित ही हो जाता है? क्या है भीतर आज? बस धूल, रेत उड़ रही है, जलती हुई रेत, सब शुष्क। मरुता ऐसी कि फटने को तैयार। होता है न?

ये मत कहो कि “वो मेरे साथ हो रहा है”; वो बस हो रहा है। जैसे बाहर देखकर कह देते हो, "बस हो रहा है", वैसे ही जब तथाकथित तौर पर भीतर हो रहा हो तब भी यही कहो, "ऐसा बस हो रहा है।" ऐसा आनंद आएगा, अपूर्व, कभी स्वाद पहले नहीं चखा होगा।

बहुत-बहुत भीतर से दु:ख उठ रहा है, कष्ट, दर्द उठ रहा है, और तुम बस कह दो कि, “दुःख है, दर्द है ठीक वैसे जैसे बारिश है; मुझे नहीं है। बारिश मुझे नहीं है, दर्द भी मुझे नहीं है।“

अब तुम वो हो गए जिसे कृष्ण कहते हैं क्षेत्रज्ञ, क्षेत्र से तो ऊपर उठे। तुम कौन हो गए? क्षेत्रज्ञ। क्षेत्र से अब तुम्हारा तादात्म्य नहीं रहा, एका नहीं रहा। ये क्षेत्रज्ञ ही है जो आगे जाकर कृष्ण में समाएगा, कृष्ण को पाएगा। इसने क्षेत्र को तो जानना शुरू किया न? क्षेत्रज्ञ क्षेत्र का ज्ञानी हो गया।

क्षेत्र क्या है? निचला तल, वो है क्षेत्र। क्षेत्र माने एक फैलाव, एक विस्तार, संसार, समय और आकाश, उसको कहते हैं क्षेत्र। ज्यों ही उससे ऊपर उठे, दूसरे तल पर आए, दूसरा तल किसका था? दृष्टा का। प्रकृति के संदर्भ में? परा प्रकृति। वो जो वहाँ आकर बैठ गया, वो कहलाया? क्षेत्रज्ञ।

वो क्षेत्र को जान रहा है, पर दृष्टि अभी भी उसकी किस पर ही है? क्षेत्र पर। क्षेत्र को जानने लग गया, पर शांति उसे अभी भी नहीं मिलेगी। शांति पाने के लिए उसे ज़रा अपने ऊपर देखना पड़ेगा, और ऊपर देखेगा ही, वो उसकी मजबूरी है, क्योंकि अहम् को क्या चाहिए? साथी। वो जो निचले तल पर था उसको तो छोड़ आए। बीच के तल्ले पर बैठ गए हैं और वो भी अकेले। अब करोगे क्या?

जो नीचे बैठे हैं सब – कितने बैठे हैं नीचे? आठ, इस आठ से कितने हैं? आठ-सौ, आठ-सौ से कितने हैं? आठ-सौ करोड़, पृथ्वी की आबादी – तो जो नीचे बैठे हैं, वो तो अब सुहाते नहीं। दिख गया कि इनसे अब हमारा कोई लेना-देना नहीं। अब अकेले आकर बैठ गए हैं दूसरी मंज़िल पर। नीचे जा नहीं सकते तो कहाँ जाना पड़ेगा? ऊपर ही जाना पड़ेगा। ऊपर कौन बैठे हैं? महाराज ख़ुद बैठे हैं, हँस रहे हैं देखकर। जाओगे कहाँ?

बोलते हैं कि चार तरीके के लोग हैं जो मुझे भजते हैं। कौन-कौन? एक जो रोगी हों शरीर से, 'हाय, हाय! पीठ टूट गई है।' कह रहे हैं कि “ये मुझे बहुत भजते हैं, अर्जुन। ये ‘कृष्ण-कृष्ण’ करते ही रहते हैं।“ कहते हैं कि, “और कौन-से लोग हैं जो मुझे भजते हैं?” बोले, “जिनको कामनाएँ बहुत ज़्यादा हैं। ख़ुद ही कहते हैं, 'बीवी चाहिए, बच्चा चाहिए, सम्पत्ति चाहिए, यश चाहिए।' ये मुझे बहुत भजते हैं”, ये दूसरे तरीके के हैं जो ‘कृष्ण-कृष्ण’ बहुत करते हैं।

फ़िर कृष्ण कहते हैं कि एक तीसरे तरीके के हैं: मुमुक्ष, जो हैरान-परेशान हो गए हैं दुनिया से, कह रहे हैं, "मुक्ति दो, मुमुक्षा बहुत उठी है, मुक्ति चाहिए।" मुक्ति की तीव्र इच्छा का ही नाम होता है मुमुक्षा। ये वो हैं जो दुनिया के सताए हुए हैं, कह रहे हैं, "तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं, वापस बुला ले।" और फ़िर कह रहे हैं कि चौथे हैं ज्ञानी। ज्ञानी माने जिनके लिए अब कृष्ण के अलावा कोई ज्ञेय वस्तु रही नहीं, जिनका अब दुनिया के ज्ञान से मन आगे आ गया।

कृष्ण की भाषा में ज्ञानी वो नहीं जिसे दुनिया की बहुत ख़बर है, कृष्ण की भाषा में ज्ञानी वो है जो सिर्फ़ अज्ञेय से संबंध रखता है।

ये बात कितनी विरोधाभासी है! जिसे जाना नहीं जा सकता, जो उसे जान जाए सो हुआ कृष्ण का ज्ञानी। पर उसे जाना तो जा नहीं सकता, तो ये जान कैसे गए? उसको त्यागकर जिसके रहते जाना नहीं जा सकता था। किसके रहते नहीं जाना जा सकता था? अपनी हस्ती के, अपने वजूद के, अपनी अस्मिता के। अपनी अस्मिता के रहते नहीं जाना जा सकता था, बात बिलकुल ठीक थी। तो हमने उसको ही छोड़ दिया जो जानने में बाधा था।

जानने की ऐसी भूख थी, ऐसी ललक थी कि जो बाधा बन रहा था जानने में, उससे हमने कहा, 'अब तू हट, हमें जानने दे।' और जिसको हमने हटा दिया, उसका नाम क्या था? वो जो हमारा नाम है। वो जो था जो मेरा नाम लेकर चलता था, वही तो मुझे जानने नहीं दे रहा था उसको जो मैं हूँ। तो हटा ही दिया मैंने उसको जो मेरा नाम लेकर चलता था और जान गया उसको जो मैं हूँ – ये है ज्ञानी।

क्षेत्रज्ञ कौन हुआ? जो क्षेत्र से ऊपर उठ आया है, कुछ-कुछ मुमुक्षु के समतुल्य हुआ। दुनिया से ऊपर उठ आया है। दुनिया से ऊपर उठ आया है पर अभी भी वो ज्ञाता किसका है? याद रखना 'क्षेत्र-ज्ञ', 'ज्ञ' माने ज्ञान। जान वो अभी भी किसको रहा है? क्षेत्र को ही जान रहा है। दूर से जान रहा है, ऊपर वाली मंज़िल पर बैठकर जान रहा है, ऊपर से नीचे देख रहा है, पर देख अभी भी किसको रहा है? संबंध उसने अभी भी नीचे से ही जोड़ रखा है, बस ज़रा दूर का।

जब आप अवलोकन करते हैं तो आप किस तल से करते हैं? दूसरे तल से। जो लोग संस्था से कुछ दिनों से जुड़े हुए हैं, वो भली-भाँति जानते हैं कि अवलोकन क्या है। कितने लोगों ने लिखे हैं आज तक अवलोकन? कुछ लोगों को छोड़कर सभी ने, सभी जानते हैं। वो किस तल का काम हुआ? वो दूसरे तल का काम है।

अब लिखते, लिखते, लिखते, अभ्यास, अभ्यास, अभ्यास... एक स्थिति ऐसी भी आती है कि आप कहते हो, "जिसके बारे में लिखवा रहे हो, आचार्य जी, उसमें ऐसा रखा क्या है कि उसके बारे में लिखवा रहे हो? और जिसमें कुछ रखा है, जिसका कुछ मूल्य है, उसके बारे में तो कुछ लिखा जा नहीं सकता आपके इन व्हाट्सएप ग्रुप्स पर। जिसके बारे में आप लिखवा रहे हो, उसके बारे में लिखते-लिखते ऊब गए। जिसके बारे में आप लिखवा रहे हो वो कौन था? अरे, वो जो मेरा नाम लेकर चल रहा है।“

यतेंद्र (एक श्रोता) किसके बारे में लिख रहे थे लगातार? यतेंद्र के बारे में। यतेंद्र बोले, "ये यतेंद्र बहुत फूहड़ है, इसके बारे में लिखते-लिखते ऊब गया। इसके बारे में और लिखवाओगे तो निढाल हो जाऊँगा, यहीं ढुलक जाऊँगा। इसमें कुछ रस ही नहीं है। मेरा इससे ऐसा नाता टूटा है कि इसकी ओर देखने की मेरी कोई इच्छा नहीं होती।" इसका मतलब यह नहीं कि मुझे इससे कोई बैर है, कि द्वेष है; मुझे इससे बस ऊब है, अनिच्छा है, द्वेष नहीं है। राग हटा है, बैराग है।

अंतर समझना, मुझे यतेंद्र से घृणा नहीं हो गई है, बस इतना है कि पहले यतेंद्र से राग था, अब वैराग्य है। ये नहीं हुआ है कि पहले राग था, अब द्वेष है। मुझे कोई ग्लानि इत्यादि नहीं है, मुझे अपने ऊपर कोई चिढ़ नहीं है। मुझे स्वयं से कोई ग्लानि नहीं है, मुझे अपने ऊपर कोई शर्म इत्यादि नहीं आ गई है। मुझे बस स्वयं से अरुचि हो गई है; रुचि नहीं बची। किसी भी तरह की रुचि नहीं, राग भी रुचि है और द्वेष भी। ना मुझे राग की रुचि बची है, ना मुझे द्वेष वाली रुचि बची है।

'बस आचार्य जी, माफ़ करो, यतेंद्र की ओर देखने का अब मन नहीं करता। मुझे तो ये समझ में नहीं आता, आचार्य जी, आप कैसे यतेंद्र की ओर देखे ही जाते हो, देखे ही जाते हो। आपने उसको इतना देख लिया, बड़ी बात। हमसे अब नहीं देखा जाता, हमें माफ़ करो।' एक स्थिति वैसी आ जाती है। पर वो बहुत दूर की स्थिति है, उसकी आमतौर पर मैं चर्चा करता नहीं।

जो पहले तल पर बैठा हो, उससे तीसरे तल की बात करना उचित नहीं होता। जो पहले तल पर बैठा हो, उससे बात मैं लगातार किसकी करता हूँ? दूसरे तल की। तो मैं कहता हूँ, “अपने-आपको देखो, क्षेत्रज्ञ बनो, दृष्टा बनो।” दृष्टा रहे आए, रहे आए, रहे आए तो कौन जाने एक दिन इतने मिट जाओ कि साक्षी हो जाओ। याद रखना, तुम साक्षी नहीं हो जाओ, तुम्हारा मिटना साक्षी हो जाएगा। दोनों बातों में बहुत अंतर है।

अधिकांश लोग जो साक्षी की साधना करते हैं, इसीलिए असफल रहते हैं क्योंकि वो साक्षी हो जाना चाहते हैं। तुम साक्षी कभी नहीं होते, तुम्हारा मिटना साक्षित्व कहलाता है। हम चाहते हैं कि हम बने रहें और हमारा नाम हो जाए ‘साक्षी’। नहीं, नहीं, नहीं, तुम साक्षी कभी नहीं हो पाओगे।

कई लोगों ने साक्षी के बारे में बहुत बार प्रश्न करे हैं। साक्षी होना संभव ही नहीं है। साक्षी ना होना सम्भव है। अंतर समझना। जब आप नहीं हैं, जब कुछ भी नहीं है तो साक्षित्व मात्र है। जब तक कुछ भी चल रहा है, तब तक या तो दृष्टा हैं आप या सहभागी हैं, प्रतिभागी हैं। साक्षी कहाँ से हो गए?

साक्षी वो जिसकी कुछ देखने में भी रुचि नहीं। क्षेत्रज्ञ को या दृष्टा को साक्षी नहीं कहते। जब आपकी देखने में भी रुचि ना बचे तो हुए आप साक्षी। तो साक्षी कौन? यह ना कहो कि ‘वो जो सब कुछ देखता है वो साक्षी’, कहो कि ‘जो कुछ नहीं देखता है वो साक्षी’।

हमारी प्रचलित परिभाषा क्या है? – जो सब कुछ देखे वो है साक्षी। साक्षी वो जो कुछ नहीं देखे। साक्षी वो जिसकी आँखें बंद हो गई हैं या कम-से-कम आधी बंद हो गई हैं। जैसे किसी कबीर की, किसी नानक की, किसी बुद्ध की, वो हुआ साक्षी। उसको दिख ही नहीं रहा; उसको अरुचि हो गई। वो नहीं आँखें फाड़-फाड़कर देख रहा ऐसे।

देखा है जब कोई बहुत उत्सुक हो जाता है किसी विषय में तो कहते हो, 'ये दीदे फाड़-फाड़कर क्या देख रहे हो?' कहते हो कि नहीं कहते हो? तो संसार में लिप्तता का प्रमाण हैं अतिसक्रिय इन्द्रियाँ। आँखें फाड़कर देख रहे हैं, या खरगोश के कान, ये संसार में लिप्तता का प्रमाण है, 'चल क्या रहा है?' साक्षी वो जिसे कोई मतलब ही नहीं कि चल क्या रहा है। अरे, चल रहा होगा जो चल रहा है, हम वहाँ हैं जो अचल है, जो कभी चलता ही नहीं।

तीसरे तल की छोड़ दो, दूसरे तल की बात समझ में आ रही है?

हम पहले पर क्यों फँसे हुए हैं? हमने तीन और पाँच में भेद कर दिया है। तुम फँसे इसलिए हो क्योंकि तुम तीन को पाँच से अलग समझते हो। और तीन और पाँच? फ़िर से दोहराओ, तीन और पाँच?

श्रोतागण: एक हैं।

आचार्य: अध्यात्म माने तीन बराबर?

श्रोतागण: पाँच।

आचार्य: तीन और पाँच को अलग-अलग नहीं देखना है। (सामने के खम्भे की ओर इशारा करते हुए) ये खम्भा नहीं है, ये क्या है? अरे, ये मेरी अकड़ है। भीतर की जड़ता को बाहर की जड़ता से भिन्न नहीं मानना है। ये आठों एक हैं, भाई। तीन और पाँच को अलग-अलग मत समझना, ये आठों एक हैं। तीन बराबर पाँच।

हमारी ग़लती यह है कि हम तीन और पाँच को अलग-अलग मानते हैं। हम इसको खम्भा मानते हैं और स्वयं को इंसान मानते हैं। हम भी खम्भा ही हैं, चलता-फिरता खम्भा।

तो वो जो बाहर है वो कीचड़, वो कीचड़ क्या है? भेजा है मेरा। और ये बात काव्यात्मक नहीं है, ये बात तथ्यात्मक है। वो भी जड़ है, ये (मस्तिष्क) भी जड़ है, दोनों में ही कोई चेतना नहीं है। मस्तिष्क की किसी गतिविधि में चेतना नहीं है।

चिकित्सा-शास्त्र आपको बताता है कि चेतना का निवास मस्तिष्क में है। अध्यात्म आपको बताता है कि मस्तिष्क जड़ है। जड़ माने पत्थर, जड़ माने मशीन, जड़ माने हवा-पानी, जड़ माने पंचभूत। तो चिकित्सा-शास्त्र आपको बता देगा कि मस्तिष्क में कौन बसती है? चेतना। श्रीकृष्ण तुमसे कह रहे हैं कि मस्तिष्क में चेतना नहीं बसती, मस्तिष्क भी ठीक वैसा ही है जैसे सामने पड़ा पत्थर।

तुम्हारे शरीर में बहुत कुछ है, जैसे बाकी सब कुछ है, वैसे ही मस्तिष्क है। तुम अपने थूक को चैतन्य बोलते हो क्या? तो मस्तिष्क में बह रहे रक्त को चैतन्य क्यों कह रहे हो? वहाँ भी तो बिना रक्त के कोई काम नहीं होगा, कि होगा? मस्तिष्क जो कुछ भी है, सबसे ज़्यादा उसमें क्या है? रक्त। रक्त चैतन्य होता है क्या? नहीं होता न। मस्तिष्क भी चैतन्य नहीं है। जब मस्तिष्क चैतन्य नहीं तो मस्तिष्क से संबंधित जो भी तुम्हारे उद्वेग हैं, संवेग हैं, वो चैतन्य कैसे हो गए? बुद्धि चैतन्य कैसे हो गई? भावनाएँ चैतन्य कैसे हो गईं?

डकार मारते हो तो ये कहते हो क्या कि ‘जो हुआ अभी, वो बड़ा मूल्यवान था’? वो तो तुम कहते हो कि शारीरिक घटना है, है न? शारीरिक घटना है न? शारीरिक घटना है। पेट में गैस बढ़ गई तो मुँह से डकार आ गई। ठीक वैसे ही आँसू हैं, मात्र शारीरिक घटना है। भावों में कोई चेतना नहीं।

ये बात सुनने में बड़ी बुद्धि-विरुद्ध लगेगी, पर बुद्धि तो ख़ुद ही जड़ है। कोई बात नहीं, बुद्धि-विरुद्ध हो कोई बात तो होती रहे, हमें क्या लेना-देना? डकार मारकर कभी कहते हो क्या कि ‘कोई बड़ी विशिष्ट घटना घटी है’? नहीं कहते न? तो वैसे ही तुम्हें प्रेम लगता हो, मोह लगता हो, मत कहा करो कि कोई विशिष्ट घटना घटी है। ये क्या है? डकार।

पर हम अजीब लोग हैं। डकार की तो हम उपेक्षा कर देते हैं; हम चाहते हैं कि हमारे तथाकथित प्रेम या मोह का आदर किया जाए। कर दूँगा, पर फ़िर मैं तुम्हारी डकार की भी पूजा करूँगा। कोई हमारे सामने डकार मार दे, हम पर आमतौर पर कोई प्रभाव पड़ता नहीं। पड़ सकता है अगर सामने जो बैठा है उसे तुम प्रेमी या प्रेमिका मानते हो, फ़िर तो बहुत पड़ सकता है। 'जानू ने डकार मार दी।' लेकिन तुम्हारे सामने कोई रो दे तो तुम पर बड़ा प्रभाव पड़ जाता है, पड़ जाता है न?

माथे से तुम्हारे पसीना छलकता है तो कहते हो क्या कि “अरे, देखो, कुछ ख़ास हो रहा है”, कहते हो? तो आँखों से आँसू छलकते हैं, उसको खास क्यों मानते हो? श्रीकृष्ण समझा रहे हैं कि इसीलिए फँसे हुए हो, और कोई वजह ही नहीं है तुम्हारे फँसने की, तुमने पसीने और आँसू को अलग-अलग मान लिया।

तुम जड़ को चेतन माने बैठे हो। जो आठ एक हैं, उनमें से तीन को तुमने चैतन्य मान लिया है, उनमें से तीन को तुमने परा मान लिया है, वो आठों एक हैं। तुम गड़बड़ यह कर रहे हो कि तुम पाँच को तीन से अलग समझ रहे हो। वो तीन भी पाँच जैसे ही हैं, बिलकुल पाँच ही हैं वो। तुम इसीलिए फँस रहे हो क्योंकि तुम तीन को पाँच से अलग देख ही नहीं पा रहे।

जिसने उस तीन को पाँच जैसा देख लिया, उसके तीन शुद्ध हो जाते हैं और पाँच को वो ठिकाने लगा देता है। तीन शुद्ध हो जाते हैं और पाँच को वो पाँच की जगह पहुँचा देता है।

पत्थर है, पत्थर की औक़ात में रह। तू पानी है, अमृत नहीं हो गया। जड़ है, जड़ की जगह रह, चैतन्य नहीं हो गया तू। आँसू बह रहे हैं, तुम कहोगे “हैं क्या ये? पानी।“ पर हमारी संस्कृति, हमारी शिक्षा, इन्होंने हमें क्या सिखाया है? आँसुओं को बड़ा भाव देना। भीतर से कामना उठी, हम उसको नाम क्या दे देते हैं? प्रेम का। पाँच को तुरंत तीन से अलग कर दिया। तीन को उठाकर हम किस दर्जे पर रख देते हैं? हमें श्रीकृष्ण बता रहे हैं कि तीन किस दर्जे के अधिकारी हैं? निचले, थर्ड क्लास , वो अधिकारी किस तल के हैं? तृतीय तल के, तीसरे दर्जे के, और हम उनको दर्जा कौनसा दे देते हैं? दूसरा तो दूसरा है, आशिक़ लोग पहला दे देते हैं।

आशिक़ लोग तो जो बिलकुल निचले तल्ले की चीज़ होती है उसको आसमान की चीज़ बना देते हैं, कहते हैं कि ‘परम-प्रेम हुआ है मुझे’। उन्हें समझ में ही नहीं आता कि तुम्हें जो हो रहा है, वो क्या था? मिट्टी, पानी, कीचड़, आग। उसको तुमने पूजना शुरू कर दिया। साधारण झाड़ में आग लगी थी, उसको तुमने जीवन की ज्योति बना लिया। साधारण झाड़ की आग है, जीवन की ज्योति नहीं है। झाड़ की आग को जीवन की ज्योति नहीं कहते। झाड़ में आग तो लगेगी ही; गर्मी बहुत है और ग्लोबल वार्मिंग। झाड़ जले ना तो झाड़ कैसा? पर उसे तुम ज़िंदगी का प्रकाश मत समझ लेना।

जिसने ये कर लिया, वो पहले ही तल पर रह जाएगा। तीसरा छोड़ दो, दूसरे पर भी नहीं आ पाएगा। आओगे कैसे, भाई? तुमने तो पहले को ही बना दिया दूसरा भी और तीसरा भी। जिसने पहले को ही दूसरा और तीसरा समझने की भूल कर दी, वो कैसे आएगा कभी दूसरे और तीसरे पर, कि आ सकता है?

तीसरे दर्जे में सफर किया है, थ्री टियर में? उसमें ख़तरनाक बात होती है बहुत। वैसे ही उसको तीसरा दर्जा नहीं बोलते। उसमें ख़तरनाक बात ये होती है कि उसमें डब्बे के भीतर ही तीन तल्ले होते हैं। और मैंने अजब नज़ारा देखा है कि उसी डब्बे के तीसरे तल्ले पर जो बैठा हुआ है, वो अपने-आपको नीचे वालों से श्रेष्ठ समझ रहा है। ये हमारा हाल है! हम सब तीसरे तल्ले के खिलाड़ी हैं, पर तीसरे तल्ले में भी हम चढ़ गए हैं ऊपर वाले पर और हम सोच रहे हैं कि नीचे वालों से श्रेष्ठ हो गए। वो ऐसे नीचे देख रहे हैं बिलकुल तिरस्कार की दृष्टि से, कह रहे हैं, 'ये, घटिया लोग, छी!'

उन्होंने क्या किया है? उन्होंने किसी ऐसे को उच्चतम मान लिया है जो है तीसरे के ही तल का। बात समझ में आ रही है? हो तुम अभी तीसरे दर्जे में ही, लेकिन थोड़ा सा ऊपर चढ़ गए हो तो तुम्हें लग रहा है कि तुम पहले दर्जे में आ गए। ऊपर वाली बर्थ मिल गई है तो तुम सोच क्या रहे हो? कि शायद हम फर्स्ट एसी में आ गए। थर्ड टियर की ऊपर वाली बर्थ को तुमने क्या बना लिया? प्रथम वातानुकूलित। और कीमत अदा करी नहीं है। मैं तो वहीं पर आकर अटकता हूँ। दाम चुकाए हैं? दाम चुकाए नहीं तो क्यों सोच रहे हो कि पहले दर्जे में आ गए?

यही बात कृष्ण समझा रहे हैं। दाम तुमने चुकाए नहीं, और बातें तीसरे की। दाम चुकाने के समय तो ठन-ठन गोपाल, और बातें गोपाल की। गोपाल उनके लिए हैं जो दाम चुकाए।

अब मैं थोड़ी कड़ी बात कहूँगा, कहनी ज़रूरी है। घिसिएगा अपने हाथ को, गर्मी भी है, उमस भी है। देर तक घिसेंगे तो पाएँगे कि गर्म ही हो गया है और थोड़ा मैल होगा। हथेलियाँ भी ज़ोर से देर तक घिसते रहो तो थोड़ा मैल निकल आएगा। आबोहवा का असर है, क्या कर सकते हो? कितनी भी बार हाथ धोओ तो घिसोगे तो। इसे हम क्या कहते हैं? मैल।

मैल को ही कहा गया है 'रज', जानते हो? मैल के लिए ही पर्याय है ‘रज’। स्त्री और पुरुष के जननांगों से जो द्रव्य प्रवाहित होते हैं, उन्हें भी कहा गया है रज, शरीर का मैल। वही मैल हथेली पर है तो तुम्हें दिख जाता है कि मैल है, उसको तुम हटा देते हो, पर वही मैल जब संतान बनकर सामने आ जाता है तो तुम उसको तीसरे दर्जे का क्या, पहले दर्जे का स्थान देने लग जाते हो, है न? दिखाई ही नहीं पड़ता कि रज मात्र है और कुछ नहीं। “मैं किस चक्कर में पड़ रही हूँ?” तब समझ में ही नहीं आता।

कृष्ण की सलाह का उल्लंघन कर दिया न? वो कह रहे हैं कि तीन बराबर पाँच, और आपको लग गया तीन बराबर न जाने क्या। शरीर का साधारण, सामान्य उत्सर्जन है, जैसे पसीना, जैसे मैल, रज, रज मात्र है। पर बड़ा मोह का धागा जोड़ लिया। और जब पहले ही तल पर इतना मोह बैठा लिया तो दूसरे और तीसरे को तो भूल ही जाओ। भूल जाओ क्या, भूल जाते हो, भूल गए हो।

और इतना ही नहीं है, ये बात कितनी कठोर लग रही होगी। पर करूँ क्या? श्रीकृष्ण पर बोल रहा हूँ, जो बार-बार कहते हैं कि दो ही चीज़ें हैं जो तुम्हें मारे डाल रही हैं; एक अहंता और दूसरी ममता। और गुणों में उन्होंने सर्वोपरि बताया है निर्ममता को। कहते हैं “निर्मम हो, अर्जुन, उसके बिना कोई काम नहीं चलेगा।“ बीमारियों में उन्होंने ऊँची-से-ऊँची बीमारी बताई है ममता, और गुणों में उन्होंने सर्वोपरि बताया है निर्ममता को, मम् का भाव मत रखो। तो अगर श्रीकृष्ण साथ हैं तो उन्हीं की भाषा में कुछ बातें करनी पड़ेंगी। मुझे मालूम है वो थोड़ा कठोर लगेंगी।

पहले प्रश्नकर्ता के प्रश्न से आज हमने शुरुआत करी थी, अगर वो सुन रही होंगी तो समझ रही होंगी कि क्यों फँसी हुई हैं। बार-बार कह रही हैं, “दुनिया में सर्वत्र माया दिखाई देती है, श्रीकृष्ण क्यों नहीं दिखाई देते?”

यही प्रश्न दूसरे प्रश्नकर्ता ने पूछा है। भाई, जब निचले तल वाले को ही ऊपर का समझ लिया तो ऊपर वाले की सम्भावना खत्म हो गई न बिलकुल? हो गई कि नहीं हो गई? बोलो।

अपनी भावनाओं को, अपने विचारों को, अपने अहंकार को, अपनी बुद्धि को, अपनी योजनाओं को, इन सबको पाषाण जानो। पाषाण माने पत्थर। अपने भीतर के सारे शोर को, सारे कोलाहल को, सारी गतिविधि को मात्र रासायनिक प्रक्रिया जानो।

भीतर गुड़गुड़-गुड़गुड़ क्यों उठ रही है? कहाँ? पेट में नहीं, दिमाग में क्यों हो रही है? अरे, दो केमिकल (रसायन) जाकर मिल गए हैं, और कुछ नहीं हो रहा है। बहुत महत्व देने की ज़रूरत नहीं है। साहब कह रहे हैं कि आज शाम से ही जब से घटा गहराई है आकाश में, दिल ज़रा ग़मगीन है। ये ज़रूर कोई फोटोकेमिकल रिएक्शन (प्रकाश-रासायनिक प्रतिक्रिया) हुआ है।

जानते हो न, बहुत सारी रासायनिक प्रक्रियाएँ मात्र प्रकाश की उपस्थिति में ही हो सकती हैं, उनको क्या बोलते हैं? *फोटोकेमिकल रिएक्शन*। प्रकाश बढ़ता है तो प्रतिक्रिया हो जाती है और नहीं होता प्रकाश तो नहीं होती। उसके उलट भी होता है, प्रकाश हो तो नहीं होगी, अंधेरा कमरा हो तो हो जाएगी।

तो वैसे ही देखा है कई बार, होता है कि नहीं होता है? बिलकुल काली घटा घिर आई। उधर आसमान में काली घटा घिरी, इधर तुम्हारे भीतर फोटोकेमिकल हुआ, और लगे गाने, "लगी आज सावन की फ़िर वो झड़ी है, वही आग सीने में फ़िर जल उठी है।" अरे, ये फोटोकेमिकल काम चल रहा है, भाई। तुम किस चक्कर में फँस रहे हो?

अभी बादल छटेंगे, सूरज निकलेगा, तुमको फ़िर याद आ जाएगी पंसारी की दुकान, कहोगे, "भक्क, लौंग और धनिया तो रह ही गया।" और फ़िर वो जो तुम्हारी एक्स है, वो पीछे छूट जाएगी। "कुछ ऐसे ही दिन थे, कि जब हम मिले थे।" और देखा है, रात गहराते ही ऐसे-ऐसे विचार आने लगते हैं जो दिन में नहीं आते। तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा कि ये सारा खेल पदार्थ का है?

कई फूल होते हैं जो दिन में खिलते हैं, रात में बन्द हो जाते हैं। तुम्हें क्या लगता है, ये उनका 'मैं' है जो निर्णय कर रहा है? बोलो। उनकी अस्मिता निर्णय कर रही है क्या कि अब खिलना है, अब बन्द होना है? वो कैसे खिल रहे, कैसे बन्द हो रहे हैं? प्रकाश आया, रासायनिक प्रक्रिया हुई, वो खिल गए, और बन्द हो गए।

वैसे ही हमारा भी होता है। "बेला महका रे महका आधी रात को, दिल क्यों बहका रे बहका आधी रात को।" अरे, ये लोचा सनलाइट (सूर्य के प्रकाश) का है, और कुछ नहीं है। इसमें शायरी, आशिक़ी की कोई ज़रूरत ही नहीं है। ये बात समझ में नहीं आती। अभी हँस रहे हो, पर अभी जैसे ही बारह बजेंगे रात के, देखना, कहोगे, "आचार्य जी, अब थोड़ा सा जाने दो न।"

आम का पेड़ चार-पाँच साल का हो गया, फ़िर उस पर क्या लगे? फल। पहले ही साल से तो नहीं लग जाते, नहीं लग जाते न? और ये भी जानते हो कि यूँ ही नहीं लगते, वहाँ भी निषेचन की पूरी प्रक्रिया होती है। निषेचन समझते हो? क्या? पॉलिनेशन (परागण), फ़िर फर्टिलाइजेशन (निषेचन), सब पूरा होता है वहाँ पर। तो वहाँ तो तुम नहीं कहते कि आम के पेड़ ने तय किया है कि अब फैमिली (परिवार) बनानी है। कहते हो क्या कि आई एम प्लानिंग ए फैमिली नाउ, आफ्टरऑल आई एम् जस्ट ए मैंगो ट्री , अन्य आम वृक्षों की तरह अब मैं भी एक परिवार बनाना चाहता हूँ?

वहाँ तो बस आम लग जाते हैं, लटक जाते हैं, तुम तोड़ लेते हो, चूस लेते हो। तुम ये थोड़े ही कहते हो कि इसका परिवार ख़राब कर दिया मैंने या कि अब ये वंशहीन हो जाएगा। ऐसा तो कुछ नहीं करते। रस चूसा, गुठली उछाल दी, यही करते हो?

यही काम तुम्हारे साथ होता है। एक उम्र आती है, उसके बाद तुम्हारे भी आम तैयार हो जाते हैं। पर तुम मानते ही नहीं कि ये जो हो रहा है, ये उम्र का खेल है, रासायनिक है बिलकुल आम की तरह। तब तुम्हें आम, आम और गुठली, गुठली नहीं नज़र आते। तब तुम्हें लगता है जन्नत का छत्ता है, उसमें से शहद बरस रहा है। तब तुम शायरी करते हो। ये शायरों ने बड़ी गड़बड़ कर रखी है, ऐसा-वैसा।

सबके साथ हुआ है न ऐसा? और जब वो सब कुछ हो रहा होता है तब बिलकुल नहीं समझ में आता कि अमराई है। अमिया है छोटी तो खट्टी है, थोड़ी देर में मीठी हो जाएँगी। ये सब पदार्थगत बात है। मीठा माने क्या? कुछ भी नहीं, सुक्रोज़ , *फ्रक्टोज़*। मीठा माने क्या? मीठा माने ना हर्ष, ना प्रसन्नता, ना प्रेम, ना परिवार। मीठा माने *सुक्रोज़*। ये बात हमें समझ नहीं आती, नहीं आती न?

मैं जब पहले कॉलेज जाता था, लड़कों से कहता था कि “बेटा, तुम इतना प्रेम-प्रेम करते हो, एक इंजेक्शन तुमको अभी लगा दें, तुम बिलकुल भूल जाओगे प्रेम को। तुम्हें प्रेम से कोई मतलब ही नहीं रहेगा, तुम कहोगे ‘ये चीज़ क्या होती है?’ क्योंकि वो खेल ही सारा थोड़े से रस का था।“ उस रस से तुमको विरस कर दिया अगर तो कोई प्रेम बचने नहीं वाला। और उसका विपरीत भी उतना ही सत्य है। जो रस तुमको अभी संचालित कर रहा है, उसी रस के तुम्हें दो इंजेक्शन अभी ठूँस दें, तो यहाँ जितनी लड़कियाँ हैं उन सबको बचाना मुश्किल हो जाएगा। उन्हें घेरकर बाहर ले जाना पड़ेगा, ऐसे उद्दंड होकर उछलोगे।

यहाँ बगल के कमरे में एक खरगोश सो रहा है। आज ही अनु (स्वयंसेवक) ने उसकी न्यूटरिंग (नपुंसक बनाने की प्रक्रिया) कराई है। बहुत उदास है। लेकिन उसकी उदासी बस आज की है। अब उसे याद ही नहीं रहना कि प्रेम इत्यादि क्या होता है।

हम सोचते हैं कि बात दिल की है, बात दिल की नहीं, बात पंचभूत की है। तो इन सब बातों को किसका दर्जा देना है? पंचभूत का ही, मिट्टी, पत्थर, पानी का ही। उससे ज़्यादा इन चीज़ों की हैसियत नहीं। यही श्रीकृष्ण का सूत्र है।

थोड़ा सा करके देखिए, प्रयोग करके देखिए। शिविर के इन कुछ दिनों में ही कम-से-कम ये प्रयोग करके देखिए।

मन में जैसे ही कुछ बढ़े, जैसे ही कोई भाव चढ़े, तत्काल कहिए, “ज़रूर ये रसायन बी.सी.डी. है।“ आप नाम नहीं जानते। हालाँकि अगर आप वैज्ञानिक हों और मस्तिष्क की संरचना में आपकी शिक्षा हो, तो आप ठीक-ठीक बता भी पाएँगे कि ये कौन सा केमिकल है जो अभी आप पर चढ़ रहा है। आप नाम समेत बता देंगे।

अभी आप नाम नहीं जानते लेकिन कोई फ़र्क नहीं पड़ता। जो भी केमिकल है, वो है तो केमिकल ही। तो आप कह दीजिए कि “ये ज़रूर जेसीके है”, तो अब जेसीके से बच गए आप। लेकिन उस जेसीके को आपने अगर कह दिया मोह, तो मारे गए।

किसी पर बहुत क्रोध आ रहा है, तुरन्त क्या बोलना है? “अरे, एसटीएस हो रहा है मेरा!” क्या हो रहा है? एसटीएस हो रहा है, एसटएस चढ़ा है, आधा-एक घण्टा लगता है, एसटीएस उतर जाएगा। आधा-एक घण्टा लगता है, इससे ज़्यादा लगता ही नहीं।

इच्छा की दुर्बलता ये है कि जैसे सब झूठ अनित्य होते हैं, इच्छा को भी तो अनित्य होना ही पड़ेगा न। तो वो आएगी अपने पूरे गतिबल के साथ, आवेग के साथ आएगी, बड़ा उसमें मोमेंटम (वेग) होगा और बड़ी ज़ोर की आपको वो लहर मारेगी थपेड़ा। एक बार झेल जाओ, बस, जीत गए। वो जो उसका एक थपेड़ा होता है, वो जीतना ही मुश्किल होता है। एक बार झेल जाओ, वो दुर्बल पड़ जाएगी। एक बार झेलने का ही अभ्यास करना है, इससे ज़्यादा कुछ नहीं करना है। यही सूत्र है।

याद रखना, इच्छा को तुम्हें मारने की ज़रूरत नहीं, वो अनित्य है, स्वयं जाएगी। इच्छा सत्य थोड़े ही है कि बनी ही रहेगी, बनी ही रहेगी। कोई इच्छा है जो बनी ही रहती है कभी? है एक भी इच्छा ऐसी? तो इच्छा का काम है लहर की तरह आना और लहर की तरह गुज़र जाना। तुम्हें बस यह करना है कि जब उसका थपेड़ा आए, एक बार को झेल जाओ।

कभी जाकर समुद्र की रेत में खड़े हुए हो? थोड़ा सा अन्दर समुद्र के, किसी बीच (समुद्रतट) इत्यादि पर हुए हो? लहरें आती हैं और थपेड़ा मारती हैं, और उसको झेल गए तो वापस लौट जाती हैं। फ़िर अगली आती है, फ़िर थपेड़ा मारती है। वो थपेड़ा बस झेलना है और उसको झेलने की भी विधियाँ होती हैं। जो लोग थोड़े अनुभवी तैराक हैं, वो जानते हैं कि कैसे झेलना है।

बस झेल जाओ, बह मत जाओ उसके साथ। उसके बाद सब आसान है। उसका प्रमुख हमला झेल जाओ। उस वक़्त ना तादात्म्य कर लो, ना विरोध कर लो। ना तादात्म्य कर लेना है और ना विरोध इत्यादि करना है। क्या करना है? खड़े रह जाना है। बस हो गया। सूत्र स्पष्ट हो रहा है?

उस खड़े रहने के क्षण में तुम प्रोन्नति कर जाते हो दूसरे तल पर। जिस क्षण तुमने लहर के साथ बह जाने से इन्कार कर दिया, ठीक उसी क्षण, देरी नहीं लगती, ठीक उसी क्षण तुम दूसरे तल पर पहुँच गए। लेकिन वापस आने का रास्ता अभी खुला हुआ है। अभ्यास अगर पूरा नहीं है तो दूसरे से फिसल करके फ़िर पहले पर। पहले से मतलब मेरा वही तीसरा, निचला। अभ्यास अगर पूरा नहीं है तो निचले तल से उठकर दूसरे पर पहुँचोगे और फ़िर गिर जाओगे।

जैसा कि कई लोग बताते हैं कि, "आचार्य जी, आपको सुनते हैं तो ठीक है, हफ्तेभर बाद तक भी ठीक है, और उसके बाद ढाक के तीन पात।" अभ्यास करना पड़ता है।

गीता में आरम्भ में ही श्रीकृष्ण कहते हैं अर्जुन से, "देख, अर्जुन, दो बातें हैं – वैराग्य और अभ्यास।” अभ्यास बिना काम नहीं बनेगा। जिसको श्रीकृष्ण अभ्यास कहते हैं, उसी के लिए मेरा पसंदीदा शब्द है साधना। बिना साधना काम नहीं चलेगा।

साधना के साथ मज़ेदार बात ये है, जब तक साधना शुरू ना करो तब तक बड़ी मुश्किल लगती है। जो साधना से जितनी दूर है, जो साधना के जितने आरम्भिक तल पर है, उसे साधना उतनी दुष्कर लगेगी। और जैसे-जैसे जो साधना में आगे बढ़ता जाएगा, वो साधना को आसान पाता जाएगा।

अगर कोई कहे कि साधना तो बड़ी कठिन है, इसका मतलब है कि उसने कभी साधना शुरू ही नहीं करी। जिसने शुरू ही नहीं करी, उसे बहुत कठिन लगेगी। जो शुरू करके आगे बढ़ता जाएगा, उसे क्रमशः आसान लगती जाएगी।

अध्यात्म का गणित बताइए। तीन बराबर पाँच। और तीन श्रीकृष्ण बोल गए मन, बुद्धि, अहंकार। आप उसकी जगह अपने चुनिंदा तीन रख दीजिए। आपके तीन क्या हो सकते हैं? मद, मोह, तृष्णा। जिसके जीवन के जो तीन काँटे हैं, वो रख ले वहाँ पर, वो सब मन, बुद्धि, अहंकार के ही समकक्ष हैं। किसी के तीन हो सकते हैं महत्वाकांक्षा, उपलब्धि और प्रसिद्धि। इन तीन को तुरन्त क्या मानना है? पाँच बराबर हैं। पाँच माने मिट्टी, कीचड़, आग, धुँआ, बादल।

जो भी तीन तुम्हारे अंतर जगत पर छाए रहते हों, तुम्हारे मन पर चढ़े रहते हों, घेरे रहते हों, उनको तुरन्त क्या जानना है? वही पाँच। जो इस बात को समझ गया, जो इन आठों को एक जान गया, उसने कर लिया अष्टांग योग। ये सबसे बड़ा अष्टांग योग है—इन आठ को एक जान लो।

तो शिविर की बहुत-बहुत मजबूत बुनियाद रख दी गई है। बुनियाद पर साक्षात कृष्ण ही बैठे हुए हैं। अब इस इमारत को ऊँचा कितना ले जाना है, वो आप पर है। बुनियाद रख दी गई है, मूल और आधार स्थापित कर दिया गया है। वो डिगेगा नहीं, पर इसको ऊँचाई कितनी देनी है, वो आप तय करेंगे, आपके हाथों में है। बात समझ गए?

प्र: आचार्य जी, जैसा आपने बताया कि साधना ही रास्ता है, तो उस तरफ बढ़ते हैं जब तो बैकग्राउंड (पृष्ठभूमि) में पहले का जो एक वेग बना रहता है, वो चलता रहता है साथ में, छुपा सा रहता है। फ़िर अचानक से जब हो जाता है, उसके बाद फ़िर दिखता है। वो उस पर निर्भर करता है कि साधना में कितने गहरे हैं। जितने नीचे गिरते हैं उतना कम पता लगता है। जितना साधना में डिगे रहते हैं तो उतना स्पष्ट होता है। उसके बाद भी गिरते हैं। तो इस स्थिति में क्या करें?

आचार्य: उसकी वजह है यह धारणा कि साधना जीवन से हटकर कोई विशिष्ट काम है। ग़ौर से समझिएगा। प्रश्नकर्ता ने अभी वाक्य संरचना भी कैसी करी? कहा, "जब साधना की ओर बढ़ते हैं।"

जहाँ तुम हो, वहीं बन्धन हैं, इसीलिए वहीं साधना की जाती है। साधना की ओर नहीं बढ़ा जाता।

तुम्हारे हाथों में बेड़ियाँ हैं, तुम्हें किसी ओर बढ़ना है या रुककर बेड़ियों को काटना है? किसी ओर बढ़ोगे तो जिधर को भी बढ़ोगे, क्या लिए-लिए बढ़ोगे? बेड़ियाँ। तो किसी ओर बढ़ने का नाम नहीं है साधना।

हम सोचते हैं कि जीवन तो चल ही रहा है, अब साथ में साधना करनी है। सभी का ऐसा ही कुछ ख्याल है न? यहाँ से जाते हुए कई लोग सोचेंगे कि गुरुजी ने साधना बताई है, तो अब रोज़ एक घण्टा निकालेंगे साधना के लिए। ये पहला, दूसरा, तीसरा, तीन बराबर पाँच, छह बराबर दो, ये सब हमें करना है। गुरुजी ने बताया है, काम ज़रूरी है, घण्टा तो निकालेंगे-ही-निकालेंगे, साधना की ओर बढ़ेंगे। ये तुमने क्या गज़ब कर दिया!

मैंने किसी से कभी नहीं कहा कि मेरी बातों पर अमल करने के लिए जीवन से एक भी मिनट निकालो। मैंने कभी किसी को कुछ नहीं कहा जीवन से इतर करने के लिए। मैंने कहा है कि जो कर रहे हो, उसी के भीतर प्रवेश करना है, देखना है कि वहाँ चल क्या रहा है। चौबीस घण्टों में से अगर एक घण्टा तुमने अलग निकाल भी लिया कुछ ज्ञान-ध्यान करने के लिए, तो तेईस घण्टे तो तुम अपने सुरक्षित ही कर आए। कर आए कि नहीं?

"जल्दी-जल्दी काम निपटा लूँ, आज आचार्य जी के सत्संग में जाना है।" ये बात सुनी-सुनी लग रही है न? "जल्दी-जल्दी काम निपटा लूँ, आज आचार्य जी से मिलने जाना है।"

मुझसे मिलने वो ही आएँ जो काम छोड़कर आएँ, काम निपटाकर नहीं। निपटाते तो इसीलिए हो न क्योंकि वो काम बहुत ज़रूरी लगता है? ज़रूरी लगता है तो वही करो, मेरे पास क्यों आ रहे हो?

अजीब ज़िद्दी हो, भाई! इतने के लिए तैयार हो जाते हो कि काम जल्दी-जल्दी कर लेंगे, और ज़्यादा कुशलता से कर लेंगे ताकि एक घण्टा निकल आए आचार्य जी के लिए। पर एकदम राज़ी नहीं होते हो उन कामों को छोड़ने के लिए। "जल्दी निपटा लें।"

हमारे साहब बता गए हैं, एक मयान में दो तलवारें नहीं रहती। या तो वो काम करलो या ये काम कर लो। यह नहीं चलेगा कि उसको जल्दी निपटाया या कि उसको भी किसी तरह से इस काम के साथ समायोजित कर लें। "सर, एडजस्ट प्लीज़ , थोड़ा सा खिसकिएगा। हमारी सीट पर सबके लिए जगह है, आप भी बैठिए, आप भी बैठिए, आप भी बैठिए।"

ऐसे बस थोड़ी ही देर बैठ पाओगे। ये अनित्यता का सबसे बड़ा उदाहरण बन जाएगा जब सीट पर एक, दो, तीन, चार, पाँच बैठा दिए। ये नहीं चलेगा। नित्य तो काम तभी होगा जो जिसकी जो सीट है, उस पर वही बैठ जाए, विराज जाए बिलकुल, तभी काम बनेगा। ये नहीं कि थोड़ी जगह बना ली, कहा कि अब जीवन में हम साधना को भी ला रहे हैं।

जो कर रहे हो उसमें प्रवेश करो। थोड़ा पूछो तो कि “ये खेल किस दर्जे का चल रहा है? चेतना कितनी है इस काम में जो मैं कर रहा हूँ? सच्चाई कितनी है?” और ज़रा निर्मम होना पड़ेगा। होना पड़ेगा कि नहीं?

कभी ऐसा हुआ है कि पार्किंग में गए हो और तुम्हारे ही मॉडल की कोई और गाड़ी खड़ी है या बाइक खड़ी है, उसको तुम अपना समझकर बैठने लग गए। हुआ है? या हाथ रख दिया उस पर। होता है न? खासतौर पर अगर तुम्हारे पास सफेद मारुति ८०० रही हो, तो वहाँ कतार से आठ वही खड़ी होती थीं। एक समय में भारत में हर दूसरी गाड़ी क्या होती थी? सफेद मारुति ८००। तो तब तो यह बड़ी सामान्य घटना होती थी कि तुम गए और किसी और की गाड़ी में अपनी चाबी लगाने लग गए। होता था न? अभी उसको क्या समझ रहे हो? अपनी गाड़ी, और फ़िर वो खुले ही न, खुले ही न।

और उसका मालिक आए और वो बोले, "क्षमा करिएगा, एक्सक्यूज़ मी "। और कई बार मज़ा ये कि वो खुल भी जाए। मारुति थी, कुछ भी हो जाता था उसमें। और तुम घुस भी गए, फ़िर तुमने कहा, "ये कुछ अलग-अलग सा ही लग रहा है। स्टेयरिंग घिसा हुआ है, और मैंने सामने गणपति की एक मूर्ति रखी हुई थी, इसमें क्यों नहीं है?" समझ में आए कि अरे, अपनी नहीं है। तत्क्षण सब ममता का भाव विलुप्त हो जाता था न? क्षणभर पहले बड़ा राग हो गया था, बड़ा सम्बन्ध बना लिया था न, पर जैसे ही समझ में आया चीज़ अपनी नहीं है, छोड़ दिया न।

ऐसा भी होता है, आजकल मोबाइल का युग है, सब देखते रहते हैं मोबाइल में। तो अब तुम चल रहे हो अपनी अर्धांगिनी के साथ, अपनी प्रेमिका के साथ और मोबाइल में देख रहे हो। वो बगल में चल रही है, उसने भी मोबाइल देखना शुरू कर दिया। अब दोनों चले जा रहे हैं मोबाइल देखते-देखते। वो थोड़ा सा इधर हो गई, तुम थोड़ा सा इधर हो गए, तुम मोबाइल देखते-देखते आगे बढ़ गए।

फ़िर तुम्हें आया, ये भी बगल में है, कहीं बुरा ना मान जाए, तो तुमने उसका हाथ पकड़ लिया। कहा कि बुरा मानती है तो हाथ पकड़ ले, और हाथ पकड़कर तुम्हें बड़ा अच्छा लगा, लगता है आज कुछ करवाकर आई है, हाथ ज़्यादा मुलायम है। बड़ी कोमल भावनाएँ उठी ह्रदय में। उठी न? फ़िर कहा, कुछ ज़्यादा ही मुलायम है। थोड़ा सा मुड़कर देखा तो कोई और थी। वो भी मज़े ले रही थी कि आज किसी का बढ़िया कठोर वाला हाथ मिला है।

सारी भावनाएँ कहाँ गई, जिस क्षण तुमने देख लिया कि ये वो है ही नहीं जो तुम उसे समझ रहे थे? कहाँ गई? गई न? इसी को कहते हैं निर्ममता।

निर्ममता माने हिंसक हो जाना नहीं होता। निर्ममता का अर्थ होता है जान लेना कि ये मेरा नहीं है। जो मेरा है ही नहीं, तो मैं दु:ख क्या मना रहा हूँ?

किसी और की मारुति थी, भाई, और उसने आकर बोला, "एक्सक्यूज़ मी ", तो तुम शालीनतापूर्वक उतर गए न, या लगे दहाड़े मारकर रोने कि “अरे, क्षणभर पहले ये मेरी थी, अब मेरी नहीं रही, दो लाख का नुकसान हो गया”? रोए? तुम किसी और की गाड़ी में घुसकर बैठ गए थे, अब उसने आकर क्या बोला? "एक्सक्यूज़ मी , माफ करिएगा", और तुमने भी कहा, "ओह, सॉरी ", और तुम बस चुपचाप उतर जाते हो। उतर जाते या सिर पटक पटककर रोते हो? जल्दी बोलो।

तो बस इसी को कहते हैं निर्ममता। मम् माने मेरा। मेरी थी ही नहीं ये चीज़, मैं रो किस बात पर रहा हूँ? ये वो चीज़ ही नहीं जिसके साथ 'मैं' को जोड़ा जा सके। थोड़ी देर पहले भ्रम में था, अब भ्रम टूट गया है, मुझे तो खुशी मनानी चाहिए, बात आनंद की है, भ्रम टूटा। धन्यवाद आपका, आपने मेरा भ्रम तोड़ दिया।

अभी एक पिक्चर आई थी, उसका एक गाना मुझे बड़ा अच्छा लगा। "ब्रेकअप की पार्टी दे दी", कुछ ऐसे करके गाना था। भाई, भ्रम टूटा है तो पार्टी तो देनी चाहिए न। इसी को कहते हैं निर्ममता। गीत लिखने वाला कितना भी बेहूदा लगे, पर कुछ अर्थों में उसने श्रीकृष्ण को समझा है।

किसी और का हाथ थाम लिया न जाने क्या समझकर। तुमने उसे जो समझा, वो वो है ही नहीं। अब शोक मनाते हो क्या? बोलो, शोक तो नहीं मनाते न। तो आनंद की बात है, मुक्त हो गए किसी ऐसी चीज़ से जिससे कभी हमारा कोई ताल्लुक नहीं था, बस हम उसको व्यर्थ ही न जाने क्या समझे बैठे थे। भूल थी।

भूल उद्घाटित हो जाए तो उसका सुधार किया जाता है या उस पर पर्दा डाला जाता है? सुधार किया जाता है। ये निर्ममता कहलाती है। निर्ममता हिंसा नहीं है। निर्ममता कठोरता नहीं है। निर्ममता हृदय हीनता नहीं है। तो निर्मम होकर अपने जीवन को देखो। यही साधना है।

गाड़ी में बैठने में कोई बुराई नहीं है, अपनी गाड़ी में बैठो। हाथ थामने में कोई बुराई नहीं है, जो तुम्हारा है उसका थामो। निर्ममता का अर्थ यह नहीं है कि हाथ नहीं थामना है, निर्ममता का अर्थ यह नहीं है कि कुछ भी तुम्हारा नहीं है; निर्ममता का अर्थ यह है कि जो तुम्हारा है, बस उसके साथ रहो न। चैन रहेगा, सुकून रहेगा, बार-बार मन में संदेह नहीं रहेगा कि कुछ छिन न जाए। ईर्ष्या, शंका इन सबसे मुक्त रहोगे, द्वेष नहीं उठेगा। कुछ ऐसा पकड़ो न जिस पर कभी कोई ख़तरा न आता हो, जिसको लेकर के आश्वस्ति रहती हो—ये निर्ममता है।

जिसके साथ कभी छिनने की आशंका न बने, उसको मम नहीं, ‘आत्म’ कहते हैं। 'मेरा छिन सकता है; मैं नहीं छिन सकता'। तो जानने वालों ने हमें समझाया कि ममता में नहीं, आत्मा में रहो।

ममता में रहोगे तो सुकून नहीं रहेगा, कभी भी कोई आकर बोलेगा, "एक्सक्यूज़ मी "। कितना अजीब लगेगा न? तुम मारुति में बैठे हो, बगल वाला भैंसे पर बैठा है और तुमसे कह रहा है, "उतरिए।" अभी अन्दर बैठ करके तुमने उसका एसी भी चला दिया था, ठंडी हवा के झोंके ले रहे थे, और पल भर बाद भैंसे पर। वो भैंसा भी न जाने कैसा! कैसा तो भैंसा! तड़बक-तड़बक भाग रहा है। न जाने कहाँ को लिए जा रहा है।

और थोड़ी ही देर पहले जीपीएस लगा करके बिलकुल अपने हिसाब से—मेरी योजना, मेरे इरादे, मेरी मंज़िल, मेरे तरीके, मेरे रास्ते, ये सब चल रहा था—और अब पिलियन राइडिंग कर रहे हो, किस पर? भैंसे पर। सामने वाले ने तो मुकुट डाल रखा है, तुमको हेलमेट भी नहीं दे रखा। जाने कहाँ को ले जा रहा है! ये होता है ममता का नतीजा।

तो (कबीर) साहब हमारे फरमाते हैं कि जो किसी ऐसे से जुड़ेगा जो जुड़ने काबिल नहीं था, वो सीधे जम (यम) के द्वार जाकर पड़ेगा। कहाँ जाकर पड़ेगा? जम के द्वार। जम के द्वार माने? भैंसे वाले के दरवाज़े पर जाकर गिरेगा सीधे। यही मृत्यु कहलाती है।

ग़लत से सम्बन्ध स्थापित कर लेने को ही कहते हैं मृत्युधर्मा होना। जिसके साथ जुड़ना नहीं था, उसके साथ जुड़े बैठे हो—यही है मृत्यु धर्मिता। उसके साथ जुड़ जाओ जिसके साथ अमरता है, जिसके साथ नाता कभी टूट ही नहीं सकता—यही अमरत्व है।

और कई ऐसे होते हैं जो गाड़ी से उतरने को तैयार ही नहीं। भैंसे वाला कह रहा है चलो। तो फ़िर भैंसे की पूँछ से तुम्हारी गाड़ी को बाँधकर गाड़ी को टो किया जाता है। अच्छा लगेगा? खौफ क्यों छा गया है इतना? अपनी-अपनी गाड़ी याद कर रहे हो? महँगी-महँगी गाडियाँ, और उनको खींचकर टो करके कौन लिए जा रहा है? भैंसा। तुम्हारी कौन सी है? अरे, ह्युंडई!

अपने दैनिक जीवन में देखो कि किसके साथ नाता जोड़ रखा है। कहाँ समय लगा रहे हो? क्यों समय लगा रहे हो? कहाँ उठ-बैठ रहे हो? किससे बात कर रहे हो? किसी को कुछ भी स्थान क्यों दे रहे हो? निर्ममतापूर्वक पूछो अपने-आप से। यही साधना है।

ये साधना तुम्हें निचले तल से उठाकर क्षेत्रज्ञ के तल पर स्थापित कर देगी। आगे की वो ही जाने। आगे की वो सबसे ऊपर के तल वाला जाने, पर दूसरे तल तक आने की विधि तुम्हें बता दी। ठीक?

प्र२: जैसे आपने बताया कि पसीने का आना और आँसूओं का आना बराबर है। लेकिन वो कंडीशनिंग (संस्कार) के कारण ऐसा है कि उसमें दुःख होता है, उसमें इतना पता चलता नहीं है। और एक जैसे हाथ मलते हैं तो मैल आता है और ऐसा ही शरीर का मैल होता है, फ़िर इन दोनों में मतलब कुछ प्लेज़र (आनंद) होता है, वो भिन्न होता है। हमारी मान्यता ही है जो हम देखते आए हैं, इसलिए है या इसके पीछे कोई और वजह है?

आचार्य: इसकी जो वजह है उसका ताल्लुक प्रकृति से है। प्रकृति के मंसूबे हैं देह को आगे बढ़ाने के, देह आगे बढ़ने के लिए तत्पर रहती है। ग़ौर से अगर देखोगे तो पाओगे कि तुम्हारी सारी भावनाएँ घूम-फिर करके अंततः शरीर की सुरक्षा और प्रजाति के संवर्धन से जुड़ी हुई हैं। पर यह बात तुमको बहुत गहराई में जाकर ही पता चलेगी, जब एक के बाद एक कड़ियाँ देखते जाओगे।

अब ईर्ष्या है, ईर्ष्या का सम्बन्ध किससे है? तुम्हें कोई कारण मिलेगा। उस कारण के पीछे का कारण खोजो, उस कारण के पीछे का कारण खोजो। ऐसे जब तुम पाँच-दस दफ़े कारण के पीछे का कारण देखोगे तो सीधे-सीधे फ़िर यह निष्कर्ष दिखाई देगा कि ईर्ष्या का ताल्लुक़ देह को आगे बढ़ाने से है इसीलिए ईर्ष्या उठती है, या ईर्ष्या का ताल्लुक़ शारीरिक सुरक्षा से है।

ये कोई संयोग मात्र थोड़े ही है कि विकसित देशों में, धनाढ्य देशों में, जिनके पास धन है, वहाँ औसत आयु भी ज़्यादा है—ये बात शरीर को पता है। उसने हमेशा देखा है कि जितना तुम माल अपने पास रखोगे, तुम्हारे ज़िंदा रहने की सम्भावना उतनी बढ़ जाती है। वो तुम आज भी देखते हो। तुम्हारे जीवनभर का माल अंततः जीवन में कब काम आता है? बिलकुल जब अस्सी साल होकर मरने वाले होते हो तो अपना जितना भी तुमने कमा और बचा रखा होता है, दस, बीस, पचास लाख, दो करोड़, वो जाकर अस्पताल को दे आते हो। ये बात शरीर को हमेशा से पता थी। जिसके पास माल जितना होगा, वो उतना लम्बा जिएगा।

तो तुम्हारी जो यह सारी महत्वाकांक्षा इत्यादि है, वो सिर्फ़ इसलिए है कि तुम कुछ साल और जी सको। लो ख़त्म! तो ये जो पूरा खेल है तरक्की का, जीवन में ऊँचाइयाँ पाने का, ये बन जाऊँ, वो बन जाऊँ, सबसे बड़ा बन जाऊँ, उसका कुल उद्देश्य इतना ही है कि दो-चार साल जीने को और मिल जाएँगे। लेकिन ये बात तुमको प्रकृति बताएगी नहीं; क्योंकि बता दी तो तुम माल इकट्ठा करोगे नहीं, माल इकट्ठा नहीं किया तो चार साल और जियोगे नहीं।

अब प्रश्न ये उठता है कि चार साल या चौदह साल अतिरिक्त जीने के लिए पूरी ज़िंदगी ख़राब करना ज़रूरी है क्या? कम जी लो, भाई, दस-बीस साल। किसी ने दो-चार करोड़ इकट्ठे कर लिए हैं, उसको कैंसर होगा तो वो खर्च कर लेगा, तो हो सकता है उससे उसको छह महीने, साल भर, दो साल ज़्यादा मिल जाएँ। तुम्हारे पास नहीं होंगे दो-चार करोड़, तुम्हें कैंसर होगा, तुम मर जाना।

अंततः तुम जो कुछ भी कर रहे हो, हर आदमी जो कुछ भी कर रहा है, उसका उद्देश्य इन्हीं दोनों में से एक है; या तो उम्र बढ़ जाए या बच्चे पैदा करने में सुविधा हो जाए।

तो आँसूओं को पसीने से ज़्यादा का दर्जा दिलवाने वाली प्रकृति है। वो तुमको बता रही है कि आँसूओं का सम्बन्ध ऊँचाइयों से है। आँसूओं का सम्बन्ध ऊँचाइयों से नहीं है, आँसूओं का सम्बन्ध देह से और बच्चों से है। जो भी चीज़ बच्चा पैदा करने में बाधा बन रही होगी, उसको लेकर तुम्हें आँसू आ जाएँगे।

खूब दहाड़े मारकर रो रहे हो, एक बार रुक जाओ और जाँचो कि कहीं इसलिए तो नहीं रो रहा कि अंततः संतानोत्पत्ति करना चाहता हूँ? और जब ये पता चलेगा तो बड़ी लाज आएगी कि छी! टटोलकर देखा, गहराई में जाकर देखा तो ये पूरा जो ग़म है, बस इसलिए था कि "हाय, बुब्बू और टूट्टू कहाँ से आएँगे अब?"

रो मैं इसलिए रहा था सतही तौर पर, प्रकट तौर पर इसलिए रो रहा था कि गाड़ी चोरी हो गई। पर ग़म मुझे वास्तव में गाड़ी चोरी होने का नहीं है। उस गाड़ी से मुझे कुछ चाहिए था, उससे कुछ चाहिए था, उससे कुछ चाहिए था, और अंततः क्या चाहिए था? बाल गोपाल। फ़िर कहोगे, “छी! बाल गोपाल, इसके लिए रो रहा था।” फ़िर मुक्त हो जाओगे।

तो हमारी सब भावनाएँ, ये आशिक़ी, ये मौसिकी, ये शायरी, ये अफ़साने, ये रंजोगम, ये दौड़ धूप, ये सब हैं बस इसीलिए। कृष्ण कह रहे हैं कि जान लो कि ये सब एक हैं। तुम्हारे सब आँसू धूल-मिट्टी हैं, उनका उद्देश्य है और धूल को जन्म देना, और मिट्टी को जन्म देना, मिट्टी के नए-नए पुतलों को जन्म देना। पर तुम कुछ यूँ दर्शाते हो कि जैसे तुमको कोई अपार सम्पदा मिल गई है। क्या सम्पदा?

आज तक किसी रोने वाले ने ईमानदारी से नहीं बताया कि उसके आँसूओं का सबब क्या है, सबने झूठ बोला है। रोए सब हैं पर कोई ईमानदारी से नहीं बताता कि वो रो क्यों रहा है। क्यों? क्योंकि उन्हें पता ही नहीं है कि वो रो क्यों रहे हैं, बताएँगे कैसे।

कोई कहता है कि मोह में रो रहा हूँ, कोई कहता है कि चोट लग गई है इसलिए रो रहा हूँ, कोई कहता है कि कुछ नुकसान हो गया है इसलिए रो रहा हूँ, पर रो सब दो ही वजहों से रहे हैं। प्रकृति कह रही है, 'अरे, लगता है अब उम्र में कुछ कम साल होंगे', या फ़िर प्रकृति कह रही है कि 'संतानोत्पत्ति की सम्भावना कम हो रही है, रोओ।' तुम रो इसलिए रहे हो, और कोई बात नहीं है। और प्रकृति पूरी यंत्रवत है, प्रकृति पूरी पत्थर-पानी है।

वास्तव में श्रीकृष्ण ने यहाँ जो बात कही है, श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय में, उसी को आधुनिक अंदाज़ में सौ बरस पहले फ्रायड ने कहा कि तुम्हारी चेतना के केंद्र पर कामवासना बैठी है, बस। वो अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त होती है। श्रीकृष्ण भी वही बात कह रहे हैं। श्रीकृष्ण ने कह दिया ‘प्रकृति’, फ्रायड ने सीधे-ही-सीधे कह दिया ‘वासना’। खेल तुम्हारा सारा वासना का है, नाम उसे तुम जो देना है, देते रहो।

वासना का खेल बुरा क्यों है? कोई उसका नैतिक आधार नहीं है। बात बस इतनी सी ही है कि वासना तृप्ति नहीं देती। इसलिए उसको जानने वालों ने धिक्कारा है। पशुओं को कभी धिक्कारा जाता है वासना के लिए? क्योंकि पशुओं को वासना से आगे का कुछ चाहिए ही नहीं। उनको खाना दे दो और मैथुन दे दो, वो संतुष्ट हो जाते हैं।

मनुष्य के लिए वासना अपर्याप्त है, इसीलिए तुमसे कहा गया है कि वासना से आगे चलो। तुम्हारे लिए वासना इसलिए बुरी है क्योंकि उससे तुम्हें कुछ मिलेगा नहीं। पशु को मिल जाएगा, उसे ज़्यादा चाहिए ही नहीं। तुम्हें ज़्यादा चाहिए। आदमी की माँग बड़ी है। आदमी को मुक्ति चाहिए। आदमी को परम चाहिए, परम वासना से नहीं मिलेगा। तो इसीलिए कहा गया है, कहाँ फँसे हुए हो कीचड़ में, आगे बढ़ो। इसलिए आँसू और पसीने को एक समान देखना ज़रूरी है।

प्र३: आचार्य जी, प्रणाम। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि जब भी कभी धर्म पर अधर्म हावी होगा तो वो जन्म लेंगे। आज के समय में तो धर्म की बहुत ही हानि हो रही है, तो भगवान अवतार क्यों नहीं ले रहे?

आचार्य: जिगर चाहिए भगवान को देखने के लिए। क्यों कह रहे हो भगवान अवतार नहीं ले रहे? ये कहो कि दिखाई नहीं दे रहे।

महाभारत के मैदान पर कृष्ण कितनों को दिखाई दे रहे थे? अर्जुन को, वो भी आधे-अधूरे। पहले तो वहाँ खड़े हैं हज़ारों-लाखों योद्धा-सेनानी, उनको ख़बर ही नहीं लग रही, भनक ही नहीं पड़ रही। देखो तो सही, वहाँ कितने खड़े हैं, दिख रहे हैं? और उनके बीच में ऐसे ही एक हैं श्रीकृष्ण। वो कह रहे हैं, 'हाँ, ये भी हमारी ही तरह हैं।'

श्रीकृष्ण ने कहा है न सातवें ही अध्याय में कि जो मूर्ख होते हैं, वो मुझे भी अपनी ही तरह आम इंसान समझते हैं, मुझे भी अपनी ही तरह जन्मा हुआ और मरणशील समझते हैं। उन्हें बस मेरी काया दिखाई देती है। तो उन्हें लगता है कि जैसे वो हैं, वैसे ही मैं हूँ। उनके पास वो आँख ही नहीं कि देह में जो विदेही बैठा है, उसको देख पाएँ।

तो वहाँ पर हैं लाख योद्धा और सैनिक, और बड़े-बड़े पढ़े-लिखे लोग भी हैं। भीष्म हैं, ज्ञान के सागर हैं। जब बाण-वाण खा लिए तो अर्जुन को उन्होंने भी उपदेश दिया था। द्रोण हैं, वो तो गुरु ही थे। कृपाचार्य हैं, और न जाने कितने हैं, सब धुरंधर। अरे, इधर भी तो खड़े हैं। धर्मराज, वही जुए वाले। किसी को दिखाई दे रहे हैं कृष्ण?

तो तुम्हें क्या लग रहा है कि उस समय भी क्या भगवान अवतरित हुए थे उन सबके लिए? भगवान सबके लिए नहीं अवतार लेते। इस चक्कर में मत रहना कि भगवान अवतार लेंगे और सबको दिखाई देंगे, फ्री फॉर ऑल (सबके लिए मुफ़्त)।

वो हमेशा रहते हैं, दिखाई हमेशा किसी-किसी को देते हैं। हमेशा रहते हैं, कोई क्षण नहीं होता, कोई युग नहीं होता, कोई जगह नहीं होती जहाँ वो मौजूद नहीं हैं। दिखाई नहीं देंगे तुमको। और तुम कह रहे हो, “हमारे पास तो आँखें हैं, वो आ नहीं रहे हैं।“ बड़ा अहंकार है ये, देख रहे हो? “हम ग़लत नहीं हैं, हम तो देख ही रहे हैं। कृष्ण से देर हो गई है, वादा भूल गए हैं। गीता लगता है उनको फ़िर से याद दिलानी पड़ेगी, बोल गए हैं कि आएँगे, आए नहीं।“

अर्जुन को भी नहीं दिख रहे थे। आधी गीता बीत गई, वो सिर ही खुजला रहा था। पता नहीं क्या बोले, ये, वो, शंका करे, इधर-ऊधर वाद-प्रतिवाद करे। तो फ़िर बोलें कि अब दिखाता हूँ, और फ़िर क्या दिखाया? दिव्य रूप दिखाया विशेष अक्ष देकर। ये मिट्टी-पानी की आँखों से थोड़े ही दिखाई देते हैं कृष्ण। ये काहे की आँख है? मिट्टी-पानी की। इनसे नहीं दिखाई देते। इनसे तो वही हो सकता है कि रो पड़े और सो पड़े। ये आँखें और किसी काम आती हैं? ये कुछ दिखाती थोड़े ही हैं, छुपाती हैं। तो फ़िर दिव्य चक्षु दिए, फ़िर कुछ दिखाई दिया।

पहली बात तो एक को दिखाई दिया। वो भी जब उन्होंने कृपा करी तो उसे दिखाई दिया। भगवान ऐसे ही थोड़े ही सबको दिखाई दे जाएँगे। यहाँ तो घटिया पिक्चर देखने की भी कीमत देनी पड़ती है। तुम भगवान को यूँ ही देख लोगे, चलते फिरते? कहे कि 'वो रहे, वो ऊधर, काला खट्टा खा रहे हैं। वो ऊधर स्कूटी में तेल डला रहे हैं। देख लिया, देख लिया, वही है, ले, ले, ले, एक फोटो ले'। ऐसे दिख जाएँगे?

अर्जुन तक को साफ़-साफ़ नहीं दिख रहे थे। तुम्हें कैसे दिख जाएँगे, भाई? लेकिन तुम्हारी सहूलियत के लिए, तुम्हारा विश्वास बना रहे, श्रद्धा न तोड़ दो इसके लिए दोहरा देता हूँ, कोई पल नहीं, कोई जगह नहीं, कोई ज़र्रा नहीं, कोई जन नहीं जहाँ कृष्ण न हों। तुम्हें नहीं दिख रहे तो अपना इलाज कराओ।

बिलकुल ठीक कहा तुमने, कि कह गए हैं कि जब-जब धर्म की हानि होगी, मैं तो आ ही जाऊँगा। साधुओं की रक्षा करूँगा, दुष्टों का संहार करूँगा। मैं तो आ ही जाऊँगा। कह रहे हो, "आजकल तो बड़ी गड़बड़ चल रही है, आते क्यों नहीं?" इसलिए नहीं आते क्योंकि तुम्हें वो गड़बड़, गड़बड़ जैसी लग नहीं रही है। जिस क्षण तुम भी क्षुब्ध हो करके चिल्ला पड़े कि बड़ी गड़बड़ है, बड़ा अधर्म है, आ जाएँगे।

तुम्हारी वेदना खींच लाएगी। तुम्हारा वियोग पकड़ लाएगा उनको। अभी तो तुम बस मौखिक तरीके से कहे दे रहे हो कि आजकल अधर्म बहुत है। आजकल अधर्म बहुत है माने? तुम्हारा पड़ोसी अधर्म फैला रहा है? तुम्हारा पड़ोसी कह रहा है, “अधर्म बहुत है, मेरा पड़ोसी अधर्म फैला रहा है।“ आजकल अधर्म बहुत है, माने कौन फैला रहा है अधर्म? कौन धर्म के विपरीत खड़ा है? बोलो। वही सब लोग न जिन्हें कृष्ण कहीं नज़र नहीं आ रहे, यही तो अधर्म है।

जिस दिन तुम्हें वाकई लग गया कि अधर्म बहुत है, उस दिन कृष्ण को सम्मुख पाओगे अपने। हो सकता है सम्मुख से भी ज़्यादा करीब पाओ। हो सकता है अपने भीतर ही पाओ। पता नहीं कहाँ पाओ, ये पक्का है कि पाओगे।

और ये बड़ी आम शिकायत है, मैंने ख़ूब सुनी है। लोग कहते हैं, "बोल तो गए गीता में, आऊँगा। वादा भूल गए, आए नहीं।" दुर्योधन के पास गए थे, वो बोला, "अरे, चलो, चलो, चलो, चलो, बन्दी बनाओ इनको। कहाँ हैं सैनिक? ज़ंजीर लेकर आओ।" तुम्हें दिखाई देंगे? तुम हो इस लायक कि तुम्हारे सामने भी हों तो तुम्हें दिखाई दें? तुम तो उनका नुकसान करने पर उतारू हो। तुम तो उन्हीं पर शक़ कर रहे हो। शक़ भी नहीं कर रहे, तुम्हें विश्वास है कि ये सामने कोई धूर्त ही खड़ा है, इसे बन्दी बना लेना चाहिए। तुम उन्हीं को धोखा दे रहे हो, फ़िर तुम्हें उनमें भगवत्ता दिखेगी क्या?

दुर्योधन को दो-चार दफ़े तो यह ख्याल भी आया होगा कि अर्जुन को तीर तो बहुत मारे ही जा रहे हैं। एकाध तीर चूक क्यों न जाए? थोड़ा नीचे चला जाए, क्योंकि अर्जुन में तो कोई दम दिलासा है नहीं, भोंदू। जीवनभर उसको मैंने अपनी चालों पर नचाया है। ये कृष्ण की ही करतूत है जो अर्जुन को लड़ाए दे रहे हैं और जिताए दे रहे हैं। दुर्योधन ने तो यह ख़्याल भी कर लिया होगा कि एकाध तीर दिशाभ्रमित होकर थोड़ा नीचे की तरफ़ चला जाए, कृष्ण को ही मार दे।

कर्ण के पास भी गए थे, इतना समझाया। उसको भगवान दिखाई दे रहे थे? कह रहा था कि, “मैं आपकी बड़ी कद्र करता हूँ, मुझे मालूम है आप कौन हैं, मुझे मालूम है आप देवता हैं, ये हैं, वो हैं।“ उसे दिखाई ही दे रहा होता कि कृष्ण कौन हैं तो कृष्ण की बात अनसुनी कर जाता?

दिखाई नहीं देता। और दिखाई दे सके, इसका सूत्र बता दिया।

जब धर्म के ही हो जाओगे तो कृष्ण दिखने लगेंगे। जब तक अधर्म को ही धर्म कह रहे हो, जब तक तुम ही कृष्ण के विरुद्ध खड़े हो, तुम्हें कृष्ण कैसे दिखेंगे?

और जानना है कि तुम धर्म के साथ खड़े हो या धर्म के ख़िलाफ़ खड़े हो, तो यही कसौटी है। पूछ लो कि तुम्हें कृष्ण दिख रहे हैं या नहीं। नहीं दिख रहे तो माने तुम भी अधर्म के साथ खड़े हो। तुम भी कौरवों की ही सेना में खड़े हो, या पांडवों के साथ हो, भीम की तरह।

तुम्हें क्या लगता है, जब कृष्ण-अर्जुन संवाद हो रहा था तो भीम क्या कर रहे थे? उन्होंने उतनी देर में झपकी ले ली। बोले, 'थोड़ा भोजन लगाओ, घण्टे भर से ये बात ही करे जा रहे हैं', और जब भोजन हो गया, बोले, 'जब बातचीत हो जाए तो हमें उठा देना।' वहाँ गीता ज्ञान उतर रहा है, यहाँ खर्राटें चल रहे हैं। ये बात तब की ही थी या आज की भी है? बोलो। तो फ़िर कैसे दिखाई देंगे कृष्ण?

जब ऐसे हो जाओगे कि कृष्ण के कहने पर सब जग त्यागने को तैयार हो जाओ, जब कृष्ण के कहने पर धनुष उठाना भी स्वीकार कर लो और मोह-ममता त्यागना भी, तब दिख जाएँगे। तब वो ही आँखें दे देंगे। सब दिखेगा। तुम काबिलियत पैदा करो, कृष्ण पर उलाहना मत लगाओ।

प्र४: आचार्य जी, अभी अपरा प्रकृति की बात हो रही थी, जिसमें मन, बुद्धि, अहंकार पर बात चल रही थी। तो हमारे जितने भी उत्पाद हैं, सब आते तो इसी माध्यम से हैं, इसी केंद्र से आते हैं। तो वो भी तो फ़िर उसी तल पर आ गए जिस तल पर कृष्ण बात कर रहे हैं।

आचार्य: उत्पाद माने कैसे उत्पाद? औद्योगिक उत्पाद? बाज़ारों में जो मिल रहा है?

प्र४: हाँ, आ तो वो उसी केंद्र से रहे हैं।

आचार्य: केंद्र नहीं, चीज़ वही है, प्रकृति ही है। देखो, समझो, प्रकृति माने क्या? कृति होती है इंसान की। इंसान चीज़ें बनाता है न? और कुछ कृतियाँ पशुओं इत्यादि की भी होती हैं, घोंसला वगैरह बना लेते हैं। अभी इंसान की कृति को ले लो, क्योंकि कृति का ज़्यादा शौक़ इंसान को ही होता है। हम जो कुछ भी बनाते हैं, उससे पहले जो है बनाने को संचालित करने वाला, उसे कहते हैं ‘प्रकृति’। तो हमने बनाया शहर, पर शहर से पहले था जंगल। जंगल ने शहर बनवाया है। पर हमें यह बात समझ में नहीं आती, हम सोचते हैं कि शहर अलग है, जंगल अलग है। नहीं समझे?

जंगल में चिड़िया घोंसला बनाती है? तमाम तरह के पशु-पक्षी होते हैं, वो भी अपने लिए कुछ-न-कुछ तैयार करते रहते हैं, कोई गड्ढा खोदता है, कोई गुफा में अपने लिए जगह बनाता है, वो सब करते हैं न। उसको हम कह देते हैं प्रकृति है। कहते हैं न? या चिड़िया के घोंसले को ये कहते हो कि ये तो कृत्रिम है? ऐसे तो नहीं कहते। चिड़िया के घोंसले को ये तो नहीं कहते न कि ये तो सेंटिएंस मेड (चेतना कृत) है? वो भी तो एक जीव ने एक चीज़ ही तैयार करी है। करी है न? लेकिन आदमी जब इमारत खड़ी कर देता है, या मान लो झोपड़ा खड़ा कर दिया, तो उसको हम कह देते हैं कि ये मैन मेड (मानवकृत) है।

चिड़िया ने जो बनाया, उसको तुम प्रकृति का हिस्सा मान लेते हो। आदमी ने जो बनाया, उसको तुम कृत्रिम क्यों कह रहे हो फिर? चिड़िया ने कुछ बनाया है, उसको तुम क्या बोल देते हो? ये तो प्रकृति है। आदमी ने भी कुछ बनाया, उसको तुम फ़िर कृत्रिम या आर्टिफिशियल क्यों कह रहे हो? वो भी प्रकृति ही है। ये समझा रहे हैं कृष्ण।

कह रहे हैं कि तुम मन, बुद्धि, अहंकार से भी जो कर रहे हो, तुमने बहुत बड़ी दो-सौ मंज़िल की इमारत खड़ी कर दी, वो भी चिड़िया के घोंसले से अलग नहीं है। चिड़िया भी घोंसला क्यों बना रही है? अंडे देने को। पर वहाँ बात बिलकुल ज़ाहिर है कि उसे अंडे देने हैं तो उसने घोंसला बना दिया। तुमने भी ये जो इतना बड़ा ख़लीफा खड़ा करा है, ये भी अंडे ही देने के लिए करा है। पर ये इतना बड़ा है कि तुम्हारी बुद्धि की पकड़ में ही नहीं आती यह बात कि इसका भी ताल्लुक़ तुम्हारे अंडों से ही है।

चिड़िया के मामले में घोंसला छोटा सा है तो साफ़ दिख जाता है कि ये बच्चे पैदा करने की कोशिश है और कुछ नहीं। और आदमी ने जो कृति करी, उसमें पता नहीं लगता। उसमें लगता है कि ये स्काईस्क्रेपर (गगनचुंबी इमारत) है। वो कुछ नहीं है, वो भी बच्चा पैदा करने की कोशिश है। अब ये बात बड़ी अजीब लगेगी। कहेंगे, 'हैं! पर उसमें तो ऑफिस चलता है, बच्चा तो घर में पैदा किया जाता है।' तुम इस तरह के तर्क दोगे। ये मूढ़ता के तर्क हैं। ग़ौर से देखोगे तो समझ में आएगा कि वहाँ भी आयोजन यही चल रहा है।

तो चिड़िया की कृति क्या हुई? घोंसला। आदमी की कृति क्या हुई? स्काईस्क्रेपर , ठीक है, बहुमंज़िली इमारत। चिड़िया की कृति से पहले क्या है? चिड़िया ने घोंसला क्यों बनाया? एक वृत्ति है। वो वृत्ति क्या है? शरीर को बचाओ, बच्चे पैदा करो। उसको कहते हैं प्रकृति, क्योंकि वो कृति से पहले आई। उस वृत्ति को इसीलिए कहोगे प्रकृति।

तुम जो कुछ भी करते हो, उसके पीछे जो वृत्ति बैठी है, वो हुई प्रकृति। इसीलिए प्रकृति को ही अविद्या और माया दोनों कहा गया है। जानने वालों ने प्रकृति, माया, अविद्या इन तीनों को एक ही चीज़ कहा है। प्रकृति ही अविद्या है, प्रकृति ही माया है, प्रकृति ही मूल वृत्ति है। वो मूल वृत्ति क्या है? अहंता, अपूर्णता। प्रकृति में अपूर्णता निहित है।

प्रकृति में सब अपने-आपको पृथक-पृथक, भिन्न-भिन्न जीव समझते हैं, ‘मैं अलग हूँ’, ‘मैं अलग हूँ’। यहाँ तक कि ये पौधे भी हैं न, ये बस अपने-अपने लिए परेशान हैं। इस पौधे को पानी न मिले, वो वाला नहीं मरेगा। यही अविद्या है। इनमें भी यह भावना है कि ‘अपना भला सोचो, भाई। मुझे पानी मिलने वाला है कि नहीं मिलने वाला है?’

हमारी सारी कृतियों से पहले हमारी अहंता आती है। उसी को कहते हैं प्रकृति। और वो जड़ है, उसे कुछ समझ में नहीं आता। तो इसीलिए उसको किस तल पर रखा गया है? सबसे निचले तल पर, क्योंकि वो बेवकूफ़ है। चेतना माने समझदारी। उसमें कुछ समझदारी नहीं है। उसको इतना ही नहीं समझ में आता कि वो जो कुछ कर रही है, उसके पीछे क्या है। उसको लगता है कि वो जो कुछ कर रही है, उसके पीछे कोई बहुत बड़ा तर्क है, कोई बड़ी होशियारी है। उसको समझ में ही नहीं आता कि वो जो कुछ कर रही है वो यंत्रवत है।

बहुत बड़ी कार का आविष्कार किया जा रहा है। बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाएँ चल रही हैं। बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं। ये सब मनुष्य की कृतियाँ हैं। लेकिन इन कृतियों के पीछे क्या बैठी है? प्रकृति। वही पुरानी सड़ी-गली वृत्ति। बड़ी-बड़ी बातें कर रहा है आदमी, उसको यह पता भी नहीं है कि इन बड़ी-बड़ी बातों के पीछे वही जंगल है, पुराना गोरिल्ला है। सूट-बूट में आया गोरिल्ला, और कर रहा है बड़ी-बड़ी बातें, ये, वो। पर उन सारी बातों में क्या निहित है? कि किसी दूसरे पर कब्ज़ा कर लूँ, किसी दूसरे को नीचा दिखा लूँ, अपनी बात सही साबित कर लूँ, यही सब है। ये कहाँ से आ रहा है? वही जंगल, गोरिल्ला, प्रकृति।

तो कृति तो बहुत है। इतनी बड़ी किताब दी, ये मोटी किताब! उस पूरी किताब का लब्बोलुबाब क्या है? 'देखो, मुझे कितना पता है। मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ। मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ तो मुझे आदर-सम्मान दो। जब आदर-सम्मान दे रहे हो तो साथ में कुछ माल भी लाओगे या नहीं लाओगे? या बस प्रणाम करके चले जाओगे? अरे, कुछ रखकर भी जाओ।'

तो ले-देकर बात यही है कि पेट चलता रहे। यह बात समझ में नहीं आती क्योंकि आदमी उस मूल वृत्ति पर तहें और तहें चढ़ा चुका है। इतने छिलके चढ़ा दिए हैं उस पर कि उसका स्रोत नज़र नहीं आता, उसके केंद्र में जो चीज़ बैठी है, वो नज़र नहीं आती। पर हम जो कुछ कर रहे होते हैं वो संचालित वहीं से हो रहा होता है - जंगल से, गोरिल्ला से, मूल अहम् वृत्ति से। ज्ञानी वो जो यह बात तत्क्षण पहचान ले, दूसरों को देखकर भी और ख़ुद को देखकर भी।

कोई आए, तुमसे बहुत मुस्कुराकर बात करें, तुम तत्काल कहो, 'अरे, बच्चा चाहिए क्या?' या तुमको कुछ बहुत भा जाए, तुम कहो, "आहाहा! क्या स्वर लहरियाँ है, क्या संगीत कान में पड़ रहा है।" तो तुम कहो, “भक्क! जो बात कही जा रही है, वो तो मैं समझ भी नहीं रहा। ये तो आवाज़ मीठी लग रही है। बात तो मैंने समझी ही नहीं है। मीठी आवाज़ के फेर में आ रहा हूँ। मीठी आवाज़ का वही पुराना ढर्रा, देह के लिए है।“

तो श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि प्रकृति-ही-प्रकृति है। मत कह देना कि आदमी प्रकृति का नाश कर रहा है। तुम अगर शहर भी बना रहे हो तो ये क्या है? ये भी प्रकृति ही है। बस ये तुम्हारी सड़ी हुई प्रकृति है। प्रकृति से बाहर नहीं है तुम्हारा शहर। जैसे जंगल में घोंसला है, वैसे ही जंगल में शहर है। ये भी तुमने घोंसला ही बनाया है। चिड़िया अपनी बुद्धि से जो कर सकती है, करती है। तुमने अपनी बुद्धि से जो किया सो किया। ये भी तो तुम्हारा घोंसला ही है। ये भी तुम सब काम प्रकृति में ही कर रहे हो।

प्रकृति से बाहर जो है पूर्णतया, उसको वो कहते हैं क्षेत्रज्ञ या आत्मज्ञ। मतलब समझ रहे हो इसका? श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि जैसे जंगल में गोरिल्ला, वैसे ही शहर में तुम; कोई अंतर नहीं है। और तुम्हें कष्ट-दुःख इसलिए हैं क्योंकि तुम यह बात समझ ही नहीं पा रहे हो कि तुम शहर के गोरिल्ले हो, तुम अपने-आपको कुछ बहुत आगे का जान रहे हो। तुममें बड़ा दंभ आ गया है। तुम सोचते हो, “हम तो जंगल से बाहर आ गए।“ तुम जंगल से बाहर नहीं आ गए हो, तुम जंगल में ही हो। ये तुम्हारा आयोजन है जंगल के मध्य।

प्र५: गुरुदेव, प्रणाम। ये साधना वाली जो बात आप कहे हैं कि उसमें तीन जो अपरा प्रकृति है, उसके भी आपको वेग को रोकना पड़ेगा। तो ये जब वेग आता है तो उसमें समझ में ही नहीं आता। जब तक उसको समझने का प्रयास या कोशिश करें, तब तक वो निकल जाता है, और फ़िर ये पाते हैं कि वो चीज़ बीत गई और उससे भी चूक गए।

आचार्य: नुकसान हो गया। समझना नहीं है, तत्काल उसे पत्थर-मिट्टी घोषित कर देना है। उसमें समझने के लिए कुछ है ही नहीं।

चलो उदाहरण लेते हैं, कचरे का डब्बा है, उसमें हाथ डाला, कुछ निकला। उसे समझना है या तत्काल कह देना है कचरा? बोलो। फ़िर हाथ डाला, फ़िर कुछ निकला। उसे समझना है या तत्काल कह देना है कचरा? वो कचरे का डब्बा क्या है? ये घट, ये तन, ये मन, ये खोपड़ा। इसमें से जो उठे, उसे तत्काल कह देना है, वही है, पत्थर-पानी। वही है, पंचभूतों का खेल। वही है, रासायनिक प्रतिक्रियाएँ। समझना नहीं है। समझने के लिए रुके कि फँसे। कुछ हो रहा हो, आदत डाल लो, अभ्यास डाल लो कहने की कि कचरा है।

समझने जैसा उसमें कुछ है ही नहीं। समझने लगे तो देखो भेद करोगे, और भेद करा तो एक चीज़ को दूसरी चीज़ से ऊपर रखोगे। भेद करने का अर्थ ही यही होता है न कि दो चीज़ें अलग-अलग हैं? दो चीजें अगर-अलग हैं तो उसमें फ़िर कुछ निकृष्ट और कुछ श्रेष्ठ भी होगा। पचास चीज़ें हैं तो उसमें फ़िर कोई पहले स्थान पर होगा, कोई पचासवें स्थान पर होगा।

तो भेद करने में हमेशा ये होगा कि तुम कुछ-न-कुछ तो ऐसा पाओगे जो तुम्हें महत्वपूर्ण लगेगा, कुछ-न-कुछ ऐसा पाओगे जो तुम्हें पहले स्थान के लायक लगेगा। भेद करो ही मत। सब-के-सब एक ही स्थान के लायक हैं, क्या? कचरा। अंतर करो ही मत। मत कहो कि ये सच्चे आँसू हैं, ये झूठे आँसू हैं। आँसू माने आँसू, कचरा। भेद करो ही मत।

मन पर कुछ भी चढ़ा हुआ है, भेद मत करो कि अच्छा चढ़ा है या बुरा चढ़ा है। जो भी कुछ मन पर पड़ा है, कचरा।

साहब बोल गए: ‘माया माया सब कहे, माया लखे ना कोय। जो मन से ना उतरे, माया कहिए सोय।।’ उन्होंने ये कहा क्या कि ‘जो बुरी चीज़ मन से न उतरे, माया कहिए सोय’? उन्होंने कहा अच्छा हो कि बुरा हो, हाथी हो कि घोड़ा हो, दायाँ हो कि बायाँ हो, काला हो कि गोरा हो, फ़र्क नहीं पड़ता—’जो मन से ना उतरे, माया कहिए सोय।’

सब एक बराबर हैं। जो कुछ मन में चढ़ा, सब कचरा। मत कहो कि सुविचार और कुविचार, बिलकुल मत कह देना। जो कुछ भी छाया हुआ है, कचरा है। अब बताओ समझना क्या है?

साँप के बिल से खरगोश तो निकलेगा नहीं, न हूरें निकलेंगी। बिल से जहाँ कुछ निकले, तहाँ बोलो, “साँप।” बिल से फ़िर कुछ निकला, बोलो, “साँप।” या समझोगे? उतनी देर में फ़िर काट लेगा। अरे, बिल साँप का है, तो उसमें से इडली-डोसा तो नहीं निकलेगा न, कि निकलेगा? तो वैसे ही ये (मस्तिष्क) क्या है? साँप का बिल। इसमें से उत्तपम नहीं निकलेगा। कहेंगे, "इस बार जो निकला है, वो बड़ा पौष्टिक है, बड़ा स्वादिष्ट है। इस बार कचरा नहीं है, आचार्य जी। इस बार खाद्य पदार्थ है।" नहीं, सब एक बराबर है।

सब प्रकृति है। सब वही पुराना जंगल का खेल है, वही अंडेबाजी, वही पेट की लड़ाई, वही पुराने गोरिल्ला। नोंच रहे हैं एक दूसरे को, कभी फल के पीछे भाग रहे हैं, कभी मादा के पीछे भाग रहे हैं। वही है। विचार करो ही मत कि इस बार कुछ अलग तो नहीं हो गया। कुछ अलग नहीं हो सकता, वही है. भाई, वही है। वही है पुरानी चीज़, तुम कुछ करो।

जब तुमने यह अभ्यास साध लिया, तुम क्षेत्रज्ञ हो गए। तुमने क्षेत्र को जान लिया। क्षेत्र को कौन जान गया? जिसने क्षेत्र के अलग-अलग स्थानों पर भेद करना छोड़ दिया। जिसने क्षेत्र को बस क्षेत्र जान लिया। जिसने यह कहना छोड़ दिया कि अच्छा क्षेत्र, बुरा क्षेत्र, पतित क्षेत्र, पावन क्षेत्र। क्षेत्र माने क्षेत्र।

तत्काल, क्षण भी मत लगाइएगा, क्षण का शतांश भी मत लगाइएगा। माया समय पर पलती है। आपने सोच-विचार में आधा क्षण भी लगा दिया तो इतने में खेल ख़त्म।

कुछ उठा नहीं, तत्काल कहिए, “वही है। तुम फ़िर आ गए।" द्वार पर जब भी दस्तक हो, जान लीजिए, कौन है? वही गोरिल्ला। बिल में जब भी सरसराहट हो, जान लीजिए कि, कौन है? साँप। कचरे की पेटी से जो भी निकला है, जान लीजिए कि कचरा ही है। वहाँ आपको क्या लग रहा है, हीरे, मोती, माणिक्य आपको उपलब्ध होने वाले हैं? कि इस बार जो निकला है, इसको ज़रा अच्छे से जाँचना, इसमें कोहिनूर होगा। कुछ नहीं, वहाँ से निकला है, वही होगा जो होता है हमेशा। भैंस पूँछ उठाएगी तो गोबर ही करेगी। तो वैसे ही खोपड़ा जब भी चलेगा तो गोबर ही करेगा, गाना थोड़े ही गाएगा।

बड़ी चोट लग रही है। कह रहे हैं, 'नहीं, कुछ तो अच्छे काम करते हैं न हम। आचार्य जी, एक प्रतिशत की तो गुंजाइश छोड़ दीजिए। हाँ, निन्यानवे प्रतिशत कचरा है, एक प्रतिशत तो दूसरी चीजें भी होती हैं।' नहीं, उसी एक प्रतिशत में फँसे हुए हो। बोलो कि पूरा कचरा है। वो पूरा जब तक नहीं बोलोगे, तब तक बात नहीं बनेगी। कोई अपवाद नहीं रखना है, कोई गुँजाइश नहीं छोड़नी है। क्या है? पूरा कचरा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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