प्रश्नकर्ता: सर, नमस्कार।
आचार्य प्रशांत: नमस्कार।
प्रश्नकर्ता: तो आचार्य जी, आपने आइआइएम (भारतीय प्रबंधन संस्थान) क्रैक किया। आइआइटी (भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान) क्रैक किया। आइएएस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) भी; लेकिन उसके बाद कॉरपोरेट लाइफ़ छोड़कर आपने प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन शुरू करी। तो आपके हिसाब से व्हाट इज़ अ सक्सेसफुल लाइफ़ (सफल जीवन क्या है)?
आचार्य प्रशांत: देखिए, हम कहते हैं, 'हमें कुछ करना है, चाहे आइआइटी के बाद करना है, आइआइएम के बाद करना है या किसी भी और चीज़ के बाद करना है।' या कुछ हम कहते हैं, ‘हमें हासिल करना है, कुछ बनना है।’ ऐसा हम सभी कहते हैं। तो इससे जाहिर है कि हमें कहीं कोई कमी दिख रही होती है न, तभी तो हम कुछ बनना चाहते हैं या हासिल करना चाहते हैं। हम जो कहते हैं न कि बिकमिंग (होना), वो बिकमिंग इसीलिए है क्योंकि हमें कहीं-न-कहीं कुछ खोट दिख रही होती है। कुछ ऐसा होता है जिसे ठीक किया जाना ज़रूरी है। कुछ ऐसा है, जो वैसा नहीं है जैसा उसे होना चाहिए। तो सक्सेस (सफलता) की कोई ऑब्जेक्टिव परिभाषा कैसे दें?
ये तो बात यही है कि मेरे भीतर या मेरे ज़हन में जो चीज़ मुझे परेशान कर रही है, मुझे गलत दिख रही है उसको मुझे मिटाना है, ठीक करना है — यही सफलता है। अगर सब कुछ ठीक ही हो, मान लीजिए आप एक बार को, सब कुछ ठीक ही हो तो फिर कोई कुछ करे ही क्यों? कोई कुछ करेगा ही नहीं न?
यदि अंदर और बाहर, माने अपने भीतर की दुनिया में जहां पर हमारी भावनाएँ होती हैं, विचार होते हैं, और बाहर की दुनिया में जहां ये दुनिया का सारा कार्यक्रम चल रहा है, सब कुछ ठीक हो तो किसी को तो फिर कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं है; सब ठीक है। फिर तो हम यही करेंगे कि अपना हँसो-खेलो, नाचो-गाओ और मस्त रहो। फिर किसी तरह की सफलता की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
लेकिन जब आप शब्द इस्तेमाल करते हैं सफलता, तो उसमें हमेशा एक लक्ष्य, एक ऑब्जेक्टिव शामिल होता है न? वो ऑब्जेक्टिव , मैं समझता हूँ, हमारे भीतर से ही आना चाहिए। ये देखकर के कि भाई आप जिस दुनिया में आ गए हो और जैसी आपकी हालत है, क्या करना ज़रूरी है?
जो आपको लगता है करना ज़रूरी है, आप उसी के लिए समर्पित हो जाएँ और जितनी आपकी ताकत हो, उससे थोड़ा सा ज़्यादा आप काम कर जाएँ, यही सफलता है।
प्रश्नकर्ता: तो आपको ये नहीं लगता कि मानव जन्म के लिए कहीं ऑब्जेक्टिव कोई सफलता है? तो क्या आप गौतम बुद्ध को और डॉनल्ड ट्रंप दोनों को सफल व्यक्ति बताएँगे?
आचार्य प्रशांत: देखिए, डॉनल्ड ट्रंप सफल हैं या नहीं ये वास्तव में सिर्फ वो ही बता सकते हैं, उनका जीवन बता सकता है। क्योंकि मैंने कहा, सफलता इस बात में निहित है कि जो आपको अंदर और बाहर कमी दिखाई दे रही थी, वो आपने ठीक करी या नहीं करी। और बाहर की कमी भी आप कुछ ठीक कर पाओ, उसके लिए पहले ज़रूरी है कि अंदर की कमी हटाओ। क्योंकि अंदर अगर सौ कमियाँ हैं तो आपको बाहर क्या ठीक करना है ये पता नहीं चलेगा न।
अगर मेरी आँखें मान लीजिए खराब हैं तो बाहर कौन-सी चीज़ गंदी है मुझे क्या दिखाई देगा? मेरी तो आँखे ही गंदी हैं, तो बाहर क्या गंदा, क्या साफ, मुझे पता ही नहीं चलेगा।
तो मैं सफल हुआ हूँ कि नहीं, वो तो सिर्फ मुझे ही पता हो सकता है। और कैसे पता होगा? कि भई, भीतर अभी आग लगी रहती है कि नहीं लगी रहती। भीतर बात-बात में डर, क्लेश उठ जाता है कि नहीं उठ जाता है। भीतर कोई बैठा हुआ है क्या अभी भी जो एकदम छोटा है, पिटी , क्षुद्र, जो दुश्मनों से चिढ़ता है, जो महत्वाकांक्षा रखता है, जो ईष्या, जेलेसी रखता है? अगर वो अभी सब भीतर बैठा हुआ है तो फिर तो अभी भीतर बहुत काम बाकी है, और अगर काम बाकी है तो सफल कहाँ से हो गए?
तो इसीलिए मैंने कहा था कि ये बहुत आतंरिक बात है कि आप सफल हैं या नहीं हैं, और आपके अलावा वास्तव में कोई जान भी नहीं सकता कि आप सफल हैं या नहीं हैं। हाँ, दूसरा आपकी ज़िंदगी को, आपके चेहरे को, आपके कर्मों को, आपके हाव-भाव को देखकर के आपको इशारा ज़रूर दे सकता है कि साहब आपको देख कर लग नहीं रहा कि आप भीतर से चैन में हैं; या आपके कर्मों की जो दिशा है उसको देख कर लग नहीं रहा कि भीतर आपके रोशनी अभी जली है।
दूसरा आपको ये सब बोल सकता है लेकिन फिर भी आखिरी बात तो आपकी अंदरूनी ईमानदारी की है। सिर्फ आप ही बता सकते हैं कि भीतर से आप कितने ठोस, कितने मज़बूत और कितना शांत अनुभव करते हैं। ये तो सिर्फ आप ही जान सकते हैं।
प्रश्नकर्ता: तो और अगर हम खुशी की बात करें, मुझे लगता है दुनिया में बहुत से लोग या अधिकांश लोग खुशी ही परस्यू (पीछा करना) कर रहे हैं। आपको लगता है कि इस हैप्पीनेस (खुशी) की कोई ऑब्जेक्टिव डेफिनेशन है? क्या हैप्पिनेस (खुशी) वो एक हेडोनिज़्म (सुखवाद) वाली फीलिंग है। जो लोग सुख का पीछा करके प्राप्त करना चाहते हैं या हैप्पीनेस कुछ और है?
आचार्य प्रशांत: नहीं, देखिए एक जेनेटिक सिस्टम (आनुवंशिक तंत्र) है हमारा। वो एक अंदरूनी व्यवस्था है। वो अंदरूनी व्यवस्था अपना उद्देश्य हासिल करना चाहती है, और जब मैं अंदरूनी व्यवस्था की बात कर रहा हूँ तो यहाँ पर मेरा इशारा कॉन्शियसनेस (चेतना) की ओर नहीं है। मेरा इशारा जेनेटिक्स (आनुवंशिकी) की ओर है। तो हम सब लोग जेनेटिकली प्री प्रोग्राम्ड (वंशानुगत रूप से पूर्व निर्धारित) हैं कुछ काम करने के लिए, कुछ चीज़ें हासिल करने के लिए। और उस जेनेटिक प्रोग्रामिंग (आनुवंशिक पूर्वनिर्धारण) के ऊपर जो आसपास की सोशल प्रोग्रामिंग (सामाजिक-पूर्वनिर्धारण) है, वो भी आकर के बैठ जाती है। तो उस प्रोग्रामिंग ने जो हमें करने को कहा है, जब वो हमारे साथ होने लग जाता है तो हम कहना शुरू कर देते हैं कि साहब, 'हम हैप्पी हैं। हमें प्लेज़र (सुख) मिल रहा है।'
लेकिन वास्तव में उसमें हैप्पीनेस (खुशी) क्या है? आपके साथ वही सब चीज़ें हो रही हैं जो या तो आपसे आपका शरीर करवा रहा है या समाज करवा रहा है। और वो चीज़ें आपके सिस्टम के गोल्स को उद्देश्यों को पूरा करने के लिए हो रही हैं। तो उसमें खुशी अगर किसी को होनी भी चाहिए तो आपके सिस्टम को होनी चाहिए, आपको नहीं।
ये जो मैं बात बोल रहा हूँ इसमें ये एजम्पशन (मान्यता) बैठा हुआ है कि आप समझ रहे हैं कि आप और आपका सिस्टम अलग है। भाई, उदाहरण के लिए हो सकता है कि आप और मैं अभी बात कर रहे हैं, आपको नींद आ रही हो या मुझे भूख लग रही हो। लेकिन न तो आप सोने चले जाएँगे और न ही मैं खाना खाने चले जाऊँगा। आपका सिस्टम चाह रहा है कि आप सो जाएँ। मेरा सिस्टम चाह रहा है कि मैं खाना खाने चला जाऊँ। लेकिन हमारे भीतर कोई और है जो जानता है कि ये बातचीत ज़्यादा महत्वपूर्ण है, तो ये बातचीत करेंगे हम, ये ज़्यादा ज़रूरी है।
लेकिन मेरे भीतर कोई बैठा है जो खाना खाने पर बहुत हैप्पी (खुश) हो जाएगा। और आपके भीतर कोई बैठा है जो सो जाने पर प्लेज़र (सुख) ले लेगा। दुनिया के ज़्यादातर लोगों की खुशी ऐसी ही है। वो, वो नहीं कर रहे जो ज़रूरी है। उदाहरण के लिए बातचीत नहीं कर रहे हैं। वो, वो काम कर रहे हैं जो उनसे उनका सिस्टम करवाना चाहता है। वो सिस्टम मैंने कहा बायोलॉजिकल (जैविक) भी हो सकता है, सोशल (सामाजिक) भी हो सकता है।
तो मैं समझता हूँ, देखिए, ये खुशी बिल्कुल दो कौड़ी की है और बहुत ज़्यादा खतरनाक है। दुनिया में इस वक़्त ज़्यादातर जो समस्याएँ हैं, उनका कारण ही यही है कि हम जानते ही नहीं हैं निचली खुशी और ऊँची खुशी के बीच का अंतर। एक खुशी हमको आपको मिल रही है ये बातचीत करने में, और एक खुशी वो भी होती जो आपको सोने में और मुझको खाने में मिलती। खुशी तो दोनों ही कामों में मिल जाती, इस बात को करने में भी और सोने में खाने में भी; लेकिन एक निचली खुशी है, एक ऊँची खुशी है।
दुनिया की मैं कह रहा हूँ ज़्यादातर समस्याएँ यही हैं कि हमें ऊँची खुशी का कोई मतलब ही नहीं पता। जो हैप्पीनेस ऑफ कॉन्शियसनेस (चेतना की खुशी) है, उसको हम जानते ही नहीं। ज़्यादातर जो हमारे प्लेज़र (सुख) हैं वो प्लेज़र्स ऑफ बॉडी (शारीरिक-सुख) हैं और जो हमारी हैप्पीनेस है वो सोशल डिक्टेट (सामाजिक आदेश) से आ रही है।
समाज ने जो बता दिया हम वही करने में और वही हासिल करने में खुश हो जाते हैं। और वो खुशी बहुत न सिर्फ निचली है बल्कि उथली भी है, सुपरफिशियल भी है। उस खुशी में डर मिला होता है, वो खुशी बहुत दूर तक चलती नहीं, वो खुशी अपने पीछे-पीछे ग़म और उदासी लेकर आती है। तो अगर एक इसी बात को पकड़कर के लोग गहराई से सोच-समझ लें कि कौन-सी खुशी चाहिए मुझे, तो दुनिया बदल जाएगी।
खुशियाँ बहुत तरह की हैं, खुशियाँ बहुत स्तरों की है, मुझे किस स्तर की खुशी चाहिए? जितने ऊँचे स्तर की आप खुशी चाहेंगे, उतने ऊँचे स्तर का आपका जीवन होगा और बस वही सब कुछ है। तो ऊँची खुशी, वो चाहनी चाहिए।
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद। तो ये जो ऊँचे स्तर वाली खुशी है, एक मिडिल क्लास वाला आदमी कैसे प्राप्त कर सकता है?
आचार्य प्रशांत: नहीं, जब हम कह रहे है ऊँचा और नीचा। तो वो एक तुलनात्मक एक रिलेटिव बात है न? मैं और आप अभी बात कर रहे हैं। मैं फिर बोल रहा हूँ, खाना और सोना ये तो सबको आकर्षित करते हैं। मिडिल क्लास (मध्य वर्गीय) हो, अपर क्लास (उच्च वर्गीय) हो, लोअर क्लास (निम्न वर्गीय) हो, लोअर मिडिल क्लास (निम्न-मध्यम वर्गीय) हो सबको करते हैं। तो और ऐसा कोई होता नहीं है दुनिया में जिसके पास वो, जो नीचे वाली खुशी है, उससे रिलेटिवली , तुलनात्मक रूप से ऊँची खुशी का कोई विकल्प न हो।
एक अगर आठ साल का बच्चा भी है, तो उसके पास ये विकल्प होता है कि, 'शाम का वक़्त हो रहा है, मैं बाहर भाग जाऊँ और मैं बाहर दौड़ लगाऊँगा, फुटबॉल खेलूँगा। मैं उसकी खुशी ले लूँ या फिर मेरी परीक्षाएँ आ रही हैं, मैं उसकी तैयारी कर लूँ, मैं उस तैयारी की खुशी ले लूँ।'
तो बात मिडिल क्लास या लोअर मिडिल क्लास या बूढ़े या बच्चे या आदमी या औरत की बिल्कुल भी नहीं है। ये सवाल तो हर समय, हर व्यक्ति के सामने है कि तुम्हें इस समय कौन-सी खुशी चाहिए। क्योंकि हम सबको ले देकर के चाहिए तो खुशी ही। आप किसी भी वक़्त, कुछ भी कर रहे हो तो खुशी के लिए कर रहे हो। देखिए, आप मुझसे बात कर रहे हैं अगर इसमें आपको बहुत तकलीफ़ हो रही होती, तो आप ये बात नहीं करते। कहीं-न-कहीं इसमें आपकी खुशी शामिल है, मेरी भी खुशी शामिल है।
हम जो भी करते हैं चाहे हम एक कदम किसी दुकान की ओर बढ़ा रहे हों, चाहे अपने बिस्तर की ओर बढ़ा रहे हों, चाहे हम खेल के मैदान की ओर जा रहे हों, चाहे हम अपने ऑफिस (कार्यालय) जा रहे हों, वो हम कर तो अपनी खुशी के लिए ही रहे हैं। चाहे ये बात हम मानें, न मानें; जानें, न जानें।
तो कोई भी इंसान हो, मिडिल क्लास , कोई भी इंसान हो, उसको ये देखना होगा कि इस वक़्त पर मेरे पास विकल्प क्या-क्या है। आमतौर पर जो निचले तल का विकल्प होता है, लोअर लेवल का वो आसान होता है। और जितने ऊँचे तल की खुशी होती है वो उतनी बड़ी कीमत माँगती है। वो कीमत आपको देने को तैयार होना चाहिए।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैंने जितने भी जो लोग देखे, जिन्हें हम महान व्यक्ति कहते हैं; मैं कहूँगा जो खुश दिखते हैं, जैसे गौतम बुद्ध, बाबा नानक, महात्मा गाँधी यहाँ तक कि मार्टिन लूथर किंग। तो इन लोगों में जो मैंने चीज़ कॉमन (समानता) पाई, वो ये थी कि ये सर्विस कर रहे थे, दूसरों की मदद कर रहे थे। तो इट इज़ सेफ टू अज़्यूम (क्या ये मानना सही है) कि दूसरों की मदद करने में ही ऊँचे स्तर की खुशी मिलती है?
आचार्य प्रशांत: इसको थोड़ा-सा पलट दीजिए। अपने से आगे का कुछ करने में ऊँची खुशी मिलती है। अपने माने अपने सिस्टम से। हम दो हैं न? अभी हमने बात करी थी एक जो हमारा सिस्टम है, एक जो हमारी कॉन्शियसनेस है, ठीक है। एक जो हमारा जेनेटिक , जैविक तंत्र है और दूसरी हमारी चेतना। तो अपने सिस्टम (तंत्र) को खुश करने की जगह, अपने सिस्टम से आगे का, अपने सिस्टम से बियॉन्ड करने में ऊँची खुशी मिलती है।
इसीलिए आपको बुद्ध की खुशी में और जो आम आदमी है, उसकी खुशी में बहुत कम समानताएँ मिलेंगी। आपने किसी कहानी में भी नहीं पढ़ा होगा कि बुद्ध ठहाके मार के हँस रहे हैं या कि बुद्ध रेव पार्टी कर रहे हैं, या कि बुद्ध कह रहे हैं कि टंगड़ी-कबाब ले करके आओ, आज तो मुझे चबाना है। और पाँच तरीक़े का माँस होना चाहिए, तभी तो मुझे खुशी मिलेगी।
बुद्ध की खुशी अलग है और आम आदमी की खुशी बिल्कुल अलग है। और बुद्ध की खुशी असली है। आम आदमी की खुशी ऐसी है कि फिर उसको तमाम तरह के मेंटल डिसऑर्डर (मानसिक बीमारियाँ) भी हैं। ज़िंदगी भर डरा हुआ भी रहता है। और ज़िंदगी भर अपने इंटरनल बॉन्डेज (आतंरिक बंधन) में रहता है।
आपने आज तक कोई तस्वीर देखी है बाबा नानक की जिसमें वो हँस रहे हों? लेकिन आप बुद्ध के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कुराहट ज़रूर देखेंगे; वो बहुत हल्की है, एकदम सटल है, ठीक है। आम आदमी खुशी मानता है जब उसको बहुत सारे कपड़े मिल जाते हैं। महात्मा गाँधी की खुशी इसमें थी कि उनके पास पैसा भी था, बाहर के दो देशों में रहकर भी आए थे, बैरिस्टर (वकील) थे और उनका खूब नाम हो चुका था जब हिन्दुस्तान में वो उतरे। लेकिन हिन्दुस्तान में उतरे तो उन्होंने कपड़े उतार दिए। उनकी खुशी बिल्कुल धोती-धारी फकीर बन जाने में थी। और हमारी खुशी इसमें होती है कि भाई मुझे नए वेस्टनाईज (पाश्चात्य) कपड़े मिल जाएँ तो मैं खुश हो जाऊँगा। तो खुशी के दीवाने तो सभी हैं। सवाल ये है कि तुम किस जगह पर अपनी खुशी खोज रहे हो। निचली और घटिया जगहों पर खुशी खोज करके हम अपनी ज़िंदगी भी खराब कर लेते है और पूरी पृथ्वी का नाश कर देते हैं। और उसमें भी मैं थोड़ा सा जोड़ना चाहूँगा कि हमारा दावा ये रहता है कि खुशी सिर्फ एक तल पर होती है, वो है निचला तल।
आप अगर किसी से जाकर कहेंगे कि द हैप्पिएस्ट पर्सन आई नो इज़ अ कृष्ण ऑर बुद्ध (सबसे खुश इंसान जो मैं जानता हूँ वो कृष्ण और बुद्ध हैं), तो उसको ये बात पचेगी नहीं। वो कहेगा, ‘नहीं, वो हैप्पी (खुश) थोड़े ही हैं। आप उनको कुछ और बोल दीजिए, आप उनको एलिवेटेड (जिसकी चेतना ऊपर उठी हुई हो) बोल दीजिए, एन्लाइटेंड (प्रबुद्ध) बोल दीजिए, कन्टेंटेड (संतुष्ट) बोल दीजिए। लेकिन आप उनको हैप्पी क्यों बोल रहे हो?'
तो हम हैप्पीनेस (खुशी) शब्द को मोनोपॉलाइज (एकाधिकार) करके रखना चाहते हैं अपने लिए। हम कहते हैं, ‘साहब हैप्पी (खुश) तो हम ही हैं। क्योंकि हमसे ये बात झेली ही नहीं जाएगी कि हम वास्तव में खुश नहीं हैं।' खुश तो दुनिया में कुछ मुट्ठी भर लोग ही हुए हैं। लेकिन ये बात हमारे अहम् को, हमारी ईगो को बहुत चुभेगी; और फिर चुभेगी ही नहीं अगर हमने मान लिया कि हमारी खुशी बहुत निचली है और वो खुशी वास्तव में खुशी कहलाने लायक़ ही नहीं है, तो फिर हमें अपनी ज़िंदगी बदलनी पड़ेगी न?
हमें ऊँची खुशियों की कोशिश करनी पड़ेगी, उसमें मेहनत लगती है, उसकी कीमत देनी पड़ती है और वो हम करना नहीं चाहते, आलस रहता है। 'मेहनत कौन करे?' तो फिर हम कह देते हैं, ‘हम खुश हैं और वो सब जो बड़े लोग हुए हैं, वो तो कुछ और थे, वो ऊपर के थे।‘ खुशी शब्द को हमने अपने लिए आरक्षित किया है, जो कि बिल्कुल गलत बात है।
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद। आपने काफी अच्छे से समझाया। तो ये बात सुनकर के मेरे दिमाग में आती है कि हममें से वो लोग जो सिर्फ अपने निचले स्तर की ज़रूरतें पूरी कर रहे हैं — खाना, सोना, सेक्स , और अपने से आगे नहीं जा रहे तो क्या ये मानव-जन्म व्यर्थ करने वाली बात हुई?
आचार्य प्रशांत: नहीं, वो तो वही जानें न। आप देखिए आप उन्हें अगर बाहर से बताओगे, आप किसी आदमी को पकड़ो, उसको बोलो कि तू बस इसी में लगा हुआ है कि और कमा लूँ और कमा लूँ, क्यों और कमाना है? ‘ताकि मैं फ़लानी तरह का फर्नीचर खरीद लूँ, फ़लानी जगह वेकेशन पर चला जाऊँ। और यही सब तेरा चल रहा है और तेरे पास थोड़ा पैसा बढ़ जाता है तो तू जिस रेस्तरां में खाया करता लेवल बढ़ा देता है। यही सब तेरा चल रहा है तो तेरा जीवन व्यर्थ जा रहा है, मानव जन्म व्यर्थ जा रहा है।' तो वो आप से कहेगा, ‘साइड हटो, साहब।' ये तो उस व्यक्ति को ख़ुद महसूस करना पड़ेगा कि उसकी ज़िंदगी में ज़बरदस्त कमी है।
हाँ, आप उसके सामने एक उदाहरण रख सकते हो। आप उसके सामने उदाहरण से भी ज़्यादा कुछ सवाल रख सकते हो और अगर वो उन सवालों का बेबाकी, ईमानदारी से जवाब देगा तो उसको दिख जाएगा कि वो ख़ुद ही परेशान है।
हमारी समस्या ये है कि हम मानते ही नहीं हैं कि हम बहुत ज़्यादा बेचैन हैं और परेशान हैं। सपाट शब्दों में कहूँ तो हम असल में दुखी लोग हैं। हम जितना ज़्यादा खुशी का आयोजन अरेंजमेंट (प्रबन्धन) करते हैं, वो बताता ही यही है कि हम अंदर से बहुत ज़्यादा दुखी लोग हैं। हम दुखी बहुत हैं लेकिन शर्म आती है स्वीकार करने में। तो बाहर से फिर ये अट्टहास चल रहा है, हैप्पी फेसबुक फेसेस और जिसको देखो वही ये बता रहा है कि आई एम सो गुड, आई एम सो गुड (मैं बहुत अच्छा हूँ, मैं बहुत अच्छा हूँ)।
और ये मानने में कि 'मैं दुखी हूँ, ज़िम्मेदारी आ जाती है न फिर।' एक बार आपने मान लिया कि कोई चीज़ ठीक नहीं है; मैंने एक बार ये मान लिया, ये मेरा मग रखा है ये ठीक नहीं है, तो मुझ पर ज़िम्मेदारी आ जाएगी या तो इसे ठीक करो, साफ करो जो भी करना है, या फिर बदल दो। इसी तरह से अगर ये मान लिया कि मेरी ज़िंदगी ही ठीक नहीं है तो ज़िम्मेदारी आ जाएगी कि ठीक करो, साफ करो या बदल दो।
तो कौन इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी उठाए? उससे कहीं बेहतर है कि कह दो कि सब ठीक चल रहा है, 'बल्ले! बल्ले!' तो बल्ले! बल्ले! का माहौल है और बस बीस-चालीस साल और रहेगा। उसके बाद वैसे ही कुछ बचना नहीं है, तो वही कर लीजिए आप बीस-चालीस साल — 'बल्ले! बल्ले!'
प्रश्नकर्ता: मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ। अब समस्या ये उठती है कि अगर इंसान की सोच में ये कमी है और उसका प्रभाव जो है वो सिर्फ उस इंसान पर पड़ रहा हो तो लेट गो (जाने दिया) किया जा सकता है। भाई चलो तुम्हारी ज़िंदगी, तुम्हारी पर्सनल चॉइस (व्यक्तिगत चुनाव)।
पर समस्या ये है जिन चॉइसेज (चुनाव) को लोग पर्सनल (व्यक्तिगत) बताते हैं वो वैक्यूम (निर्वात) में तो होती नहीं है। उसका प्रभाव हर एक चीज़ पर पड़ता है। आपने पहले टंगड़ी कबाब की बात करी, तो कोई बेचारा मुर्गा कटेगा, कोई बकरा कटेगा, अगर लोग डेयरी कंज्यूम करते हैं कोई गाय मरेगी। तो इसका समाधान क्या है? क्योंकि लोगों की गलत सोच का ख़ामियाजा पूरी पृथ्वी उठा रही है।
आचार्य प्रशांत: नहीं, सबसे पहले तो नॉलेज (ज्ञान) की ही कमी है। इतना हमको जो है लोगों को कंसीडरेशन , इतनी गुंजाइश छोड़नी पड़ेगी कि नब्बे, पिच्चानवे परसेंट और ज़्यादा निन्यानबे प्रतिशत लोगों को अभी फैक्ट्स (तथ्य) पता ही नहीं है बेचारों को। क्योंकि उनको न तो स्कूली शिक्षा में बताए गए, न कॉलेज एजुकेशन में बताए गए, न उनको जो मेनस्ट्रीम मीडिया वो बता रहा है, और न ही सोशल मीडिया पर इस तरह की बहुत बातें कन्वर्सेशंस (बातचीत) हो रहे हैं तो लोगो को पता ही नहीं है।
शायद ही कोई ऐसा दिन जाता होगा जब मेरे यूट्यूब चैनल पर और बाकी जो मीडिया हैं उन पर विगनिज़्म (शुद्ध शाकाहारी) से रिलेटेड कोई पोस्ट न डलती हो। और मैं समझ गया हूँ कि अगर मैं इनको बोलूँगा कि मुर्गे के प्रति करुणा रखो, तो इनको बात समझ में नहीं आती और ये कह देते हैं कि भाई ये तो हमारी अंदरूनी बात है, पर्सनल बात है कि मुझे मुर्गे के लिए करुणा रखनी है कि नहीं रखनी है। और पाँच तरह के और कुतर्क करते हैं, कहते हैं ‘मुर्गे के लिए करुणा रखूँगा तो फिर तो मेरे भीतर सेब के लिए भी करुणा होनी चाहिए। मैं सेब काहे को खाऊँ?’
खैर, तो अभी पिछले कई सालों से उनको समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) का या तो सबसे बड़ा कारण या दूसरे नंबर का सबसे बड़ा कारण मांसाहार है। इन्हें पता ही नहीं है, ये वाकई पूछते हैं कि ये आपने क्या बोल दिया। और इनको भरोसा ही नहीं होता, तो ये हँसना शुरू कर देते हैं कहते हैं ऐसे थोड़े ही होता है। मुर्गा काटने का या पोर्क या बीफ़ खाने का या मटन खाने का संबंध क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) से कैसे हो सकता है? उनको किसी ने बताया ही नहीं है आज तक। और ये पता नहीं ये बात अज्ञान की है, भूल की है या सीधे-सीधे साजिश की है, क्योंकि जब हम बताना चाहते थे तब हमने ज़ोर-ज़ोर से बता दिया।
उदाहरण के लिए दिवाली पर पटाखे नहीं फोड़ने चाहिए, ये हम बताना चाहते थे और हमने ज़ोर-ज़ोर से बता भी दिया कि त्योहार की गरिमा, मर्यादा और आनंद किसी दूसरी चीज़ में है। उसको बेहतर तरीक़े से मनाया जा सकता है, और आज का समय ये अनुमति नहीं देता कि आप हवा को विषाक्त करें। तो तब तो हमने ज़ोर लगाकर के बता दिया बिल्कुल। लेकिन उतना ही ज़ोर लगाकर के पता नहीं क्यों हम दुनिया को, ख़ासतौर पर आज के बच्चों को और नौजवानों को ये बता नहीं पाए हैं आप जो मांस खा रहे हो या अंडा खा रहे हो या डेयरी खा रहे हो, वो पूरी दुनिया के लिए कितनी भयानक और खतरनाक चीज़ है। लोगों को वाकई नहीं पता, अच्छे खासे पढ़े लोगों को नहीं पता और मैं अभी स्कूल स्टूडेंट्स की नहीं बात कर रहा, मैं प्रोफेशनल्स और पोस्ट ग्रेजुएट्स की बात कर रहा हूँ, उनको भी नहीं पता है।
तो सबसे पहले तो एक मैसिव अवेयरनेस कैंपेन (जन जागरुकता अभियान) चाहिए जिसमें बात हो बिल्कुल तथ्यों के साथ। सीधे-सीधे एकदम ऐसे कि पाँच साल का बच्चा भी समझ जाए। अभी सबको यही लगता है कि मैं खाऊँ या नहीं खाऊँ, ये मेरा व्यक्तिगत मसला है। एक बड़ा लिबरल व्यू पॉइंट (उदार दृष्टिकोण) है न आई विल डिसाइड वाट्स देयर ऑन माई प्लेट (मैं ये निर्णय करूँगा कि मेरी थाली में क्या होगा)। और ये सुनने में बात इतनी अकाट्य, इन्डिस्प्यूटेबल लगती है कि आप कोई जवाब दे नहीं सकते कि हाँ साहब वो क्या खा रहा है ये तो उसका पर्सनल मसला है, या वो क्या पहन रहा है ये तो उसकी अपनी व्यक्तिगत बात है। लेकिन अभी तक लोगों तक ये नॉलेज (जानकारी), ये बेसिक साइंटिफिक फैक्ट (वैज्ञानिक तथ्य) ही नहीं पहुँचा कि आप जो खा रहे हो वो बिल्कुल भी आपका पर्सनल मैटर (व्यक्तिगत मसला) नहीं है। आप जो खा रहे हो उसने इस पूरी पृथ्वी का नाश कर दिया। और ये बात आँकड़ों के साथ और कई तरीक़े से पहुँची नहीं है।
हम अपने तल पर जो कोशिश कर सकते हैं कर रहे हैं, तक़रीबन रोज ही इस पर कहते हैं, वीडियोज़ डालते हैं, ये सब करते हैं। लेकिन उसमें मैंने कहा न साज़िश; दो-चार बार सोशल मीडिया से अपना अकाउंट इसलिए बैन हो चुका है क्योंकि उसमें एनिमल क्रुएलिटी (जानवरों के प्रति हिंसा) की हमने बात करी और विडियोज़ डाले। तो सोशल मीडिया ने कहा ये वीडियोज़ डिस्टर्बिंग हैं और कई बार मतलब अब कम से कम सात-आठ बार हो चुका है कि मेरे अपने अकाउंट्स बैन हो चुके हैं। और ये पिछले तीन-चार साल से चल रहा है।
तो एक तो बात ये है कि बताने वाले बता नहीं रहे और दूसरी बात ये भी है कि जिन माध्यमों से वो बताना चाहते हैं, जिन मीडिया का इस्तेमाल करके हम बताना चाहते हैं, वो मीडिया भी ज़बरदस्त इंटरेस्ट (रुचि) रखता है सच्चाई को छुपाने में। मीडिया क्यों इंटरेस्ट (रुचि) रखता है? क्योंकि मीडिया कैपिटल ड्रिवन (पूँजी चालित) है, मीडिया कैपिटल ड्रिवन (पूंजी चालित)।और एनिमल एग्रीकल्चर (पशुओं की खेती) और कैपिटल (पूँजीवाद) साथ-साथ चल रहे हैं। तो कैपिटल, मीडिया को भी संचालित कर रहा है और कैपिटल ये जो पूरी मीट और डेयरी इंडस्ट्री है इसको भी संचालित कर रहा है।
आप एक के ख़िलाफ़ बोलेंगे, दूसरा आपके ख़िलाफ़ खड़ा हो जाएगा अपने आप। लेकिन फिर भी हमें जो इसमें आक्षेप है इल्ज़ाम वो अपने ऊपर लेना चाहिए कि हम लोगों को ठीक से बता ही नहीं पाए हैं अभी तक, लोगों को नहीं पता सब कुछ। बहुत मैसिव अवेयरनेस कैंपेन (जन जागरूकता अभियान) चाहिए। और उस अवेयरनेस कैंपेन (जागरूकता अभियान) में, मैं समझता हूँ हम कम्पैशन (करुणा) की बात ज़्यादा न करें तो ठीक है। क्योंकि आज के समय में कम्पैशन (करुणा) एक मुर्दा शब्द है।
अभी तो आप यही बता दें, जैसे दीवाली पर बताया था कि आप अगर पटाखे चला रहे हो तो उससे पर्यावरण की हानि हो रही है। ठीक वही बात बताइए कि दीवाली पर पटाखे चलाने से पर्यावरण की जितनी हानि थी, उससे हज़ार गुना हानि हो रही है जब आप एक जानवर का कत्ल कर रहे हो। वो बताना बहुत ज़रूरी है।
प्रश्नकर्ता: आज तक आपको जो लगता है कि मतलब मिलियंस ऑफ ईयर (लाखों सालों) से इंसान ने बहुत ज़्यादा प्रोग्रेस (प्रगति) की है। पर आपको लगता है कि क्या वो असल मायने में हम उसको सिर्फ तकनीकी प्रोग्रेस को प्रोग्रेस (प्रगति) कह सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: नहीं, बिल्कुल भी नहीं। देखिए, हम कुछ भी करते हैं, एकदम जो मूल सवाल, फंडामेंटल क्वेश्चन है वो कभी भूलना ही नहीं चाहिए। हम प्रोग्रेस (प्रगति) क्यों करते हैं? हम कुछ भी क्यों करते हैं? प्रगति क्यों चाहिए? कुछ भीतर है न जो बेहतरी माँग रहा है, इसलिए प्रगति चाहिए?
अब भीतर दो हैं। एक तो ये है कि ये शरीर है जो कह रहा है कि मुझे बेहतर कपड़ा चाहिए। ये शरीर है जो कह रहा है, 'मुझे बेहतर मकान चाहिए, बेहतर खाना चाहिए या बीमारी के ख़िलाफ़ मुझे बेहतर दवाई चाहिए या कि मुझे अपने दुश्मन को मारने के लिए बेहतर हथियार चाहिए।' ये सब चीज़ें हमारी बॉडी (शरीर) में पहले से प्रोग्राम्ड (पूर्व निर्धारित) हैं। और उसका प्रमाण ये कि ये सारी बातें जंगल के जानवरों में भी पाई जाती हैं। इंसान भी जंगल से निकलकर आया है। जानवर भी जंगल में है।
हमें अपने उन सब कामों को देखना चाहिए जो जानवरों से मिलते- जुलते हैं। हम दूसरों से लड़ाई करते हैं। एक समुदाय दूसरे समुदाय से लड़ाई करता है, घरों के भीतर लड़ाइयाँ होती हैं, देशों के भीतर लड़ाइयाँ होती हैं, देशों के बीच लड़ाइयाँ होती हैं। तो ये सारे काम जंगल में भी होते हैं। दो जानवर लड़ रहे हैं और जानवरों में भी ऐसा होता है कई बार कि जानवरों के दो झुंड आपस में लड़ गए। अब आपने अगर लड़ने के लिए बेहतर टेक्नोलॉजी (तकनीकी) बनाई है तो अभी आप वास्तव में जंगल के जानवर ही हो, क्योंकि आप जो काम कर रहे हो, आप जिसको तरक्की कह रहे हो, प्रगति, वो वास्तव में आपके बायोलॉजिकल सिस्टम (जैविक तंत्र) द्वारा डिक्टेटेड (तय) है।
आपका जो जानवर था भीतर वो लड़ाई करना ही चाहता था, तो उसने आपके इन्टेलेक्ट (बुद्धि) का इस्तेमाल करके एक बेहतर हथियार बना लिया, उसने मिसाइल बना ली। आप समझ रहे हैं? वो बेहतर खाना खाना चाहता था तो उसने कई तरीक़े के जेनेटिकली मोडिफाइड फूड्स (आनुवंशिक रूप से परिष्कृत खाद्य) बना लिए। वो और ज़्यादा जानवरों को मार के खाना चाहता था तो उसने मेकेनाइज्ड स्लॉटर हाउसेस (यंत्रीकृत बूचड़खाना) बना लिए। आप इसको प्रगति बोल रहे हो?
जानवर भी एक जगह से दूसरी जगह पहुँचना चाहता है। मान लीजिए किस लिए? कोई भी उसका उद्देश्य है। इंसान भी एक जगह से दूसरी जगह जल्दी पहुँचना चाहता है तो हमने व्हीकल्स (वाहन) बना लिए और फास्टर व्हीकल्स (तेज़-वाहन) बना लिए, मोर एफिशियंट व्हीकल्स (ज़्यादा कुशल वाहन) बना लिए।
लेकिन अगर हमारा जो उद्देश्य है ये सब प्रगति के पीछे, सारी जो टेक्नोलॉजिकल प्रोग्रेस (तकनीकी प्रगति) है, उसके पीछे हमारा उद्देश्य है बस अपनी बेसिक इन्स्टिंक्ट , जो हमारी पाशविक प्रवृत्तियाँ हैं उनको सैटिस्फाई (संतुष्ट) करना है, तो ये टेक्नोलॉजिकल प्रोग्रेस (तकनीकी प्रगति) बहुत गलत डायमेन्शन (आयाम) में हो रही है। हम बस ये कह रहे हैं कि हैं तो हम जानवर ही, रहना हमें जानवर ही है। 'लेकिन हम ज़्यादा नॉलेजेबल (जानकार) जानवर बनेंगे, ज़्यादा लीथल (घातक) जानवर बनेंगे, ज़्यादा खतरनाक जानवर बनेंगे। हमें जो बुद्धि, इन्टेलेक्ट मिली है, उसका इस्तेमाल हम अपने भीतर के जानवर, जानवर को ही मैं कह रहा हूँ वो जो आपका जेनेटिक (वंशानुगत) मसाला बैठा हुआ है, हम उसके इरादों को पूरा करने के लिए करेंगे।'
दूसरी बात ये है कि आपके भीतर आपकी एक चेतना भी बैठी हुई है, जानवरों में नहीं पाई जाती। इंसान और जानवरों में अंतर यही है कि इंसान के पास एक ऐसी चेतना है, जो लिबरेशन (मुक्ति) माँगती है। जो रियलाइजेशन (बोध) माँगती है, जिसे बोध चाहिए, मुक्ति चाहिए। अगर आप जो प्रगति कर रहे हो बाहर टेक्नोलॉजिकल साइंटिफिक प्रोग्रेस (तकनीकी वैज्ञानिक प्रगति), अगर वो इसलिए हो रही है ताकि आपकी जो कॉन्शियसनेस है वो रियलाइजेशन (बोध) और लिबरेशन (मुक्ति) के डाइमेन्शन में आगे बढ़ सके, तब तो वो टेक्नोलॉजिकल प्रोग्रेस (तकनीकी प्रगति) असली मानी जानी चाहिए और वास्तव में फ़ायदेमंद मानी जानी चाहिए।
नहीं तो जितनी तकनीकी प्रगति हुई है पिछले हज़ारों सालों में, इस सबको हमें लगभग व्यर्थ मानना चाहिए। व्यर्थ ही नहीं खतरनाक मानना चाहिए क्योंकि हमने जानवर के हाथ में मिसाइल दे दी है। हमने जानवर के हाथ में न जाने कितनी ताकत दे दी है ख़ुद को बर्बाद करने की और पूरी पृथ्वी को बर्बाद करने की। और इस वक़्त सबूत यही है कि हमने पूरी टेक्नोलॉजिकल , तकनीकी प्रगति का इस्तेमाल ख़ुद को बर्बाद करने के लिए किया है। जानवर और कर भी क्या सकता है? बंदर के हाथ में तलवार दोगे क्या होगा?
तो साइंस बहुत सुंदर और ऊँची चीज़ है, बल्कि मैं कहूँगा सेक्रेड है, पवित्र है। क्योंकि आप जानना चाहते हो, लेकिन उसका इस्तेमाल सही सेंटर (केन्द्र) से होना चाहिए। साइंस (विज्ञान) जब टेक्नोलॉजी (तकनीकी) में बदले तो वो टेक्नोलॉजी (तकनीकी) ह्यूमन कंजम्प्शन (मनुष्य के भोग) के लिए नहीं होनी चाहिए कि मैंने टेक्नोलॉजी (तकनीकी) बनाई है ताकि अब मैं और ज़्यादा कंज्यूम (भोग) करूँगा।
भाई, आपने एटम को फोड़ दिया, आपने न्यूक्लियस को फोड़ दिया, आप समझ गए न्यूक्लियस के भीतर ज़बरदस्त एनर्जी (ऊर्जा) है। पर आप उस एनर्जी (ऊर्जा) को कर क्या रहे हो? आपने उसका न्यूक्लियर पावर प्लांट (परमाणु ऊर्जा प्लांट) बना दिया। क्यों बना दिया? ताकि आपको जब और एनर्जी मिलेगी तो आप उससे और ज़्यादा डिमोलिशन (विध्वंश) कर सकते हो। आप नेचर (प्रकृति) को और ज़्यादा बर्बाद और वैंडलाइज (तोड़-फोड़) कर सकते हो और नेचर को बर्बाद करने के लिए, प्रकृति को बर्बाद करने के लिए एनर्जी आ रही है एक न्यूक्लियर पावर प्लांट से।
तो ये साइंस का, माने ज्ञान का ज़बरदस्त दुरुपयोग है। हम एकदम जानवर के तल पर रह जा रहे हैं। साइंस प्यारी चीज़ है और पवित्र भी लेकिन उसका इस्तेमाल चेतना को उठाने के लिए, अपलिफ्टमेंट ऑफ कॉन्शियसनेस के लिए होना चाहिए। हमको बहुत साफ-साफ ये सवाल पूछना पड़ेगा कि प्रोग्रेस (प्रगति) माने क्या? और जब आप ये पूछोगे तो हमारे काम करने का तरीक़ा, दुनिया को हमारे देखने का तरीक़ा, पूरी इकोनॉमिक्स (अर्थशास्त्र) बदल जानी है।
आप जो जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) को लेकर के इतना शोर मचाते हो, आपको पूछना पड़ेगा कि मुझे जीडीपी चाहिए क्यों? आप जो इतना शोर मचाते हो कि एक देश उतना ही तो उन्नत है जितना वहाँ पर कोल (कोयला) का कन्जम्प्शन (भोग) हो रहा है या जितना वहाँ पर स्टील की मैनुफेक्चरिंग (उत्पादन) हो रही है। आप पूछोगे कि मैं इस स्टील का करने क्या जा रहा हूँ? ठीक-ठीक बताओ। मैं इस स्टील का क्या करने जा रहा हूँ? क्योंकि मैं कौन हूँ? मैं एक तल पर जानवर हूँ जो इवोल्यूशन (क्रमगत उन्नति) के माध्यम से जंगल से निकला है, और दूसरे तल पर मैं चेतना हूँ, कॉन्शियसनेस हूँ।
वो जो मैं स्टील प्रोडक्शन (इस्पात उत्पादन) कर रहा हूँ, उसका इस्तेमाल मैं किसकी खुशी के लिए कर रहा हूँ? इस जानवर की खुशी के लिए या हाइयर कॉन्शियसनेस (उच्चतम चेतना) की खुशी के लिए। ये सवाल पूछना पड़ेगा नहीं तो हम बहुत गलत पैमानों पर, मेट्रिक्स पर प्रगति को नाप रहे हैं। और हम कहीं के नहीं बचेंगे। एक बहुत अजीब सी हालत ऐसी आ सकती है जहां पर हमारे जितने भी पैरामीटर्स (पैमाना) हैं प्रोग्रेस (प्रगति) के, वो सब दिखा रहे हैं हमने ज़बरदस्त प्रोग्रेस (प्रगति) करी है। आपके पास एक डैशबोर्ड (नियंत्रण पट्ट) है, उस पर आठ तरीक़े के मीटर्स लगे हैं जो आपने ही बनाए हैं। और वो सब मीटर्स अलग-अलग क्षेत्रों में तरक्की को दर्शा रहे हैं। और सब मीटर्स दिखा रहे हैं कि आप कमर तोड़ तरक्की कर रहे हो, ज़बरदस्त तरक्की हो रही है। यहाँ भी तरक्की हो रही है, वहाँ भी तरक्की हो रही है, ऐसा हो रहा है वैसा हो रहा है।
लेकिन आप अपने चारों ओर देखें तो पाएँ कि बर्बादी ही बर्बादी है, धुआँ और लाशें हैं बस। और आपके मीटर्स सब यही बता रहे हैं कि ज़बरदस्त तरक्की हो रही है। तरक्की हुई जा रही है, हुई जा रही है, तरक्की हुई जा रही है और आदमी अंदर भी बर्बाद हो रहा है और बाहर भी लाशें ही लाशे हैं और धुआँ है, और न जाने क्या-क्या है; तो जो हमारी तरक्की की परिभाषा है, वो निश्चित रूप से बिल्कुल गलत है।
प्रश्नकर्ता: मेरा जो अब आखिरी सवाल आपसे ये है कि ये सब जानने-समझने के बाद एक आम व्यक्ति करे तो करे क्या? आप उसके लिए कुछ ठोस कदम दे सकते हैं जिससे वो अपने जीवन की दिशा बदल सके। और मैं ये इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि देखिए, हमें स्कूल में सोचना तो सिखाया नहीं गया। अब जैसे आपकी बातें आज सोचने पर मजबूर करती हैं। हम किसी निष्कर्ष पर पहुँच भी जाते हैं कि हाँ भाई, जो मैं कर रहा हूँ बड़ा गलत है। मेरी हर क्रिया के पीछे एक सफरिंग फुटप्रिंट (पीड़ित पदचिन्ह) है तो मैं जीऊँ तो क्यों जीऊँ? और कैसे जीऊँ?
आचार्य प्रशांत: देखिए, जैसा आपने कहा था न कि आदमी और उसके खाने का जो संबंध है वो वैक्यूम में नहीं होता। ठीक उसी तरीक़े से जब हम आम आदमी की बात कर रहे हैं, तो ये बातचीत वैक्यूम में नहीं होती। ये आम आदमी वर्तमान में कुछ-न-कुछ तो कर ही रहा है न? अभी ही कर रहा है, ऑलरेडी (पहले से ही) कर रहा है। तो जब आप पूछते हो कि फिर आम आदमी करे क्या?
तो कह रहा हूँ क्या वो कुछ कर नहीं रहा है? करे तो जा ही रहा है वो। जो करे जा रहा है उसी से तबाही हो रही है। तो क्या करें? सबसे पहले तो वो पूछे कि जो मैं कर रहा हूँ, वो करना ज़रूरी क्यों है। ‘मैं क्यों करूँ वो सब जो मैं रोज कर रहा हूँ, प्रतिपल अभी भी कर रहा हूँ?’
देखिए, हम इसलिए नहीं बर्बादी के छोर पर खड़े हैं क्योंकि बाहर से कोई एस्टेरॉयड (क्षुदग्रह), मिटेरॉयड आकर के हमको हिट (मारना) करने वाला है और हम खराब हो रहे हैं, ठीक है न। कोई एक्स्टरनल कैलेमिटी (बाहरी विपत्ति) हमें स्ट्राइक (प्रहार) नहीं करने वाली है। जो हमारी बर्बादी हमारे ठीक सामने है वो इसलिए है क्योंकि हम कुछ ऐसा कर रहे हैं जो हमें बर्बाद कर रहा है। और वो कौन है जो ऐसा कर रहा है? वो दुनिया का हर आदमी है। आठ-सौ करोड़ लोग इस वक़्त कुछ-न-कुछ कर रहे हैं। मैं और आप बात कर रहे हैं और आठ सौ करोड़ लोग हैं दुनिया के वो कुछ कर रहे हैं इस वक़्त, और जो वो कर रहे हैं वही हमें बर्बाद कर रहा है।
तो हमें आप पूछते हैं क्या करना चाहिए? भाई जो कर रहे हो वो तो रोको, फिर बताएँगे क्या करना चाहिए। तो आप कहेंगे नहीं रोक कैसे दें, उससे पेट चलता है। अरे! बाबा तुम क्या बोल रहे हो? तुम बिल्कुल ही विकल्पहीन हो, चॉइसलेस हो? तुम्हारे पास पेट चलाने का दस प्रतिशत भी कोई दूसरा माध्यम नहीं है? तुम कह रहे हो तुम जिस रास्ते पर जा रहे हो, तुम उससे दस डिग्री का भी डेविएशन (अंतर) नहीं ले सकते। अगर नहीं ले सकते तो फिर हमें बचना क्यों चाहिए? फिर तो हम मशीन हैं, जिसके पास कोई चॉइस (चुनाव) नहीं होती है वो मशीन होती है।
इंसान की चेतना का मतलब ये है कि उसके पास हमेशा विकल्प होता है, चॉइस होती है, ठीक है न? हम ‘हाँ’ बोल सकते हैं, हम ‘ना’ बोल सकते हैं। तो हमें ‘ना’ बोलना सीखना होगा और ‘ना’ बोलने का मतलब यही नहीं है कि जो हो रहा है उसमें बिल्कुल ब्रेक लगा दिया और खड़े हो गए। ‘ना’ बोलने का मतलब है कि आप अपने आप को क्रमशः सुधारो; इन्क्रीमेंटल चेंज चाहिए।
वो मैं इसलिए भी बोल रहा हूँ क्योंकि जो लोग एक रास्ते पर एक ही तरीक़े से एक ही दिशा में चलते ही आ रहे हैं बीस-चालीस सालों से, मैं उनको बोलूँगा कि आप यूटर्न (मुड़ना) ले लो, तो वो ले नहीं पाएँगे।
तो इसलिए मुझे बोलना पड़ रहा है इन्क्रीमेंटल चेंज (क्रमशः सुधार) कि आप कुछ तो जो कर रहे हो उसको रोक के करो न। लेकिन अंदर की बात ये भी बता दूँ कि अब वो समय बहुत पीछे छूट चुका है जब इन्क्रीमेंटल चेंज (क्रमशः सुधार) हमें बचा सकता था। हक़ीक़त तो ये है कि इस वक़्त हमको ड्रास्टिक चेंज (भारी बदलाव) चाहिए।
इस समय पर हमको कुछ ऐसा चाहिए जो पूरी व्यवस्था को बिल्कुल बदलकर के रख दे। लेकिन कुछ भी हो, देखिए, छोटा बदलाव हो या बड़ा बदलाव हो, बदलाव आएगा तभी जब आप पहले मानें की बदलाव लाया जा सकता है। अगर आप ऐसे हाथ खड़े करके मजबूरी का रोना शुरू कर देंगे कि नहीं साहब, मैं तो जो कर रहा हूँ उससे अलग मैं कुछ कर ही नहीं सकता। 'मेरी बीवी का क्या होगा? मेरे बच्चे का क्या होगा? और मुझे भाड़ा देना होता है तो देखो मैं स्लॉटर हाउस (कसाई खाने) में काम करता हूँ। अगर मैंने यहाँ काम करना बंद कर दिया तो मैं भूखा मर जाऊँगा।'
इतना मजबूर कोई भी नहीं होता है देखिए, इतना मजबूर कोई नहीं होता कि आप एक जगह काम करना बंद करोगे तो आपको दूसरे से कुछ मिल ही नहीं सकता। हाँ, आपको कुछ तकलीफ़ें झेलनी पड़ सकती हैं। पर आप कम-से-कम इरादा तो बनाओ। चलो आज नहीं छोड़ सकते, आज से आप कोशिश करनी शुरू करो। दो महीने बाद छोड़ देना। छह महीने बाद छोड़ देना।
पर आम आदमी की कहानी ये है कि इसी चीज़ से मैं रोज़ रूबरू होता हूँ। आप तो कह देते हो कि नहीं, हमारी ज़िंदगी जैसी चल रही है, हम मजबूर हैं उसको ठीक वैसे ही चलाने के लिए। मैं इस मजबूरी को बेईमानी मानता हूँ। इसमें मजबूरी कम है और सीधी-सीधी खुराफ़ात है। सब बदल जाए अगर आपकी नीयत हो बदलने की और लेकिन उसकी अभी नीयत नहीं है, तो हम रोते तो नहीं रह सकते कि उसकी नीयत नहीं है बदलने की तो कुछ बदल नहीं रहा। पहल हमें करनी पड़ेगी, मुहिम हमें छेड़नी पड़ेगी। ज़रूरी है लोगों तक जी-जान से अपनी बात पहुँचाना, क्योंकि अब वो हमारे पास समय नहीं हैं और बहाना बचा नहीं बिल्कुल कि कह सकें कि मैं क्या करूँ।
इतिहास हमें माफ़ नहीं करेगा और इतिहास इसलिए जो करे सो करे। भीतर अगर हमारे कोई बैठा है जो हमारे सब कर्मों का साक्षी है, वो हमें माफ़ नहीं करने वाला अगर हमने इस वक़्त जी तोड़ कोशिश नहीं करी। तो लोगों को समझाने की, लोगों तक बात पहुँचाने की, अवेयरनेस, चेतना पहुँचाने की हमें ही कोशिश करनी पड़ेगी।
प्रश्नकर्ता: बहुत-बहुत धन्यवाद। काफी मजा आया आपसे बात करके। एक व्यक्तिगत स्तर पर भी मैं निश्चित हूँ कि जो लोग हमारे साथ जुड़े हुए हैं वो देखेंगे, आपकी बात सुनेंगे और उम्मीद है वो इस पर अमल भी करेंगे।
आचार्य प्रशांत: मुझे भी बहुत अच्छा लगा और आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। मैं चाहता हूँ आपको बहुत-बहुत सफलता और बहुत जल्दी मिले। आपका काम बहुत ऊँचाइयों पर जाए और मैं चाहूँगा कि सैकड़ों हज़ारों और जवान लोग उठें जो ऐसे कामों को लें।
जीवन को, पृथ्वी को, हम सब को, छोटे-छोटे बच्चों को, सब जानवरों को, हर तरह के पेड़ को, पौधे को, पहाड़ को, सबको बहुत ज़रूरत है इस वक़्त। तो धन्यवाद आपका।