पश्चिम आगे निकल गया, हम पीछे क्यों रह गए?

Acharya Prashant

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पश्चिम आगे निकल गया, हम पीछे क्यों रह गए?
आप जब सोशल ओपननेस की बात आती है तब भी पीछे हो, और जब साइंटिफ़िक रिगर की बात आती है तब भी पीछे हो। और दोनों में आपके पिछड़े होने का कारण एक ही है — दर्शन का अभाव। और ये बात मुझे बहुत चुभती है क्योंकि पश्चिम में दर्शन ने जितनी भी ऊँचाई पाई है, उससे बहुत-बहुत-बहुत ज़्यादा ऊँचाई भारतीय दर्शन में मौजूद है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मैं एक सॉफ़्टवेयर कंपनी में कार्यरत हूँ, मेरा एक फ़्रेंड है जो हाल ही में यूरोप से आया है। तो उसने एक वीडियो दिखाया वहाँ की नदियों का और पर्यावरण का। तो वो बहुत सुव्यवस्थित है और स्वच्छ है, और कम्पैरिटिव्ली हम भारत में देखते हैं तो हालत बहुत ख़राब है।

मेरा सवाल ये है कि जब यही बात मैं आई.टी. में अपने दोस्तों से करता हूँ तो उनको बाहरी पहनावा तो चाहिए, वेस्टर्न कल्चर तो चाहिए, बाहरी पहनावा चाहिए, खान-पान भी चाहिए; पर जब उन्हीं का एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण उनको अपनाना होता है या मैं बात करता हूँ उनसे या वुमन एम्पावरमेंट की बात करता हूँ, तो उसके लिए उनका बहुत अलग नज़रिया है। तो इसमें आप थोड़ा मार्गदर्शन करिए।

आचार्य प्रशांत: उनको मार्गदर्शन चाहिए, वो आएँ तो उनका करूँ। मैं क्या बोलूँ? अब वो हैं पगले, पड़ा रहने दो उनको, उनका कुछ नहीं हो सकता। वो सोच रहे हैं कि जो सम्पन्नता है पश्चिम की, वो ऐसे ही आसमान से आ गई है। तो ये सम्पन्नता ऊपर-ऊपर से ओढ़ लेंगे या आयात कर लेंगे। नहीं, वो सम्पन्नता आई है एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से।

पश्चिम में विज्ञान भी क्या होता है? दर्शन की एक शाखा होता है विज्ञान, पश्चिम में दर्शन से उठा। दर्शन से विज्ञान आया, उसी दर्शन से समाज सुधार आया, और उसके कारण आपको आज वहाँ समाज में दो बातें दिखाई देती हैं: वैचारिक खुलापन और वैज्ञानिक प्रगति। ये दोनों एक साथ आए हैं वहाँ पर, और दोनों का कारण साझा है — दर्शन, फ़िलॉसफ़ी।

पश्चिम में भी जो मध्ययुग थे, वो बहुत गड़बड़ थे, बहुत काले थे और भयानक दुर्दशा थी यूरोप की। और पश्चिम में कोई फ़िलॉसफ़ी डेढ़ हज़ार साल से नहीं हुई थी। और उसके बाद आप समझिए, चौदहवीं–पंद्रहवीं शताब्दी के आसपास, उसी दुर्दशा के फलस्वरूप वहाँ पर दर्शन फिर उठता है। नहीं तो जो ग्रीक फ़िलॉसफ़ी है, वो ख़त्म हुई, उसके बाद आपको कोई फ़िलॉसफ़र मिलेगा नहीं बहुत नाम का पश्चिम में।

डेढ़ हज़ार साल वहाँ पर बस ऐसे ही चलता रहा, ईसाइयत आ गई थी, परंपरा चलती रही, और हर तरह की गड़बड़ी वहाँ चलती रही। और वो सब जाकर के जो डार्क एजेस थे, मिडिल एजेस, उनमें वो एकदम चरम पर पहुँच गई। फिर वहाँ दर्शन आता है, उस दर्शन के दो परिणाम हुए — विज्ञान ने तरक़्क़ी की और विचार ने तरक़्क़ी की। विचार में खुलापन आया और विज्ञान आगे बढ़ा। तो उनके समाज में आज ये दोनों बातें हमें एक साथ दिखाई देती हैं, विचार से खुले हुए हैं और विज्ञान आगे बढ़ा हुआ है।

हम क्या चाहते हैं? कि हमें उनका न विज्ञान चाहिए, न विचार चाहिए, हमें उनकी तकनीक चाहिए, टेक्नोलॉजी। तो हम उनकी टेक्नोलॉजी, उसके प्रॉडक्ट्स इम्पोर्ट कर लेते हैं और हम खुश हो जाते हैं। भाई, उस टेक्नोलॉजी के पीछे साइंस है और

उनकी सोसायटी के पीछे खुला हुआ मन है, जो बात करना चाहता है, जो समझना चाहता है, पत्थर नहीं मारता, ट्रॉलिंग नहीं करता, बात करता है।

बात समझ में आ रही है?

हम लेकिन अपनी ही हवा-हवाई सोच रहे हैं कि नहीं, बस हम उनकी चीज़ें ले आ लें, या हम टेस्ला ले आ लें, एप्पल ले आ लें, तो उससे हम भी हो जाएँगे। नहीं हो जाओगे, जब तक दिमाग़ नहीं खुलेगा, नहीं हो जाओगे।

आप जब सोशल ओपननेस की बात आती है तब भी पीछे हो, और जब साइंटिफ़िक रिगर की बात आती है तब भी पीछे हो। और दोनों में आपके पिछड़े होने का कारण एक ही है — दर्शन का अभाव। और ये बात मुझे बहुत चुभती है क्योंकि पश्चिम में दर्शन ने जितनी भी ऊँचाई पाई है, उससे बहुत-बहुत-बहुत ज़्यादा ऊँचाई भारतीय दर्शन में मौजूद है। जितने भी नामवर दार्शनिक हो सकते हैं पश्चिम के, सबको पढ़ा है मैंने और बिल्कुल कह रहा हूँ कि अगर उन्हें वेदांत की शिक्षा मिली होती, तो उनका दर्शन कहीं बेहतर हो पाता।

हमारे पास उच्चतम दर्शन पहले से मौजूद है, लेकिन हमने उस दर्शन का अपमान किया। हमने एक लोकसंस्कृति चला दी, लोकधर्म चला दिया जिसमें वैचारिक खुलेपन की ज़रूरत नहीं, जगह नहीं। और अब हम पश्चिम की ओर देखते हैं, तो एक तरफ़ तो लार बहाते हैं और फिर एक तरफ़ थूकते हैं। यही दो दृष्टियाँ रहती हैं हमारी पश्चिम को लेकर।

उनके जितने प्रॉडक्ट्स हैं, उसको देखकर लार बहाते हैं। “अरे, इम्पोर्टेड सामान कहाँ है?” उनकी जगहों पर जाओ, पर्यटक की तरह घूम आओ, और अगर पैसा है तो जाकर वहाँ बस ही जाओ। तो लार बहाओ और फिर थूको भी उनके ऊपर, “हैं गंदे लोग हैं, ऐसे बेकार लोग हैं, बहुत गंदे लोग हैं, बहुत गिरा हुआ कल्चर है इनका।” ये नहीं चलेगा!

मनुष्य चेतना का प्राणी है, और मनुष्य की तरक़्क़ी चेतना के ही उत्थान से होती है। चेतना का उत्थान दर्शन से होता है, अंधविश्वास से, आस्था से, अंधभक्ति से, इससे नहीं होता। जहाँ ये सब चीज़ें आ जाती हैं, वहाँ पूरे राष्ट्र का पतन होता है।

प्रश्नकर्ता: थैंक यू, आचार्य जी।

प्रश्नकर्ता: सर, अभी जैसे बात कर रहे थे कि हम यूरोप के दर्शन की। एक हिस्ट्री में एक ट्रेंड रहा है कि, कहीं दर्शन उठा जैसे ग्रीस में दर्शन उठा, फिर बाद में वहाँ पतन हो गया। इंडिया के अंदर भी दर्शन उठा, फिर बाद में अलग से एक धारा आई, उनका पतन हुआ। तो ये एक साइकिल चलता रहता है कि, मतलब दर्शन उठेगा फिर गिर जाएगा। और हम ये कहते हैं कि दर्शन के अंदर बहुत सामर्थ्य रहता है, तो ऐसा कौन-सा वो पॉइंट आ जाता है जहाँ पर दर्शन हार जाता है?

आचार्य प्रशांत: दर्शन नहीं हार जाता, व्यक्ति हार जाता है। जिनको पका-पकाया मिल जाता है, उनमें आत्मविश्वास ज़्यादा भर जाता है कि “हम ही महान हैं।” फिर वहाँ पराभव आ जाता है। दर्शन उठता है दुख से, जब दुख बहुत रहता है, तो दर्शन आता है। जब दर्शन आता है, सच्चाई दिखा देता है। तो पीढ़ियों को विरासत में फिर मुक्ति और आनंद जैसे मिलने लग जाते हैं, और विरासत में ये चीज़ दी नहीं जा सकती। ये भौतिक धन-दौलत नहीं है कि आप अपने बच्चों को ऐसे दे देंगे, कि “ये ले लो भाई, लेगेसी है।” ये लेगेसी नहीं होती। ये सबको ख़ुद ही कमानी होती है। पर आप नहीं कमाओगे अगर आपको लगेगा कि हमारे पास पहले से है।

तो जैसे ही ये शुरू होता है कि “मेरा ग्रीस महान” या “मेरा भारत महान” तहीं पतन शुरू हो जाता है। क्योंकि जब आप “महान” बोल रहे हो, तो अपने अतीत को महान बोल रहे हो। वो चीज़ आपको एक गलत प्रकार की धारणा से भर देती है।

याद रखिए, हर बच्चा अज्ञानी पैदा होता है। हर बच्चा अज्ञानी पैदा होता है, तो हर बच्चे को शुरुआत शून्य से ही करनी होगी। इसमें “विरासत” जैसी कोई चीज़ नहीं है। लेकिन हमें ये भ्रम हो जाता है कि हमारे पुरखे महान थे, तो हम भी महान हैं, हमें विरासत में महानता मिल गई है। और जैसे ही आपको लगता है कि विरासत में महानता मिल गई, पतन शुरू हो जाता है। इसलिए आप ऐसे चक्र देखते हैं। फिर जब पतन शुरू होगा, दुख आएगा। जब दुख आएगा, तो फिर दर्शन आएगा। फिर कोई खड़ा होगा दुख का विरोध करने के लिए, विद्रोह करेगा, फिर दर्शन की शुरुआत हो जाएगी। तो ऐसे इसलिए चक्र चलता है।

चलिए, अब रुकना होगा हमें। जाएँ।

यूँ तो श्रीकृष्ण हर दिन हैं, पर आज का दिन हम विशेष मानते हैं। जहाँ भी जाएँ, प्रकृति के साथ रहें। पूरी मौज है, पूरा खुलापन है, भीतर जागरूकता बनाए रहे, ठीक है? अपने आपको बाँधने इत्यादि की कोई ज़रूरत नहीं है, पर अपने आपको जानने की ज़रूरत लगातार ज़रूर है। सुंदर जगह है, प्रकृति सुंदर है, अच्छी हरियाली है, खूब देखें, खूब आनंद मनाएँ। ठीक है? अगर जागरूक रहेंगे तो आनंद पूरा रहेगा, पर बहकेंगे नहीं, व्यर्थ के भोग से बचे रहेंगे। ठीक है? जाइए, मौज करिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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