व्यर्थ चीज़ों और आदतों से कैसे बचें? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

Acharya Prashant

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व्यर्थ चीज़ों और आदतों से कैसे बचें? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मैं पिछले एक साल से आपको यूट्यूब के माध्यम से सुन रहा हूँ। उस पर आपके अहम् वृत्ति और अहंकार से सम्बन्धित वीडियोज़ में मैंने कुछ ज़्यादा रुचि दिखायी, क्योंकि मुझे लगा कि मेरी सारी समस्याएँ वहीं से आ रही हैं।

तो मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ आचार्य जी कि आपने बताया कि हम अपूर्ण अहंकार हैं। तो अपूर्णता को पूर्णता के निकट लाने के लिए अहंकार चीज़ों से जुड़ता है। तो वो अगर ग़लत चीज़ों से जुड़ गया है — निम्न स्तर की चीज़ों से तमसा उसमें है, कल्पनाओं में खो जाना उसमें है, ग़लत आदतें हैं — तो उसको ऊँची चीज़ों से जोड़ने के लिए किस तरह के प्रयास किये जा सकते हैं?

और ये सतत याद कैसे रहे कि ये करना है? फिर पुरानी वृत्तियों में जाकर उसी पर न चलने लग जाएँ, ये सतत याद भी कैसे रहे कि कुछ ऊँचा है जहाँ से जुड़ना है? बस इसी पर आपका मार्गदर्शन चाहता हूँ।

आचार्य प्रशांत: अनुभव के प्रति ईमानदार रहकर। हम नहीं जानते कि किससे जुड़ना है, तो पहले प्रयास में तो सम्भावना यही है कि किसी व्यर्थ चीज़ से जुड़ जाएँगे। व्यर्थ चीज़ से जुड़ गये, पता कैसे चलेगा? जिस स्थिति से बचने के लिए जुड़े थे वो स्थिति बद से बदतर हो जाएगी। ठीक?

मैं प्यासा था, लेकिन मैं नहीं जानता ये प्यास चीज़ क्या होती है और मिटती किससे है। बस अनुभव हो रहा है कि कुछ पीड़ा है भीतर। यहाँ कंठ में कुछ अनुभव हो रहा है जो ठीक नहीं है। तो मैं क्या करता हूँ? मेरे सामने नमक का पानी पड़ा है, मैं नमक का पानी उठा कर पी लेता हूँ। मैं जानता ही नहीं कुछ, मैं क्या करूँ, मैं विवश हूँ, पी लेता हूँ। क्या अनुभव होगा? कि तात्कालिक तौर पर तो ठीक लगा, कुछ सेकंड के लिए लगा कि ठीक है पानी और थोड़ी ही देर बाद प्यास और बढ़ गयी।

ये अनुभव हो गया न, कुछ और नहीं चाहिए। इसी अनुभव के प्रति ईमानदार रहना है। हाँ, मैंने ऐसा करा और ऐसा हुआ। एक बहुत सुन्दर ऋचा है, माण्डूक्य उपनिषद् की है, जो बस यही कहती है बार-बार — जो करा है उसे याद करो, जो करा है उसे याद करो, जो करा है उसको याद करो — “कृत: स्मरं, कृत: स्मरं, कृत: स्मरं।” तुम्हें और तो शायद कोई ज्ञान भी नहीं चाहिए, जो अपने अनुभव हो चुके हैं उन्हीं के प्रति ईमानदार रह लो न? जानते नहीं क्या?

ऋषि कोई अतिरिक्त ज्ञान थोड़े ही देते हैं, वो भी शिष्य से बार-बार यही पूछते हैं। शिष्य कुछ पूछता है, ऋषि मुस्कुरा कर कहते हैं, ‘जानते नहीं क्या?’ जानते तुम हो, मैं बस तुम्हारे मन से जो अतिरिक्त ज्ञान है वो हटा दूँगा। जानते तो तुम हो ही, बस थोड़ा ज़्यादा जानते हो। तुम वो भी जानते हो जो नहीं जानना चाहिए। तुम उस चीज़ को भी सच मानते हो जिसको नहीं मानना चाहिए, लेकिन जानते तो हो ही न। अनुभव के अलावा और क्या पैमाना है, क्योंकि कष्ट भी तो अनुभव मात्र है।

एक अनुभव के कारण ही अध्यात्म की यात्रा शुरू होती है। कौनसे अनुभव के कारण? कष्ट के अनुभव के कारण, किसी दिव्य अनुभव के कारण नहीं। कष्ट, साधारण कष्ट के अनुभव के कारण ही तो आदमी कहता है न, ‘सच्चाई क्या है? जानने दो। क्या लिखा है इन किताबों में, ज़रा दिखाओ, क्योंकि जीवन में कष्ट बहुत है।’ जब एक अनुभव आपकी आध्यात्मिक यात्रा शुरू करा सकता है, तो समझिए तो कि अनुभव ही पैमाना है।

जो ग़लत कर दिया, मत दोहराइए, क्या ग़लत किया इसकी खोज करिए। जो ग़लत है वो सही क्यों लगता है, भीतर कौन बैठा है जो ग़लत को ही सही का नाम देने को आतुर है — पूछा करिए। बस यही बता देगा कि बाहर कौनसी वस्तु के निकट जाना है, किससे दूर जाना है। क्योंकि कुछ ऐसा नहीं है अतीत में आप जिसके निकट नहीं जा चुके और कुछ ऐसा नहीं है जिसको आपने अतीत में कभी-न-कभी ठुकराया न हो।

हाँ, किसी और रंग में किसी और रूप में, पर अनुभव तो आप सब खूब कर चुके हैं। इतना ही नहीं, ये जो देह है इसमें संचित अनुभव भी बैठे हुए हैं गत शताब्दियों के। ये देह केकड़े से निकल कर आ रही है, खरगोश से निकल कर आ रही है, एक पेड़ से निकल कर आ रही है, ये मिट्टी से निकल कर आ रही है। वो सब भी जो अनन्त अनुभव हैं वो यहाँ बैठे हुए हैं। सोये हुए हैं पर यहाँ बैठे हुए हैं।

कल हम कह रहे थे न वृत्ति पुनर्जन्म लेती है। जब बच्चा पैदा होता है तो उसकी उम्र करोड़ों साल की होती है। हम कहते हैं अभी-अभी उसने जन्म लिया। फिर हम कहते हैं एक साल का हो गया, वो एक साल का नहीं हुआ है, वो एक करोड़ एक साल का हुआ है। वो एक करोड़ हमें दिखायी नहीं देते। हम को लगता है जब गर्भ से निकलेगा तभी तो जन्मा है। वो एक करोड़ साल से चलता हुआ आ रहा है, गर्भ से अभी प्रकट हुआ है तो एक करोड़ साल के अनुभव भी उसके पास हैं, बस सोये हुए हैं।

ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, वो चीज़ होती है जो आपको आपके ही अनुभवों के लिए सतर्क कर देती है, क्योंकि आपको पता है; आपको पता है। वास्तव में, आपको न पता हो तो मैं भी आपसे बात नहीं कर सकता, क्योंकि जो मैं बातें कर रहा हूँ उनके कोई बहुत गहरे प्रमाण नहीं होते। कुछ बातों के होते हैं। मैं कोशिश करता हूँ बातों को प्रामाणिक रखूँ। जिन भी बातों को तर्क से सिद्ध करा जा सकता है उनको सिद्ध भी करता हूँ। पर फिर भी, जैसे-जैसे बात की गहराई बढ़ती जाती है वैसे-वैसे बात अतार्किक होती जाती है, बल्कि कह लीजिए तर्कातीत होती जाती है — तर्क से परे जाती है। लेकिन फिर भी आपको बात समझ में आती है, क्यों आती है? क्योंकि आपका अनुभव साक्षी है मेरी बात का। आपके अपने अनुभव गवाह हैं कि मैं जो बोल रहा हूँ वो बात ठीक है।

हाँ, वो अनुभव आपके सो गये थे, आपको स्वयं ही याद नहीं था, स्मृति में पीछे चले गये थे। मैं बोलता हूँ तो आप कहते हैं, 'हाँ, ठीक, ठीक, ठीक।' कोई आपसे पूछेगा ये बात आपको क्यों ठीक लगी; आप बता नहीं पाएँगे। वो बात आपको इसलिए नहीं ठीक लगी कि मैंने कही है, वो बात आपको इसलिए ठीक लग रही है, क्योंकि आप जानते हैं पहले से कि वो बात ठीक है। आप अपने अनुभव के आधार पर जानते हैं कि वो बात ठीक है।

तो जब अपने ही अनुभव से पता चलना है कि क्या बात ठीक है, क्या नहीं, तो आपको किसी बाहरी गुरु की भी ज़रूरत नहीं है। क्योंकि वो भी कुछ नया नहीं बताता, वो भी बस आपको जगाता है, पुरानी बातों को उठाता है और कचरे को हटाता है।

समझ में आ रही है बात?

मुझे बताइए, आप कौनसी आज नयी भूल कर सकते हैं, जितनी भूलें हो सकती थी सब तो कर चुके। कोई नयी भूल करना सम्भव है? तो कोई आपको क्या ज्ञान दे, कोई आपको क्या उपदेश देगा, बोलिए। हाँ, जिन्हें हम नयी भूल कहते हैं वो पुरानी ही भूलों के नये संस्करण होते हैं, पुरानी ही भूलों के। पहले एक चीज़ पर लालच आया था, अब किसी और चीज़ पर लालच आ गया। पहले एक चीज़ को लेकर भ्रमित थे, अब किसी और चीज़ को लेकर भ्रमित हो गये। भ्रम तो वही है न, भीतरी अज्ञान तो वही है न। पहले यहाँ से डरते थे, अब वहाँ से डरते हो; अरे! डरने की वृत्ति तो वही पुरानी है न।

तो क्या है जो आपको नहीं पता और जो नहीं पता प्रयोग करके उसका अनुभव ले लीजिए। हाँ, एक बार अनुभव ले लें तो भूलिए मत। कैसे न भूलें फिर? उसके लिए अपने से और अपनी भलाई से थोड़ा प्यार होना चाहिए। वो प्यार अगर नहीं है तो कोई क्या जगाएगा किसी में!

अहंकार कहने को तो आत्म केन्द्रित होता है, स्वार्थी, सेल्फिश। लेकिन असली बात ये है कि वह स्वयं से बहुत घृणा करता है। वो इतनी घृणा करता है कि स्वयं को ठीक होने ही नहीं देता। वो कहने को तो सबकुछ अपने लिए करता है, पर वो वास्तव में अपने लिए कुछ भी नहीं करता। अगर हम वाक़ई स्वार्थी होते, तो हमने अपनेआप को कम-से-कम एक चीज़ दी होती तोहफ़े में। क्या? थोड़ा ज्ञान, थोड़ी समझ।

हम प्रेम करते कहाँ है अपनेआप से? प्रेमी को तो बहुत अच्छा, सुन्दर, ऊँचा उपहार दिया जाता है न? आपने अपनेआप को कभी उपहार दिया? चूँकि हम अपनेआप से प्रेम नहीं करते इसीलिए हम अपने अनुभवों से कुछ सीखते नहीं। हम एक ही गड्ढे में सौ बार गिरते हैं। जो आदमी अपनेआप से प्यार करेगा वो कहेगा गड्ढे में गिरने का अनुभव हो तो गया एक बार, अब उसी गड्ढे में दोबारा क्यों गिरूँ? मेरे लिए अच्छा नहीं है, मैं ख़ुद से प्यार करता हूँ मैं उस गड्ढे में दोबारा नहीं गिरूँगा।

आप पूछिए न आप एक ही ग़लती रूप बदल-बदलकर सौ तरीक़ों से क्यों दोहराते हो? क्योंकि आपको स्वयं से प्रेम नहीं है। अब इस परिभाषा के अनुसार ऋषि जन घोर स्वार्थी थे। वो थे जिन्हें ‘स्व’ पता था और ‘स्व’ के लिए क्या अच्छा है ये पता था, इसको कहते हैं 'स्वार्थ'। मैं जानूँ मेरे लिए क्या ठीक है। और अक्सर जो मुझे ठीक होता है वो मुझे प्रिय नहीं होता।

देखिए, अहंकार अपना ही कितना बड़ा दुश्मन है! जो भी उसे अच्छा लगता है, उसे वही अच्छा लगता है जो उसके लिए घातक है और जो अच्छा उसके लिए है उससे उसको बड़ी चिढ़ है।

कोई यहाँ बैठा है, मैं फिर पूछ रहा हूँ, बड़ा महत्वपूर्ण सवाल है, कोई यहाँ बैठा है जो कोई नयी ग़लती करता हो? कोई यहाँ बैठा है जो अपनी हस्ती की सच्चाई नहीं जानता? हाँ, आप उसे छुपाते हों, ढोंग करते हों तो अलग बात है; पर दिल-ही-दिल में सब जानते हैं न कि हमारी हालत क्या है, हम कैसे हैं? नहीं जानते? सुधरते क्यों नहीं! और कोई क्या कर लेगा अगर आप चाहते नहीं सुधरना तो। आप अपने मददगार नहीं है, कोई दूसरा कैसे मदद करेगा आपकी? बोलिए।

और कोई आपकी मदद करना भी चाहे न, तो एक सीमा के बाद ऊब जाता है, चूक जाता है। कहता है, 'इस इंसान को सौ बार समझाओ, सौ बार रास्ता दिखाओ, सुधरना इसे है नहीं तो बेहतर है कि मैं अपनी ऊर्जा किसी और पर लगाऊँ।' आप जब बेहतर होने की उत्कंठा दिखाते हैं तो फिर बाहरी शक्तियाँ भी कुछ आपको सहयोग देती हैं।

जैसे कोई बच्चा सड़क पर खड़ा हो, चिल्ला रहा हो कि मुझे घर जाना है, घर जाना है। तो दो-चार लोग आ जाएँगे, पूछेंगे कहाँ रहते हो। वो पता नहीं बता पा रहा, तो कहेंगे अच्छा थोड़े इशारे बताओ, कुछ और बताओ। उसे सहयोग मिलने की सम्भावना बढ़ेगी। पर बच्चा ख़ुद घर से भागा हुआ हो, इधर-उधर जाकर के जुआ खेलता हो, दारू पीता हो, ठेले के नीचे छुप जाता हो कोई ढूँढने आये तो; तो कौन उसको घर पहुँचा सकता है, बताइए?

आप वो नीयत तो पैदा करिए। सैकड़ों ग्रन्थों को इतनी बार पढ़ने और मनन करने के बाद मैं जिस एक शब्द पर पहुँचता हूँ वो है ‘इच्छा’। उससे बड़ा कुछ नहीं। उसको कभी नीयत कह देता हूँ कभी इरादा कह देता हूँ, कभी सत्यनिष्ठा कभी ईमानदारी। 'इच्छा'! आप चाहते भी है क्या? जब कोई कहता है, 'मिलता नहीं, मिलता नहीं' या 'छूटता नहीं,' तो ले-देकर के बस यही सवाल बचता है— चाहते भी हो? और चाहते होते तो मिल गया होता। या चाहते होते तो छूट गया होता।

जब इरादा ही नहीं है तो काम कैसे होगा? कैसे नहीं पता चलेगा आपको कि किसके पास बैठना है? चलिए नहीं पता था, एक बार बैठ लिए। उसका क्या प्रभाव हुआ आप पर आपको नहीं पता? आपको नहीं पता तो किसको पता होगा? मैं कह रहा हूँ, अनुभव से बड़ा कौन मित्र है आपका? आपको क्या अनुभव हुआ किसी व्यक्ति की संगति में, वो आप जानते हैं न? सही हुआ तो बार-बार जाइए; नहीं हुआ तो एक बार भी मत जाइए। इतना सरल है खेल, इतना सरल है।

कोई दवाई ले रहे हैं, लाभ हो रहा है तो मैं कह रहा हूँ लेते जाइए, लेते जाइए। लाभ नहीं हो रहा तो काहे चिपके हुए हैं, अभी त्याग दीजिए। किन्हीं स्थितियों में हैं, किसी माहौल में हैं, वहाँ है शान्ति? है तो जमकर बैठ जाइए। नहीं है शान्ति तो एक पल भी क्यों रुके हैं? बात इतनी सरल है।

लेकिन हम कहते हैं, 'नहीं, देखिए ज़िन्दगी इतनी सीधी नहीं होती, ये आचार्य जी अति सरलीकरण कर रहे हैं। ज़िन्दगी में देखिए टेढ़ी-मेढ़ी जटिलताएँ होती हैं जो हम संसारी लोग ही जानते हैं। इनको क्या पता कि पानी आता सुबह बस छः से आठ, वो तो हम संसारी लोग ही जानते हैं न — घोर जटिलता है। पानी इतने से इतने बजे ही आता है और उसी दरमियान टून्नू को स्कूल भी छोड़कर आना है। अब इसका समाधान किसी शास्त्र में नहीं है। पानी आता सुबह छः से आठ और नुन्नु की क्लास भी लगवानी है वहाँ। और नुन्नू के जब नम्बर कम आते हैं तो पत्नी को बड़ा बुरा लगता है इसलिए नहीं कि उन्हें शिक्षा से बड़ा प्रेम है, इसलिए क्योंकि बगल वालों की जो नुन्नी है वो क्लास की टॉपर (अव्वल छात्रा) है। तो नाक कट जाती है कि ये देखो पड़ोसन आगे निकल गयी। आचार्य जी, ये सब आप नहीं समझेंगे। अध्यात्म तो ऐसे देखिए थोड़ा बच्चों वाली बात है, बड़ों वाली बातें तो हम जानते हैं गृहस्थ लोग। पानी आता सुबह छः से आठ!'

अब इसका मेरे पास कोई उत्तर होता नहीं है कि पानी मतलब क्या! मुझे तो इस तरह की चीज़ें होती हैं तो मैं कहता हूँ मतलब कहीं और से ले आ लो, ख़रीद लो, या मत नहाओ। सीधा चलने में दिक्क़त क्या है? जो सही है वो सही है; तो जो सही है वो करने में दिक्क़त क्या है? मौन! कोई उत्तर नहीं! और यहीं पर गाड़ी अटक जाती हैं फिर। यहाँ हमारे आपके रास्ते अलग हो जाते हैं। आपको मजबूरियाँ गिनानी हैं, हमें सीधी राह चलना है।

और कुछ मैं इनको सिखा पाया या नहीं लेकिन संस्था में ये जितने हैं जवान लोग, एक मूल्य मैंने इनमें स्थापित किया है—

कभी मजबूरी का रोना लेकर मत आना मेरे सामने। कभी मत कहना कि कुछ बुरा हो गया है, बेबसी जैसी कोई चीज़ नहीं। रास्ता निकालो।

हाँ, उस रास्ते में कठिनाई हो सकती है, बिलकुल हो सकती है। हो सकता उस रास्ते पर हम बहुत गति से आगे न बढ़ पाएयें, हो सकता है। पर ये लेकर रोते हुए मत आ जाना कि आचार्य जी फ़लाना काम नहीं हो सकता, ये मजबूरी है। बिलकुल नहीं। 'तबीयत ठीक नहीं है, हम काम नहीं कर पा रहे, ऐसा हमारे यहाँ होता ही नहीं। हाँ, मुझे पता चल जाए कि किसी की तबियत ठीक नहीं है, मैं कुछ रियायत कर दूँ, अलग बात है। नहीं तो ये सब मुझे सुनने को नहीं मिलता कि फ़लानी समस्या थी इसलिए फ़लाना काम नहीं हुआ।

मतलब क्या है? जो होना है वो होना है, जो सही है वो सही है। प्रोत्साहित ही मत करिए अपनेआप को जब लगे कि देखो बात तो ठीक है लेकिन…? ये 'लेकिन, किन्तु, परन्तु' जीवन से उखाड़ फेंकिए।

बुख़ार बहुत चढ़ा हुआ है, ठीक है आज तुम कम काम करोगे, लेकिन करोगे। कोविड हो गया है, कोई बात नहीं, जितना कर सकते हो अभी भी करो। घर जाना है? जाओ घर जाओ, हफ़्तेभर के लिए घर जाओ, घर से काम करोगे। काम नहीं रुकेगा। जो सही है वो सही है। परिस्थितियाँ कुछ भी रहें, जो सही है उसको तो होना है न, तो घर से काम करोगे। गोआ घूमने जाना है, हाँ जाओ। दस दिन को जा रहे हो, बिलकुल जाओ, वहाँ से काम करते रहोगे। बीच (तट) पर बैठे हो, काम नहीं रुकना चाहिए। और रुकता भी नहीं है।

अब ये एक मूल्य बन गया है सबमें। प्लेटफार्म पर बैठे हैं, ट्रेन का इंतज़ार कर रहे हैं, काम चल रहा है। पूरी-की-पूरी संस्था, लगभग पूरी, उठ करके यहाँ पर आ गयी है हफ़्तेभर के लिए। आपको क्या लगता है हमारा कोई काम रुका है? गति धीमी हुई है निसंदेह, पर काम रुकने नहीं देते। दोगुनी मेहनत करते हैं, यहाँ का काम भी करते हैं और जो नियमित काम है वो भी करते हैं।

हाँ, कम हो पाता है बिलकुल, क्योंकि हाड़-माँस का शरीर है। दिन में चौबीस ही घंटे होते हैं। समय यहाँ ज़्यादा दे देते हैं, तो उधर काम का नुक़सान हो रहा है। लेकिन फिर भी कर रहे हैं, जितना हो सकता है कर रहे हैं। ये रवैया जीवन के प्रति लाइए।

जो सही है वो सही है। ताक में मत रहिए कि बस मौक़ा मिल जाए सही से मुँह चुराने का। हम बिलकुल इसी ताक में रहते हैं, किसी तरीक़े से कोई बहाना मिल जाए और हम कहते हैं, 'देखिए ये मजबूरी है इसलिए...।' मजबूरियाँ गिनाना चाहेंगे तो हज़ार मिलेंगी।

मुझे नहीं मालूम मेरी बात आपके प्रश्न से कितनी सम्बन्धित है, लेकिन ये बात कही जानी आवश्यक है, इसलिए कह रहा हूँ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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