प्रश्नकर्ता: नमस्कार, आचार्य जी। आज काफ़ी बार हमने इसके ऊपर बात करी कि काम करने के पीछे कोई वजह नहीं है, निष्कामकर्म के ऊपर बात की। तो कोई व्यक्ति बाहर से युद्ध को देख रहा होगा जब, तो देखने में तो उसको बहुत कुछ दिखेगा कि योजनाएँ बन रही हैं, लक्ष्य हैं, बीच में भाव भी उठ रहे हैं कि गुस्सा आ रहा है, रथ का पहिया उठा लिया। तो आँखों में हो सकता है कि भाव भी दिख रहे हों। तो इस सबको ये देखें कि वो बस बाहर दिखने के लिए है, अंदर से खाली है; कुछ अपने लिए नहीं चाहिए, बस वो अच्छे के लिए कर रहे हैं – इसको ऐसे देखें?
आचार्य प्रशांत: रणनीति तो कृष्ण भी बनाते हैं। व्यूहरचना-व्यूहखंडन, ये सब तो कृष्ण भी करते हैं; मिलेगा क्या? कुछ नहीं। अब ये बात और ज़्यादा रहस्यमयी हो जाती है। आप वो सबकुछ कर रहे हैं जो कि कोई भोगी करता है, जो सकामी करता है। एक सकामी भी खूब दिमाग लगाता है, योजना बनाता है, व्यूहरचना करता है, सब करता है न? वो ये सबकुछ करता है, आप भी वो सबकुछ कर रहे हैं। आप जान उतनी ही लगा रहे हैं, श्रम उतना ही कर रहे हैं। बल्कि जितना वो सकामी करता है श्रम, आप उससे ज़्यादा कर रहे हैं तो फिर आपकी तो माँग भी, कामना भी उससे अधिक होनी चाहिए न?
पर वो, मान लो, दस इकाई का श्रम लगाता है और उसकी माँग ये है कि मैंने अगर दस इकाई का श्रम करा है तो मुझे इससे कम-से-कम बीस इकाई का फल मिलना चाहिए – यही तो सकामकर्म का गणित होता है न? दस लगाऊँगा, बीस पाऊँगा। तो वहाँ वो बैठा हुआ है जो दस लगा रहा है इसलिए कि उसे बीस चाहिए और आप तो अपनी पूरी ज़िंदगी ही लगाए दे रहे हो। आप दस नहीं लगा रहे, आप पचास लगा रहे हो। जितना आपके सीमित व्यक्तित्व में सम्भव है आप सबकुछ झोंके दे रहे हो। वो दस लगा रहा है, आप लगा रहे हो? पचास।
पर वो दस लगा करके बीस माँग रहा है और आप पचास लगाकर के कुछ नहीं माँग रहे। अब ये बात भौचक्का कर देने वाली है। यही कृष्ण रहस्य है। ये जो कर ले, वो तर गया। ‘तू दस लगाएगा, मैं पचास लगाऊँगा और जीतूँगा मैं ही। बता क्यों? क्योंकि मुझे कुछ चाहिए नहीं। मुझे कुछ चाहिए नहीं, बस वो चीज़ ऐसी है कि उस पर दिल आ गया है।‘ जैसे कहीं बोली लग रही हो, मुनादी। मैं लगा रहा हूँ। कुछ है मेरे पास, ये है (भगवद्गीता की लिपि हाथ में लेते हुए)। ये क्या है? ये कृष्ण हैं।
अब यहाँ जितने लोग बैठे हैं सबको अपनी जेब पता है, सब जानते हैं कि उनके पास कितना है कितना नहीं है। तो सब तय करके आए हैं कि देखो साहब अगर हमारे पास सौ है तो कोई सोच रहा है कि सौ में से पाँच लगा सकते हैं। कोई सोचकर आ रहा है कि सौ में से सात लगा सकते हैं। कोई कुछ सोचकर आ रहा है, कोई कुछ। क्योंकि सब हिसाब लगाए बैठे हुए हैं न कि जितना लगाएँगे उसमें से मिलेगा क्या वापस। इसी हिसाब से तो हम कहीं भी लगाते हैं।
और फिर एक आता है, उसके पास बहुत नहीं है पर उसके पास जितना है, वो बोलता है, 'पूरा दिया’। वो जीत जाएगा। इसलिए नहीं कि उसके पास बहुत कुछ है, बल्कि इसलिए कि उसके पास जो भी है उसने पूरा दिया। उसको प्रेम है; दिया! तुम हिसाब से बोली लगाओगे, वो प्रेम से।
पर अगर उसके पास बहुत कम हो तो वो कैसे जीतेगा? हमारे पास सौ हैं, तो हम उसमें से पाँच देने को तैयार हैं; उसके पास अगर हों ही तीन, तो वो कैसे जीतेगा? वो तब भी जीत जाएगा। अब ये बात और रहस्यमयी हो जाती है, कैसे जीत जाएगा? कैसे जीत जाएगा? पूरा तीन अधूरे पाँच पर भारी पड़ता है। वो जो उसका तीन है, वो प्रेम में तीस बन जाएगा। तुम्हारा पाँच पाँच ही रह जाना है। उसके तीन में जैसे कुछ जुड़ जाएगा जो पाँच से आगे का हो जाएगा।
एक दफ़े प्रसंग उठा। कौरवों की थी ग्यारह अक्षौहिणी सेना। अब अक्षौहिणी माने कुछ भी हो सकता है, इसपर विवाद है कि कितनी संख्या का होता है एक अक्षौहिणी। और पांडवों की थी सात। तो बात उठी, ‘वो ग्यारह हम सात?’ कृष्ण बोले, 'पाँच इधर हैं, मुझे भी तो गिनो। उधर ग्यारह हैं, तुम सब पांडव लोग और तुम्हारी सेना मिलकर तुम सात हो और पाँच मैं हूँ। मैं सब बराबर कर देता हूँ। मैं तीन को पाँच बना देता हूँ, मैं सात को बारह बना देता हूँ।‘
उपनिषद् कहते हैं, ‘ब्रह्म वो है जो जगत को संतुलन देता है।‘ वो जगत की पूँछ की तरह है जो जगत को संतुलन देता है। जैसे पक्षी जब उड़ता है तो उसकी जो पूँछ होती है न, वो उसको संतुलन देती है, स्टेबिलिटी; ब्रह्म इज़ द स्टेबिलाइज़िंग टेल ऑफ द यूनिवर्स (ब्रह्म ब्रह्माण्ड को स्थिर करने वाली पूँछ है)। वो वो है जो सब बराबर कर देता है, संतुलन में ला देता है। एक तरफ़ को अगर बात झुक रही होती है तो कहता है, ‘न! ग़लत की तरफ़ झुकनी नहीं चाहिए’। (हाथों से एकत्व का इशारा करते हुए) तो कौरवों और पांडवों में जो अंतर था, कृष्ण ने उसको संतुलन में ला दिया। बोले, ‘ठीक है, तुम कमज़ोर हो तो मैं आ गया न तुम्हारी तरफ़। मैं हूँ तो।‘ अब बात हुई ज़रा बराबरी की। नहीं समझ में आ रही बात?
प्र: अभी कुछ समझ में आ रहा है। बाकी एक बार वीडियो फिर से देखूँगा तो और स्पष्ट होगा।
आचार्य: वीडियो भी देखना और बाहर जो खरगोश हैं, उनको भी देखना और ये भी देखना कि वो यहाँ हैं ही क्यों। यहाँ माने बोधस्थल में, इस जगत में क्यों हैं? उनको बनाकर किसी को क्या मिल रहा है? और इस बोधस्थल में क्यों हैं? उनको रखकर किसको क्या मिल रहा है? कुछ कौंधेगा; पर ये तो यहाँ कब से हैं और सब उन्हें देखते हैं। और जो देख रहे हैं, वो मूढ़-के-मूढ़ रह गए, उन्हें कुछ समझ में नहीं आया – यही तो माया है। यहाँ इतने लोग रहते हैं, रोज़ उनको देखते हैं, समझ कुछ नहीं पाते। कभी सवाल ही नहीं उठता।
वो सामने है पर दिखाई नहीं देता। 'तुम एक गोरख धंधा हो', सामने हो दिखाई कभी देते नहीं।
प्र: एक और प्रश्न इसी से है। जैसे हम ये बोलते हैं कि जब जीवन में दुख होता है तभी ग्रंथों और वेदान्त का भी कोई मतलब है। अगर जीवन में दुख नहीं है तो कोई ज़रूरत नहीं है कि कोई ऋषि कोई बात बोले। तो एक जो वजह है वो तो ये होती है कि दुख को मिटाना है। कि अगर निष्कामकर्म की ओर भी बढ़ना है या हम जानना भी चाहते हैं तो वजह तो है ही कि दुख को मिटाना है। तो शुरुआत करने के लिए बस ये वजह है और आगे जाकर समाप्त हो जाएगी?
आचार्य: अच्छा प्रश्न है। देखो, जो भी लोग बस व्यक्तिगत दुख को मिटाने के लिए काम करते हैं वो व्यक्तिगत सुख की तरफ़ चले जाते हैं और उससे व्यक्तिगत दुख मिटता नहीं है, बढ़ जाता है। व्यक्तिगत दुख भी तब मिटता है जब तुम व्यक्तिगत दुख को भूलकर के समष्टिगत दुख को मिटाओ। जो अपना दुख भूल करके दूसरों का दुख मिटाने लगता है, वो पाता है कि उसका अपना दुख चुपचाप विदा हो गया, बिना बताए। और जो अपने ही दुख से लड़ने के लिए संघर्षरत रहता है, वो पाता है कि अपने दुख से जितना लड़ोगे वो उतना बढ़ता है। अपने दुख का तो बस उल्लंघन करना पड़ता है।
तुम्हारा जो दुख होता है न वो एक बाड़ की तरह होता है, एक सीमा की तरह होता है, जिसके भीतर वो तुमको बंद करके रखता है; तुम अपने दुख के भीतर क़ैद रहते हो। तुम्हारा पूरा संसार तुम्हारे दुख की चार-दिवारी के भीतर है। और उस चार-दिवारी के भीतर तुम तरह-तरह से कोशिश कर रहे हो दुख को मिटाने की। इसलिए वो दुख मिटेगा नहीं क्योंकि वो चार-दिवारी ही किसकी है? दुख की है। जैसे कि कोई जेल की चार-दिवारी के भीतर सौ तरीके से आज़ादी की कोशिश कर रहा हो, मिलेगी क्या? चार-दिवारी के भीतर कहाँ से आज़ादी मिलेगी!
तो हमारे जीवन की ये जो पूरी सीमा रेखा है, जो उसका दायरा है, उसी का नाम दुख है। उसके भीतर प्रयास करोगे सुख का तो नहीं मिलेगा। जब तुम उससे बाहर ज़रा-सा झाँकते हो तो तुम पाते हो कि जैसे तुम हो, उसी तरह अनन्त और लोग हैं, सब अपने-अपने दुख के दायरों में क़ैद। जब तुम्हारी करुणा तुम्हारे स्वार्थ से बड़ी हो जाती है तब तुम कहते हो, 'मेरा दुख है तो रहे पर मैं जा रहा हूँ, मैं अपने दायरे का उल्लंघन कर रहा हूँ; मुझे उसकी सहायता करनी है।' तुम उसकी सहायता करने के लिए अपने दुख से बाहर कूदे, लाँघा उसको। अब तुम जा रहे हो उसकी सहायता करने के लिए लेकिन चुपचाप, बात-ही-बात में, बिना चाहे, क्या हो गया? तुम अपने दुख से तो बाहर कूद गए न; मिट गया।
बाहर इसलिए नहीं कूदे थे कि इसे मिटाना था। जब भी चाहोगे इसे मिटाना है, तो उसे मिटाने की कोशिश कहाँ करोगे? उसके भीतर-ही-भीतर, इसलिए वो मिटेगा नहीं। जो अपने दुख को मिटाने की कोशिश करते हैं, वो अपने दायरे के भीतर ही रह जाते हैं। और उस दायरे के भीतर दुख-ही-दुख है, वो कैसे मिटेगा वहाँ? भीतर नहीं मिटता। भीतर बस सुख की खोज है, भीतर बस सुख की कामना है। और वो सुख की जो कामना है, वो दुख का ही दूसरा नाम है।
दुख उनका मिटता है जो अपने दुख से ज़्यादा बड़ी बात बना लेते हैं दूसरे के प्रेम को, दूसरे के प्रति करुणा को।
वो कहते हैं, ‘यहाँ जो मुझे लग रहा है तो लग रहा है पर उधर चलो, उधर आग लगी हुई है वो बुझानी है, उसको बचाना है।‘ तो वो कूद जाते हैं, लाँघ जाते हैं। उनका अपना दुख वो पाते हैं कि पीछे छूट गया, छोटा हो गया। सिर्फ़ यही तरीका है दुख को मिटाने का, इसी को निष्कामता कहते हैं। अपने लिए मत करो न भाई! जो तुम अपने लिए कर रहे हो, यही तो दुख है। तो फिर अपने लिए करके दुख मिटा कैसे लोगे? अपने लिए करना ही तो दुख का दूसरा नाम है।
और जब मैं कहता हूँ अपने बन्धनों को काटो तो उसमें सबसे बड़ा बंधन क्या है? ये ‘अपनापन’, कि मुझे अपने ही बंधन काटने हैं। काहे भाई? वो जो सामने वाला है, वो भी तो अपने बन्धनों से दुखी है, तुम्हें बस अपने ही काटने हैं? तो पहला बंधन ये नहीं है कि तुम बंधन में हो। पहला बंधन ये है कि तुम्हें अपने ही बन्धनों से सरोकार है।
तुम्हारे बंधन रहेंगे।
एक ऋषि की, संत की, अवतार की महिमा इसमें नहीं होती कि उसने अपने बंधन काट ही डाले पूरे तरीके से या अपना दुख मिटा दिया पूरे तरीके से। उसकी गरिमा, उसकी श्रेष्ठता, उसकी महानता इसमें है कि उसका अपना जो है, सो है; उसने अपने पर ध्यान नहीं दिया। उसका अपना जो चल रहा था, चल रहा था। उसने कहा, ‘पीछे चलने दो इसको, मुझे इसके आगे जाने दो, मुझे इसका अतिक्रमण करने दो। मुझे इसके बियॉन्ड (पार) निकलने दो न। अभी ये चल रहा है तो चल रहा है, होगा कोई कर्मदण्ड, होगी कोई अतीत की सौगात, ढो रहे हैं।‘
समझ में आ रही है बात?
और ये बात, मैं कह रहा हूँ, उनकी महानता को कम नहीं करती, और बढ़ा देती है। तुम सोचते हो एक ऋषि वो है जिसके पास अपना कोई व्यक्तिगत मुद्दा ही नहीं, इत्यादि-इत्यादि। नहीं, उसकी महानता इसमें नहीं है कि उसके पास कोई व्यक्तिगत मुद्दा नहीं है। उसकी महानता इसमें है कि उसके भी पास व्यक्तिगत मुद्दा है लेकिन उसने उस मुद्दे के होते हुए भी उस मुद्दे से आगे का कुछ करने का चुनाव किया। उसकी गरिमा इसमें नहीं है कि उसके पास अपना कोई निजी दर्द नहीं है, उसकी गरिमा इसमें है कि अपने निजी दर्द के होते हुए भी उसने उस निजी दर्द की अवहेलना करी।
उनके पास भी जीवन में एक व्यक्तिगत पक्ष होता है। बस इतना है कि जब आप किसी को महानता की विभूति पहना देते हैं, उपाधि चढ़ा देते हैं, तो आप फिर अपने किस्से-कहानियों में उस व्यक्तिगत पक्ष को दबाने लग जाते हैं। आप कहने लगे जाते हैं, 'ये व्यक्ति तो दैवीय सम्पदा से सुसज्जित था। ये मानव थोड़े ही था! तो इसके जीवन में कोई मानवीय दर्द या बंधन या मुद्दा, हम कैसे दर्शा दें?'
पर नहीं, वो भी मानवीय होते हैं, उनके पास भी दर्द, कष्ट, क्लेश, आँसू, बंधन, सब होते हैं। और इनके होने से, मैं कह रहा हूँ, उनकी महानता कम नहीं होती, और ज़्यादा हो जाती है। उनके पास वो सब बंधन थे, कमज़ोरियाँ थीं जो आपके पास हैं लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी कमज़ोरियों और बंधनों से आगे बढ़ने का दम दिखाया, चुनाव किया – इसमें महानता है। एक धावक, दौड़ने वाला, रनर , जब एक लंबी मैराथन जीत ले तब आपको पता चले कि उसकी एक टाँग बहुत कमज़ोर है और उसकी छाती में भी कोई कमज़ोरी है, तो ये उसकी कमज़ोरी हुई या ताक़त? इस बात से उसकी कमज़ोरी आपको पता चली या उसकी ताक़त पता चली?
एक मैराथन धावक ने चालीस किलोमीटर दौड़कर जीत ली और तब आपको पता चला कि उसकी एक टाँग भी बड़ी कमज़ोर है और उसकी छाती में भी कमज़ोरी है। अब ये बात आपको छुपानी चाहिए या खुलकर बतानी चाहिए? हम छुपा देते हैं। हम कहते हैं, 'अरे! हम तो इस व्यक्ति को अब अवतार घोषित करने जा रहे हैं न, हम कैसे सबको प्रकट कर दें कि इसमें इतनी कमज़ोरियाँ थीं?' उन कमजोरियों के कारण ही तो वो व्यक्ति अब महान हो गया न, कि कमज़ोर टाँग है और छाती भी कमज़ोर है, तब भी वो जीत ले गया मैराथन।
हमारी बुद्धि उल्टी चलती है। हमें समझ में ही नहीं आता कि दुर्बलता कहाँ है, बल कहाँ है। हम बल को दुर्बलता समझकर के लाज के मारे उसको छुपा देते हैं। ये बल है उसका कि सौ कमज़ोरियों के होते हुए भी उसने जो करा, वो कर दिया। इसी बल में तो वास्तविक दैवीयता है। टाँग से नहीं जीता है वो, टाँग तो कमज़ोर थी। वो जिससे जीता है, उसको ही दैवीयता बोलते हैं, उसका नाम आत्मा है। यदि टाँग से ही उसे दौड़ना होता तो हारा होता न, टाँग तो कमज़ोर थी। उसकी जीत ही आत्मा का प्रमाण है। पर आत्मा हमें समझ में आती नहीं, हमें लगता है जो जीतता है वो टाँग से ही तो जीतता है। तो जिसकी हम टाँग कमज़ोर पाते हैं, उसकी कमज़ोरी के प्रति हम लज्जित होकर के छुपा देते हैं। जैसे टाँग से जीवन की दौड़ जीती जाती हो! समझ रहे हो?
जो कुछ तुम्हारे पास है, अब जब वो तुम्हारे पास पच्चीस साल, पैंतीस साल, चालीस साल से है, तो बहुत कम संभावना है कि तुम्हारे जीवन के जो भी दस-बीस-तीस साल बचे हैं, उसमें तुम उससे मुक्त हो जाओगे। चाहे वो तुम्हारी देहगत वृत्तियाँ हों, चाहे वो तुम्हारा अतीत हो, चाहे वो तुम्हारी बहुत पुरानी आदतें हों। थोड़ा ज़मीन पर आकर के देखो!
तीस-पैंतीस साल के हो गए और जानते तुम अब बहुत समय से हो कि ये जो तुम लेकर घूम रहे हो ये कचरा है, बोझ है। आज तक तो उस बोझ को हटा नहीं पाए। तुम्हारे भीतर जो कुछ भी घटिया है, ये तुम्हें नया-नया तो पता चला नहीं कि घटिया है। दसियों साल से जानते हो कि बेकार की बातों को पकड़े हो, तो ज़रूर वो कोई बहुत गहरी बात होगी; और संभावना कम ही है कि अगले पच्चीस-तीस साल, जितना भी तुम्हारा जीवन बचा है, उसमें तुम उसको त्याग पाओगे।
तो फिर करना क्या है? त्यागने की कोशिश करते रहनी है? नहीं। अब जैसा है, जो है, उसको लेकर दौड़ लो बेटा! टाँग, वो तुम्हारी कमज़ोर ही रहनी है। वो अब प्रकृति का तुमको – जो भी कह लो, वरदान है, अभिशाप है – वो ऐसा ही रहना है। नालायक हो तो अब नालायक ही रहोगे, अपनी नालायकी लेकर तुम लगा दो अब दौड़। आलसी हो तो आलसी ही रहोगे, वो आलस नहीं जाने का। वो तुमको अजगर वृत्ति माँ के गर्भ से ही मिली है, वो नहीं हटने की। अजगर एक पैदा हुआ हो, तुम उसको घोड़ा बना दोगे क्या? अब उसको अजगर रहे-रहे ही दौड़ लगानी है।
कैसे? अजगर कैसे दौड़ेगा? देखो, घोड़ा बनकर तो नहीं दौड़ेगा। तुम ये कोशिश करो कि पहले उसको घोड़ा बना दें फिर दौड़ाएँ, तो ये तो नहीं होगा कभी। अब तो यही कर सकते हो कि अजगर है, अजगर ही दौड़ रहा है। जे हुई कुछ बात! अब दिखाई दिया न दैवीय चमत्कार। अजगर मैराथन में दौड़ा जा रहा है सबसे आगे। खरगोशों में लहर दौड़ गई है, वो कह रहे हैं, 'हम कितनी भी तेज़ दौड़ लें, ये अजगर! ऐसा तो कभी देखा नहीं। अजगर तो लटके रहते थे ऊपर से नीचे। नहीं, ये अजगर है!' खरगोश नहीं बनोगे, न घोड़े बनोगे; अजगर हो तो ये उम्मीद छोड़ दो, लगा दो दौड़।
एक नाटक देखा था मैंने। वहाँ एक चोर एक कार चुरा कर भाग रहा था, पुलिस वाले ने रोड रोलर पर उसका पीछा किया। अब जो है वही है, क्या कर सकते हो? अजगर घोड़ा बन जाए, इसमें महानता नहीं है। अजगर अजगर रहते हुए भी अजगरी से आगे निकल जाए, इसमें महानता है। अजगर होने को नहीं त्याग पाओगे, अजगर वृत्ति को त्याग सकते हो।
वृत्ति भी नहीं छूटेगी? तो कोई बात नहीं, वृत्ति के रहते हुए भी जो अधिकतम कर सकते हो, करो!
प्र२: आचार्य जी, प्रणाम। अभी बात हुई थी ख़ुद से लड़ने की, आपने बताया था कि ख़ुद से लड़ना ही ब्रह्म है, अध्यात्म है। तो एक तो ख़ुद से हम बाहर के तल पर लड़ाई करते हैं और एक सूक्ष्म तल पर हम ख़ुद से लड़ते हैं। तो इनमें कैसे इसको देखा जाए?
आचार्य: बाहर के तल पर क्या लड़ते हो? सूक्ष्म ही होती है हमेशा लड़ाई, बाहर के तल पर क्या करोगे? मुक्का थोड़े ही मारोगे ख़ुद को। स्थूल लड़ाई क्या लड़नी है अपने-आपसे? तुम्हारा जो दुश्मन है तुम्हारे भीतर, वो सूक्ष्म है, तो उससे लड़ाई भी तो सूक्ष्म ही होगी न? स्थूल दुश्मन कौनसा होता है तुम्हारा? स्थूल दुश्मन ऐसा होता है जैसे तुम्हारे भीतर कैंसर की गाँठ हो, वो तुम्हारा स्थूल दुश्मन है। तो फिर क्या करता है चिकित्सक? सर्जरी करके उस गाँठ को निकाल देता है। वो तो हो गई स्थूल लड़ाई। या शरीर का मैल है, वो तुम्हारा स्थूल दुश्मन है, तुम नहाकर उसको हटा देते हो।
पर जो तुम्हारा गहरा दुश्मन है तुम्हारे भीतर, वो मन है न, मन? वो कैंसर की गाँठ नहीं है, वो कोई शारीरिक चीज़ नहीं है। तुम्हारा जो भीतर दुश्मन है वो मन है, तो उससे तो सूक्ष्म ही लड़ाई होगी, स्थूल क्या है वहाँ? हाँ, स्थूल ये ज़रूर है कि अब मन के कारण, मान लो, तुम आलसी हो गए हो तो तुम सड़क पर या ट्रेडमिल पर दौड़ लगा दो, वो एक स्थूल घटना है। पर वहाँ भी तुम्हें जो विरोध आएगा, वो शरीर से नहीं आता है, वो मन से आता है। मन बोलता है, 'अच्छा ठीक है, अभी आज इतना ही कर लेते हैं, बाकी कल कर लेंगे, क्या हो गया।'
किसी ने कहा था कि 'देखो, शरीर को एक बढ़िया आकार दो।' भीतर से मन का तर्क उठ रहा है 'गोल सबसे सुंदर आकार होता है। चाँद भी गोल है, सूरज भी गोल है, हम भी गोल हैं, राउंड इज़ माय शेप, आई एम इन शेप ' (मेरा आकार गोल है, मैं सुन्दर आकार में हूँ)। कभी दौड़कर देखना, ऐसे-ऐसे तर्क उठेंगे भीतर से कि पूछो मत। अब वो तर्क तुम्हारी तोंद से नहीं आ रहे हैं, तुम्हारे मन से आ रहे हैं। तो स्थूल प्रक्रिया में भी जो बाधा है, वो सूक्ष्म ही है न?
प्र३: प्रणाम, आचार्य जी। जैसे आप बोलते आए हैं कि कोई भी काम में निष्कामता होनी चाहिए लेकिन हमें बचपन से यही शिक्षा दी जाती है कि पढ़ाई कर लो, अच्छे नंबर लाओगे तो अच्छे बच्चे कहलाओगे। या फिर आगे चलकर अच्छी नौकरी मिलेगी तो समाज में एक प्रतिष्ठा मिलेगी। तो इन सबमें निष्कामता नहीं होती है। और ये सामाजिक कंडीशनिंग (संस्कार) रहती ही है जब तक हमें आध्यात्मिक शिक्षा नहीं मिल पाती। और अभी आप बता रहे हैं कि ये सारी चीज़ें तो रहेंगी, इसको हटा पाना काफ़ी मुश्किल है जब इतने सालों से ये हमारे जीवन में हैं। तो इनको लेकर के ही दौड़ लगानी पड़ती है, तो उस दौड़ लगाने में अपनी वृत्तियों को छोड़कर...
आचार्य: छोड़कर नहीं, उनके बावजूद, उनके होते हुए भी।
प्र३: हाँ, जब दौड़ लगाने की बारी आती है तो अंदर से जो विरोध उठता है…
आचार्य: उसी के विरुद्ध तो लड़ना है।
प्र३: जी, तो उनका तेज इतना प्रबल रहता है कि कभी-कभी लगता है कि…
आचार्य: तेज तो रहेगा ही। सामने कभी कर्ण हैं, कभी द्रोण हैं, कभी भीष्म हैं, उनके पास देखो कितना तेज है। तो तुम योद्धा काहे के हो कि उनका तेज देखा और लोट गए कि बहुत तेज है, रथ के पीछे आकर छुप गए! ये कोई बताने की बात है कि सामने जो खड़ा है उसमें बहुत तेज है? उसमें तेज है, तुम्हारे पास क्या है फिर? तुम भी ज़रा हुंकार मारो, दम दिखाओ, तुम काहे के लिए हो? या सारा तेज उन्हीं के सुपुर्द कर रखा है? क्यों भाई?
ये तो तुम बिलकुल दुर्योधन जैसी बात कर रहे हो। दुर्योधन ने बिलकुल आरंभ में ही, द्रोण से जाकर कहा कि 'गुरुवर! उधर जो सेना है वो पर्याप्त है और हमारी अपर्याप्त है। उधर बहुत तेज है और हमारे पास नहीं है।' जो ऐसी बात शुरू में ही बोल दे उसका फिर क्या होगा? वही जो दुर्योधन का हुआ। हाँ, उधर जो है, सो है। हम भी हैं, देखते हैं; आ जाओ।
बार-बार अपने-आपको चुनौती देते रहा करो बीच-बीच में। दिन में पाँच-सात बार आईने के सामने जाओ और धमकी दिया करो, 'तमीज़ में रह! बहुत मारूँगा। दिन में दो बार बता चुका हूँ, अब तीसरी अगर चेतावनी की नौबत आयी तो पटक कर मारूँगा।' ये तुमको विधि दे रहा हूँ। दिन में पाँच-सात बार ख़ुद को घुड़की दिया करो। आईने के सामने खड़े होओ और… नहीं?
प्र३: जैसे कभी, मान लीजिए, जीत गए तो अच्छा लगता है कि हाँ, इस बार जीत गए। तो फिर चीज़ें धीरे-धीरे कम होती हैं कि पहले जितनी बार हार रहे थे, अब चीज़ें कम हो रही हैं। तो मन में विचार आता है कि ये कब पूरी तरह से ख़त्म होगा और हम स्मूथली (सहजतापूर्वक) आगे बढ़ पाएँगे इस क्षेत्र में?
आचार्य: ये जितनी बातें आती हैं इन सब बातों को जीतना होता है, एक-के-बाद-एक। ये ऐसी व्यूह रचना है जिसमें सबसे बाहर वाले वृत्त पर खड़े होते हैं पैदल सैनिक, जिनको हराना सबसे आसान है। उनको हराकर आगे बढ़ोगे तो कौन मिलेंगे? फिर घुड़सवार मिलेंगे। उनके आगे बढ़ोगे तो कौन मिलेंगे? फिर हाथी वाले मिलेंगे, गजसेना। फिर उसके आगे बढ़ोगे तो कौन मिलेंगे? रथी मिलेंगे। उसके आगे बढ़ोगे तो महारथी मिलेंगे। जितना जीतते जाओगे, उतना बड़ा योद्धा अब तुम्हारे सामने आता जाएगा लड़ने के लिए। तुम बड़े धुरंधर हो, तुम्हारे भीतर एक-से-एक कलाकार बैठे हैं। हमको पता थोड़े ही है कि हम कितने बड़े पापी हैं। सुनते थे न, 'हे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर!' तुम अपने-आपको बोला करो, 'हे सर्वश्रेष्ठ धुरंधर!' अपने छोटे पाप को जीतोगे तो पीछे से सफ़ाई निकलकर नहीं आएगी। क्या निकलकर आएगा?
प्र३: और बड़ा पाप।
आचार्य: और बड़ा पाप! तो लड़ने का मज़ा तुमको लगातार, सतत, निश्चितरूप से मिलते रहना है, लाइफ़टाईम गारंटी (जीवनभर की ज़मानता)।
प्र३: तो जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते हैं तो फिर जीतने की जो हमारी क्षमता होती है वो भी विकसित हो जाती है?
आचार्य: हाँ, मामला और गाढ़ा होता जाता है। तुम्हारी क्षमता भी विकसित होती जाती है और सामने जो पापी खड़ा होता है वो भी और प्रबल होता जाता है। तो कुल-मिलाकर वो जो मैच होता है, क्रिकेट का उदाहरण लो तो, ज़िंबाब्वे वर्सेस आयरलैंड से बढ़कर के फिर वो ऑस्ट्रेलिया वर्सेस इंग्लैंड हो जाता है।
संघर्ष पहले भी था, पर दो छोटे योद्धाओं में था। संघर्ष अभी भी है, पर अब तुम भी थोड़ा प्रबल हो गए हो और जो तुम्हारे सामने है वो भी धुरंधर है; तो कुल-मिलाकर क्या हुआ? अब मैच में आनंद ज़्यादा आता है। मामला प्रगाढ़ हो जाता है। दो नए-नए हों जिनको कुछ खेलना नहीं आता, एकदम ही नौसिखिए – मान लो टेनिस खेल रहे हैं – उनको खेलते देखना तुम्हें कैसा लगेगा? और दोनों हैं बराबरी के ही लेकिन। बराबरी के अनाड़ी और दोनों आमने-सामने खड़े हैं, कैसा लगेगा? और यही फेडरर और नडाल खेल रहे हैं, वो भी बराबरी के हैं। मामला तब भी बराबरी का था, अब भी बराबरी का है, पर अब आनंद बहुत ज़्यादा है।
ब्रह्मविद्या का यही लाभ है, जैसे-जैसे तुम आगे बढ़ते हो, वैसे-वैसे आनंद प्रगाढ़ होता जाता है।