वृत्तियों का दृष्टा बनें या दमन करें? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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वृत्तियों का दृष्टा बनें या दमन करें? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, वृत्तियों का ज़ोर दिखता है। क्या इनका दमन करके बदलना चाहिए, या देखना मात्र पर्याप्त है?

आचार्य प्रशांत: देखो, अगर बदल दोगे, तो आंशिक सुधार मिलेगा। क्योंकि बदलकर भी तुम कौन-सा विचार अपने ज़हन में लाओगे?

प्र: उसका विपरीत।

आचार्य:

तो तुम्हारा मन किसी दिशा में भाग रहा है, तुम मन की दिशा को परिवर्तन देना चाहो या उलट देना चाहो, इससे अगर तुमको लाभ होगा भी तो आंशिक होगा। मात्र दर्शन, विशुद्ध अवलोकन, आंशिक लाभ से कहीं ज़्यादा लाभ देता है।

बस उसमें थोड़ा ख़तरा होता है। जब तुम एक अनचाहे विचार को, एक प्रिय विचार की ओर पलटते हो, तो तुम्हें सुख मिलता है और सुरक्षा मिलती है। तुम्हें कोई विचार उठ रहा था, जिसको तुम कहते हो ‘कुविचार’, और उसका पता लगते ही तुमने उसको बना दिया ‘सुविचार’। तुम्हें सुख भी मिलेगा, तुम्हें गौरव भी प्रतीत होगा, और तुम्हें सुरक्षा भी रहेगी।

सुरक्षा इसीलिए रहेगी, क्योंकि ये ‘सुविचार’ जाना-पहचाना है। कुछ नया नहीं घट रहा। ‘कुविचार’ का क्षेत्र भी जाना पहचाना है, और ‘सुविचार’ का क्षेत्र भी जाना पहचाना है। है या नहीं है? क्या हम पहले से ये नहीं जानते हैं कि किन विचारों को ‘कुविचार’ कहना है, और किन विचारों को ‘सुविचार’ कहना है?

तो ‘कुविचार’ से, ‘सुविचार’ की ओर जाने में हमें कोई बड़ी अड़चन नहीं होती। हमारी सुरक्षा पर कोई ख़तरा नहीं आता, और हमें गौरव भी मिल जाता है। किस बात का? कि – “देखो कितना अच्छा किया! मैं कितना भला आदमी हूँ। ग़लत कुछ हो रहा था, और मैंने उसको होने नहीं दिया।” सुख भी मिल गया।

तो इसमें कोई लाभ होगा भी, तो मैंने कहा – आंशिक होगा। ‘कुविचार’ से ‘सुविचार’ की ओर जाना कोई बड़ी बात नहीं, असली घटना तब घटती है जब तुम ‘कुविचार’ के सिर्फ दृष्टा हो। थोड़ी छटपटाहट उठेगी, क्योंकि हम दृष्टा नहीं, कर्ता होना चाहते हैं। और कर्ता कहता है, “अगर कोई ग़लत चीज़ पता लगी है, तो उसको ठीक करो न। देख क्या रहे हो?” कर्ता कहता है, “अगर कहीं कुछ ग़लत हो रहा है, तो उसको ताके क्या जा रहे हो, देखे क्या जा रहे हो, पकड़ कर बदल दो, ठीक कर दो।”

दृष्टा कहता है, “नहीं। बदलना मेरा काम नहीं। मेरा काम है – जानना। कर्तत्व स्वभाव नहीं है, बोध स्वभाव है। मेरा काम है जानना। मैंने जान लिया, अब जो बदलना होगा, स्वयमेव बदलेगा।”

श्रद्धा चाहिए। ख़तरा है। पता नहीं बदले, न बदले। और बदल भी गया, तो अब न जाने क्या बन जाएगा।

“जब मैं बदल रहा था, तो मैं ‘कुविचार’ को बदल कर, ‘सुविचार’ बना रहा था। पर अगर ये स्वयमेव बदला, तो प्रक्रिया मेरे हाथ से निकल जाएगी। न जाने वो कुविचार, क्या बन जाए।”

तो डर लगता है।

इसीलिए हम अवलोकन अपना करते भी हैं अगर, तो आधा-अधूरा। हम कहते हैं , “हमें कुछ गड़बड़ पता चली, तो हमने उसको ठीक कर दिया।" जो कुछ गलत है, हम उसके साथ चल पाने का साहस नहीं दिखा पाते। इसीलिए वास्तव में हमें ठीक-ठीक पता भी नहीं लगता कि क्या ग़लत है।

प्र: परतों से सूक्ष्म परतों की ओर।

आचार्य: हाँ। जो ग़लत है, उससे हम इतना घबराते हैं, उसे बदलने के इतने इच्छुक रहते हैं, कि उसको देखा नहीं कि उस पर आघात किया।

चूहे को देखते ही उसे मारने दौड़ोगे, तो उसके बिल का तुम्हें कैसे पता लगेगा। पता चलेगा? और अगर बिल का नहीं पता लगेगा, तो चूहा…

प्र: फिर से आ जाएगा।

आचार्य: बार-बार आएगा, बार-बार आएगा। हम चूहे से इतने खौफज़दा हैं, कि चूहा दिखा नहीं और हम कहते हैं, “कुछ करो।” अरे चुपचाप देखो। बहुत कुछ पता चल जाएगा उसको देखने भर से।

प्र: कई बार इसी ‘करने’ को हम जानना भी कहते हैं न? “मैं जान गया।”

आचार्य: हाँ।

हम ‘करने’ को इतने उतावले रहते हैं, कि हम करे बिना जान ही नहीं पाते। हमारे लिए ‘विशुद्ध बोध ‘जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं है। हमें तो कुछ ख़बर लगी नहीं, कि हमने क्रिया करी। पता लगा नहीं, कि प्रतिक्रिया हुई।

तुम बिना प्रतिक्रिया के अगर संयमित रह सको, श्रद्धा और साहस से बस जानते रह सको, कि ये सब हो क्या रहा है, तो फ़िर ये प्रतिक्रिया की ज़रुरत नहीं पड़ती, फ़िर सम्यक कर्म अपने आप होता है।

और वो इतना सुन्दर, इतना बेहतरीन कर्म होता है जैसे कि तुमने किया ही न हो।

जैसे कि करने वाला कोई और हो।

तुम ख़ुद हैरान रह जाओगे।

तुम कहोगे, “अगर मैं प्रतिक्रिया करता, अगर मैं सुधार की दिशा में कोई क़दम उठाता, तो थोड़ा बहुत ही कुछ कर पाता। और ये देखो, अपने आप ही ये क्या हो गया।”

ये किसने कर डाला? लगेगा यही कि तुमने करा है, पर तुम्हें खुद ताज्जुब होगा कि ये हो कैसे गया ।

प्र: पहला वाला जो उपाय है वो आंशिक है?

आचार्य: वो आंशिक है।

प्र: जैसे मान लीजिए, मेरे मन में किसी के प्रति बहुत नाराज़गी है, और मैं उस नाराज़गी को मात्र दृष्टा बनकर, न मैं उसको कम करने की कोशिश कर रहा हूँ, न मैं उसको बढ़ाने की कोशिश कर रहा हूँ, जैसी है, उसको बस देखता जा रहा हूँ। और फिर जो उससे निकले आगे, वो निकले। उससे प्यार निकले, तो निकले। अवोइडेन्स (परिहार) निकले, तो निकले। कुछ अच्छा और...

आचार्य: फिर जो निकले, हम उसके भी?

प्र: दृष्टा ही रहें।

(आचार्य जी हामी में सर हिलाते हुए)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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