प्रश्न: लोग व्रत, उपवास रखते हैं, इसका क्या धर्म से कोई संबंध है?
वक्ता: व्रत, रोज़ा, उपवास- ऐसा लगता है जैसे यह सारे ही शब्द एक ही परिवार के हों, लेकिन हैं नहीं| व्रत और उपवास बहुत अलग-अलग तलों के शब्द हैं| व्रत का अर्थ है- संकल्प| संकल्प हमेशा मन से आता है| शास्त्र इसलिए कहते हैं, ‘अव्रती हो जाओ’|
गलत समझतें हैं आप, यदि यह सोचते हैं कि व्रत कोई बड़ी लाभप्रद, शास्त्र के अनुसार बात है| वेदान्त में तो लगातार ये कहा गया है कि, ‘अव्रती हो जाओ, व्रत रखो ही मत’| क्योंकि ‘व्रत’ का मतलब ही होगा कि अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रतिज्ञ होना| तय करना और अपने तय किये अनुसार चलना| पहले ही निर्धारित कर लिया कि आज क्या करना है, और फिर उसी संकल्प का पालन करना| तो अव्रती हो जाओ| आप पूछिये अष्टावक्र से, वो बिल्कुल कहेंगे, ‘अव्रती हो जाओ’|
उपवास दूसरी बात है| उपवास शब्द का अर्थ होता है- समीप आकर रहना| ‘उप’ माने समीप, ‘वास’ माने रहना| उपवास का भोजन करने और न करने से कोई लेना-देना नहीं है| ‘उपवास’ करीब-करीब वैसा ही शब्द है, जैसा ‘उपनिषद’| पास आना, पास आना, किसके पास आना? अपने पास आना| जब ‘उपनिषद’ कहा जाता है, तो उसका अर्थ होता है कि गुरु के पास शिष्य बैठा है| ‘उपवास’ का भी वही अर्थ है| ‘उपवास’ का अर्थ है- आत्मा के पास मन बैठा है| एक ही बात है क्योंकि गुरु आत्मा ही होता है, और मन शिष्य ही होता है|
उपवास का अर्थ है- अपने समीप आकर बैठना, अपने केंद्र पर स्थित हो जाना| व्रत नहीं है उपवास| व्रत बिल्कुल उपवास नहीं है| जो उपवासित होगा, वो सच्चे अर्थों में अव्रती हो जाएगा|
अब इन सब बातों का खाने-पीने से क्या संबंध है? भोजन लेने, न लेने से क्या संबंध है, आप ही बताइए? भोजन करना है कि नहीं करना है, और कब करना है? कितना करना है? यह बहुत उथला प्रश्न है, इसमें कोई सार नहीं है, इसमें कोई जीवन नहीं है| यह किसी भी तरह का आध्यात्मिक प्रश्न है ही नहीं| हाँ, सेहत के दृष्टिकोण से आप पूछ रहे हो कि क्या खाएं, कितना खाएं तो अलग बात है, वो कोई भी डायटीशियन आपको बता देगा| लेकिन कृपा करके कभी भी यह न सोचें कि खाने-पीने का धार्मिकता से कोई संबंध है, कि फलाने दिन हमने सुबह से शाम तक कुछ खाया नहीं और पानी भी नहीं पीया| इसका धर्म से और आत्मा से क्या संबंध है?
श्रोता १: हमने एक बार चर्चा की थी कि खाना केवल शरीर का अहंकार को शांत करने के लिए है| तो शायद उपवास का जो भोजन होता है, वो इसी तरह का होता है, जो ज़्यादा उत्तेजित न महसूस कराए|
वक्ता: किसको ज़्यादा उत्तेजित न महसूस कराए?
श्रोता १: शरीर को|
वक्ता: समझिये तो बात को| आचरण से अंतस की ओर नहीं जा सकते| क्योंकि आचरण करने वाल कौन है? आचरण चुनने वाला कौन है?
सभी श्रोतागण(एक स्वर में): मन|
वक्ता: अपने अनुसार आपने आचरण चुना| अपने अनुसार आपने जो आचरण चुना, वो क्या आपको घटाएगा, या आपको और तगड़ा करेगा?
सभी श्रोतागण(एक स्वर में): और तगड़ा करेगा|
वक्ता: आपको यह बात समझ में नहीं आ रही? कौन चुनता है कि आज मैं व्रत रखूँगा? कौन चुनता है? बोलिए| आपका अपना अहंकार, ‘मैं व्रत रखूँगा’| आपने चुना, ‘मैं व्रत रख रही हूँ’| आपके इस चुनाव से, अहंकार के ही चुनाव से, अहंकार कम हो जाएगा क्या? यह कैसी बातें कर रहे हैं?
कबीर सौ बार बोल गये कि जंगल जाने से और वहाँ की घास पर ही ज़िन्दा रहने से अगर मोक्ष मिलता, तो जंगल की गइयाँ-बछियाँ को सबसे पहले मिल गया होता, वो तो पूरी तरह कन्द-मूल घास पर ज़िन्दा रहतीं हैं| सरहपा हुए हैं, चौरासी सिद्धों में सबसे अग्रणी, वो जब देखते थे कि इधर-उधर भिक्षु घूम रहे हैं बाल मुंडा कर, तो वो बोलते थे कि ‘सिर के बाल तो तुमने अभी मुंडाएं हैं, नितम्बों के बाल तो कब के मुंडे हुए हैं, वहाँ तो होते ही नहीं, तो सबसे पहले उनको मोक्ष मिल गया होगा| नितम्बों पर तो बाल होते नहीं, तो सबसे पहले मोक्ष उनको मिल गया होगा|
यह आप उसी तल की बात कर रहे हैं कि कुछ इस तरह का काम कर दो, तो मोक्ष मिल जाएगा| ‘मूंड मुंडाए हरि मिलें’| और खालो कुछ, तो परम की प्राप्ति हो जायेगी, न खाओ तो प्राप्ति नहीं होगी| खाना-पीन मुक्ति नहीं देगा, विपरीत है इसका| मुक्त मन का खाना-पीना ठीक हो जाता है| आप हिंसा युक्त भोजन करते हो, आप मांस खाते हो, आप मांस छोड़ भी दोगे क्योंकि आपने व्रत लिया, तो लाभ नहीं होगा उससे| बात तो तब है जब मांस छोड़ा न जाए, मांस छूट जाए| मांस छोड़ा नहीं, मांस छूट गया|
अभी उस दिन लौट रहे थे, तो एक सज्जन साथ में थे और पूछते हैं, ‘आपने दूध भी छोड़ दिया, आपको इच्छा नहीं उठती?’ विचार ही नहीं आता, लगता ही नहीं| और एक समय था, जब भी कहीं जाता था और खाना ऑर्डर करता था, तो सबसे पहले मंगाता था, पनीर| मुझे उस इच्छा का अब दमन नहीं करना पड़ता, मुझमें वो इच्छा उठती ही नहीं| अगर दमन करना पड़ा तो हारूँगा क्योंकि अपना दमन कोई कर नहीं सकता बहुत समय तक| आपमें से जिन्होंने दमन की कोशिश की है, उन्हें पता होगा कि वो हारे हैं| मुझे दमन करना ही नहीं पड़ता, क्योंकि मुझमें इच्छा ही नहीं उठती|
व्रत हमेशा हारता है, उपवास ही जीतता है| व्रत की नियति है हारना| लेकिन अहंकार को व्रत ज़्यादा पसंद आएगा| क्योंकि व्रत किसका है? अहंकार का ही तो व्रत है, वही तो व्रती है|
श्रोता २: यह तो बहुत लाभप्रद बात हो गयी, जो मांस खाते हैं उनके लिए कि जब छूटेगा, तब छोड़ेंगे|
वक्ता: बिल्कुल सही बात है| जब छूटेगा, तब छोड़ेंगे| इरादा है? किसका इरादा पूछ रहा हूँ? मांस छोड़ने का नहीं, पीड़ा छोड़ने का| जो मांस खा रहा है, यदि तुम उससे कहोगे कि मांस छोड़ो, तो तुम हारोगे, तुम्हारी बात वो नहीं सुनेगा| आपको याद होगा, बोध-बिंदु एक किताब है, उसमें एक लेख है कि हम पशुओं को क्यों मारते हैं| उसमें बार-बार यही कहा गया है कि मुर्गे की न सोचो, अपनी सोचो| मांस मत छोड़ो, अपनी पीड़ा छोड़ो| अपनी पीड़ा छोड़ने के लिए सब उत्सुक हैं| तुम कहोगे मांस छोड़ना है, लोग इनकार कर सकते हैं, पर अगर तुम उनसे कहोगे कि दुःख छोड़ना है, तो कोई इनकार नहीं कर सकता|
तुम उनसे कहो, ‘दुःख छोड़ो’| मांसाहार तुम्हारे आंतरिक दुःख से निकलता है| सारी हिंसा तुम्हारे अपने दुःख से निकलती है| तुम जितने ही दुखी होगे, उतने ही हिंसक होगे| तुम उसका दुःख छुड़वा दो, वो मांस छोड़ देगा| हाँ, सीधे-सीधे कहोगे कि मांस खाना ग़लत है, तो वो व्रत ले लेगा| तुम्हारे प्रभाव में आएगा और संकल्प ले लेगा| ‘गुरूजी ने समझाया कि मांस खाना गलत है, आज से मांस नहीं खाऊंगा’| चार दिन नहीं खायेगा फिर? पांचवें दिन खाएगा, क्योंकि व्रत की नियति ही है कि टूटेगा|
जब मैंने दूध पीना छोड़ा था, तो मेरे साथ और भी कई लोगों ने छोड़ा था| आज क्या स्थिति है उनकी? तुमने समझकर तो छोड़ा नहीं| तुम्हारी आत्मा से नहीं उठी थी पुकार, तुम्हारे बोध से नहीं आया था निर्णय| चार दिन छोड़ा, पांचवे दिन पुनः पीना शुरु कर दिया| मांसाहार अपने आप में बीमारी नहीं है, वो बीमारी का लक्ष्ण है| बीमारी मात्र एक है, अबोध| समझ नहीं रहे हो?
बोधहीन होना बीमारी है| उसे बोध दो फिर देखो कि उसका आचरण कितना सुव्यवस्थित हो जाता है| यह तो छोड़ ही दो कि वह मांस नहीं खायेगा| देखो, शरीर के लिए यह ही नहीं है कि मांस ही खराब है| तुम नहीं खाते हो मांस लेकिन तुम दूसरी तरह का सामान्य, रोटी-सब्जी, शाकाहारी भोजन है, वही उल्टा-पुल्टा खाते हो| इससे क्या तुम्हारी वृत्तियों को नहीं पता चल रहा?
जब लखनऊ से दिल्ली आया था, तो बहुत ताज्जुब हुआ था देखकर कि लोग परांठे पर मक्खन लगा रहे हैं| तेल में तला हुआ परांठा, उसके ऊपर मक्खन लगा रहे हो| यह कर क्या रहे हो? मजेदार बात यह थी कि बाद में मुझे ही स्वाद आने लगा उसमें| लेकिन शुरू में बड़ा ताज्जुब हुआ कि परांठे पर मक्खन कोई कैसे लगा सकता है, यह तो पहले ही तेल में तला हुआ है| रोटी पर घी लगाना तो एक बार को समझ में आता है, ख़ासतौर पर रोटी अगर चने की या बाजरे की है, क्योंकि रूखी होती है| उस पर तुम घी लगा सकते हो|
जब मन की वृत्ति ऐसी है जो सिर्फ चटोरी है, तो एक दिशा में रोकोगे तो दूसरी दिशा में जाएगा| कुछ न कुछ तो उल्टा-पुल्टा खायेगा, मांस नहीं खायेगा तो मक्खन खायेगा| और जो मक्खन ही सिर्फ खाते हों, वो यह न सोचें कि वो बड़े पाक-साफ़ हैं|
सात्विक भोजन पसंद करने के लिए, सात्विक मन होना चाहिए|
रमण से किसी ने पूछा कि भोजन क्या हो? उन्होंने कहा, ‘पहली बात-सात्विक भोजन और दूसरी बात- मात्रा छोटी| भोजन सात्विक हो और थोड़ा हो| भोजन सात्विक हो इसके लिए पहले मन सात्विक चाहिए, नहीं तो सात्विक भोजन बहुत दिनों तक कर नहीं पाओगे| दूसरी बात, मात्रा भोजन की थोड़ी हो, उसके लिए अहंकार थोड़ा होना चाहिए, क्योंकि अधिक लेना, संचय करना, यह अहंकार की वृत्ति होती है| अहंकार चाहता ही यही है|
देखो जैसे तुम अपनी जेबें फुलाकर रखना चाहते हो, ठीक उसी तरीका से शरीर भी तमाम जगह चर्बी, मांस इकट्ठा करके रखना चाहता है| दोनों एक ही बात हैं, जैसे मन चाहता है कि बैंक अकाउंट फूला रहे, वैसे शरीर चाहता कि इसमें भी चीज़ें संचित रहें| तुम बैंक अकाउंट क्यों फुलाकर रखते हो? तुम कहते हो भविष्य में काम आएगा| शरीर का भी ठीक यही तर्क होता है कि अगर कभी ऐसी स्थिति आ गयी कि खाने को नहीं मिला, तो जितनी चर्बी जमा कर रखी है, तब काम आएगी| शरीर का तर्क यही है|
(सभी श्रोतागण हँसते हैं)
तुम हँस लो इस पर, क्योंकि तुम कह रहे हो कि ऐसा तो कभी होगा ही नहीं, पर शरीर डरा हुआ है| शरीर अरबों-खरबों वर्षों की यात्रा करके आया है| तुमने पता नहीं कितने ऐसे जन्म देखे हैं जब तुम भूख से मरे थे| तुम्हारे डी.एन.ए. में वो स्मृतियाँ अभी भी बाकी हैं जब तुम इसलिए मरे थे क्योंकि तुम्हें खाना ही नहीं मिला था| तुम भूख से तड़प-तड़प कर मरे थे, तो इस कारण शरीर इकट्ठा करके रखता है, वो तड़पता है खाने के लिए| वो सब उन हज़ारों-लाखों वर्षों पुरानी यादों का नतीजा है| अकाल पड़ा था, और तुम तड़प रहे थे कि कुछ मिल जाए, और तुम्हें कुछ मिल नहीं रहा था, और तब तुमने साँस तोड़ी थी| तो वो इकट्ठा कर रहा है|
जब तक वो वृत्ति अभी बची हुई है, जो अतीत को ढोह रही है, तब तक तुम छोटा भोजन, थोड़ा भोजन कर ही नहीं सकते| जब तक वो मन में याद ताज़ा है कि मैं कैसे मरा था, ‘इतना-सा आटा नहीं मिल रहा था और मर था’, जब तक मन में कहीं वो याद बैठी हुई है, तब तक यह संभव ही नहीं हो पायेगा कि तुम थोड़ा-सा खाओ और बाकी छोड़कर उठ जाओ| शरीर कहेगा कि ‘लो, और लो, अकाल पड़ने वाला है, कहीं मर न जाओ’|
श्रोता ३: एक तरह से श्रद्धाहीन होना दिखाया गया है|
वक्ता: हाँ| श्रद्धा में ही जीने का नाम है, ‘उपवास’| तो मैं अब कह रहा हूँ आखिरी बात- उपवास करो, व्रत नहीं| और व्रत और उपवास में भेद करना सीखो|
श्रोता ३: लेकिन फिर भी आकर्षण तो रहता ही है खाने की ओर| उसका क्या करें?
वक्ता: उस खाने को ध्यान से देखो और कहो, ‘तू आकर्षक इसलिए लग रहा है क्योंकि कहीं अकाल का भय है’| उसे बोलो, ‘अकाल कहीं नहीं है’|
श्रोता ४: फिर प्रयोग वाली बात आती है?
वक्ता: तो प्रयोग भी वही है| तुम्हें क्या लगता है, स्वाद की अपनी कोई सत्ता है? तुम अगर ध्यान से देखोगे तो तुम्हें सबसे ज़्यादा स्वादिष्ट वो चीजें लगतीं हैं, जो शरीर में कार्बोहायड्रेट और ग्लूकोस बढ़ातीं हैं| ध्यान देना, तुम किसी भी संसार के कोने को देख लो और किसी भी समय को देख लो, नब्बे प्रतीशत मामलों में लोगों को सबसे स्वादिष्ट वही लगा है, जो या तो कार्बोहायड्रेट बढ़ायेगा और ग्लूकोस बढ़ायेगा|
जानते हो कार्बोहायड्रेट और ग्लूकोस दोनों क्या हैं? तुम्हारे शरीर में सब कुछ कम हो जाये और अगर ये अभी यह बचे हैं, तो चल लोगे| ये उर्जा के प्राथमिक स्रोत हैं- कार्बोहायड्रेट और ग्लूकोस, रोटी और शक्कर| यही स्वादिष्ट लगते हैं ज़बान को| ज़बान की कंडीशनिंग है कि उसे वही स्वादिष्ट लगे, जिससे ऊर्जा मिलती है, जिससे शरीर मरेगा नहीं|
तो स्वाद को भी जानो कि स्वाद और कुछ नहीं है| तुम्हें पिज्ज़ा स्वादिष्ट लगता है, और पिज्ज़ा में भरकर कैलोरी होतीं हैं, यह दोनों बातें अलग-अलग नहीं हैं| तुम्हें स्वादिष्ट ही वही लगेगा, जिसमें कैलोरी हैं| शरीर की कंडीशनिंग ही यही है कि उसे कैलोरीज़ ही स्वादिष्ट लगेंगीं| यह कोई संयाग नहीं है, इनमें गहरा नाता है|
– ‘बोध-सत्र’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|