वो काठ के योद्धा होते हैं जिन्हें डर नहीं लगता || (2014)

Acharya Prashant

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वो काठ के योद्धा होते हैं जिन्हें डर नहीं लगता || (2014)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप आइ.आइ.टी. , आइ.आइ.एम. से पढ़े, और फिर आइ.ए.एस. भी थे, फिर आपने ये सब छोड़ दिया। तो आपके भी कुछ संकोच रहे होंगे। या फिर परिस्थितियाँ कैसी थी कि आपने सबकुछ छोड़ दिया, इसकी प्रेरणा कहाँ से मिली आपको?

आचार्य प्रशांत: दूर से देखो तो ऐसा लगता है कि कहानी बिलकुल साफ़ है।

जैसे कि रास्ता बना ही हुआ था, तय ही था, और किसी को बस उसपर चलने की देर थी। ऐसा होता नहीं है। एक कदम से जब अगला कदम रखा जाता है, तो उसमें डर भी होता है, अस्पष्टता भी होती है, अनिर्णय भी होता है, सब होते हैं। लेकिन साथ-ही-साथ यह पता भी होता है कि क्या उचित है। हम इंतज़ार नहीं कर सकते कि जब तक सौ प्रतिशत स्पष्ट नहीं हो जाऊँगा, कदम नहीं बढ़ाऊँगा। हम इंतज़ार नहीं कर सकते कि – “जब तक डर बिलकुल शून्य नहीं हो जाएगा, कुछ करूँगा ही नहीं।”

डर रहेगा, कोहरा रहेगा। उसी में टटोलते-टटोलते आगे बढ़ना होता है। ऐसा नहीं है कि विपरीत या विरोधी विचार नहीं उठते, बिलकुल होगा। तुम एक ऐसी नौकरी छोड़ रहे हो जिसको पाने के लिए दुनिया बेताब रहती है, और जिसके लिए तुमने भी समय लगाया था, मेहनत करी थी, तो निश्चित-सी बात है भीतर से कुछ विरोधी विचार उठेंगे। उसके बाद फिर तुम ऐसा करियर छोड़ रहे हो जिसमें पैसा भी है, इज्ज़त भी है, फिर एक डर सिर उठाएगा कि आगे क्या है, इसको तो छोड़ रहे हो। ये सब होगा। लेकिन मज़ा तब है जब इनके होने के बावजूद भी तुम चलते रहो।

“ये हैं, पर हम इनको तवज्जो नहीं दे रहे।”

रश्मिरथी, दिनकर का काव्य ग्रन्थ है, उसमें एक जगह आती है जहाँ ‘शल्य‘ होता है कर्ण का सारथी, उसका काम ही होता है कर्ण को चिढ़ाना, परेशान करना। वो कर्ण से कहता है, “तुम्हें तो डर लग रहा है। अर्जुन सामने आया और तुम डर रहे हो”, तो कर्ण उसे बोलता है, “वो काठ के योद्धा होते हैं जिन्हें डर नहीं लगता। हाड़-माँस का जो भी योद्धा होगा, वो डरेगा ही। और उसका गौरव इसी बात में है कि डर के होते हुए भी उसने युद्ध किया।”

इंसान होने का मतलब ही यही है कि एक तल पर आत्मा है और दूसरे तल पर तमाम डर, विचार, परेशानियाँ, चिंताएँ, अहंकार — वो मौजूद रहेंगे।

इंसान होने का मतलब ही यही है कि सदा दोनों तल मौजूद रहेंगे, पर तुम्हें देखना है कि तुम्हें किस तल को वरीयता देनी है।

तुम्हें डर के साथ डर जाना है, या तुम्हें आत्मा के साथ निर्भीक रहना है — यह फ़ैसला करने का हक़ है तुम्हें।

डर उठेगा, लेकिन तुम्हें यह फ़ैसला करना है कि डर के आगे घुटने टेक देने हैं, या कहना है, “डर तू बड़ा है, पर तुझसे कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण कुछ और है। मैं तेरे कारण रुक नहीं सकता।”

अगला कदम कहाँ रखें यह साफ़-साफ़ दिख नहीं रहा आपको, कोहरा है, अस्पष्टता है, कुछ पता नहीं चल रहा कि अगला कदम क्या लें, खतरा भी है, गिर सकते हैं, पता नहीं कहाँ कदम रख दिया। लेकिन हम वो खतरा उठाएँगे, हम आगे बढ़ेंगे, गिरने की संभावना है हम तब भी आगे बढ़ेंगे, हो सकता है गिर भी जाएँ, गिर जाएँगे तो उठेंगे, फिर भी आगे बढ़ेंगे। और जब ऐसे कर-कर के आगे बढ़ते रहते हो, तो फिर धीरे-धीरे मन समझ जाता है कि डर में कुछ रखा नहीं है।

वो डर जो पहले आतंकित करता था, फिर समझ जाते हो इसका तो यही काम है। “पहले भी तूने यही किया था, तो जब हम पहले नहीं रुके, तो अब कैसे रुक जाएँगे? जब तू इतना बड़ा हो कर सामने खड़ा होता था, तब हमने तुझे भाव नहीं दिया, अब क्यों देंगे?”

डर रहेगा, हमेशा रहेगा।

लेकिन तुम जितना मन को साफ़ करते जाओगे, जितना तुम हृदय का साथ देते जाओगे, डर उतना कम ज़रूर होता जाएगा।

और यह बहाना तो तुम कभी बनाना ही नहीं कि – “अभी पूरी स्पष्टता ही नहीं है इसलिए कुछ कर नहीं रहे।” न मुझे थी, न तुम्हें होगी।

पूरी स्पष्टता जैसा कुछ होता नहीं। बिलकुल दूर क्षितिज तक साफ़ दिखाई दे, यह सुविधा किसी को मिलती नहीं। बीच में हमेशा कुछ बादल रहेंगे, कुछ कोहरा रहेगा-ही-रहेगा। बीच में लगातार कुछ ऐसा रहेगा जो अस्पष्ट होगा, धुंधला होगा, अज्ञात होगा।

उसी अज्ञात में जीना है।

हिम्मत चाहिए न उसके लिए?

अज्ञात में भी जीने की हिम्मत को कहते हैं — श्रद्धा।

जानते नहीं हैं आगे कल क्या होगा, पर फिर भी आगे बढ़ रहे हैं। बिलकुल नहीं जानते कल क्या होगा फिर भी आगे बढ़ रहे हैं। पूरी तरह यह भी नहीं पता है कि जो कर रहे हैं वो उचित है कि नहीं, क्योंकि मन में ही विरोधी स्वर उठते हैं बीच-बीच में जो कहते हैं, "ग़लत करा, ग़लत करा!" बीच-बीच में शंकाएँ आने लगती हैं, लेकिन फिर भी बढ़ रहे हैं – इसी का नाम है ‘श्रद्धा’।

कोई आता है तुमसे कहता है, “नहीं-नहीं सब साफ़ हो जाएगा आईने की तरह”, तो उसने फिर जीवन कभी जिया नहीं है, क्योंकि जीवन का तो अर्थ ही है द्वैत। जीवन का तो अर्थ ही है कि शंका और संदेह उठेंगे ही। मन का तो अर्थ ही है कि वो विचार देगा, और जब वो एक विचार देगा तो उसके विपरीत वाला विचार भी देगा। तो जो लोग यह कहते हैं कि – “ना” तो फिर वो काठ के योद्धा हैं, असली युद्ध उन्होंने कभी लड़े नहीं।

जो असली युद्ध लड़ेगा, वो जानेगा कि उसमें परेशानियाँ होती हैं, उलझनें होती हैं। कोई-कोई क्षण ऐसा आ सकता है कि जब तुम्हें लगे कि – “यह क्या आफ़त मोल ले ली मैंने, मैं यह लड़ाई लड़ ही क्यों रहा हूँ? मैं हट रहा हूँ इस लड़ाई से” – ऐसा भी होगा।

लेकिन हटना नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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