आचार्य प्रशांत: मन में सब कुछ विनाशी है पर कामना बहुत है मन को अविनाशी की। मन अज्ञान से भरा हुआ है, उसी को अंधकार कहते हैं पर कामना बहुत रहती है हमको ज्ञान की, प्रकाश की। देखा है कितने सवाल पूछते हैं हम? देखा है छोटा बच्चा भी इधर-उधर हाथ-पाँव फेंकता रहता है, कोई नई चीज़ हो उसे छूने की कोशिश करता रहता है। यह भी एक तरीके की ज्ञान की प्यास ही है जो कि बहुत ही आरंभिक रूप में—यह भी कह सकते हो कि विकृत रूप में अभिव्यक्त हो रही है।
जानना हम चाहते ही हैं, और क्या जानना चाहते हैं हम? सत्य से नीचे कुछ नहीं। अपनी आम बोलचाल की भाषा में भी हम दूसरे से पहली बात तो कुछ पूछते हैं—कोई है यहाँ पर जो रोज ही दूसरों से दस सवाल न पूछता हो? कोई भाषा है ऐसी जिसमें प्रश्न चिन्ह न होता हो? पहली बात तो हम पूछते हैं, हम जिज्ञासु हैं, और दूसरी बात जब हम किसी से कुछ पूछते हैं तो साथ ही कहते हैं: सच-सच बताना। क्या कहते हैं? सच-सच बताना। माने हमें जानना है। साबित होता है इससे कि हम पूछते हैं और दूसरी बात हमें क्या जानना है? सच जानना है।
कितने लोगों को अच्छा लगता है जब उन्हें झूठ बोला जाता है, धोखा दिया जाता है? कभी गौर नहीं किया ऐसा क्यों है? किसी को क्यों नहीं सुहाता जब उसे कोई झूठी बात बता दी गई? और किसी ने तुम्हें कोई झूठी बात बता दी, बाद में खुली तो क्रोध क्यों आता है? क्योंकि कामना सत्य की है, कामना सत्य की थी, कामना सत्य की रहेगी। “मैंने तुझसे इसलिए पूछा था कि सच पता लगे, चैन आ जाए तूने मुझे सच से और दूर कर दिया।” फिर क्रोध आएगा।
तो मन रहता तो अज्ञान में है पर प्रेम उसको सत्य से है, ज्ञान से है। समझ में आ रही बात? इसी तरीके से महान—महान माने? महत् से आया है महान, बड़ा। मन की फिर यही हालत, रहता छुटपन में है, संकीर्णता में है लेकिन चाहता किसको है? बड़प्पन को। है लघु और चाहता है? विस्तृत को, वृहद को। कुछ ऐसा चाहिए उसे जो बिल्कुल उसके जैसा नहीं है। लेकिन उसकी दुनिया में जो कुछ है वो बिल्कुल उसके ही जैसा है, और हाथ उसके कहाँ तक जाते हैं? बस अपनी दुनिया तक।
ये प्राणी की स्थिति है। माँग वो रहा है वो जो उसके जैसा बिल्कुल नहीं है और अपने सीमित सामर्थ्य के चलते पा सकता है सिर्फ उतना ही, जो बिल्कुल उसके ही जैसा है। तो आदमी फिर इसीलिए जीवन भर अपना सामर्थ्य ही चलाता रहता है और फिर भी भूखा-प्यासा रहता है। समझ में आ रही है बात?
तो सबका नियंता—हम तो अपने ही नियंता नहीं है। तुम अपने आप को ही नियंत्रण में नहीं रख पाते तो निश्चित रूप से, तुम्हें जिसका एक मौन आकर्षण है वो, वो होगा जो पूर्ण नियंता है। और उस पूर्ण नियंता से नीचे तुम वैसे भी मानोगे नहीं क्योंकि भले ही तुम्हारे अपने नियंत्रण में कुछ ना हो पर चाह तो यही है न कि नियंत्रण में बहुत कुछ आ जाए।
है कोई ऐसा व्यक्ति जो चीज़ों को अपने नियंत्रण में नहीं रखना चाहता? लगातार कोशिश यही रहती है न, जो तुम्हारा सामान है, घर है, तुम्हारे रिश्ते हैं वो सब तुम्हारे नियंत्रण में चलें, कंट्रोल में: मेरे अनुसार चलें, मेरी इच्छा पर चलें। उसमें फिर सुरक्षा की अनुभूति होती है।
तुम्हारी पहली पहचान, जैसे तुम हो, आत्मा या सत्य नहीं है, तुम्हारी पहली पहचान मन है। तुम अहम् हो, तुम तो अहम् हो। आत्मा नहीं पैदा होती, तुम तो प्राणी हो, जीव हो। जब तुमसे उपनिषद कहा जा रहा है, जब तुम्हें उपदेश दिया जा रहा है तो आत्मा को थोड़ी ही उपदेशित किया जाता है। तुम तो प्राणी हो, तुम तो जीव हो। तुम मन हो और मन का सदुपयोग ही यही है कि मन के माध्यम से आत्मा का साक्षात्कार कर दिया जाए। इसको और सरल शब्दों में कहता हूँ: नकली ‘मैं’ हो तुम, पर क्या ये नकली ‘मैं’ पूरे तरीके से अनुपयोगी है? नहीं, इसका उपयोग है कि इसके माध्यम से असली ‘मैं’ का साक्षात्कार कर लिया जाए। यही आदमी के जीवन का खेल है, यही लक्ष्य है, यही साधना है। नकली हैं हम।
ये सारी देशना, ये सारी सीख किसको दी जा रही है? वो जो नकली है, और वो जो नकली है उससे क्या कहा जा रहा है? उससे कहा जा रहा है कि जो कुछ भी तुमको नकली मिला हुआ है न—नकली माने पूरा नहीं, नकली माने असली नहीं, नकली माने आख़िरी नहीं, अंतिम नहीं, विशुद्ध नहीं—जब तुम कहते हो नकली घी तो क्या उस नकली घी में घी होता ही नहीं? होता है न, पर शुद्ध नहीं है, आख़िरी नहीं है। उसमें बहुत कुछ ऐसा है जो दोषपूर्ण है, विकार मात्र है; उसको हटाना है, तो वैसा है अहम्।
तो नकली आपको अगर कुछ मिल गया है—मान लीजिए कि सोना मिल गया है जिसमें किसी और धातु की मिलावट करी गई है, बिल्कुल मिला ही दिया गया है, तो आप क्या करोगे, फेंक दोगे उसको? उसको आप किसी विशेष प्रक्रिया से गुजारोगे। कैसी प्रक्रिया से गुज़ारोगे? जिसमें सोना भर बचे और बाकी सब निकल जाए। यही करना है अपने अस्तित्व का। यही उपयोग है नकली ‘मैं’ का, क्योंकि नकली ‘मैं’ असली ‘मैं’ से दूर नहीं है हालाँकि कहते हम ऐसे ही हैं कि जो नकली है, असली उससे दूर है।
कहते हैं न कि हम छिटक गए सत्य से, सत्य से बड़ा अब हमने फासला बना लिया है। नहीं, जो ज़्यादा बेहतर इसमें प्रतीक है या नमूना है इंगित करने के लिए, वो होता है केंद्र पर बैठे हीरे के इर्द-गिर्द बहुत सारे कीचड़ का या मिट्टी का जमा हो जाना। ठीक है ना? तो वो जो अब पूरा एक बड़ा-सा ढेला है, उसी ढेले का उपयोग करके हीरे को पाना है न। हीरा होगा मान लो बहुत छोटा-सा: दो ग्राम, पाँच ग्राम, बीस ग्राम, सौ ग्राम; इतना हीरा है (अंगूठे से इशारा करते हुए) अंगुष्ठ मात्र, छोटा, और बहुत सारी अपने इर्द-गिर्द मिट्टी जमा करके वो कितना हो गया है? दो किलो, पाँच किलो। अभी जो दो किलो, पाँच किलो का पूरा ढेला है, पूरा वजन है, उसी का उपयोग करना है। उसका त्याग नहीं कर देना क्योंकि अगर उस पूरे का ही तुमने त्याग कर दिया तो मिट्टी के साथ-साथ तुमने हीरे का भी त्याग कर दिया। मिट्टी का ही उपयोग करके हीरे तक पहुँचना है। मिट्टी से ही मिट्टी को तोड़ना है।
सोचो तो, मिट्टी भी अगर तोड़ी जा रही है तो किसके माध्यम से थोड़ी जा रही होगी? हीरा तो भीतर है। हीरे को उपयोग करके तो मिट्टी तोड़ नहीं सकते। हीरा तो छुपा हुआ है। मिट्टी भी अगर टूट रही है तो मिट्टी के ही किसी दूसरे औजार द्वारा, उपकरण द्वारा ही टूट रही होगी। तो जो कुछ बाहर है उसी का इस्तेमाल करके बाहरी खोल को, बाहरी विकारों को हटाना है और भीतरी तक पहुँच जाना है। भीतरी का काम है बाहरी को तोड़ने की प्रेरणा देते रहना।
तो जीवन जीना एक कला हो गया फिर: नकली के माध्यम से नकली को काटना है; अहम् के माध्यम से ही अहम् को काटना है। यही अहम् का सदुपयोग है कि वो स्वयं को काट दे। वो अपने ही दोषों को, अपने ही विकारों को देखे, अपनी अपूर्णताओं को देखें और देख के पार निकल जाए। आ रही बात समझ में?
मन का सदुपयोग कर लिया, मन से हृदय का साक्षात्कार कर लिया, अज्ञान भरे मन का समुचित इस्तेमाल करके ज्ञान को जान लिया, अब मन से मुक्त हो गए उसी को अमरता कहते हैं। मरने वाला मन है। मरना क्या है हमारे लिए? कोई घटना नहीं है। मरना एक भाव है, एक विचार है, एक भय है। वो भय उसको ही आता है जो अपूर्णता में जी रहा होता है। मरने का विचार तभी सताएगा जब अभी समय और चाहिए।
आप कहीं परीक्षा भवन में बैठकर के उत्तर पुस्तिका भर रहे हो अपनी, और जो कुछ आपको लिखना था आपने लिख डाला है, सारे प्रश्नों के उत्तर आपने दे दिए हैं। अब जो वहाँ पर शिक्षक है या अधिकारी है, आता है और कहता है कि अपनी पुस्तिका हमें लौटा दीजिए। आपको कोई दिक्कत होती है? क्यों नहीं होती? क्योंकि अब आपको और समय नहीं चाहिए।
मृत्यु से भी डर उसको ही लगता है जिसको अभी और समय चाहिए। मृत्यु से भी डर उसको ही लगता है जिसके पास ज्ञान नहीं था और इस कारण वो सब सवालों के उत्तर नहीं दे पाया। जो सवालों का समाधान नहीं कर पाया वो और समय माँगेगा।
जिसको सब समाधान मिल गए, जिसको समाधि मिल गई उसे अब समय नहीं चाहिए। वो तो अपनी उत्तर पुस्तिका ऐसे लौटा देगा, "ले जाइए, करना क्या है इसका? इसका जो सम्यक् उपयोग था वो तो हम अब कर चुके पहले ही। अब तो हमारे लिए एक व्यर्थ चीज है जो सामने रखी है। बल्कि आप ले जाएंगे तो हम इसके उत्तरदायित्व से भी मुक्त हो जाएंगे। जब तक ये हमारी मेज पर रखी है हमें सोचना पड़ रहा है कि कहीं इस पर पानी न गिर जाए, कहीं कुछ हो न जाए, अभी ये हमारी जिम्मेदारी है। एक बार आप ले लें तो हम इस जिम्मेदारी से भी मुक्त हुए।"
ये दृष्टिकोण हो जाता है मुक्त पुरुष का मृत्यु के प्रति, “आप ले जाइए। हमें अब इसका करना क्या है?” पर ऐसा दृष्टिकोण प्रकट ही सिर्फ उसका ही हो सकता है जो जीवन में अपना काम निपटा चुका हो। पर उसके लिए समझ में भी तो आए न कि जीवन के मूल प्रश्न क्या है। उत्तर तो आप बाद में भरेंगे पहले सवाल तो समझ में आए। आप समाधान कहाँ से दे देंगे जब अभी आपने सही प्रश्न ही नहीं पाए!
ज़्यादातर लोगों की समस्या ये नहीं है कि उनको उत्तर नहीं मिल रहे। उत्तरों की तो बात ही बहुत बाद में आती है, निन्यानबे प्रतिशत लोगों को तो अभी तक सही प्रश्न ही नहीं मिले। वो ये नहीं पूछते हैं कि मैं कौन हूँ? मैं क्या कर रहा हूँ? मैं कहाँ उलझा हुआ हूँ? मुझे क्या पाना चाहिए? मैं किस दिशा जा रहा हूँ? मैंने क्या रिश्ते बना रखे हैं? ये सवाल तो अभी उनकी ज़िंदगी में आए ही नहीं हैं। वो तो गणित के परीक्षा भवन में बैठकर के इतिहास के सवालों का उत्तर दे रहे हैं। सवाल है गणित का और वो उलझे हुए हैं इतिहास में। ज़्यादातर लोग ऐसे हैं।
एक बार सही सवाल आपके सामने आ जाए तो, उसका उत्तर न जानने की बेचैनी ही आपको विवश कर देती है सही दिशा में बढ़ने के लिए, ज्ञान हासिल करने के लिए। पर सही सवाल ही न आ रहा हो तो आप क्या करेंगे? सही सवाल का आना बहुत मुश्किल है क्योंकि सवाल ज़्यादातर आते हैं इर्द-गिर्द के माहौल से। और आपके दिमाग में बड़ी उत्सुकता रहती है सवालों के प्रति, सवाल सोखने के प्रति। उत्तर आपको बताए जाएं तो हो सकता है फिर भी उन्हें तेज़ी से स्वीकार ना करो या सोखो नहीं, पर आपके दिमाग पर अगर किसी को कब्जा करना है तो ज़्यादा अच्छा तरीका ये है कि आपको सवाल दे दिए जाएं। हम सवालों को लेकर के बड़े उत्सुक रहते हैं क्योंकि सवालों के साथ एक तरीके का रोमांच जुड़ा होता है न! “अच्छा! अब क्या होगा?”
कभी आप देखिएगा कोई आपको उत्तर पर उत्तर दे रहा हो आप थोड़ी देर में ऊब जाएंगे, और कोई आपके सामने रोमांचक, रुचिकर सवाल रख रहा हो आप बड़ी तल्लीनता से सुनते जाएंगे। तो हम सवाल माँगते हैं क्योंकि हम सवाल हैं। हम जानते नहीं है कि सवाल है क्या, पर हम सवाल हैं। नाम ही हमारा क्या है? सवाली। सवाल हम जानते नहीं तो हम इधर-उधर कान दिए रहते हैं कि सवाल पता चल जाए। अब सवाल क्या पता चलेगा?
अब एक प्रमुख न्यूज़ वेबसाइट और उसका जो मुखपृष्ठ होता है, होम पेज , उसी पर प्रमुखता से एक अदाकारा की तस्वीर, और अदाकारा किसी दिशा में देखकर के मुस्कुरा रही हैं। और सब पाठकों के लिए एक सवाल छोड़ दिया गया है, क्या? सवाल छोड़ दिया गया है: हू इज़ तामसी स्माइलिंग एट? (तामसी किस पर मुस्कुरा रही हैं) कितना गज़ब प्रश्न! और ये प्रश्न आपने सोख लिया। आपको ये प्रश्न अपने-आप कभी नहीं उठता कि जो तामसी देवी हैं यह किसी विचित्र दिशा में देख करके इतनी भद्दी मुस्कुराहट क्यों फेंक रही हैं। क्यों उठेगा? एक-से-एक भद्दे जीव हैं दुनिया में। कोई भैंस किसी और को देखकर पगुरा रही है; आपको सवाल उठता है क्या कि उस तरफ भैंसा है कि नेवला है कि क्या है? यह क्यों पगुरा रही है उधर को देखकर? नहीं उठता। पर वही एक तस्वीर छाप दी गई है कि तामसी देवी उधर को देख कर क्यों मुस्कुरा रही है? और नीचे पाँच-सात विकल्प भी दे दिए गए जबरदस्त तरीके के, अब आप गुत्थम-गुत्था हो जाएंगे। अब जब ऐसी हालत हो तो बताइए सही प्रश्न जीवन में कहाँ से आएंगे?
मन तो सीमित है न। पाँच हज़ार सवालों के साथ वो एक साथ निपट नहीं सकता, इंगेज नहीं हो सकता। उसके पास इतनी ही क्षमता है, इतनी ही स्मृति है, इतनी ही बुद्धि, इतनी ही इंटेलेक्ट है कि पाँच, दस, बीस अधिक-से-अधिक पचास सवालों का वो सामना कर सके। पचास सवालों के साथ मन एक बार में रिश्ता बना सकता है, इंगेजमेंट बना सकता है, और पचास में से अड़तालीस सवाल नकली दे दिए गए, ठूँस-ठूँस के दे दिए गए—उदाहरण के लिए आप किसी व्यक्ति के बारे में बिल्कुल न सोच रहे हों और आपसे कहा जाए, कोई आकर के बोले: थिंकिंग ऑफ पांडू? और ये सवाल है: आर यू थिंकिंग ऑफ पांडू? और पांडू क्या पांडू के बाप के बारे में भी आपने दो साल से नहीं सोचा था लेकिन जैसे ही आपके मन में यह सवाल डाल दिया गया, थिंकिंग ऑफ पांडू , पांडू अचानक आपके लिए महत्वपूर्ण हो गया। समझ में आ रही बात?
एक झूठा, बेकार का, महत्वहीन प्रश्न आपके भीतर प्रविष्ट करा दिया गया है। अब आप फँस गए। इतना आत्म-संयम आपमें है नहीं; इतने ध्यानी, इतने योगी आप है नहीं कि कोई व्यर्थ की चीज़ आपकी ओर आ रही हो और आप उसको अपने भीतर अनुमति ही न दो, प्रविष्टि न दो, ऐसे आप हैं नहीं। हमारा मन तो एक वीरान पड़े, बिना द्वार-दरवाजे के घर की तरह होता है। वहाँ कोई भी घुस जाए, कुत्ता, चोर। वैसे ही उसके भीतर क्या डाल दिए गए? सवाल डाल दिए गए। अब सही सवाल ही नहीं आ रहे तो उत्तर कहाँ से सही आएंगे?
उत्तर सही आ नहीं रहे, समय बीत रहा है और जो पर्चा लेने वाला है, वो अपना भैंसा आस-पास चरा रहा है। वो कह रहा है कि देखो पाँच मिनट और बचे हैं कुछ लिखना हो तो लिख लो। आप कह रहे: “लिखें क्या? हमें तो अभी प्रश्नपत्र ही समझ में नहीं आया। उत्तर तो तब लिखेंगे न जब पहले प्रश्न समझ में आएंगे। हम तो इसी प्रश्न में उलझे हुए हैं कि तामसी देवी किस को देख रही हैं।” वो काहे को माने। एक वो खतरनाक, एक उसका भैंसा। वो बार-बार हाथ बढ़ा रहा है कि वापस कर, वापस कर। आप अपोलो, फोर्टिस के चक्कर लगा रहे हैं कि शायद यहाँ भैंसे वाला न घुसे अंदर। वहाँ पता चल रहा है कि ये जितने घूम रहे हैं सफेद कपड़ों में, आला (स्टेथोस्कोप) लटका कर के, वो भी जब अपने कपड़े उतारते हैं तो पता चलता है कि भैंसे वालों के ही दूत हैं। नीचे जाकर के पार्किंग में उनकी गाड़ियां देखो, वहाँ गाड़ियां नहीं हैं। वहाँ कतार में भैंसे पार्क्ड हैं। कहाँ जाकर के बचोगे? कैसे छुपोगे? मौत का डर सताता है। बात समझ में आ रही है?
मूर्खतापूर्ण चीज़ों को दूर करो, अपनी सारी ऊर्जा को सही जगह केंद्रित करो। जिस नाते जन्म, जीवन मिला है उसको सार्थक करो। मुक्त जिओ।
कभी हालत देखी है परीक्षा भवन में उन छात्रों की जिन्हें कुछ आता-जाता नहीं है? क्या हालत रहती है उनकी? ऐसी रहती होगी कि सवाल पूछ रहे तो जवाब नहीं है। तो संसार समझ लो एक नाते परीक्षा केंद्र जैसा है। बहुत लोग बैठे हुए हैं; लंबा-चौड़ा एक हॉल है। कुछ मस्त होकर के उत्तर लिख रहे हैं; कुछ के पसीने छूट रहे हैं; कुछ इधर-उधर देख रहे हैं कि किसी की नकल कर लें। कौनसे महापुरुष आसपास हैं? आदर्श लोग कौन हैं? कुछ ऐसे हैं जिन्हें ख़ुद कुछ नहीं आता, दूसरों को नकल करा रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जो बड़े आत्मविश्वास से भरे हुए हैं कि हमने तो पर्चा बिल्कुल सही हल कर दिया है, और ये ऐसे हैं जिन्हें अपना रोल नंबर नहीं पता। अपना रोल नंबर नहीं पता, दावा ये है कि सारे जवाब पता हैं। इतने होशियार होते तुम तो कम-से-कम अपनी पहचान तो पता होती।
तो सब तरीके के परीक्षार्थी इस परीक्षा भवन में मौजूद है। देखो सबको, सब अलग-अलग हैं। पर्चा सबको एक ही मिला है। जीवन अन्याय किसी के साथ नहीं कर रहा है। कुछ मूलभूत प्रश्न हैं उनके तुमको उत्तर देने हैं। अब इसी में कुछ एक-आध ऐसे भी हैं जिनको तीन घंटे मिले थे उन्होंने एक घंटे में ही सब निपटा दिया। वो कह रहें, “हमारा हो गया। तीस की उम्र में ही हमारा हो गया। सब निपटा दिया।” अब ऐसों के पास दो विकल्प होते हैं कि तुम्हारा तो निपट गया तो तुम चले जाओ अपना कहीं दूर पहाड़ पर किसी लंबे चौड़े घास के मैदान पर और वहाँ करो क्रीडा। सवालों और जवाबों से भरे इस जगत को ही विदाई दे दो। एक तो ये होता है।
दूसरा ये होता है कि तुम इतने होनहार छात्र निकले कि अब तुम शिक्षक क्यों नहीं बन जाते। ऐसे लोग दो ही काम करते हैं या तो समाधि या फिर शिक्षण। या तो कहेंगे, “छोड़ो, ये सवाल भी बचकाने, इनके जवाब भी आसान। हमें इसमें और उलझना ही नहीं है। हम तो जाते अपने गाँव, सबको राम-राम।” या वो कहते हैं कि हमने तो कर लिया हल, पर ये अगल-बगल सबके छक्के छूटे हुए हैं तो कुछ ऐसा क्यों न करें कि अगले साल जब परीक्षा हो तो यहाँ इतना बुरा दृश्य न हो। तो फिर वो शिक्षक बन जाते हैं। आ रही है बात समझ में?