प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, मैं एक आर्टिकल (लेख) पढ़ रहा था, उस आर्टिकल में एक सर्वे (सर्वेक्षण) के बारे में बताया गया था, तो उस सर्वे में बेसिकली (मूल रूप से) था कि जो अमेरिका की मेजोरिटी पॉपुलेशन (अधिकांश जनसंख्या) है वो क्रिस्चियनिटी (ईसाईयत) को छोड़कर एथीज़्म (नास्तिकता) को फ़ॉलो (अनुसरण) कर रहे हैं, क्योंकि रिलीजन (धर्म) उनकी जो समस्याऍं हैं, उनको सुलझा नहीं कर पा रहा — जैसे कि गन कंट्रोल (बन्दूक नियन्त्रण), रेशियल डिस्क्रिमिनेशन (नस्लवाद), जेंडर डिस्क्रिमिनेशन (लैंगिक भेदभाव) आदि। तो अनुमान लगाया जा रहा है कि सन् २०७० तक जो उनकी मेजोरिटी पॉपुलेशन है, उनका जो रिलीजन क्रिस्चियनिटी है वो माइनोरिटी में आ जाए। और देखा गया है कि भारत, अमेरिका का एक ट्रेंड (रुझान) फॉलो करता है, मतलब जो अमेरिका में चल रहा होता है वो भारत के युवा और यंगस्टर्स (युवा लोग) ये फॉलो करते हैं। तो हो सकता है कि भारत का जो मेजोरिटी रिलीजन हिन्दुइज़्म है, उसको छोड़कर वो एथीज़्म को फ़ॉलो करें आने वाले सालों में। तो मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि ये पूरी चीज़ का कुल-मिलाकर प्रभाव क्या पड़ेगा भारत पर या विश्व पर या भारत के युवाओं पर?
आचार्य प्रशांत: देखो, ये जो ऑर्गेनाइज़्ड रिलीजन होता है न — संगठित, आयोजित धर्म — ये वास्तव में है ही ऐसा कि जैसे-जैसे विज्ञान आगे बढ़ेगा और लोगों के लिए सूचनाऍं पाना आसान होता जाएगा, वो ये पुराने तरीक़े के धर्मों को छोड़ते ही चलेंगे, तुम रोक नहीं सकते। तुम कह रहे हो, ‘ईसाईयत वहाँ अल्पमत में आ जाएगी, वो इसलिए अल्पमत में नहीं आ रही कि वहाँ पर दूसरे धर्म बढ़ रहे हैं, वो बस ये होगा कि — जिस सर्वे की बात कर रहे हो मैं जानता हूँ — कह रहे हैं कि सन् २०६० या ८० तक ईसाई वहाँ 46 प्रतिशत बचेंगे और 30-40 प्रतिशत हो जाऍंगे नास्तिक, एथीस्ट्स या एग्नोस्टिक्स (अज्ञेयवादी)। बाक़ी तो वहाँ छः ही प्रतिशत नास्तिक हैं सब मिला-जुलाकर।
तो क्या है धर्म का भविष्य? जैसा अभी है धर्म, ये तो चलना नहीं। जैसा अभी आप धर्म को जानते हो न, वो क्या है? वो अन्धविश्वासों का, मान्यताओं का, पुरानी, अर्थहीन, खोखली प्रथाओं-परम्पराओं का एक जर्जर बूढ़ा पिंड मात्र है। वो कितना चलेगा, वो अपनी आयु जी चुका, उसमें कुछ नहीं है। कोशिशें बहुत हो रही हैं, वो पुराने तरीक़े के ही धर्म को ज़िन्दा रखने की, पर बहुत नहीं चलने वाला। अमेरिका ही नहीं यूरोप में हर जगह जो संडे अटेंडेंस (रविवार की उपस्थिति) होती है चर्च (गिरजाघर) की, उससे वो पता लगाते हैं लोगों में धार्मिकता का स्तर क्या चल रहा है, वो लगातार कम होती जा रही है। लोग नहीं जा रहे, कौन ये सब क़िस्से-कहानियों को अपना जीवन बनाए?
धर्म का क्या मतलब बन गया है? ‘फ़लाने क़िस्से को मानो तो तुम धर्मी आदमी हो!’ ये कोई बात है? और क़िस्सा क्या बताया गया है? ‘एक दिन, एक समय पर, वन्स अपॉन अ टाइम ऐसा हुआ कि फ़लाने ने फ़लाना कर दिया, फ़लाने ने ये कर दिया, फ़लाने ने वो कर दिया। फिर ऐसे पृथ्वी बन गयी, फिर ये हुआ, फिर वो हुआ, फिर ये फ़लाना फ़रिश्ता आ गया।’ जिन भी धार्मिक धाराओं में काम क़िस्से-कहानियों, प्रथाओं-परम्पराओं, मान्यताओं का है, वो सब नष्ट होनी हैं। समय इनको कचरा बनाकर उठाकर बाहर फेंक देगा, इनका कोई भविष्य नहीं है!
भविष्य तो बस मानव का है और जब तक मानव है तब तक उसका संतप्त मन है। भविष्य में और कुछ रहे न रहे, एक चीज़ तो हम मान सकते हैं कि इंसान रहेगा और इंसान नहीं है तो फिर किसी भविष्य की बात करना व्यर्थ है, छोड़ो फिर! तो सौ साल या दो-सौ साल बाद भी इंसान तो रहेगा। हम कुछ भी कर लें, मान रहे हैं अभी कि पृथ्वी की हालत ख़राब हो गयी है, ये हो गया, जनसंख्या उखड़ेगी, बहुत प्रलय आएगी, लेकिन मान लेते हैं कि इंसान तब भी रहेगा — जितना आज है उतना नहीं, कुछ कम, लेकिन रहेगा।
तो इंसान जब तक रहेगा, इंसान का मन रहेगा और उसकी बेचैनियाँ और समस्याऍं रहेंगी — वही एकमात्र धर्म है जो बचेगा — मन की बेचैनी बची हुई है तो मन को चैन चाहिए होगा मन को चैन दिलाने वाला ही धर्म बचेगा। उसके इर्द-गिर्द बाक़ी जो कुछ चल रहा है वो सब नष्ट हो जाना है, हम कोशिश कर भी लें बचाने की, तो भी हम बचा नहीं पाऍंगे। जो लोग कोशिश कर रहे हैं कि धर्म के वर्तमान स्वरूप को ही किसी तरह बचा लें, मैं उनसे निवेदन कर रहा हूॅं, धर्म के वर्तमान स्वरूप को भविष्य में बस एक जगह बचाया जा सकता है, संग्रहालय, म्यूज़ियम। उसे आप समाज में और जनता के बीच नहीं बचा पाओगे, कोशिश व्यर्थ है!
ठीक कह रहे हो जो आज अमेरिका में हो रहा है, कल पूरे विश्व में होगा क्योंकि यही रहा है चलन पिछले सौ सालों में — जो आज अमेरिका का है, कल पूरी दुनिया का हो जाता है — हो रहा है पहले ही, जो आज अमेरिका में हो रहा है, जापान में हो चुका है, चीन में है, यूरोप में है, ऑस्ट्रेलिया में है, हर जगह यही चल रहा है। और अमेरिका में तो फिर भी थोड़ी ईसाईयत शेष है, यूरोप जाओ तो वहाँ और ख़त्म है। अमेरिका, यूरोप की अपेक्षा थोड़ा ज़्यादा कंज़र्वेटिव (रूढ़िवादी) है।
तो धर्म के नाम पर इधर-उधर की बातें और व्यर्थ की चीज़ों को बचाने की कोशिश मत करो! जब लोग बात करते हैं कि हिन्दू धर्म का क्या भविष्य है, मैं कहता हूँ कि हिन्दू धर्म का कोई भविष्य नहीं है, सनातन धर्म का भविष्य है। अगर सनातनी हो सकते हो तो भरपूर है भविष्य, लेकिन जिसको आप आम भाषा में हिन्दू धर्म कहते हो उसमें निन्यानवे प्रतिशत वही है जो तिथिबाह्य हो जाएगा, आउटडेटेड। जिसको समय ठुकरा देगा! क्योंकि समय बहुत प्रबल होता है, समय किसी ऐसी चीज़ को बचने नहीं देता जिसने कभी जन्म लिया हो। हर परम्परा ने एक दिन जन्म लिया होता है समय के अन्दर — यदि समय के भीतर किसी चीज़ ने जन्म लिया है तो किसी दूसरे बिन्दु के समय पर वो चीज़ नष्ट होगी-ही-होगी — ये नियम है भाई, मैं नहीं बता रहा!
ये माया का और प्रकृति का नियम है। तो जिन्हें प्रथाऍं-परम्पराऍं और विश्वास-धारणाऍं ही धर्म लगती हैं, उनको निराश होना पड़ेगा वो धर्म नहीं बचने वाला। सनातन धर्म ज़रूर बचेगा क्योंकि उसने किसी एक दिन, किसी समय के किसी एक बिन्दु पर जन्म नहीं लिया था — जब तक मन है, मन की मुक्ति की प्यास है, सनातन धर्म शेष रहेगा। वही सनातन धर्म है।
सनातन माने क्या? जो शाश्वत है, जो समय के भीतर कभी नष्ट नहीं होने वाला, क्या नहीं नष्ट होने वाला है? मन नहीं नष्ट होने वाला। इंसान है न अभी? जब तक इंसान रहेगा, मन की बेचैनी रहेगी। मन की बेचैनी रहेगी तो मुक्ति की प्यास रहेगी, वही सनातन धर्म है।
“मुक्ति पाने की चेष्टा ही सनातन धर्म है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।”
बाक़ी वो सबकुछ जो पकड़े हो — कोशिश कर लो बचाने की, हो सकता है कुछ दिन बचा रहे, फिर हटेगा। कोई धर्म हो, ईसाईयत हो, इस्लाम हो, यहूदी हो, बौद्ध हो, जैन हो, कोई पंथ, कोई धारा, कोई वर्ग, कोई समुदाय, सम्प्रदाय हो, सब यही पाऍंगे कि मान्यताओं और विश्वासों की बहुत लम्बी नहीं होती है उम्र — क़िस्से-कहानियॉं हैं, बच्चों का खेल होते हैं।
तुम बहुत दिन तक अपने अनुयायियों को बहला-फुसला नहीं पाओगे उन्हें बस क़िस्से बताकर के। एक दिन आता है जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और क़िस्सों से उनका मन ऊब जाता है। कहते हैं, ‘छोड़ो न ये परीकथाऍं, बालकथाऍं, क्या सुना रहे हो ये तुम? और उनमें से बहुत सारी कहानियाँ तो विज्ञान के बिलकुल विरुद्ध हैं, विज्ञान ने ही उन कहानियों को ठुकरा दिया है। कौनसा व्यक्ति उन कहानियों को उच्चतम धर्म मानकर यक़ीन करता रह सकता है? वो सब हटेंगी, सनातन मात्र शेष रहेगा।
और दुख की बात ये है कि अमेरिका तो छोड़ दो, भारत में भी जो हिन्दू हैं उनका सनातन से बहुत कम परिचय है। हिन्दू होना और सनातनी होना, अच्छे से समझ लो, दो बहुत अलग बातें हैं। हिन्दू होंगे एक-सौ-बीस करोड़, सनातनी शायद पॉंच-सौ, हज़ार भी नहीं हैं। कौन मिटा सकता है सनातन धर्म को? सनातन धर्म से ऊँचा कुछ नहीं, साफ़ कुछ नहीं — इंसान मिट जाएगा, आप ख़त्म हो जाओगे, अहम् वृत्ति तो बची रहती है न, वो किसी और रूप में प्रकट होती है। जब तक अहम् वृत्ति है तब तक सनातन शेष है।
सनातन को कोई चोट, खरोंच, ऑंच नहीं आने वाली, पर सिर्फ़ सनातन को।
कुछ आ रही है बात समझ में? नहीं आयी होगी सबको समझ में?
उसी सनातन की सेवा करने के लिए वेदान्त को घर-घर पहुँचाना चाहते हैं, घर-घर वह चीज़ दे देना चाहते हैं जो बचने वाली है, जिसके प्राण रहेंगे, जो नष्टप्राय, लुप्तप्राय नहीं है। कोई भी काल आ जाए गीता का सन्देश पुराना नहीं होने वाला।
मानवता कितने भी अपने रूप बदल ले, किसी और ग्रह क्या किसी और आकाशगंगा में जाकर बस जाए तो भी उपनिषद् सदा प्रासंगिक रहेंगे। विज्ञान बदल जाए, तकनीकि बदल जाए, समाज बदल जाए, व्यवस्थाऍं, राजनीति, संविधान, सब बदल जाऍं तो भी उपनिषदों की जो बात है वो वैसी-की-वैसी रहेगी और आपके काम की रहेगी क्योंकि एक चीज़ नहीं बदलने वाली कभी, क्या? मन। जब तक मन वैसा है जैसा आज है, जब तक जो नया बच्चा पैदा हो रहा है, वो अपने वृत्तियाँ लेकर पैदा हो रहा है, तब तक मनुष्य को उपनिषदों की आवश्यकता रहेगी, यही सनातन धर्म है। बाक़ी सब नहीं बचेगा।
अन्धविश्वासों को अगर धर्म बनाये बैठे हो तो निराश होना पड़ेगा और कोई नहीं मानता कि उसके पास अन्धविश्वास है, सब कहते हैं हमारे पास बिलीफ़ है, विश्वास है। तथ्य ये है कि जितने विश्वास होते हैं, सब अन्धविश्वास होते हैं, बिलीफ़ कुछ नहीं होता, हर बिलीफ़, ब्लाइंड बिलीफ़ ही है।
वेदान्त जो सनातन धर्म के मर्म में है — आपको कोई विश्वास नहीं देता, वो आपके सब विश्वासों के आगे प्रश्नचिन्ह लगा देता है। कहता है, ‘बताओ किस चीज़ पर विश्वास कर रहे हो और क्यों? क्या है तुम्हारे भीतर जो तुम्हें विश्वास करने को भेजता है? बड़े विश्वासी बने बैठे हो, तुम हो कौन नाम बताओ अपना?’ और जैसे ही ये सवाल सामने आता है, ‘मैं हूँ कौन?’ विश्वास वगैरह सब इधर-उधर बिखर जाते हैं।
वेदान्त कोई बिलीफ़ सिस्टम नहीं है, वो नहीं कहता कि फ़लानी कहानी पर यक़ीन करो कि ऊपर फ़लाना ईश्वर बैठा है और ऐसा है वैसा है, वो कहता है, ‘न! सबसे पहले तो हम ये पूछेंगे कि तुम कौन हो? हम ये भी नहीं बताऍंगे कि ये जगत कहाँ से आया है, किसने रचना की, छोड़ो न! जगत को देखने वाला भी कौन है? तुम हो! तो पहले अपनी बात करो न बाबा।
“जब तक जगत को देखने वाली चेतना शेष रहेगी तब तक वेदान्त की उपयोगिता बनी रहेगी, यही सनातन धर्म है इसके अतिरिक्त सब कुछ मिट जाना है।’
प्र: तो आचार्य जी जैसे ये कहानियाँ हैं क्रिश्चियनिटी में आदम-हव्वा वाली वो फिर क्या हैं?
आचार्य प्रशांत: ख़ुद ईसाई इन कहानियों को नहीं मानते; वो कहते हैं, चार-हज़ार साल पहले जगत की रचना हुई है। पूरी कोशिश कर ली है चर्च ने कि लोग किसी तरह इस बात को माने रहें कि ये पूरा ब्रह्माण्ड कुल चार ही हज़ार साल पुराना है।
प्र: तो मतलब, चर्च विज्ञान के एकदम ख़िलाफ़ हैं!
आचार्य: बात यहाँ बिग-बैंग से आगे पहुँच चुकी है, तुम चार हज़ार साल पर रुके हुए हो, कौन तुम्हारी सुनेगा? यहाँ पर अवशेषों में हड्डियाँ निकल रही हैं जो कई लाख साल पुरानी हैं — कभी पक्षियों की, डायनासोर की और पता नहीं क्या-क्या निकल रहे हैं! तुम कह रहे हो, ‘नहीं, पूरी दुनिया कुल चार ही हज़ार साल पुरानी है।’ कौन तुम्हारी सुनेगा?