विश्व का सत्य क्या है, आत्मा का उद्देश्य क्या है? || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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विश्व का सत्य क्या है, आत्मा का उद्देश्य क्या है? || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: यूनिवर्स (संसार) का सत्य क्या है? मेरी आत्मा का उद्देश्य क्या है?

आचार्य प्रशांत: ये सवाल मत पूछो, ये पता लगाओ कि ये सवाल तुम्हारे मन में अरे आए नहीं हैं घुसेड़े गए हैं। तुम पूछ रहे हो सोल पर्पज़ क्या है, आत्मा का उद्देश्य क्या है? उद्देश्य बाद में आता है पहले तुम ये बताओ तुम्हें किसने बताया कि तुम्हारे आत्मा है। किसने बताया कि आत्मा जैसा कुछ है और वो तो तुममें है। जिसने बताया उसने फिर ये भी बताया होगा कि आत्मा का उद्देश्य क्या होता है।

प्र: सर, आत्मा मतलब स्वयं, सेल्फ।

आचार्य: वो क्या है?

प्र: सुना है कि वो मन के पार की अवस्था है जिसे तुरीय अवस्था कहते हैं।

आचार्य: एक सूत्र ले लो जीवन के लिए, “या तो सुनो नहीं या पूरा सुनो”। और जो तुम्हें सुनाने में बहुत आतुर हो उससे कहो या तो सुनाओ नहीं या फिर पूरा सुनाओ। ‘तुरीय’ कहते हैं, ये कहते हैं, वो कहते हैं। नाश्ता करो बढ़िया और दाँत माँजो बिलकुल साफ़ तरीक़े से इसके आगे कुछ नहीं है। जब खाना गड़बड़ खाया होता है, शरीर ठीक नहीं होता है तो पेट गुड़गुड़ाता है। फिर उसमें से इस तरह के सवालों की गैस उठती है।

जीवन के जो साधारण मुद्दे हैं, पहले उनसे तो सहज हो जाओ। तुम्हारे सामने कोई पड़ता है तुम ये नहीं जान पाते कि इससे ठीक-ठीक क्या बात करनी है और कैसे बात करनी है। जीवन की आम परिस्थितियाँ तुम्हें झुका देती हैं, रुला देती हैं और बात कर रहे हो तुरीय की। तुरीय हटाओ, अभी बाहर निकलोगे तो गर्मी खूब रहेगी तब देखना कि मन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, वो ज़्यादा ज़रूरी है तुरीय से।

नीचे पहुँचोगे, जो लोग कार से आए हैं, अभी जब दरवाज़ा खोलोगे तो अन्दर माइक्रोवेव ऑन होता है। तब देखना कि सारी आध्यात्मिकता कहाँ चली जाती है, वो ज़्यादा जरूरी है देखना। कुछ लोग जाओगे, नीचे से रिक्शा इत्यादि करोगे और वो ज़रा ज़्यादा पैसे माँग ले तब अपनी प्रतिक्रिया देखना, वो ज़्यादा ज़रूरी है आत्मा के उद्देश्य से। आत्मा के जेब नहीं होती, तब आत्मा कहाँ चली जाती है?

गौर से देखो कि यहाँ की जा रही जिज्ञासाएँ और सड़क पर छाती हुई बेहोशी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वहाँ भी तुम कुछ ऐसा कर रहे हो जिसका तुम्हें कुछ पता नहीं और यहाँ भी तुम वही बातें पूछ रहे हो जिनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं।

तुम अपने उद्देश्यों की बात क्यों नहीं करते? कपड़ा ख़रीदने जाते हो आत्मा के उद्देश्य के लिए? सुबह से शाम तक जो कुछ करते हो वो आत्मा के उद्देश्य के लिए? अपने उद्देश्यों की बात करो न, अपने उद्देश्यों का पता नहीं, आत्मा का क्या उद्देश्य है? आत्मा है भी या नहीं इसका तुम्हें क्या पक्का, क्या भरोसा? पर आत्मा के उद्देश्यों के बात करने से अपने उद्देश्यों की बात छुपी रह जाती है ये बड़ी तसल्ली है, अब कोई मेरे उद्देश्य तो नहीं पूछेगा। और मेरे उद्देश्य क्या हैं? मेरे उद्देश्य वो हैं कि जिनकी अगर सूची यहाँ टाँग दी जाए तो उसके बाद मैं यहाँ बैठा नहीं रह पाऊँगा, इधर-उधर भागना पड़ेगा।

देखा है दिनभर कैसे-कैसे इरादे बनाते हो और अगर डर न हो और अगर विवशता और कमज़ोरी न हों तो पूरा भी कर डालोगे अपनी इरादे। उन इरादों की बात क्यों नहीं करते? नहीं, पर हमें बताया गया था कि अध्यात्म में अपने इरादों की बात नहीं करनी होती है, वो छुपानी होती है। अध्यात्म का मतलब ये है कि जैसे जूते बाहर उतारे जाते हैं मंदिर में आने से पहले, वैसे ही अपनी हक़ीक़त भी बाहर उतार दो और अन्दर क्या लेकर के आओ? सत्य, तुरीय, आत्मा का उद्देश्य। (व्यंग्य करते हुए) हे प्रतिष्ठित आत्माओ! (हँसते हुए) ज़रा मन को और शरीर को भी जगह दो, उन्हें बात करने दो।

सुनने में प्यारा लगता है न, कोई महिमामंडित किताब हो, उसमें संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट भाषा में इस तरह के उद्गार हों; ‘विपर्यय से मुक्ति, पोनै तीन प्रकार की आत्माएँ’।

अरे! अब और विशिष्ट हो गया है न शास्त्र। गुप्त-गोपनीय ज्ञान, तुम किसी की बात न सुनते हो और वो तुम्हें अपनी बात सुनाना चाहे तो बस उसे ऐसे बात शुरू करनी है, “मुझे तुम्हें बताना तो नहीं चाहिए, लेकिन मैं सोच रहा हूँ कि तुम्हें बता दूँ कि”, अब तुम सोते से जगकर सुनोगे कि कुछ ऐसा बताने जा रहा है जो बताना नहीं चाहिए।

अब यही काम शास्त्र करते हैं, वो शुरू में ही बोल देते हैं कि “हमें वही पढ़े जो दिल का साफ़ हो, इरादे का सच्चा हो, जिसमें निड़रता हो, जिसका इन्द्रियों पर ज़रा वश हो, जिसकी बुद्धि निर्मल हो”। अब तुम शास्त्र ज़रूर पढ़ोगे। कहोगे, ‘मेरे लिए तो है नहीं ये पक्का’। और परायी चीज़ पर हाथ डालने में जो सुख है उसका क्या कहना! अब वो तुम्हारे लिए है नहीं तो समझ में तो आएगा नहीं, फिर इस तरह के सवाल लेकर के आओगे, “तुरीय क्या है?”

पढ़ा क्यों तुमने? वहाँ लिखा हुआ था न, पहले मन साफ़ करो, बुद्धि स्थिर करो, उसके बाद पढ़ना। और कई ऐसे हैं जिन्होंने पढ़ा नहीं उन्होंने सुना होगा। अब कोई गुरुजी हैं वो बैठ गए हैं, भव्य आसन है, कपड़े-ही-कपड़े हैं चारों तरफ़ और वहाँ से निर्मल वाणी में तुम्हें बिलकुल भाव-गंगा में कभी डुबो रहे हैं, कभी उतरा रहे हैं। प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम्। हाँ बिलकुल यही है, हो गया।(भाव-विभोर होने का इशारा करते हुए )

ज़िन्दगी पर ध्यान दो, ज़िन्दगी पर। और कोई इतना अन्धा नहीं है कि उसे अपनी ज़िन्दगी का न पता हो। गौर करो कि किन मुद्दों से जूझते तुम्हारा जन्म बिता जा रहा है। गौर करो सुबह से शाम तक क्या ख़्याल चलते हैं। मैं यहाँ आकर के ये सब पढ़ता हूँ तो कोई ये थोड़ी देखता हूँ कि आज क्या महत् जिज्ञासाएँ हैं। मैं पढ़ता हूँ , मैं देखता हूँ आदमी का झूठ कहाँ तक पहुँचा क्योंकि जो तुम पूछ रहे हो वो तुम्हारे लिए कोई महत्व तो रखता नहीं है।

तुम्हारे जो महत्व रखता है वो चीज़ें हैं दूसरी। उन्हीं की उधेड़बुन में दिन कटता है पूरा। नौकरी के लिए कहाँ भेज दूँ सीवी , फ़लानी लड़की कैसे हासिल कर लूँ, लड़कियाँ चलो ठीक है। (प्रतिभागियों से हास्य-विनोद करते हुए) उसका क्या नुकसान कर दूँ। उसने ऐसा कैसे बोल दिया। आज मैच कितने बजे शुरू होगा। अब किसको पकड़ लूँ किसको बेवकूफ़ बना दूँ। जहाँ दस बजे तक रुकना हो वहाँ आठ बजे तक कैसे भाग लूँ। ये कभी पूछते क्यों नहीं? सर, बेईमानी का कोई आध्यात्मिक तरीक़ा बताइए। ये तो तुमने कभी पूछा ही नहीं, असली सवाल है वो क्यों नहीं लिखते? मैं खोजता रहता हूँ, कोई तो असली सवाल मिले।

वहाँ सवाल मिलते हैं, ‘कोई सातवाँ कोष भी है क्या शरीर में, मुझे प्रतीत होता है? स्वर्ग में कोई ड्रेस कोड चलता है?’ क्यों क्या करोगे, तुम्हें वैसे भी उनकी ड्रेस से तो मतलब है नहीं। अभी कुछ दिन पहले हुआ था, यहाँ पूरी रामायण बाँची गयी, सबकुछ हुआ। उसके बाद एक बच्चा बैठा था वहाँ कोने में, बिलकुल अध्यात्म की ऊँचाइयों को छुआ सत्र ने। वो फिर पूछता है, ‘अब ये सब ठीक है, ये बताइए एग्जाम आ रहा है उसका क्या करें ?’ सब हँसने लगे उस पर, एक-दो लोग कुपित भी हुए। पर मैंने कहा नहीं ठीक है, उसमें कम-से-कम ईमानदारी है। वो कह तो पा रहा है न, वो बता तो पा रहा है न कि उसके दिमाग में चल क्या रहा है। हम तो नक़ली सवाल और नक़ली सत्र करे जा रहे हैं।

एक कहावत होती है, “भूत का चित्त बहेरे में”। एक बार एक घर में कथा थी, तो उसमें सब लोग बैठे, तो घर के जितने भूत-प्रेत थे वो भी बैठे। तो बाहर एक पेड़ था बहेड़े का तो सब लोग उधर देख रहे हैं जो कथावाचक है उसको। भूत उधर पीछे देखे जा रहा है क्योंकि उसका मन वहीं लगा हुआ है (पेड़ में)। तुम बताओ तुम्हारा मन कहाँ लगा हुआ है? उसकी बात करो न। जहाँ मन लगा हुआ है वास्तव में उसकी बात करो, वो बातें क्यों नहीं करते?

और अभी शिविर हुआ था, उसमें ‘रामकृष्ण’ को पढ़ते थे। वो कहते थे, “दो ही जगह मन लगा हुआ है; कंचन, कामिनी”। या तो कोई औरत होगी, कोई मर्द होगा उसमें तुम्हारा मन लगा होगा या कहीं कोई रुपये-पैसे की बात होगी वहाँ लगा होगा, वो बात करोगे नहीं।

प्र: दुनिया एक दौड़ में भागी जा रही है, लेकिन मैं उस दौड़ में नहीं भागना चाहती, फिर उस दौड़ की बात यहाँ क्यों करें?

आचार्य: अरे तो तुम उससे बाहर हो गयी हो क्या उस रेस से?

प्र: रेस से बाहर तो नहीं हुए हैं।

आचार्य: हाँ तो जब बाहर नहीं हुई हो उसमें अभी हो और वही तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण है। तो जिसमें हो और जहाँ जी रही हो उसकी बात करो न। अभी देखो तुम्हारा तर्क क्या है, तुम कह रही हो, हम हैं तो उसी रेस में लेकिन उसकी बातें करना ज़रा शोभा नहीं देता। नहीं, नहीं मन में तो काम भरा हुआ है पर अभी मंदिर में हैं न, तो यहाँ तो प्रणाम है।

या तो तुम ये कह दो कि उस रेस से बाहर आ गयीं, बाहर तो आयीं नहीं जब उसमें हो तो ईमानदारी क्या है? कि उसकी बात करो, बताओ कि मैं तो यहीं पर हूँ, मेरी तो यही पर बात है।

ऋषियों ने उपनिषद इसलिए नहीं लिखे थे कि तुम्हारी कल्पनाओं को पंख लग जाएँ। उन्होंने इसलिए लिखे थे ताकि तुम जो जी रहे हो उस जीने में क्रांति आए।

यहाँ बड़ी अड़चन हो जाती है, जब तक मैं आत्मा की लोरी सुनाता हूँ तब तक बढ़िया रहता है। और जैसे ही मैं कहता हूँ कि अब ज़िन्दगी की बात वैसे ही ऐसा होना शुरू हो जाता है, ज़रा एसी नहीं चल रहा है क्या? (बहाने बाजी का अभिनय) ये इस पिक्चर में इंटरवल नहीं होता? लोग ज़्यादा हो गये हैं काफ़ी आज, थोड़ा (गर्मी लगने का हाव-भाव) जम्हाईयाँ।

हम बड़े विचित्र लोग हैं, हममें अपने को लेकर के गहरी हीन भावना भी है, पहली बात। और दूसरी बात उस हीन भावना को हमें बचाकर भी रखना है। हम अपनेआप से दुखी ही इसीलिए हैं क्योंकि अपनेआप को हीन समझते हैं ये पहली बात है और हमारा दुख अखंड इसलिए हो जाता है क्योंकि हम उस हीन भावना को बचाकर भी खूब रखते हैं। ये अजीब नहीं है बात? पहले तो मैं अपनेआप को छोटा मानूँ और दूसरा, मैं छोटा रहने पर अड़ा हुआ हूँ, मुझे बदलना ही नहीं है। मैं दुखी तो हूँ ही, मैं ज़िद्दी भी घना हूँ। ज़िद है मुझे कि दुख को जाने दूँगा नहीं। ये इंसान की हालत है।

अब ये सब बातें बोल रहा हूँ तो हँसोगे भी नहीं, देखो कैसे हो जाते हो बिल्कुल गुरु गंभीर, ख़तरा। इससे बड़ा झूठ नहीं है कि किसी में भी कोई मौलिक त्रुटि है। ऊपर-ऊपर से हमने आपको गन्दा कर लिया है, ऊपर-ऊपर से हम बिलकुल नमूने बने बैठे हैं मूर्खता के, कोई शक नहीं। लेकिन तुम वास्तव में जो हो, जो तुम्हारी ईमानदारी है, जो तुम्हारा दिल है उसमें कोई खोट नहीं है। ये दुनिया की सबसे स्पष्ट बात होनी चाहिए लेकिन इसी को समझाना सबसे मुश्किल होता है।

तुम ठीक हो, हमारी हालत ऐसी है कि जैसे हम नहाने जाएँ तो त्वचा साफ़ करने की जगह फेफड़ा साफ़ करने की कोशिश करें या किडनी कि ये तो दिन-रात मूत्र में सनी रहती है आज ज़रा इसको नहला दें। ऊपर-ऊपर से तुम्हें सफ़ाई की ज़रूरत है, बेशक। क्योंकि सारी धूल ऊपर आकर बैठती है। अन्दर से तुम निर्मल हो तुम्हें कोई प्रक्षालन नहीं चाहिए। सफ़ाई की ज़रूरत कहाँ है? ऊपर। और ऊपर क्या बैठा है? ऊपर यही सब बैठा हुआ है; काम, क्रोध, मद, लोभ, माया, मात्सर्य। और भीतर क्या है? भीतर जो है वो सब ठीक है, पहले ही ठीक है।

तुम उल्टी गंगा बहाते हो, तुम साबुन खाते हो। सफ़ाई की ज़रूरत कहाँ है, कहाँ है? ऊपर, और ऊपर जो चीज़ें हैं वो तुम बताते ही नहीं। तुम बात ही सीधे आत्मा की करते हो, तो तुम्हारी हालत क्या है? कि शैंपू कोई पी रहा है कि अन्दर की सफ़ाई हो जाए ज़रा। जहाँ की सफ़ाई होनी चाहिए वहाँ की करते नहीं, जहाँ सफ़ाई की कोई जरूरत नहीं वहाँ तुम सफ़ाई को आतुर हो।

आत्मा ठीक है मौलिक रूप से सब पूर्ण हैं, सब निर्दोष हैं। जहाँ कोई दोष नहीं वहाँ तुम क्या मरम्मत करने निकले हो और जहाँ दोष वास्तव में हैं वहाँ की तुम बात ही नहीं करते। दोष कहाँ है, फिर पूछ रहा हूँ बोलो दोष कहाँ हैं? दोष ऊपर-ऊपर हैं। ऊपर की बात क्यों नहीं करते? हाँ, मेरे व्यवहार में कुछ चूक है। हाँ, मुझे गुस्सा आ जाता है। हाँ, मैं दब जाता हूँ। हाँ, मैं कुंठित हो जाता हूँ। हाँ, मुझे अकेलापन सताता है। ये सब ऊपरी बातें हैं, इनमें कोई गहराई नहीं।

तुम्हें अगर सफ़ाई की ज़रूरत है तो इन बातों में है ये बातें तुम उठाते ही नहीं। तुम देख लो अभी मैं क्या कर रहा हूँ। मैं तुम्हारे सवालों का जवाब नहीं दे रहा, मैं तुम्हें सवाल करना सिखा रहा हूँ। पहले ये तो सीखो की सही सवाल क्या हैं जीवन के। जवाब मैं बाद में दे दूँगा, हो सकता है अगर तुम सही सवाल पूछ लो तो जवाब देने की ज़रूरत ही न पड़े। तुम सवाल ही ग़लत पूछते हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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