विश्राम का वास्तविक अर्थ || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2014)

Acharya Prashant

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विश्राम का वास्तविक अर्थ || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2014)

मुमुक्षोर्बुद्धिरालंब-मन्तरेण न विद्यते। निरालंबैव निष्कामा बुद्धिर्मुक्तस्य सर्वदा॥ (अष्टावक्र गीता, अध्याय-१८, सूत्र-४४)

The mind of the man seeking liberation can find no resting place within.

But the mind of the liberated man is always free from desire by the very fact of being without a resting place.

(Ashtavakra Gita Chapter 18, Verse 44)

आचार्य प्रशांत: द माइंड ऑफ़ द मैन सीकिंग लिबरेशन कैन फाइंड नो रेस्टिंग प्लेस विदिन, बट द माइंड ऑफ़ द लिबरेटेड मैन इज़ ऑलवेज़ फ्री फ्रॉम डिज़ायर बाय द वेरी फैक्ट ऑफ़ बीइंग विदाउट अ रेस्टिंग प्लेस (मुमुक्षु पुरुष की बुद्धि को भीतर कोई आश्रय नहीं मिलता। मुक्त पुरुष की बुद्धि तो सब प्रकार से निष्काम और निराश्रय ही रहती है)”

विदाउट अ रेस्टिंग प्लेस, नो रेस्टिंग प्लेस विदिन, विदाउट अ रेस्टिंग प्लेस (निराश्रय- भीतर बिना किसी आश्रय के, निराश्रय)”

कबीर ने कहा, “जिन खोजा तिन पाइयाँ”

ओशो ने अपने अंदाज़ में उसको कहा, “जिन खोया तिन पाइयाँ”

उन्होंने कहा, “खोजने वाले को तो कभी मिलता नहीं, जिन खोया तिन पाइयाँ”। खोजने वाला ही तो बोझ है, खोजने वाला ही तो बीमारी है। जिसकी आवश्यकता नहीं, वो वही काम कर रहा है। खोजने में एक अवधारणा बैठी है, एक मान्यता, एक अज़म्प्शन , क्या है वो? कुछ खो गया है।

कुछ खोया होना – जो हो वो ऐसा हो कि खो सकता ही न हो और आप खोजने निकल पड़ो – तो ये खोज आपको क्या देगी? थकान के अलावा तो कुछ दे नहीं सकती। पाना नहीं हो पाएगा, थकना ज़रूर हो जाएगा। पाने के लिए खोना आवश्यक है, बात समझिये।

जो कोई कहे, “मैंने पा लिया,” उससे पूछो, “खोया कब था?”। जो कोई कहे, “मैं बुद्ध हो गया,” उससे पूछो, “कब नहीं थे?” जो कोई कहे, “मुझे मोक्ष मिल गया,” उससे पूछो, “बंधन कब था?” यह कहना, “मुझे मुक्ति मिल गई” प्रमाण है इस बात का कि तुम मुक्त हो नहीं, मुक्ति को जानते नहीं। तुम अभी भी बंधन को मान्यता देते हो। और बंधन को मान्यता देना ही तो भ्रम है न? नहीं समझ रहे हो बात को?

जो कह रहा है, “मुझे मुक्ति मिल गई” वो मुक्ति को मान्यता देता है। जो मुक्ति को मान्यता देता है, वो मुक्ति के साथ ही किसको मान्यता देगा?

प्रश्नकर्ता: बंधन को ।

आचार्य: बंधन को, और बंधन है ही नहीं। स्वभाव क्या है? मुक्ति। तो बंधन कहाँ से आ गया? खोजने से नहीं मिलेगा, खोने से मिलेगा। किसको? खोजने वाले को खो दो, खोज को खो दो, पाया ही हुआ है। खोजना ही भूल है, कभी खोया नहीं था; बस खोजते रह गये। वो एक विज्ञापन में आता था- “ढूँढ़ते रह जाओगे” – बड़ा आध्यात्मिक वक्तव्य है वो। समस्त मुमुक्षुओं के लिए है। (हँसते हुए) “ढूँढ़ते रह जाओगे”।

अरे! जब खोया नहीं है, और ढूँढने निकले हो, तो होगा क्या? ढूँढ़ते रह जाओगे। कहते हैं, “काँख में छोरा, नगर ढिंढोरा”। खोया ही नहीं, खोज किसको रहे हो? खोजना नहीं है, ठहर कर के देख लेना है कि है, ठहरना ही तो 'है'। चुआंग त्ज़ु की एक बड़ी मज़ेदार कहानी है- एक आदमी भाग रहा था, भाग रहा था, भाग रहा था, और वो किससे दूर भाग रहा था?

प्र: सच्चाई से?

आचार्य: न, उसके क़दमों से जो आवाज़ होती थी, ज़ोर की, वो उससे दूर भाग रहा था। वो कह रहा था, “ये जो आवाज़ होती है, दौड़ने से, मुझे इस आवाज़ से दूर जाना है”। और वो दूर जाने के लिए और ज़ोर से भाग रहा था। कहने की ज़रूरत नहीं कि जितनी ज़ोर से भाग रहा था, उतनी ज़्यादा आवाज़ हो रही थी।

दौड़ता जा रहा है, दौड़ता जा रहा है, और कह रहा है, “मुझे इस आवाज़ से नफ़रत है, मैं मुमुक्षु हूँ, खोजी हूँ, पा कर रहूँगा”। दौड़ते-दौड़ते ऋषिकेश पहुँचा, शिवपुरी में कैंप लगा दिया। हर महीने भागता था, हर हफ़्ते दो बार धमाधम दौड़ता था। कहता था, “यह आवाज़ बंद नहीं होती। किसी ऐसी जगह पहुँचना है, जहाँ यह आवाज़ बंद हो जाए”। कैसे बंद होगी? एक दिन दौड़ते-दौड़ते, दौड़ते-दौड़ते अचानक, संयोगवश, या कह लीजिये अनुग्रहवश, थक कर गिर पड़ा। आवाज़ बंद हो गई, खोज मिट गई, वस्तु मिल गई।

जो अष्टावक्र कह रहे हैं उसी को कबीर ने और सरल तरीके से कहा है-

दौड़त दौड़त दौड़िया, जेती मन की दौर।

दौड़ि थके मन थिर भया, वस्तु ठौर की ठौर।।

जब दौड़ते-दौड़ते थक लोगे, तो देख लेना वस्तु अपनी जगह पर ही है, उसने अपना ठिकाना नहीं बदला। “वस्तु ठौर की ठौर”।

“द माइंड ऑफ़ द मैन सीकिंग लिबरेशन कैन फाइंड नो रेस्टिंग प्लेस विदिन (मुमुक्षु पुरुष की बुद्धि को भीतर कोई आश्रय नहीं मिलता)”

कैसे मिलेगी? तुमने तो वस्तु बना दिया है न मुक्ति को भी – जिसे ढूँढना है,जिसे पाना है, हाँसिल करना है। किसी को कुछ हाँसिल करना है, किसी को कुछ हाँसिल करना है, किसी को रुपया-पैसा, पद-पदवी, बड़ा मकान; तुम्हें मुक्ति हाँसिल करनी है। जिन्हें मुक्ति हाँसिल करनी है, अगर तुम उन्हें विश्वास दिला दो कि फलानी दुकान में मिलती है, तो वो चुपके-चुपके उसी दुकान में पहुँच जाएँगे। खुलेआम भले ही न जायें, पर अगर उन्हें तुम यकीन दिला दो कि फलानी दुकान में मुक्ति मिलती है, तो पिछले दरवाज़े से वहाँ जाएँगे ज़रूर।

“कितने की है?” क्योंकि मानते तो वो यही हैं कि -बाहर है। भीतर है, ऐसा उनका जानना नहीं। मान्यता उनकी यही है कि बाहर है, और जो बाहर है वो दूकान में भी हो सकती है, कि नहीं हो सकती? जो बाहर है, वो बिक भी सकती है, कि नहीं बिक सकती? वो पहुँच जाएँगे।

“बट द माइंड ऑफ़ द लिबरेटेड मैन इस ऑलवेज़ फ्री फ्रॉम डिज़ायर बाय द वैरी फैक्ट ऑफ़ बींग विदाउट अ रेस्टिंग प्लेस”

मुक्ति क्या है? बिलकुल साधारण तरीके से कहें, तो समझियेगा – मुक्ति की इच्छा का अंत हो जाना ही मुक्ति है। मोक्ष क्या है? मोक्ष की इच्छा का अंत हो जाना ही मोक्ष है। प्रेम क्या है? प्रेम की तलाश का अंत हो जाना ही प्रेम है।

“द माइंड ऑफ़ द लिबरेटेड मैन इस ऑलवेज़ फ्री फ्रॉम डिज़ायर बाय द वैरी फैक्ट ऑफ़ बींग विदाउट अ रेस्टिंग प्लेस,”

यदि कोई एक जगह होगी, विश्राम-स्थली, जहाँ जाकर आराम कर सकते हो, तो जगह छिनेगी। कोई स्थान होगा यदि घर, तो कभी तो घर से बाहर आना ही पड़ेगा। “बीइंग विदाउट अ रेस्टिंग प्लेस (बिना किसी विश्राम-स्थल के)”- अर्थ दो तरफ़ा है। इतना ही नहीं है, कि कोई जगह नहीं है, तुम्हारा घर, इससे और दूर का है। इसका अर्थ है –“अपना घर अपने हृदय में लिए घूमते हैं। “आई ऍम विदाउट अ रेस्टिंग प्लेस बिकॉज़ आई कैरी द रेस्टिंग प्लेस हियर; विदिन (मैं निराश्रय हूँ क्योंकि मेरा आश्रय यहाँ है; मेरे हृदय में)”।

घर किसको चाहिए? जो बेघर हो। (हँसते हुए) हमारा घर हमारे दिल में है। हमें नहीं चाहिए घर। तुम अभागे हो, तुमने अपने बारे में ये धारणा बना रखी है कि तुम बेघर हो। तुम जाओ, ढूँढो, घर की तलाश करो। और ज़िन्दगी भर ‘घर-घर’ करते भटकोगे, और बेघर मरोगे। तुम्हारी श्रद्धाहीनता की यही सज़ा है – बेघर मरोगे। दसों घरों में रहने के बाद भी घर नसीब नहीं होगा तुमको।

हमने कभी घर बनाया नहीं, हम कभी घर बनाएँगे नहीं, हमें घर की कोई खोज नहीं, और हम सदा घर में हैं। हम जहाँ हैं, वहीं हमारा घर है। हमें कभी ऐसा लगता ही नहीं कि हम अस्तित्व से परित्यक्त हैं। हमें ऐसा कभी लगता ही नहीं कि हमें घर से निकाल दिया गया। हम तो जहाँ हैं, वहीं हमारा घर है। ऊपर आसमान है, नीचे धरती है, चारों तरफ़ दिशायें हैं।और कैसा घर चाहिए?

“बींग विदाउट अ रेस्टिंग प्लेस,” ‘अ रेस्टिंग प्लेस’ का अर्थ ही यही है कि – अभी द्वैत है। एक जगह है जहाँ आराम है, और दूसरी जगह है जहाँ तनाव है। “’अ रेस्टिंग प्लेस’ नहीं , द कॉसमॉस इस माई रेस्टिंग प्लेस (कोई ख़ास जगह नहीं, पूरा ब्रह्माण्ड ही मेरा घर है)"।

हम सतत विश्राम में हैं, कि जैसे छोटा बच्चा, उसको यहाँ लेटा दो ज़मीन पर, तो सो जाएगा। उसको ले जाकर नीचे घास पर लेटा दो, वहाँ भी सो जाएगा। देखा है कभी? पड़ोसियों के घर में ले जा कर रख दो, वहाँ भी सो जाएगा। जहाँ है, वहीं ठीक है। यह तो बड़ों के मन की चालाकी है कि उन्हें घर पहुँचना होता है। बच्चा तो कहीं भी सो जाता है। और अगर आपने उसे बहुत दुलार नहीं दे दिया है, तो किसी भी कंधे पर भी सो जाएगा। सारे कंधे उसके अपने हैं।

तलाशना नहीं है, तलाश से मुक्त हो जाना है। इसका भाव जानते हो क्या है? इसका भाव यह है कि – जो है वो अभी है, तलाश से नहीं मिलेगा, मिला ही हुआ है। “दिस मोमेंट इस द क्लाइमेक्स ऑफ़ माई लाइफ (यही क्षण शिखर है मेरी ज़िन्दगी का), आगे कुछ नहीं, यही है। इसी क्षण मैं चोटी पर हूँ, शिखर पर बैठा हुआ हूँ। चढ़ना नहीं है, पाना नहीं है। सतत चोटी पर ही विराजमान हैं। शिखर से हम कभी हम उतरे ही नहीं थे। खोया ही नहीं है, पाना कैसा? उतरे ही नहीं थे, चढ़ना कैसा? दिस मोमेंट इस द क्लाइमेक्स ऑफ़ माई लाइफ (यही क्षण शिखर है ज़िन्दगी का)।”

ऐसे हम जीते नहीं हैं, हम खोज में जीते हैं, हम प्रतीक्षा में जीते हैं, हैं न? कभी मानते ही नहीं हैं कि- यही आख़िरी है, यही उच्चतम है, इससे अधिक महत्वपूर्ण कुछ हो नहीं सकता। ऐसे हम जीते नहीं हैं। हमने तो महत्वपूर्ण को स्थगित कर रखा है; “आगे है”। आगे नहीं है; यही है। इससे महत्वपूर्ण कुछ नहीं।

मन भटके तो कहियेगा यही, “यही है, इससे ऊँचा कुछ नहीं, इसके आगे कुछ नहीं, इसके अलावा कुछ नहीं”। यह ऊँचा भी तुलनात्मक रूप से नहीं है। यह अतुलनीय है, क्योंकि इसके अलावा कुछ है ही नहीं। तो तुलना भी किससे करेंगे? अन्क्वालिफायिड क्लाइमेक्स (अतुलनीय शिखर)। एक शिखर तो वो होता है जहाँ पर सीढ़ी का एक पायदान पिछले से ऊँचा होता है। यहाँ तो बात यह है कि- इस सीढ़ी में और कोई सोपान है ही नहीं।

अ वन स्टेप लैडर – दैट इस लाइफ (एक सोपान की सीढ़ी- यही है जीवन) यहाँ और कोई सोपान नहीं। ये ऊपर-नीचे चढ़ना-उतरना, इस बात का क्या मतलब? इस सीढ़ी में और कोई सोपान है ही नहीं। जहाँ हो वही आख़िरी है, वही उच्चतम है। कहाँ जाओगे?

मुसाफ़िर जाएगा कहाँ?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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