विशेष होली भेंट || आचार्य प्रशांत, उद्धरण

Acharya Prashant

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विशेष होली भेंट || आचार्य प्रशांत, उद्धरण

आचार्य प्रशांत: जो कुछ होली के नाम पर होता है उसमें प्रह्लाद तो कहीं नहीं है उसमें होलिका-ही-होलिका है लोगों ने ये जो नाम है होली लगता है इसका कुछ गलत अर्थ कर लिया। उन्हें लगा होली का मतलब है कि आज होलिका माता को याद करना है और उनको प्रेम से श्रद्धांजलि अर्पित करनी है। बेचारियों ने अपनी शहादत दी थी आज।

होली का मतलब समझते हैं हम क्या है? होली का मतलब है कि कोई भी कीमत देनी पड़ जाए और कितना भी ताकतवर हो झूठ उसका साथ नहीं देना है। हिरण्यकश्यप सिर्फ़ राजा ही नहीं था, प्रह्लाद का बाप भी था और वो छोटू ने कहा कि तुम चाहे राजा हो, चाहे बाप हो मेरे, तुम्हारा साथ तो नहीं दूँगा। और वो कोई साधारण राजा नहीं था, वो वरदान प्राप्त राजा था अगर पौराणिक कथा पर विश्वास करें तो।

कथा कहती है कि उसने वरदान ले लिया था दिन में नहीं मरेगा, रात में नहीं मरेगा, अस्त्र से नहीं मरेगा, शस्त्र से नहीं मरेगा वगैरह-वगैरह’ आदमी से नहीं मरेगा, पशु से नहीं मरेगा। बहुत खतरनाक राजा था, समझ रहे हो बात को?

इतना खतरनाक था कि उसने पूरे राज्य में पाबन्दी कर दी थी कि भाई अब कोई किसी सत्य का या ईश्वर वगैरह का नाम नहीं लेगा। मेरी पूजा करो मेरी क्योंकि सत्य अमर होता है न और अनन्त जिसका कोई अन्त नहीं हो सकता मेरा भी अन्त नहीं हो सकता क्योंकि मर तो अब मैं सकता ही नहीं। जो न जल में मर सकता, न थल में मर सकता, न दिन में मर सकता, न रात में मर सकता वो तो अमर ही गया। तो मैं ही अमर हूँ, मैं ही सत्य हूँ तो मेरी ही पूजा करो और वो छुटके ने बोला कि नहीं, नहीं चलेगा।

जैसे वो राजा खतरनाक था वैसे वो बाप खतरनाक था क्योंकि उसकी एक ज़बरदस्त बहन थी। और बहन के पास कहते हैं कि एक शक्ति थी, कहीं कहा जाता है कि एक दुशाला जैसा था। पूरा राज्य मान रहा है राजा साहब की बात, छोटे ने मानने से मना कर दिया। बोला, ‘मैं तो नहीं मानता।’ तो राजा ने कहा, ‘अपने हाथों से उसको क्या मारूँ, बुरा लगेगा।’ पहले तो उसको बहुत लालच दिए और बहुत डराया-धमकाया भी। वो काहे को माने! बोला, ‘मैं नहीं मानता। आप होंगे मेरे बाप, चाहे आप होंगे राजा, चाहे आप होंगे वरदान प्राप्त मैं नहीं मानता तो नहीं मानता। मेरे लिए सच ही सच है, सच ही बाप है, कोई बाप सच से बड़ा नहीं होता।’ तो देवी जी आयी हैं। देवी जी को कहा गया है कि इसको न चुपचाप गोद में बैठाकर के आग से गुज़र जाओ, तुम्हें तो कुछ नहीं होगा यह मर जाएगा।

कुछ ऐसी ही व्यवस्था की गयी होगी कि लगे की दुर्घटना हो गयी है नहीं तो उसको मारना ही था तो खुद ही मार देता, बहन को काहे को बीच में लाता। तो बहन को बीच में शायद इसीलिए लाया होगा कि लगे कि भई बुआ के साथ घूम रहा था, बेचारा दुर्घटना में मारा गया। अब बुआ जी उसको लेकर आग से निकलीं तो कहने वाले कहते हैं कि कुछ ऐसी हवा चली कि बुआ जी ने जो पहन रखा था वो उड़कर के प्रह्लाद पर चला गया तो प्रह्लाद तो बच गया और बुआ जी को इतने जख्म आये होंगे, इतना जल गयी होगी कि बुआ जी फिर साफ़ हो गयी। छोटू अपना कूद-फाँदकर भाग आया होगा, वो बच गया।

ये तुम देख रहे हो पूरी कहानी कहाँ को जा रही है? ये पूरी कहानी जा रही है कि समाज कुछ कहता हो, प्रकृति कुछ कहती हो, परिस्थिति कुछ कहती हो, सत्ता कुछ कहती हो, मुझे करना वही है जो सही है, ये है होली। बात समझ में आ रही है?

प्रकृति कुछ कहती हो, परिवार कुछ कहता हो, परिस्थिति कुछ कहती हो मुझे करना वही है जो सही है। ये है होली का कुल अर्थ।

एक-दो बातें इसमें और जोड़ सकते हैं, वो मैं बोल दूँगा। इसमें चिकन और दारु कहाँ से आ गये, मुझे समझाओ। कहाँ से आ गये? और इसमें ये हुल्लड़ कहाँ से आ गया? कीचड़ फेंकना और बकलोली करना और भाभी को रंगना, ये कहाँ से आया समझाओ? लोगों को भाभियों से बहुत प्यार हो जाता है, होली के दिन, आधे शहर की औरतें उस दिन भाभी हो जाती है।

अब राजा को आया गुस्सा, बोले, ‘तू बहुत फ़ायरप्रूफ़ हो रहा है न तो एक लोहे का खम्भा बिलकुल गरम करा दिया बोला, तुझे तो आग से कुछ होता नहीं तो ये खम्भा है, जा लिपट जा इससे। भई तू तो अभी-अभी आग से गुज़रकर आया है, तुझे कुछ हुआ नहीं, बुआ बेचारी मर गयी। तो खम्भा भी मैंने गरम करा दिया जा लिपट जा।’ अब छोटू को डर तो लगा होगा, जो भी हुआ होगा। पर प्रह्लाद बोला, ‘ठीक, पर आपको तो नहीं मान लूँगा भगवान। दुनिया को आप बुद्धू बना सकते हो मुझे तो पता है न आप कौन हो, नहीं मानूँगा।’

तो गया वो खम्भे को और फिर कहानी में इस तरह से है कि उसी खम्भे से फिर एक जीव प्रकट हुआ जो आधा शेर था, आधा इंसान था। और समय क्या हो रहा था उस वक्त? सूर्यास्त का हो रहा था जब न दिन था, न रात थी। और उसने पकड़ लिया हिरण्यकश्यप को और अपनी गोद में लिटा लिया। तो माने आप न तो हवा में हो, न आप ज़मीन पर हो। और था कि न अस्त्र से मरोगे, न शस्त्र से माने; माने हाथ में पकड़ी हुई चीज़ से भी नहीं मरोगे और जो उड़ती हुई चीज़ आती है, प्रोजेक्टाइल उससे भी नहीं मरोगे। तो उसने कहा, ‘ठीक है।’ कुछ हाथ में पकड़ नहीं रखा उसने मारा अपने नाखूनों से।

बहुत चालाक हो रहा था हिरण्यकश्यप, है न। बड़ी तपस्या की, लेकिन वरदान क्या माँगा कि मैं मरूँ नहीं, मैं ही राजा बन जाऊँ, मैं ही भगवान बन जाऊँ। आप देख रहे हो तपस्या करना भी एक संसाधन होता है पर उसका इस्तेमाल किस तरह कर रहे हो? तपस्या में मेहनत लगती है, अनुशासन लगता है और हम बहुत सारे अनुशासित लोगों को देखते हैं पर किसलिए? इतने अनुशासित हो तुम, पाना क्या चाहते हो?

हिरण्यकश्यप ने भी बड़ी तपस्या, बड़ा अनुशासन दिखाया, लेकिन किसलिए? अपने अहंकार को और बढ़ाने के लिए। और फिर बड़ी चालाकी भी दिखायी वरदान माँगने में। देख रहे हो, चालाकी? क्या? कि ऐसे नहीं मरु, ऐसे नहीं मरु, ऐसे नहीं मरु, ऐसे नहीं मरु, वो सारी चालाकी एक नन्हे की सरलता के आगे परास्त हो गयी।

इसमें चिकन और दारू कहाँ है? इस पूरी कथा का, इस पर्व का चिकन और शराब से क्या सम्बन्ध है, मुझे समझाओ। बताओ, तुम एक नन्हे बच्चे की सरलता की सफलता का उत्सव मना रहे हो। तुम एक दुर्दान्त सम्राट के अहंकार और चालाकी की पराजय का वैभव मना रहे हो। इसमें चिकन और दारू कहाँ से आ गये? बोलो, ये हम कर क्या रहे हैं धर्म के नाम पर?

हम किस हिसाब से अपनेआप को हिन्दू बोलते हैं? जो हिन्दू हैं उनसे कह रहा हूँ, कैसे? ये त्यौहार रचा गया है आपको बताने के लिए कि अहंकार कितना भी चालाक हो जाए, परम सत्ता से तो नीचे ही रहेगा। तुम्हारी कोई भी चालाकी सच को नहीं जीत लेगी। ये त्यौहार इसलिए रचा गया है, ये त्यौहार वास्तव में सरलता की जीत का त्यौहार है सरलता, मासूमियत, निर्दोषता।

कुछ नहीं था छोटू के पास लेकिन जीता और जो, जो लगे हुए थे, उसको मारने में सब साफ हो गये। ये त्यौहार बताता है तुमको कि कितने भी कमजोर हो तुम, कितने भी छोटे हो, गलत जगह सिर नहीं झुका देना है, भले ही वो गलत जगह तुम्हारे अपने बाप की जगह क्यों न हो। बाप से मतलब समझ रहे हो? जिससे तुम्हारा प्राकृतिक सम्बन्ध है, जिससे तुम्हारा देह का रक्त सम्बन्ध है। प्रकृति के आगे सिर नहीं झुका देना है। बाप का अर्थ यहाँ पर प्रकृति से है।

प्रकृति के आगे सिर नहीं झुका देना है। सिर तो सच के आगे ही झुकेगा। और एक खौफ़नाक चीज़ बताती है ये कहानी कि जब तुम सच के साथ चलने लगते हो तो तुम्हारे नात-रिश्तेदार, ये करीबी लोग, यही तुम्हारे सबसे बड़े दुश्मन हो जाते हैं। प्रह्लाद जैसे ही सच के साथ हुआ, उसे मारने कोई दूर के लोग नहीं आये। उसकी अपनी बुआ और अपना बाप उसको मारने में लग गये। समझ में आ रही है बात?

इस में चिकन और दारू कहाँ से आए, समझाओ। या कहानी में कहीं यह भी लिखा हुआ है कि प्रह्लाद इसलिए बच गया क्योंकि साइड में एक छोटी सी (बोतल) रखे हुए था तो डर नहीं लग रहा था उसको, बोल रहा है (शराबी का अभिनय करते हुए), ‘होलिका मौसी! बुआ, अरे क्या हुआ? हमें तो कुछ नहीं हुआ क्यों जल गयी बुआ?’ (श्रोतागण हँसते हैं।) कुछ ऐसा था तो होली का सम्बन्ध शराब से कैसे लग गया?

यहाँ तो जो सबसे बड़ा दुराचारी है उसकी मौत की बात है। वो मुर्गे ने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा कि मुर्गा हिरण्यकश्यप है? उसको काहे मारा? बोलो, मुर्गे को क्यों मारा? मुर्गे से दुश्मनी क्या है, बताओ। कोई भी त्यौहार आये उसको विकृत कर ही देना है न? अभी महाशिवरात्रि भी थी तो उस पर भाँग-गाँजा; और ये सबकुछ करा जा रहा है बम-बम भोले के साथ, शर्म नहीं आती।

एक को मैंने पकड़ा था एक बार। बोलता है, ‘मैं तो भोले का भूत हूँ।’ मैंने कहा, ‘भोले का तो तू नहीं है पहली बात, और भूत तुझे मैं बनाऊँगा (श्रोतागण हँसते हैं)।’ त्यौहार बहुत सोच-समझकर, बहुत तरीके से ईजाद की हुई विधि है। हर त्यौहार आपको कुछ याद दिलाने के लिए आता है। एक तरह की अनुगूँज है वो, रिमाइंडर , साधारण चीज़ें जो आप रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में भूले हुए रहते हैं, उन पर से धूल हटाने के लिए आते हैं त्यौहार, साल में दो बार, पाँच बार, दस बार।

जीवन के मूलभूत सिद्धान्त आपको फिर से स्मरण में आ जाएँ इसलिए है त्यौहार। तो त्योहारों का दिन तो चेतना के विशेष अनुशासन के साथ मनाना होगा न या उस दिन और ज़्यादा लफंगई करनी है? और ज़्यादा अपनेआप को छूट दे देनी है, बेवकूफियों की और बदतमीज़ियों की? कि आमतौर पर जितने जानवर नहीं कटते प्रतिदिन उससे कई गुने कट रहे हैं त्यौहार के दिन, ये कौनसा त्यौहार है?

चाहे होली हो, चाहे बकरीद हो और चाहे क्रिसमस हो, मैं पूछना चाह रहा हूँ ये त्यौहार कौनसे हैं जो निर्दोष जानवरों का खून बहाये बिना मनाये नहीं जा सकते। और होली इत्यादि पर तो कभी परम्परा भी नहीं थी ये सब करने की? ये कहाँ से भारत में प्रभाव आ रहे हैं कि अब होली पर और दिवाली पर भी माँस खाना प्रचलित होता जा रहा है? कौन सिखा रहा है हमें ये सब? क्योंकि अपने बचपन में मैंने इस तरह की बातें नहीं सुनी थी।

ये नयी बात सुनने को मिल रही है कि होली पर तो मुर्गा कटेगा-ही-कटेगा। ये पिछले दस-बीस साल में भारत की चेतना पर ये चीज़ चढ़ी है कि दारू पियो, माँस खाओ, दारू पियो, माँस खाओ। आपने अपने धर्म पर भी इस चीज़ को चढ़ा लिया कि दारू पियो, माँस खाओ? साधारण जीवन पर तो चढ़ ही गया है।

बमुश्किल पच्चीस-तीस प्रतिशत भारतीय अब शाकाहारी रह गये हैं। अभी बस कुछ ही दशक पहले आधे से ज़्यादा भारतीय शाकाहारी हुआ करते थे, दो तिहाई से ज़्यादा। ये सब कहाँ से सीख लिया? किसका प्रभाव पड़ रहा है भारत की चेतना पर?

प्रश्नकर्ता: कुछ वर्षों से देख रहा हूँ कि इस दिन लोग एक दूसरे को रंग लगाते हैं। जवान लोग मोटरसाइकिल इत्यादि पर सवार होकर निकलते हैं। एक-दूसरे पर अंडे, कीचड़ इत्यादि फेंकते हैं, लड़कियों पर पानी के गुब्बारे इत्यादि फेंके जाते हैं। मुझे ये सब बड़ा झूठा और बेकार लगता है। मैंने निर्णय लिया है कि इस बार एकान्त में अपने साथ समय बिताऊँगा इस दिन। आचार्य जी, कृपया बताएँ कि होली को बिताने का सम्यक् तरीका क्या है ताकि मैं अपने साथियों को भी बता सकूँ।

आचार्य: देखो, जब आस पास ये सब चल रहा होगा तो ये तो नहीं कर पाओगे कि एकान्त में बैठे रहो, यह तो बड़ी मनहूस सी बात है। दुनिया होली खेल रही है, एकान्त में बैठ गये, हो ही नहीं पाएगा तुमसे। तो जब होली का प्रभाव मन पर पड़ना ही है तो उसको सुप्रभाव होने दो या तो ये करो कि उस दिन विदेश निकल जाओ जहाँ होली मनायी ही न जाती हो। तब तो ये कह सकते हो कि साहब होली पर उपद्रव होता है और हम होली को छोड़ आए पीछे। विदेश वगैरह अगर नहीं जा रहे हो यहीं पर हो तो होली मनाओ और अच्छे-से-अच्छे और ऊँचे-से-ऊँचे तरीके से मनाओ। भूलो नहीं कि होली का पर्व बेमतलब नहीं है, अकारण नहीं है, बहुत गहरा सन्देश छुपा हुआ है उसमें। उस सन्देश को याद करो। उस दिन को एक सृजनात्मक रूप दो।

भई, तुमने कहा अंडे फेंके जाते हैं। अंडे हमेशा से तो नहीं फेंके जाते होंगे, अंडे फेंकने की प्रथा भी किसी हुनरमन्द ने कभी शुरू ही करी होगी, पोल्ट्री वाला रहा होगा, कुछ बात होगी। तो जब कोई ऐसा हो सकता है होनहार जो होली पर अंडे फेंकने की प्रथा शुरू कर सकता है तो होली पर कोई अच्छी प्रथा तुम भी शुरू कर सकते हो न।

हो सकता है कि तुम्हारी प्रथा को अभी पाँच-ही-सात लोग माने पर अगर चीज़ अच्छी होगी, थोड़ा विस्तार लेगी और मानो बहुत विस्तार नहीं भी लेती तो भी तुम्हें तो ये आश्वस्ति रहेगी न, सुकून रहेगा न कि तुमने कुछ अच्छा करा तो होली के पीछे जो भावना है उसको समझो और उसके अनुसार होली को मनाओ।

कितने तो प्रतीक जोड़े हुए है न होली से! हिरण्यकश्यप का अहंकार! हिरण्यकश्यप का अहंकार — उसने अपने पूरे राज्य में निषेधाज्ञा निकलवा दी। बोला, ‘यहाँ कोई विष्णु का नाम नहीं लेगा।’ अब उसको जो ताकत मिली है किससे मिली है, विष्णु से मिली है और उस ताकत का इस्तेमाल वो किसके खिलाफ़ कर रहा है, विष्णु के खिलाफ़ कर रहा है। अब ये इतना ज़बरदस्त प्रतीक है! है न? क्या इस प्रतीक को केन्द्र में रखकर होली पर तुम कोई नयी प्रथा नहीं बना सकते?

अब ऐसी बात कर रहे हो आना होली के दिन हम ही लोग संस्था में बैठकर कुछ सोच लेंगे। चलो इस प्रतीक को ध्यान में रखकर कोई नयी प्रथा निकालते हैं कि जिससे सबकुछ पा रहे है कम-से-कम उसके खिलाफ़ न जाएँ। और हम ये खूब करते हैं। हम कहते हैं, ‘हमारे पास आज ताकत है, हम लड़कर दिखाएँगे और लड़ तुम किससे रहे हो? तुम उसी से लड़ रहे जिसने तुम्हें ताकत दी।

तुमने अपने ज्ञान का, अपनी शक्ति का इस्तेमाल किसके खिलाफ़ कर लिया? भूल ही गये कि उसी के खिलाफ़ जिससे तुमने ज्ञान पाया, जिससे तुमने शक्ति पायी। जो ऐसा करे, उसका नाम हिरण्यकश्यप और ऐसा करने की हममें प्रवृत्ति बहुत होती है। सावधान रहो, ठीक है? और उसके बाद क्या देख रहे हो? और कई प्रतीक है जितना मुझे स्मरण आता आ रहा है, बोल दूँगा।

उसके बाद ये देख रहे हो कि बड़ी हार मिली कि उसका अपना ही लड़का उसकी आज्ञा नहीं मान रहा है। ल्यो अरे बाप रे! पूरे राज्य को तो उसने डरा दिया है, बिलकुल धमकाकर हड़का दिया है, मानोगे नहीं तो ये और उसका अपना ही छोटू वो कह रहा है, ‘नहीं, मैं तो विष्णु भक्त हूँ मैं तो विष्णु को ही पूजूँगा। मैं नहीं मानता डैडी।’

अब डैडी ने जितने तरीके से हो सकता था, लॉलीपॉप दी होगी, ये दिया होगा उसको, एक्स बॉक्स दिया होगा, जो कुछ भी दिया जा सकता। है वो काहे को माने? वो भी प्रह्लाद, फैला हुआ है कह रहा है कि नहीं विष्णु चाहिए। अब होलिका दहन हम करते हैं उसमें लकड़ी काहे को जला रहे हो यार? एक तो लकड़ी बची नहीं, ऊपर से फ़ॉसिल फ़्यूल है वो। नहीं, फ़ॉसिल फ़्यूल तो नहीं है पर ऑर्गेनिक फ़्यूल है, उसमें कार्बन बहुत है। कार्बन जब भी जलेगा तो क्या निकलेगा? कार्बन डायऑक्साइड निकलेगी, क्यों ये हरकत कर रहे हो अब? फिर पहले तो सब काम गाँव में होता था तो मिट्टी थी। मिट्टी के ऊपर लकड़ी-वकड़ी रखकर जला दी। अभी आजकल होलिका कहाँ? चौराहे पर जलाते हो। तो जो सार्वजनिक सम्पत्ति है वो खराब करते हो, चौराहे पर जाम लगते हो।

कोई बेहतर तरीका हम निकालते हैं न, कोई ज़्यादा सुन्दर तरीका, कोई ज़्यादा धार्मिक तरीका निकालते हैं न। इस में क्या धर्म है कि किसी को कुछ पता ही नहीं होली के मर्म के बारे में, होली के सन्देश के बारे में और यहाँ किसी के घर से कुर्सी उठाकर डाल दी है, होलिका में जला रहे हैं। मैं छोटा था क्रिकेट खेलते थे। एक था जो कि बल्ला और गेंद अपनी लेकर आता था और बोले कि देखो पहले बैटिंग हमारी होगी और पहले बैटिंग करें जल्दी आउट हो जाएँ तो बल्ला गेंद लेकर चला जाए तो जनता ने टोली बनाकर उसका बल्ला ही डाल दिया। बोले, ‘ये सब पाप जल रहा है न इसमें, ये जलना चाहिए।’ कुछ और जलाते हैं? जला सकते हैं क्या? आमन्त्रण है, समस्या है, लेकिन चुनौती भी है और सम्भावना भी है।

कुछ ऊँचा कर सकते हैं क्या हम? वही तो सच्ची धार्मिकता है न, लगातार आगे बढ़ते रहो, “चरैवेति, चरैवेति”। निरन्तर आरोहण होता रहे चेतना के उच्च से उच्चतर स्थलों पर। ये सब करो। ये नहीं कि हम होली का बहिष्कार कर रहे हैं। हम होली मनाएँगे नहीं, छुपकर बैठ जाएँगे देखो, मुँह पर कीचड़ लगा दिया। कुछ और करके देखते हैं।

वैसे अभी एक बेहतर चीज़ तो होने लगी है। पहले जो रासायनिक रंग आते थे आज से दस साल पहले ज़्यादातर अब उसकी अपेक्षा मैं समझता हूँ, ऑर्गेनिक रंग आते हैं न, फूलों-वूलों से बने हुए। उस हद तक तो मामला वैसे ही ठीक हो गया है पर वह बहुत छोटे तल का सुधार है। हमें उससे बहुत बड़ा सुधार चाहिए।

एक बात समझ लो अच्छे से, अगर चाहते हो कि धर्म मर ही न जाए बिलकुल विलुप्त न हो जाए तो धार्मिक प्रथाओं को सुधारना होगा नहीं तो ये सब कीचड़बाज़ी, गुब्बारेबाज़ी, अंडेबाज़ी करके तुम उन्हीं लोगों की आवाज़ बुलन्द कर रहे हो जो कहते हैं कि धर्म बेकार चीज़ है और आज जानते हो न कितने ऐसे लोग हो गये हैं और मैं पश्चिम की नहीं बात कर रहा हूँ।

हिंदुस्तान में भी मुझे लगता है अधिकांश आबादी ऐसी हुई जा रही है खास तौर पर नये जवान लोगों की, उनमें भी अंग्रेज़ी बोलने वाले लोगों की जो कहते हैं कि रिलीजन इज़ अ न्यूसेंस। धर्म एक झंझट भर है उनकी नज़र में। वो कहते हैं, ‘धर्म चाहिए क्यों है? धर्म से सिर्फ़ नालायकियाँ होती है, बदतमीज़ियाँ होती हैं, धर्म बर्बादी का कारण है।’ ऐसा उनका कहना है।

और तुम ऐसो की गाड़ी पर अंडा मारोगे तो कहेंगे, ‘देखा, मुझे तो पता ही था कि धर्म का मतलब बेवकूफ़ी।’ और खास तौर पर याद रखो सनातन धर्म पर बहुत हमला हो रहा है, इस समय। वैदिक धर्म पर ज़बरदस्त हमला हो रहा है इस समय तो जो लोग हमला कर रहे हैं उनको बिलकुल मौका मत दो, ज़रा भी अवसर मत दो कि वो तुम्हारे धर्म में खोट निकाल पाएँ। ये अंडेबाज़ी वगैरह करके तुम धर्म के दुश्मनों के ही हाथ मज़बूत कर रहे हो, ये बात समझ में आ रही है?

वो यही तो कहते हैं, वो कहते हैं, ‘जितने धार्मिक लोग हैं, ये सब मन्दबुद्धि हैं, ये पागल हैं। यही कहते हैं न? उनका यही तो इल्ज़ाम है, वो कहते हैं, ‘धार्मिक होने का मतलब है कि अन्धविश्वासी होगा, रूढ़िवादी होगा, ठप्प दिमाग का होगा। भक्त शब्द को उन्होंने अब गाली बना लिया है। भक्ति की यही दुर्दशा हुई है।’

तुम चाहते हो ऐसा होता रहे? यहाँ बैठे हो तो मैं समझता हूँ, धर्म से कुछ प्रेम है। धर्म से अगर प्रेम है तो धर्म के नाम पर बेवकूफियाँ करना एकदम छोड़ दो। तुम धर्म के नाम पर पेड़ काटोगे, तुम धर्म के नाम पर अराजकता, अव्यवस्था करोगे तो तुम धर्म का ही नाम खराब कर रहे हो। और धर्म बेचारा वैसे ही डूब रहा है आज के समय में।

जिस प्रह्लाद की स्मृति में, जिस प्रह्लाद के सम्मान में, होली का त्यौहार हम मनाते हैं उस प्रह्लाद का भाव देखिए, उस प्रह्लाद की श्रद्धा देखिए। वो कह रहा है, ‘पिता मेरे कितने ही बलशाली हों, मैं अपने ही पिता के खिलाफ़ खड़ा हो जाऊँगा। अगर वो सत्य की अवहेलना कर रहे हैं, अगर वो सच्चाई के विरुद्ध जा रहे हैं।’ और प्रह्लाद क्या है? बालक मात्र है। और क्या ताकत है उसके पास? कुछ नहीं। और सामने उसके क्या है? उसके सामने एक अति बलशाली राजा है। और उसके सामने पिता है। पिता का मोह है, पिता के प्रति जो प्राकृतिक आकर्षण होता है वो है। लेकिन वो बच्चा रक्त के सम्बन्ध की परवाह नहीं करता। वो कहता है, ‘पिता से होगा खून का रिश्ता, खून के रिश्ते से ज़्यादा बड़ा कुछ और होता है।’

न वो खून के रिश्ते की परवाह करता है, न सामने जो अत्याचारी है उसके बल की परवाह करता है। वो कहता है, ‘झुकूँगा तो सिर्फ़ सच के सामने। न शरीर के सम्बन्ध के सामने झुकूँगा, न समाज के सामने झुकूँगा, न पिता के सामने झुकूँगा, न राजा की ताकत के सामने झुकूँगा। मैं झुकूँगा तो सिर्फ़ एक चीज़ के सामने, एक सत्ता के सामने जो इस योग्य है कि उससे नमित हुआ जाए।’

तो जब हम दोस्तों, यारों, सम्बन्धियों के पास जाएँ होली में तो सदा याद रखें कि पहला सम्बन्ध हमें प्रह्लाद ने सिखाया है कि सत्य के साथ होना चाहिए बाकी सब सम्बन्ध पीछे के हैं। प्रह्लाद ने अपने पिता को भी पीछे छोड़ दिया था। सच्चाई इतनी बड़ी चीज़ है कि उसके लिए किसी को भी पीछे रखा जा सकता है। अगली बात, हम हो सकता है बहुत चालाक हों, हम हो सकता है बड़े सिद्धहस्त हों, हमें हो सकता है उसी तरह कुछ सिद्धियाँ प्राप्त हों जैसे होलिका को प्राप्त थी। कोई सिद्धि काम नहीं आएगी।

होलिका ने बड़ी चालाकी खेली। बोली, ‘आ, प्रह्लाद मेरी गोद में बैठ जा।’ अब प्रह्लाद बालक मासूम, निर्दोष, भोला-भाला। वो बैठ गया। और होलिका चढ़ गयी प्रज्जव्लित अग्नि पर और होलिका की चालाकी थी कि मेरा तो कुछ बिगड़ेगा नहीं, प्रह्लाद जल मरेगा। हुआ उल्टा, होलिका की चालाकी ही उसे उसके अन्त तक ले गयी।

होलिका की चालाकी ही उसे ज्वालाओं तक ले गयी। यही सीख है हमको भी, जो जितना चालाक होगा वो अपनी चालाकी के द्वारा ही जल मरेगा। बड़ी-से-बड़ी चालाकी निर्दोष, मासूमियत के सामने छोटी है। जब भी कभी द्वन्द्व होगा चतुरता में, होशियारी में, चालाकी में और निर्दोषता में, भोलेपन में, मासूमियत में यकीन मानिए, श्रद्धा रखिए मासूमियत जीतेगी, निर्दोषता जीतेगी।

चालाकी बड़ी चीज़ लगती है पर चालाक लोगों का वही हश्र होगा जो होलिका का हुआ था तो जब आप होली का त्यौहार मना रहे हों तो अपनी चालाकी को ज़रा पीछे छोड़ दीजिएगा। प्रह्लाद की तरह बालमना हो जाइएगा, प्रह्लाद की तरह भोले हो जाइएगा, निर्दोष हो जाइएगा। होली अवसर है अपनी चालाकियों को पीछे छोड़ने का।

दुर्भाग्य की बात है कि समय कुछ ऐसा है अभी कि हमें लगता है कि जो जितना चालाक है वो जीवन में उतना आगे बढ़ेगा। बात बिलकुल झूठी है। एक सीमा तक चालाकी जाती है, उसके बाद वो अपना काल स्वयं बन जाती है। अपनी ही ज्वाला में स्वयं जल जाती है और आखिरी बात, जिससे सबकुछ मिला हो, उसके ही खिलाफ़ खड़े मत हो जाना।

भगवान से वरदान पाये हिरण्यकश्यप ने और वो भगवान के ही खिलाफ़ खड़ा हो गया। और अहंकार की ये बड़ी पहचान होती है उसे जिससे सबकुछ मिला है, वो उसका ही विरोध करने लगता है। विरोध ही नहीं करने लगता, जिससे सबकुछ पाया है वो अपनेआप को उससे ही ज़्यादा बड़ा समझने लग जाता है।

हिरण्यकश्यप जिससे पा रहा है वरदान, कह रहा है, ‘मैं उसी की पूजा नहीं करूँगा और न सिर्फ़ मैं नहीं करूँगा बल्कि पूरे राज्य में निषेधाज्ञा है। कोई पाया न जाए ईश्वर की वन्दना करते हुए। मेरी ही सत्ता है।’ भूल गया बिलकुल कि उसको ये सत्ता मिली किससे। वैसा ही इंसान का जीवन है। बिलकुल भूल जाता है कि जीवन मिला किससे है। बिलकुल भूल जाता है कि ये सूरज या चाँद या हवा या पानी न हो तो उसका क्या होगा। बिलकुल भूल जाता है कि यह धरती उसने कमायी नहीं है। बिलकुल भूल जाता है कि जीवन की मूल चीज़ें उसे मुफ़्त ही मिली हुई हैं उपहार स्वरूप। कोई अनुग्रह, धन्यवाद का कोई भाव उसके मन में नहीं उठता परमात्मा के प्रति बल्कि वो परमात्मा के ही, सत्य के ही खिलाफ़ खड़ा हो जाता है, झूठ का पैरोकार बन जाता है। अपनी ज़िन्दगी ही झूठ पर आधारित कर देता है।

हिरण्यकश्यप। हिरण्यकश्यप का उदाहरण है। किसी-न-किसी अर्थ में हम सब हिरण्यकश्यप हैं, किसी-न-किसी अर्थ में हम सब के भीतर नन्हा प्रह्लाद भी बैठा हुआ है। होली का अवसर इसलिए है कि हम अपने भीतर के प्रह्लाद को जाग्रत करें। हिरण्यकश्यप और होलिका को ज़रा दूर करे स्वयं से। सब है हममें। हिरण्यकश्यप का अहंकार है, होलिका की चालाकी है और प्रह्लाद की निर्मलता, निर्दोषता भी है हममें। जिसने आपको सारे वरदान दिये, निश्चित रूप से वो उन वरदानों से बड़ा होगा।

जो ईश्वर आपको वरदान दे सकता है कि न आप दिन में मरेंगे, न रात में मरेंगे, न अन्दर मरेंगे, न बाहर मरेंगे वो ईश्वर उन वरदानों को काटने का उपाय भी जानता है। होंगे आप कितने भी बड़े, होंगे आप कितने भी सामर्थ्यशाली, चतुर, चालाक। जिसने आपको सबकुछ दिया है वो आपसे बड़ा ही है और आपसे ज़्यादा चालाक है। ईश्वर के बारे में कह सकते हो कि वो चालाकों से ज़्यादा चालाक है।

होगा तुम्हारे पास बहुत कुछ, उसके पास तुम्हारी सत्ता को काटने के बड़े उपाय हैं। उसने तुम्हें ये दे दिया वरदान कि न घर के अन्दर मरोगे, न बाहर मरोगे तो वो तुमको चौखट पर मार देगा। दे दिया उसने तुमको वरदान कि न दिन में मरोगे, न रात में मरोगे, तो वो तुमको गोधूलि बेला में मार देगा। परम सत्ता सब पर भरी पड़नी है, उसका विरोध मत करो। उसके विरुद्ध मत खड़े रहो। उसके सामने नमित रहो, प्रेम की भावना रखो, श्रद्धा रखो।

तो ये कुछ बातें हैं होली के पर्व के विषय में, अब जब हम सब होली खेलें तो बाहर के रंगों के साथ-साथ भीतर उसका भी सुमिरन करते रहें जिसका कोई रंग नहीं है।

मन के बहुतक रंग हैं, पल-पल बदले सोय, एक रंग में जो रहे, ऐसा बिरला कोय।

बाहर के रंग सुन्दर हैं, शुभ हैं। भीतर उसको भी याद रखिएगा जो सब रंगों से आगे का है। होली है ही इसलिए ताकि उसका स्मरण, सुमिरन हो सके।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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