विजयादशमी का डंडा
हर साल संभालता है
अनगिनत शरीरों को।
विजयादशमी का डंडा बनाये रखता है भीड़ का प्रवाह
बस एक ही दिशा में
वह पूरा ध्यान रखता है
छिटक न जाए एक भी श्रद्धालु
दाएँ या बाएँ।
विजयादशमी का डंडा
मैला हो चुका है
इतना हाथों के स्पर्श से
और कमज़ोर भी
आखिर बीस सालों से
हर बार ट्रक पर ढ़ोया जाता है
लाया जाता है और पटक दिया जाता है
हर बार
एक थोड़ी सी नई थोड़ी सी पुरानी भीड़ पर।
आश्चर्य,
भीड़ इतने कमज़ोर डंडे को भी तोड़ नहीं पाती
अरे इस साल तो
डंडा खुद ही
चरमरा गया है
पर कुछ वृद्ध मुखों
और कुछ नौजवान हाथों
का सहारा पा
वह दुबारा टँगा है अपनी जगह पर
बेचारा डंडा ।
जानता है वो,
एक बार वह टूटा नहीं,
कि पुजारी को दूसरा डंडा न मिलेगा,
पुराने जंगल नई दुनिया ने
बड़ी बेरहमी से साफ़ कर दिये हैं।
डंडा डटा हुआ है
तब भी
जब उसे अतीत में खो जाना चाहिए था
पर अब
अब डंडा बहुत जी चुका
किसी बेघर बूढ़े की चिता के साथ
वह जल जाना चाहता है
भीड़ का दबाव इधर कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है ।
~ प्रशान्त (१०.१०.९७, दशहरा)