प्रश्नकर्ता: :आर्टिकल (लेख) इंग्लिश में पढ़ रहे हैं और सवाल हिन्दी में रखना चाहूँगा 'क्रिएटिंग अ न्यू ह्यूमैनिटी थ्रू इंटेलिजेंस स्प्रिचुअलिटी' ( बौद्धिक आध्यात्मिकता के माध्यम से मानवता का निर्माण) पढ़ा था। और बहुत अच्छी वार्तालाप हुई; सभी सदस्यों के साथ। उसमें मैं पढ़ता हूँ कि कहाँ पर थोड़ी सी इंटेसिव डिस्कशन (गहन चर्चा) हुई, लेकिन क्लैरिटी (स्पष्टता) थोड़ी चाहिए और मार्गदर्शन चाहिए आपसे।
"द की टू द डिज़ोल्युशन ऑफ़ द सबकॉन्शियस लाइज़ इन द ऑब्ज़र्वेशन ऑफ़ द कॉन्शियस। विल यू रिमेंबर दिस? द वन हू ऑब्ज़र्व्स द कॉन्शियस माइंड, इज़ साइमल्टेनियस्ली , पैरलली , डिज़ाॅल्विंग द सब्कॉन्शियस। द कॉन्शियस गॉन, द सब्कॉन्शियस डिज़ाॅल्व्ड, व्हाट रिमेंस इज़ 'यू'। एंड दैट इज़ ‘अंडरस्टैंडिंग’।" - आचार्य प्रशांत (अवचेतन के विघटन का उपाय चेतना के अवलोकन में निहित है। जो चेतन मन का अवलोकन करता है, वह एक साथ, समानांतर रूप से, अवचेतन को विघटित कर रहा है। चेतन चला गया, अवचेतन विलीन हो गया, जो बचा है वह 'आप' है। और वह है 'बोध’।)
आचार्य जी अभी तक तो मेरी यही सोच थी कि चेतन मन का अवलोकन ज़रूरी है लेकिन वृत्तियाँ कभी नहीं मिट सकती। तो मेरा सवाल ये है कि चेतन मन का अवलोकन करने से वृत्तियाँ कैसे मिट जाती है?
आचार्य प्रशांत: और कैसे पता चलेगा कि मन के गहरे तहखानों में क्या बैठा हुआ है। जब आप कहते हैं, कॉन्शियस (चैतन्य )। जब आप कहते हैं कॉन्शियस माइंड (चैतन्य मन), तो उससे आशय क्या होता है। उससे आशय होता है मन का वो छोटा सा हिस्सा जो मन की ही पकड़ में आता है, माने इन्द्रियों की पकड़ में आता है।
जिसको आप जान गये , जो आपके ज्ञान के क्षेत्र में आ गया—मन का उतना सा हिस्सा कहलाता है, कॉन्शियस माइंड। वो माइंड नहीं कॉन्शियस है, आप मन के जिस हिस्से के बारे में कॉन्शियस हो गये उसको आप कहते हैं कॉन्शियस माइंड।
और मन का वो हिस्सा जिसके बारे में आप कॉन्शियस नहीं हो सकते क्योंकि वो छुपा हुआ है, तहखाना है; उसको आप कह देते हैं कभी सब्कॉन्शियस (अवचेतन), फिर और नीचे का है तो अनकाॅन्शियस माइंड (अचेतन मन)। है ना!
ज़ाहिर है मन में जो कुछ भी ऊपर-ऊपर आ रहा है, जो अब प्रकट हो जा रहा है, उपलब्ध हो जा रहा है कि इन्द्रियाँ उसको देख पाएँ , उसके बारे में कॉन्शियस हो पाएँ ; वो आ तो नीचे से ही रहा है न ऊपर भी जो आ रहा है, वो आ तो नीचे से ही रहा है न । और नीचे जो छुपा हुआ है, उसको जानने का कोई तरीका नहीं क्योंकि इन्द्रियाॅं जहाॅं तक पहुॅंच सकती थीं वो तो पहुॅंच गयीं उतना क्षेत्र तो हो ही गया, कॉन्शियस माइंड का।
सबकॉन्शियस नीचे है इसका मतलब है कि वहाॅं तक अब इन्द्रियों की और स्मृति की पहुॅंच अब नहीं है। वो अब अंधेरा तहखाना है जहाॅं ऑंखें अब कुछ नहीं देख पाती। ठीक! तो वहाॅं का तो तभी जाना जाएगा न, जब वहाॅं का माल, वहाॅं से उठने वाले पदार्थ, उठकर के थोड़े प्रकाश में आऍंगे जहाॅं ऑंखें उन्हें देख पाएँ ।
तो भीतर ही भीतर क्या चल रहा है, भीतर ही भीतर वृत्तियों की क्या दशा है। वो तो विचारों और कर्मों को ही देखकर पता चलता है। इसीलिए अपने ऊपर नज़र रखना बहुत ज़रूरी होता है। आप जितना अपने विचारों पर, अपने संकल्पों पर, अपनी भावनाओं पर नज़र रखेंगे, उतना आप समझते जाऍंगे कि भीतर कौनसी ग्रन्थियाॅं बैठी हुईं हैं।
तो ऐसे समझ लीजिए कि जैसे आपने परोक्ष तरीके से रोशनी डाल दी उन चीज़ों पर जो अंधेरे में बैठी हुई थी। कोई विधि लगाकर के आपने ऐसी जगह पर रोशनी डाल दी जहाँ पर रोशनी सीधी नहीं पहुँच सकती थी। सीधे-सीधे हम अनकॉन्शियस को नहीं देख पा रहे थे तो हमने अनकॉन्शियस को युक्ति लगा कर देख लिया। हमने उसको कॉन्शियस माइंड के माध्यम से देख लिया। बात समझ रहे हैं?
और जिस पर आपने रोशनी डाल दी, वो अब अंधेरा नहीं रहा न । जिसको आपने देख लिया वो मिट जाएगा। मिट इसलिए जाएगा क्योंकि दिख गया। दिख गया माने उस पर प्रकाश पड़ गया, तभी तो दिख गया।
अंधेरे पर प्रकाश पड़ गया तो अब अंधेरा कहाँ बचा। अंधेरे का दिख जाना माने अंधेरे का मिट जाना। जिसको आप जान गये , उसका मिटना शुरू हो गया। यूॅंही नहीं होता है कि हम किसी बात को सुनकर चौंक जाते हैं। यूॅंही नहीं होता है कि हमको सपने आते हैं।
पिछली शताब्दी का बहुत सारा मनोविज्ञान, साइकोएनालिसिस (मनोविश्लेषण) यही तो था; कि व्यक्ति के चाल-चलन को, उसके कर्मों को, विचारों को, भावनाओं को और उसके सपनों को देखकर के उसके मन को पढ़ डालो। क्योंकि यही उपलब्ध है मन को जानने के लिए , इनके अलावा नहीं जाना जा सकता।
देखिए कि चल कैसे रहें हैं। देखिए कि दिन भर की छोटी-छोटी घटनाओं से अपना नाता क्या है। देखिए कि फ़ोन कहाँ रख कर सोते हैं। देखिए कि महत्त्वपूर्ण सामग्री जो है घर की, उसको किसके हवाले करते हैं। देखिए कि कौन सी बातों पर अचानक उत्तेजित हो जाते हैं। देखिए कि किन शब्दों के आगे बिलकुल सहम जाते हैं।
ये सब बातें यूॅंही अनायास नहीं होती हैं। इनका हमारे व्यक्तित्व के केन्द्र से बड़ा गहरा ताल्लुक होता है। जिसने इन बातों को देखना, पकड़ना शुरू कर दिया, वो अपने व्यक्तित्व के अन्दर, गहरे बैठे हुए कचरे की सफ़ाई शुरू कर देता है। और, और कोई तरीका है नहीं। यही इन्डायरेक्ट तरीका लगाना पड़ता है। विचारों को देखो वृत्तियों को जान जाओ। वृत्तियों को जान गये , वृत्तियों को मिटा दिया।
फिर आपने कहा कि हमने तो सुना था कि वृत्तियों को कभी मिटाया नहीं जा सकता। नहीं, हमने ये नहीं कहा कि वृत्तियों को मिटाया नहीं जा सकता। हमने कहा जब तक शरीर है, तब तक जो मूल अहम् वृत्ति है, वो न्यूनतम रूप से मौजूद रहती है।
सिर्फ़ जो मूल अहंता है वो न्यूनतम रूप से मौजूद रहती है। इसका आशय ये नहीं है कि जो शाखाएँ और प्रशाखाएँ हैं वृत्तियों की, उनको भी नहीं काटा जा सकता; उनको सबको काटा जा सकता है। बस जड़ अन्त में ज़रा सी बची रहेगी जैसे बीज बचा रहे। जब तक देह बची हुई है उतना तो स्वीकार करना पड़ता है।
तो अध्यात्म की ये बड़ी कारगर और बड़ी आवश्यक विधि है कि साधक लगातार अपने ऊपर नज़र रखे। हम यूॅंही कोई कपड़ा नहीं चुनते हैं। हमें यूॅंही कोई फ़िल्म पसन्द नहीं आती है। हम यूॅंही किसी तकिया-कलाम का उपयोग नहीं करते हैं। खाने में भी कुछ चीज़ें हमे यूॅंही नहीं पसंद आती। इन सब बातों को ऐसे न कह दीजिए कि उसका तो स्वभाव ही ऐसा है या उसकी पसन्द कुछ इस तरीके की है। अहंकार को अहंकार के क्रियाकलापों द्वारा ही जाना जा सकता है।
व्यक्ति के केन्द्र में जो सत्ता बैठी हुई है; उसे, उस सत्ता के अभिव्यक्तियों के द्वारा ही जाना जा सकता है और यही सब अभिव्यक्तियॉं होती हैं कि डेमोक्रेट्स (अमेरिकी राजनीतिक दल) की तरफ़ चलें या रिपब्लिकंस (अमेरिकी राजनीतिक दल) की तरफ़। बात क्या है! कौनसा मूल सिद्धान्त है जो आपको आकर्षित कर रहा है।
और ये सब बातें आपस में अन्तर्सम्बन्धित होती हैं। कोई व्यक्ति वोटकिधर को डाल रहा है और कोई व्यक्ति अपने बच्चों के लिए किस स्कूल का चयन कर रहा है और कोई व्यक्ति नौकरी कौनसी कर रहा है और कोई व्यक्ति किताब पढ़ रहा है। ज़ाहिर सी बात है कि इन बातों में आपसी रिश्ता है।
ऊपर-ऊपर से इन बातों में आपसी रिश्ता है और अन्दर-अन्दर इन सब बातों का एक केन्द्रीय तत्त्व से रिश्ता है। इन सब बातों पर नज़र डालिए। गहराई से अपने आप से पूछा करिए, ये जो मैं कर रहा हूॅं, कहाॅं से कर रहा हूॅं। कौन कर रहा है। जो कर रहा है वो चाहता क्या है।
जैसे-जैसे ये करने लगेंगे, अपने अन्दर के बहुत सारे राज़ उघड़ने लगेंगे। अपने उन चेहरों का पता लगेगा जो अभी तक छुपे हुए थे। आदमी सबसे ज़्यादा किससे अनभिज्ञ है? अपनेआप से ही तो। अपनी तलाश होने लगेगी। अपनी पहचान होने लगेगी। यही अध्यात्म है। और जान ही गये अगर अपनेआप को, तो वही आत्मा है।