विचारों के चलने को कैसे रोके?

Acharya Prashant

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विचारों के चलने को कैसे रोके?

आचार्य प्रशांत: कुछ पाने का विचार होगा, कुछ खोने का विचार होगा, और तो कोई विचार होता नहीं। विचार बड़ी नीरस चीज़ होती है, उबाऊ। न जाने तुम कैसे इस उबाऊ चीज़ के साथ इतना समय गुज़ार लेते हो।

विचार ने कभी कुछ और कहा है तुमसे? एक ही बात दोहराता रहता है। क्या? खोना-पाना, खोना-पाना, खोना-पाना।

जो भी विचार चलते रहते हैं, उनको गौर से देखना। उनमें कुछ और लिखा है? या तो कुछ खोने की बात होगी, या कुछ पाने की बात होगी। और तुम डर और लालच के मारे उनसे चिपके रहते हो। अरे, क्या खो दोगे, क्या पा लोगे।

तुम्हारे पास ऐसी है कौनसी चीज़ कि उसके खो जाने के खयाल से थर्रा रहे हो। है भई! तुम्हारे पास अगर इतनी कोई कीमती चीज़ होती ही, तो तुम्हारी ज़िन्दगी ऐसी होती?

विरोधाभास को तो देखो। एक तरफ़ तो कहते हो ज़िन्दगी सुनसान है, उबाऊ है, और दूसरी तरफ़ कहते हो — डर बहुत लगता है।

अगर ज़िन्दगी नीरस और वीरान है, तो इसका मतलब ज़िन्दगी में कुछ?

श्रोतागण: नहीं है।

आचार्य प्रशांत: है नहीं सुन्दर और कीमती। ठीक? और ये तुम्हारा लगातार कहना कि ज़िन्दगी बेकार है, बंजर, सूखी हुई है। मतलब ज़िन्दगी में कुछ है ही नहीं मूल्यवान। साथ-ही-साथ लेकिन तुम ये भी कहते हो कि हमें डर बहुत लगता है। जब ज़िन्दगी में कुछ मूल्यवान है ही नहीं, तो डर किस बात से रहे हो?

तुम खोओगे भी तो क्या खोओगे? नीरसता और ऊब ही तो खोओगे, और अच्छी बात है, वो खो ही जाए। तुम बचाना क्या चाहते हो।

प्र: एक डर और रहता है आचार्य जी, नाम और पहचान का?

आचार्य प्रशांत: उससे तुम्हें क्या मिल रहा है कि उसके खो जाने से परेशान हो तुम?

प्र: उससे जैसे अब हम लोग कुछ काम कर रहे हैं, तो शायद हमारे उसी नाम और पहचान से हमारा काम चल रहा है।

आचार्य प्रशांत: उस काम से तुम्हें मिल क्या रहा है?

प्र: जो बेसिक नीड्स (बुनियादी ज़रूरतें) हैं हमारी।

आचार्य प्रशांत: वो कितनी ज़्यादा हैं?

प्र: अब जैसे कि अगर खाना।

आचार्य प्रशांत: कितना खाते हो?

प्र: जीने के लिए जितनी ज़रूरत हो।

आचार्य प्रशांत: उतना तुम्हें मिलेगा नहीं?

प्र: यही तो एक सबसे बड़ा सवाल है कि मिलेगा कि नहीं मिलेगा।

आचार्य प्रशांत: यहाँ भेड़ घूम रही है, इसको भी मिल रहा है। अभी यहाँ भेड़ घूम रही थी, देखा था?

प्र: जी।

आचार्य प्रशांत: ये चिड़िया चहचहा रही है, देखी? जिनको तुम जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ कहते हो, वो तो पशुओं और पक्षियों की भी पूरी हो जाती हैं बेटा। तुम्हारी ही नहीं होंगी क्या?

प्र: वो तो हो जाएँगी।

आचार्य प्रशांत: हाँ, तो?

प्र: और जानवर जंगल में रहते हैं।

आचार्य प्रशांत: अरे! मूलभूत आवश्यकता की बात हो रही है। (श्रोतागण हँसते हैं)

तुम्हारी कौनसी मूलभूत आवश्यकता है जो इतनी बड़ी है कि उसकी खातिर ज़िन्दगी बर्बाद कर रहे हो?

प्र: एक तो ये होता है कि जो मूलभूत आवश्यकताएँ हैं; जैसे, पेट भरने के लिए जितना भी भोजन आवश्यक है, या तन ढकने के लिए जितने भी कपड़े की आवश्यकता है; या धूप से बचने के लिए या बारिश से बचने के लिए जितने भी छत की आवश्यकता है, उतना भी करने के लिए हमें कुछ तो करना ही पड़ेगा।

आचार्य प्रशांत: तो करो न कुछ। कौन कह रहा है कुछ मत करो।

प्र: उसके साथ-साथ हम ये भी फिर वही है कि हमको अगर ये भी चीज़ें लेकर चलनी है, तो फिर हमें दो तरफ़ा रहना पड़ेगा।

आचार्य प्रशांत: दो तरफ़ा क्यों रहना पड़ेगा? तुमसे किसने कह दिया कि सार्थक काम करके तुम तन ढकने का भी इन्तज़ाम नहीं कर सकते।

तुम कौनसी तस्वीर खींच रहे हो? तुम कह रहे हो, ‘अगर रोटी भी कमानी है, तो घटिया काम ही करना पड़ेगा।’ ये तो तुमने बड़ा तीर चला दिया। तुम अगर ये कहते कि महल बनवाने के लिए बेईमानी ज़रूरी है, तो मैं समझता भी।

पर तुम कह रहे हो कि दो जून का रोटी-पानी चलाने के लिए और सिर पर एक छत रखने के लिए भी घटिया काम करना, मन को मारना और बेईमानी करना ज़रूरी है। ये बात गलत है बिलकुल झूठ है।

प्र : शायद हमें उन सारी ज़रूरतों को उस तल पर लेकर आना पड़ेगा जिसमें हमें सिर्फ़ और सिर्फ़ वहीं चीज़ें चाहिए जो हमारी बेसिक नीड्स हैं।

आचार्य प्रशांत: बेटा! अभी भी तुम्हें कौनसा बहुत ज़्यादा मिला जा रहा है? कौनसे तुम महल, दो महलों के स्वामी हो? तुम्हें दिख नहीं रहा कि तुम्हारा शोषण पूरा हो रहा है, और बदले में तुम्हें मिल रहा है बिलकुल एक न्यूनतम जीवन। कौन तुम पर हीरे-मोती लुटाए दे रहा है?

एक बहुत साधारण मध्यमवर्गीय ज़िन्दगी ही तो जी रहे हो। इतनी सी प्राप्ति के लिए तुम्हें ज़िन्दगी बेच देने की ज़रूरत क्या है? अगर तुम्हें इतना ही पाना है जितना तुम पा रहे हो, तो उतना तो तुम कोई सार्थक काम करके भी पा सकते हो। बस उस दिशा में ज़रा सोचो, और ज़रा प्रयत्न तो करो।

तुम ये कहते कि तुम्हें बादशाहत कोई मिली हुई है, और वो बादशाहत है तभी कायम रहेगी जब तुम तमाम तरह के दुराचार करो, तो मैं समझता। कि भाई, बहुत बड़ी चीज़ मिली हुई है बादशाहत, और उसकी खातिर बन्दा ईमान बेच रहा है। पर अभी तुम्हें मिला क्या हुआ है जिसकी खातिर तुम बिके जा रहे हो?

तुम कह रहे थे, ‘हम एक सामाजिक व्यवस्था में रहते हैं।’ उससे तुम्हें मिल क्या रहा है? जिस भी सामाजिक व्यवस्था में रह रहे हो, तुम्हें उसको कायम रखने में रुचि क्या है? उससे तुम्हें क्या मिल रहा है, ये तो पूछो। व्यवस्था चल रही होगी, तुम्हें उससे क्या लाभ? या है बहुत बड़ा लाभ?

प्र: हमने गलत मान रखा है जो भी हमारे पास होगी, उसको अपनी बादशाहत मान रखा है।

आचार्य प्रशांत: तुमने बादशाहत भी अगर मान रखा होता अपने फ़टे-चीथड़ों को, तो भी ठीक रहता। तुम अगर मान ही रहे होते कि तुम बादशाह हो, तो तुम्हें एक तृप्ति रहती, एक सन्तुष्टि रहती। पर ये भी तुम झूठ बोल रहे हो कि तुमने अपनी रूखी-सूखी और अपने फ़टे-चीथड़े को बादशाहत मान रखा है। बिलकुल नहीं मान रखा है। तुममें तो घोर अतृप्ति है। है कि नहीं?

तुम बिलकुल भी ये नहीं मानते हो कि तुम बादशाह हो। मानते हो क्या? तुम तो जहाँ किसी को आगे देखते हो, तुममें हीन भावना आ जाती है। कहाँ है बादशाहत?

तो तुम अच्छी तरह से जानते हो कि इस व्यवस्था का अंग बनकर तुम्हें कुछ मिल नहीं रहा है। लेकिन फिर भी सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं। अमिताभ बच्चन कुली बना, तो उसको करोड़ों मिले। तुम्हें क्या मिल रहा है कुली बनकर के?

प्र: आचार्य जी, आत्मा क्या होती है?

आचार्य प्रशांत: जिस चीज़ को तुम कहते हो कि ‘है’, उसको जाँच लो कि उसके होने से तुम्हारा क्या आशय है। यही आत्मा है।

‘आत्मा’ तो पता नहीं अजीब सा शब्द है तुम्हारे लिए। कुछ विचित्र ही उसकी परिभाषा कर दी लोगों ने। इससे बेहतर ये है न कि जिन बातों को कहते हो कि ‘है’, और बड़े विश्वास के साथ कहते हो कि ‘हैं’ ये सब चीजें, उनकी जाँच-पड़ताल करलो।

आत्मा के बारे में तो जिन्होंने कहा भी, उन्होंने कह दिया कि अकथ्य है, अचिन्त्य है। न उसके बारे में सोचा जा सकता है, न उसके बारे में कुछ? कहा जा सकता है। तो क्या चर्चा करनी है।

इससे अच्छा अपने कथनों के प्रति जिज्ञासा करलो। जिसके बारे में कुछ कहा ही नहीं जा सकता, उसके बारे में कुछ कहने से अच्छा जो दिन-रात कहते, करते, सोचते रहते हो, उसकी जाँच-पड़ताल करलो।

ये क्या कर रहा हूँ? कहाँ जा रहा हूँ? क्या सोच रहा हूँ? सोचने वाला कौन है?

प्र: तत्वबोध में कल कई तत्वों के बारे में बात हुई थी। करीब सत्रह तत्व; कहीं सूक्ष्म शरीर और अन्य योग, प्राण योग और सब। तो वो इसमें हमारी मदद करते हैं ये जानने में कि मैं इससे प्रत्यक्ष हूँ। मेरा होना इससे प्रत्यक्ष है। मैं जैसे-जैसे इनको समझता जा रहा हूँ, जो भी मैं समझ रहा हूँ, वो मैं नहीं हूँ। जो उसके कोष हैं, उनको भी देख पा रहा हूँ, समझ पा रहा हूँ।

आचार्य प्रशांत: ये वो सब हैं जिनसे हम रिश्ता जोड़ लेते हैं। कभी हम देह से रिश्ता जोड़ लेते हैं, कभी हम विचारों से रिश्ता जोड़ लेते हैं, और कभी हम वृत्ति से ही रिश्ता जोड़ लेते हैं।‌

तो किससे-किससे हमने रिश्ता जोड़ा है, उनके तीन नाम बताये गए हैं — सूक्ष्म शरीर, स्थूल और कारण। और जब ये देखा कि तीनों ही हमारे लिए उपयोगी नहीं होने वाले, तब फिर बात हुई आत्मा की।

प्र: इससे हटकर है ये?

आचार्य प्रशांत: हाँ। तो ये तीनों ही हमारे तथ्य हैं। कौन तीनों?

प्र: सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर और।

आचार्य प्रशांत: तन, मन और वृत्ति। ये तीनों ही हमारे तथ्य हैं। हम इन्हीं में जी रहे हैं। हम इन्हीं में जी रहे हैं और दुख पा रहे हैं।‌

शुरुआत हुई कि दुख है। फिर छानबीन हुई कि हम जी कैसे रहे हैं, तो पता चला कि हम इन तीनों में जीते हैं। तो कहा गया कि अगर इन तीनों में जीने से दुख है?

प्र: तो इन तीनों में जीने का फ़ायदा नहीं।

आचार्य प्रशांत: तो इन तीनों में जीने से फ़ायदा कुछ नहीं, तो फिर चौथे की बात हुई।

जिन भी चीज़ों से तुम जुड़े हुए हो, उनसे जुड़ने में देखो कि लाभ क्या पा रहे हो। और जब देखोगे कि लाभ नहीं है, तो तादात्म्य छूटने लगता है।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=4SW3DzYW2pw

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