प्रश्नकर्ता: कहीं-न-कहीं आज के समय में आम आदमी के मन में ये बात बहुत गहरे बैठ गयी है कि शायद बिना आसन जमाए, बिना कुछ ऐसा करे कि कुछ मन्त्र का जाप करे, कुछ भी करे बात नहीं बनेगी तो बहुत बार होता है कि लोग बोलते है कि आचार्य जी बात तो अच्छी कर रहे हैं पर सिर्फ़ बात से क्या होगा।
आचार्य प्रशांत: नहीं, सिर्फ़ बात से कुछ नहीं होगा। तुम्हें बता दिया गया एक बार कि तुम्हारा नाम क्या है, अब ये बात तुम्हारे भीतर बैठ जानी चाहिए न, या कुछ करके दिखाएँ तुमको? ये कैसी-सी बात है कि सिर्फ़ बात से क्या होगा? ये जो तुमने पूरी अपनी शिक्षा ली है, उस शिक्षा में तुम्हें बातें ही तो बतायी गयी थीं, न लेते शिक्षा, कि सिर्फ़ बात से क्या होगा। इतिहास की पूरी पढ़ाई तुमने करी होगी, उसमें कोई प्रयोग तो होते नहीं, कोई नुमाइशें भी नहीं होती, बातें ही होती हैं, कह दो, ‘इन बातों से क्या होगा?’ फिर तो साहित्य भी नहीं रचा जाएगा, उसमें तो बातें ही बातें हैं, बातों से क्या होगा?
बात का मतलब क्या होता है? बात की परिभाषा क्या है? बात का मतलब होता है कि तुम्हारे मन को कुछ आपूर्ति दी जा रही है।
तुम्हारे मन में कोई सामग्री पहुँचायी जा रही है, उसको बोलते है बात। वो जो चीज़ है जो मन में पहुँचाई जा रही है, वो मन को साफ़ भी कर सकती है, मन को गन्दा भी कर सकती है।
अगर वो मन को साफ़ कर रही है तो काम हो गया न, बात ने अपना काम कर दिया। ये क्या मूर्खता है कि बातों से क्या होगा। बातों से नहीं तो किससे होगा? छलांग मारनी है?
अभी ये ऐसा-सा ही है कि जैसे हम लोग बात कर रहे हैं, तुम कहो 'बातों से क्या होगा?' तुम यहाँ बैठे हो, बातों से तुम्हें कुछ नहीं हो रहा है क्या? या क्या चाहते हो कि मैं भी यहाँ कूदने लग जाऊँ और तुम भी सोफ़े पर कूदने लग जाओ। तुम्हारी चेतना है न, जो बेचैन है। और चेतना चलती है विचार पर, ज्ञान पर। चेतना के पास धारणाएँ होती हैं, अपने सिद्धान्त होते हैं।
चेतना के पास उदाहरण के लिए, ये मोबाइल फ़ोन या ये मेज़ नहीं होगी। चेतना के पास ये विचार है कि मेरे पास मोबाइल फ़ोन है या मेरे पास मेज़ है तो चेतना में तो बातें ही होती हैं न। ये मेज़ वस्तु हो सकती है पर चेतना के पास ये मेज़ नहीं है। चेतना के पास एक बात है, क्या बात है? ‘ये मेज़ मेरी है।’ तो हम बातों में ही जीते हैं भाई। कौन कहता है कि बातों से कुछ नहीं होता? तुम्हारी चेतना की पूरी सामग्री एनटायर कंटेंट ऑफ़ योर कॉन्शसनेस विच इज़ कॉन्शसनेस इट्सेल्फ़ , वो बातें ही हैं सारी, हम बातों में ही तो जीते हैं।
अच्छा एक बात बताओ, बात ही पूछ रहा हूँ। तुम्हारे अभी सिर पर एक हथौड़ा मारा जाए। और तुम सारी पुरानी बातें भूल जाओ। तो मैं कहूँगा, ‘हुआ क्या? बातें ही तो भूल गये हो, बातों से क्या हो रहा था, बातें ही तो भूल गये हो। उसके बाद तुम्हारी पत्नी तुम्हारे सामने खड़ी होगी, तुम भूल गये उसको। वो आकर बोले कि देखिए ये मुझे भूल गये। मैं कहूँगा, ‘तुम्हें नहीं भूल गये, वो तो एक बात भूल गये हैं।’
तुम बातों में ही जीते हो भाई, तुम्हारी पत्नी भी एक बात है बस। और तुम्हारे दिमाग से बात अगर निकल गयी तो तुम ‘तुम’ नहीं रहे फिर, तुम कुछ और हो गये? स्वयं तुम्हारा अस्तित्व भी बस एक बात ही तो है न। 'मैं हूँ' ये क्या है? एक बात ही तो है। और जब तुम गहरी नींद में हो तो 'मैं हूँ' ये बात भी भूल जाते हो और अगर तुम उसी गहरी नींद में ज़रा लम्बे हो जाओ, कोमा में ही चले जाओ तो तुम्हारा अस्तित्व ही स्थगित हो जाता है।
तुम्हारा होना ही जैसे रुक गया। अब तुम हो ही नहीं। तो बात है तो तुम हो, बात नहीं है तो तुम हो ही नहीं, तो कौन कह रहा है कि बातों से क्या होगा? बातें ही तो हम हैं, मेरी हस्ती ही एक बात भर है, और क्या है? मेरा पूरा संसार ही एक बात भर है और क्या है? तो बातों से ही होना है।
वो बात लेकिन तुम समझो वो बात जब तुम समझना नहीं चाहते तो तुम फिर इधर-उधर के आडम्बर करते हो, ये कर लूँगा, वो कर लूँगा। फ़लाने कुंड में कॉन्सन्ट्रेटेड वाटर है, दो हज़ार रुपये का पचास ग्राम मिलता है वो खरीदूँगा। तुम ये सब करते हो, क्योंकि कुल मिलाकर के जो बात है, वो तुम्हें समझनी नहीं है। आख़िरी चीज़ बात ही है। जो लोग कहते हैं न कि शब्दों से क्या होगा? उनको समझाओ कि आख़िरी चीज़ शब्द ही है, क्योंकि चेतना चलती है, शब्दों और विचारों पर और विचार माने बात, विचार माने शब्द। विचार ही तो ख़राब है न? तो बात ही है असली चीज़। और ये खूब चलता है, कहते है, 'बात बस करते हैं, अनुभव तो कराते नहीं।' पगले बात का अनुभव नहीं हो रहा है क्या? बात का अनुभव नहीं हो रहा है क्या?
कोई तुमसे चिल्लाकर बोले, ‘अरे साँप!’ तो पसीने क्यों छूट जाते हैं? हवाईयाँ क्यों तैर जाती हैं? किस चीज़ का अनुभव हुआ? साँप का अनुभव हुआ है। साँप ने तो डँसा नहीं तुम्हें, साँप तो बहुत पीछे है। तो ये बात सुनकर के तुम्हारा पूरा चेहरा क्यों बदल गया? क्योंकि बात ही सबकुछ है। और समझो, अगर बात नहीं है तो साँप से भी तुम्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। तुम सो रहे हो, साँप तुम्हारे ऊपर से लोटकर चला गया। बात नहीं हुई न? विचार नहीं आया साँप का, कोई फ़र्क पड़ा तुमको? तुम जगे हुए हो, तो तुम्हें विचार आ सकता है।
बात माने विचार, बात माने शब्द, शब्द बन जाता है विचार। जब तुम जगे हो तब साँप तुमसे बहुत दूर है मान लो बहुत दूर है अभी, बहुत दूर है कोई चिल्ला दे, ‘साँप,’ तुम्हारा चेहरा पड़ जाता है लाल, ठीक? जबकि साँप अभी दूर है। बस बात मिली है तुम्हें, साँप नहीं मिला। साँप तो दूर है लेकिन इस बात भर ने देखो तुम्हें क्या कर डाला। इससे क्या सिद्ध होता है? कि तुम बात में ही जीते हो।
हर व्यक्ति बात में ही जीता है, क्योंकि चेतना माने विचार। ठीक है और अगर तुम सो रहे हो और साँप बिलकुल आकर तुम पर लौटकर चला गया, तब भी तुम्हें कुछ नहीं होगा, क्योंकि बात नहीं हुई, विचार ही नहीं आया तो विचारों को ही तो शुद्ध करना है।
विचार ही तो असली समस्या है। जब तुम कहते हो, 'चिन्ता में रहता हूँ, परेशान हूँ' तो इससे तुम्हारा क्या तात्पर्य है? तुम्हारे घुटने में दर्द है? तुम्हारी नाक में दर्द है? तुम्हारे कान बह रहा है? जब तुम कहते हो कि मैं आया हूँ और मैं परेशान हूँ। ‘परेशान हूँ।’ इस बात से क्या आशय है तुम्हारा? कि मन में उल्टे-पुल्टे विचार चलते रहते हैं, यही तो तुम्हारा आशय है न।
तो मूल समस्या क्या है? विचार। विचार माने मन में ग़लत बात चल रही है अध्यात्म का काम है उस ग़लत बात की पूरी जाँच-पड़ताल करके दिखा देना तुमको कि वो बात ग़लत ही है, तुम्हारे लिए ठीक नहीं है ताकि तुम ग़लत बात, सही बात, हर बात से मुक्त हो जाओ। तुम्हारे मन में भरी है ग़लत बात, अध्यात्म तुम्हें देता है सही बात। वो जो सही बात है वो ऐसी होती है कि ग़लत बात को तो काटती ही है और फिर स्वयं भी विलुप्त हो जाती है। ये अध्यात्म का काम है।
तो आइंदा से कोई ऐसी नासमझी की बात न करें कि बातों से क्या होगा? अनुभव कराओ, अनुभव। वो अनुभव भी एक बात ही है और कुछ नहीं है। अन्ततः जब बात ही होनी है तो सीधे-सीधे बात कर लो न। ये अनुभव-अनुभव क्या कर रहे हो बेकार की बात? और इतना ही नहीं जब तुम बोलते हो कि अनुभव कराओ तो ये भी समझो अच्छे से कि अनुभव जिसको होता है, वो स्वयं एक बात है।
(हँसते हुए) ये जो अनुभोक्ता हैं न, जो अनुभव करता है वो कौन है? बताओ कहाँ है तुम्हारे शरीर में वो जो अनुभव करता है? वो भी चेतना का एक बिन्दु ही है, जो अनुभव करता है वो भी एक बात मात्र है। तो क्यों न उसी की बात करें? वो जो सब बातों में इतनी रुचि लेता है, वो जो अनुभव की बात में इतनी रुचि लेता है, मैं क्यों न उसी की बात कर लूँ? तो ये मूर्खतापूर्ण है कहना कि बातों से क्या होगा। सामने बैठिए, अनुभव कराइए, ये कराइए, वो कराइए। क्या सर्कस चल रहा है क्या, अनुभव कराइए। जमूरा बनना है? कुछ अनुभव हो, ये हो, वो हो।
भूलो नहीं कि मूल समस्या क्या है। ये बिलकुल मत भूला करो, मूल समस्या है चेतना का उपद्रव। और उपद्रव होता है हमेशा विचारों में, उन्हीं विचारों में तब्दीली लानी है, अन्ततः तुमको निर्विचार की तरफ़ ले जाना है। ये अध्यात्म का लक्ष्य है। आ रही है सारी बात समझ में?
श्रोता: बातों से और ज्ञान से जी चुराने के कारण ही फिर ग्रन्थों को नहीं पढ़ते हैं।
आचार्य: इसलिए नहीं पढ़ते हैं। ग्रन्थों को पढ़ते नहीं हैं इसलिए भी क्योंकि ग्रन्थों को पढ़ लिया तो वो अध्यात्म नहीं चला पाओगे जो तुम चला रहे हो। वर्तमान समय में जो अध्यात्म की दुर्दशा है, उसका एक बड़ा कारण ये भी है कि ग्रन्थों का बड़ा अपमान कर दिया गया है। आम जनता के द्वारा तो किया ही गया है, तथाकथित गुरुओं के द्वारा धर्म ग्रन्थों का बड़ा अपमान चल रहा है।
अभी कुछ ही दिन पहले किसी ने टिप्पणी लिखकर के भेजी। उन्होंने कोई प्रश्न किया था, उस प्रश्न के उत्तर में मैंने श्रीकृष्ण के निष्काम कर्मयोग का उदाहरण देते हुए समझाया तो वो बोले, ‘आप श्रीकृष्ण की क्यों बात कर रहे हैं? हम श्रीकृष्ण से ऊपर क्यों नहीं हो सकते? श्रीकृष्ण ने अपनी बात बोली, हम श्रीकृष्ण से बेहतर बात क्यों नहीं बोल सकते?’
ये जो अपमान है न कि अरे, गीता पढ़ने की ज़रूरत क्या है; अरे, वेद पढ़ने की ज़रूरत क्या है! इसने अध्यात्म को कहीं का नहीं छोड़ा है। समझ लो कि बड़ी भयावह स्थिति है जब धर्मगुरु ये कह रहा हो कि धर्मग्रन्थ पढ़ने की ज़रूरत नहीं है और वो भी बिलकुल छाती चौड़ी करके कह रहा हो कि न मैंने पढ़े हैं, न भक्तजनों तुम्हें पढ़ने की ज़रूरत है।
धर्म के केन्द्र में तो ग्रन्थ ही होते हैं। तुमने ग्रन्थ नहीं पढ़े हैं तो तुम गुरु कहाँ से हो गये? और उन ग्रन्थों में ऐसी क्या ग़लत और बुरी बात लिखी है कि तुम दुनिया भर की फ़िज़ूल की चीज़ें तो पढ़ सकते हो पर धर्मग्रन्थ पढ़ने से तुम्हें बहुत ऐतराज़ है? ऐतराज़ इसीलिए है क्योंकि अगर तुमने या तुम्हारे भक्तों और अनुयायियों ने वो ग्रन्थ पढ़ लिये, तो कम-से-कम तुम्हारे भक्त लोग तुम्हारी बात तो दोबारा सुनेंगे नहीं। तुम्हारी एक-एक बात श्रीकृष्ण के ख़िलाफ़ है इसलिए तुम चाहते ही नहीं कि कोई गीता पढ़ें।
जब गुरु लोग जो बोल रहे हो वो बात पूरे तरीक़े से श्रीकृष्ण की सीख के ख़िलाफ़ हो, तो फिर तो गुरु जी की मजबूरी है न कि वो बोले कि गीता मत पढ़ना। और गीता जिसने पढ़ ली वो तत्काल जान जाएगा कि ये गुरु तो बड़ा मक्कार है। तो इसीलिए फिर वो तुम्हें गीता पढ़ने ही नहीं देंगे।
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