वेदांत लोकप्रिय क्यों नहीं बन पाया?

Acharya Prashant

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वेदांत लोकप्रिय क्यों नहीं बन पाया?
वेदांत समझने के लिए ज़ोर लगाना पड़ता है, बुद्धि लगानी पड़ती है, जबकि आम आदमी को एक बिलीफ़ सिस्टम ज़्यादा आसान लगता है। फिर वेदांत को समझाने वाले लोग भी बहुत ज़्यादा नहीं हुए हैं। धर्म, जिसमें बढ़िया कुछ मनोरंजन और स्वार्थ-पूर्ति होती हो, लोगों को आकर्षक लगता है — वहाँ मूल्य नहीं चुकाना होता, जबकि वेदांत, अगर जो समझेगा, तो मिटेगा — और समझने वाला मिटने के लिए तैयार नहीं होता। इसलिए वेदांत इतना नहीं प्रचलित हो पाया। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, माना जाता है कि 5000 साल पहले वेदांत आए थे इंडिया में।

आचार्य प्रशांत: वेदांत 2500 साल।

प्रश्नकर्ता: तो तब से जब वो शुरू हुआ, वो कॉमनर्स में इतना प्रचलित नहीं हो पाया। और जितना दिन जाता रहा, ये दिन-दिन करप्ट होता रहा — ये वेदांत जैसा सेल्फ नॉलेज की बातें। पर दूसरी तरफ़, हम देखते हैं कि अब्राहमिक रिलीजन इतना सक्सेसफुल है और लोग अभी भी, आज के दिन में भी ऐसे इसको माने जाते हैं। और हम, जिन-जिन लोगों को हिंदू बोले जाते हैं — वो लोग आइदर फूल-चंदन से पूजा करते हैं, और बाक़ी लोग ख़ुद को एकदम एथिस्ट कह देते हैं।

तो हमें वेदांत का भी पता नहीं। अगर वेदांत इतना अच्छा एक तरीक़ा है सेल्फ नॉलेज के लिए, तो ये दिन के दिन इतना करप्टेड क्यों होता गया? और ये इतना प्रचलित भी क्यों नहीं हो पाया? और दूसरी तरफ़ ये अब्राहमिक रिलीजन इतना सक्सेसफुल भी कैसे होता रहा? मतलब वेयर डिड वी लूज़ वेदांत?

आचार्य प्रशांत: वेदांत करप्ट नहीं हुआ, इंसान करप्ट हुआ। वेदांत तो अपनी जगह रखा ही हुआ है। वेदांत को किसने करप्ट किया? वो तो उपनिषद् अभी भी वैसे ही रखे हैं, गीता रखी हुई है। हाँ, इतना ज़रूर है कि कुछ श्लोक शायद ऊपर-नीचे कर दिए गए होंगे।

कई बार उपनिषदों के कई श्लोकों को देखकर — यहाँ तक कि भगवद्गीता के भी कुछ श्लोकों को देखकर के मुझे लगता है कि यह श्लोक जो है, यह बाद में किसी ने इसमें बाहर से डाल दिया है। तो थोड़ा बहुत वैसा हुआ होगा। 1-2-4% कुछ, वरना वो नहीं करप्ट हो गया है। इंसान करप्ट हो गया और क्यों करप्ट हो गया? क्योंकि उसकी वृत्ति है — ऐसी चीज़ की ओर जाना जो सरल लगती हो, और ऐसी चीज़ से कतराना जो उस पर भारी पड़ेगी — उसके इनर एग्ज़िस्टेंस, अहंकार के आंतरिक अस्तित्व को ही ख़तरा बन जाएगी।

आप किसी चीज़ में बहुत गहरा यक़ीन करते हो। ठीक है? बहुत ज़्यादा। और जिस चीज़ में आप यक़ीन करते हो, उसमें आपके स्टेक्स हो जाते हैं। अब आप क्या किसी ऐसे आदमी से मिलना पसंद करोगे, जो आपका यक़ीन तोड़ रहा हो? आपका एक बेस्ट फ्रेंड है। ठीक है? और उस बेस्ट फ्रेंड के साथ आपके कई तरह के अब अटैचमेंट हो गए हैं, स्टेक्स हो गए हैं। ठीक है? अब मैं आपके पास आऊँ। मैं आपको कुछ बातें बताना चाहूँगा — आपके इस बेस्ट फ्रेंड के बारे में। आप मुझे सुनना पसंद नहीं करोगे। क्योंकि अगर आप मुझे सुनते हो, तो यह जो आपका रिश्ता है और उस रिश्ते से जो आपको सुविधाएँ आ रही हैं, वह सब टूट जाएँगी।

तो इसलिए वेदांत बहुत प्रचलित नहीं हो पाया। क्योंकि पहली बात, उसको समझने के लिए दिमाग़ लगाना पड़ता है, ज़ोर लगाना पड़ता है, बुद्धि लगानी पड़ती है। दूसरी बात, क्योंकि वो कठिन है इसीलिए उसे समझाने वाले लोग भी बहुत ज़्यादा नहीं हुए हैं। और तीसरी — जो सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बात है — वो यह है कि समझ में तो आ जाए, इतना भी कोई कठिन नहीं है, आ सकता है समझ में। ख़ासतौर पर अगर समझाने वाला अच्छा हो, तो समझ में आ सकता है। लेकिन जो समझने वाला है, वह अगर समझेगा — तो मिटेगा। और समझने वाला मिटने के लिए तैयार नहीं होता। इसलिए वेदांत इतना नहीं प्रचलित हो पाया।

उसकी तुलना में, आप अब्राहमिक धर्मों की भी बात क्यों कर रहे हो — भारत को ही ले लो, जहाँ पर वेदांत की अपेक्षा और न जाने कितनी चीज़ें प्रचलित हो गई हैं। जो चीज़ें बुद्धि पर बहुत ज़ोर नहीं डालतीं, जहाँ आपको बहुत एक साधारण सा कांसेप्ट दे दिया जाता है, एक बिलीफ़ सिस्टम दे दिया जाता है, वो आम आदमी को बहुत आसान लगता है। बोलता है — हाँ, बस ठीक है। बहुत लंबी-चौड़ी बात मत करो। बस ये बता दो कि क्या मानना है, क्या नहीं मानना है?

"अच्छा, ऐसे हुआ था? अच्छा-अच्छा, ऐसे पृथ्वी बनाई गई? ऐसा हुआ फिर ये हुआ, फिर ये हो रहा है, फिर ठीक है। ठीक है, ठीक है। ये धर्म बढ़िया है, इसमें कोई तकलीफ़ नहीं हो रही है।" और धर्म ऐसा बना दो जिसमें बढ़िया कुछ मनोरंजन भी होता हो, और स्वार्थ पूर्ति होती हो, और जो अहंकार को तोड़ता भी न हो — तो ऐसे धर्म को बड़ा आकर्षक मानते हैं लोग। वो आकर्षक है भी — धार्मिक भी कहला जाओगे और अहंकार भी नहीं टूटेगा।

हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा। धार्मिक भी कहला गए, अहंकार भी नहीं टूटा। तो उस तरह की जो धाराएँ होती हैं, वो फिर खूब सफल हो जाती हैं। उनके जो अनुयायी होते हैं, खूब बढ़ जाते हैं। चाहे वह भारत में वेदांत के अलावा जो बाक़ी धाराएँ हैं वो हों, और चाहे वो अब्राहमिक धर्म हो।

दुनिया का तो दस्तूर यही है न, यहाँ गुणवत्ता वाली चीज़ें ख़रीदने वाले लोग बहुत कम होते हैं। और जो चीज़ सस्ती हो, वह जनमानस में प्रचलित हो जाती है। आप लोग बात करते हो कि क्वालिटी-क्वालिटी, हम वेदांत सब तक लाने की कोशिश कर रहे हैं। वो जो ₹1.5 लाख वाला फोन होता है — वो ज़्यादा बिकता है या ₹8000 वाला ज़्यादा बिकता है? तो बस समझ जाओ कि वेदांत क्यों नहीं इतना चला।

वो बोलता है "आइकॉन।" समझ में आ रही है बात? वो नहीं चलेगा। इसी तरह मर्सिडीज़ ज़्यादा बिकती है या क्या? हाँ, आई10, ऑल्टो। अब मर्सिडीज़ तो मर्सिडीज़ है, पर सौ गाड़ियों में एक दिखाई देती है। वेदांत मर्सिडीज़ है। और जब आदत लग गई हो न — मतलब उत्तर प्रदेश राज्य परिवहन में 50 की बस में 150 के चलने की, तो मर्सिडीज़ ऐसा लगता है जैसे कि पता नहीं क्या है — ये खा जाएगी! शव वाहन है! इसमें नहीं जाएँगे। कोई मुफ़्त में दे रहा हो तो भी नहीं घुसते मर्सिडीज़ में!

सस्ती चीज़ें ज़्यादा फैलती हैं हमेशा, क्योंकि लोग मूल्य चुकाना नहीं चाहते। सबसे बड़ा मूल्य होता है अध्यात्म में — अहंकार को ही चुका देना।

वो मूल्य चुकाने को कौन तैयार होता है? जो वो मूल्य चुकाने को तैयार हो, वेदांत उसके लिए है। लेकिन, वो मूल्य चुका करके जो मिलता है, वो बहुत बड़ी बात होती है। तो अगर लोगों को सही से समझाया जाए — तो मूल्य चुका भी देते हैं। ऐसा नहीं है। आप चुका रहे हो न?

प्रश्नकर्ता: कोशिश करते जा रही हूँ।

आचार्य प्रशांत: हाँ-हाँ, हम भी कोशिश करते जा रहे हैं।

प्रश्नकर्ता: पिछले 7-8 महीनों से मैं आपको सुन रही हूँ, और बहुत सारा चेंजेज़ मैं ख़ुद की लाइफ़ पर इम्प्लीमेंट की हूँ। आई डू फील दैट आई ऐम गेटिंग बेटर एवरीडे ऐज़ अ पर्सन, और बहुत क्लैरिटी आ रहा है हर दिन। हर गीता क्लास में लग रहा है कि दिमाग़ की एक डायमेंशन ओपन हो रहा है।

तो सर, मैंने भी देखा कि मैं जब ये वीडियोज़ मैंने बाक़ी लोगों में — लोगों में भी शेयर करने की कोशिश की, क्योंकि मुझे लगा कि आई ऐम गेटिंग बेनिफिटेड फ्रॉम दिस। सो इफ आई शेयर दैट, सम पीपल विल वॉच इट एंड दे मे ऑल्सो बी बेनिफिटेड फ्रॉम दैट। सो आई कैन हेल्प द सोसाइटी एंड हेल्प द पीपल आई नो — ऐटलीस्ट द पीपल अराउंड मी।

तो मैंने ये देखा कि कुछ-कुछ लोग ऐसे — जब वीडियो आपका देखना शुरू करते हैं, एक वीडियो देखने के बाद — वो लोग ऐसे छूट जाते हैं। उन लोगों को इतना कड़वा सच पसंद नहीं होता है, और वो लगता है कि ये बहुत एक्स्ट्रीम बातें करता है — इसको नहीं सुनेंगे। और कोई-कोई लोग हैं ऐसा कि एक वीडियो देखेंगे — अब रोक-रोक...जैसा मेरे साथ हुआ, मेरे कुछ दोस्तों के साथ भी हुआ है। एक वीडियो देख लिया, तो जैसे मैंने आपको देखना शुरू किया... मतलब, सुनना शुरू किया — एक वीडियो देखा मैंने, मतलब रुक नहीं पाई और मैं देखती गई रिपीटेडली — एक-एक वीडियोज़। तो ये ऐसा भी... वो आपने जो बोला, ये आदत लग जाता है।

और हमें इतना यक़ीन है कि हमारी ये बिलीफ़ सिस्टम में अगर कोई ऐसे हथौड़ा मार रहा है, वो हमें पसंद नहीं है। तो कुछ लोग एक वीडियो देखने के बाद ही — वो लोग फट जाते हैं। और कुछ लोग जैसे — जिन लोगों को आदत पड़ जाती है, वो वीडियो देखना बंद ही नहीं कर सकते।

आचार्य प्रशांत: ये दोनों तरह के लोग होते हैं न? देखिए, एक आपको मिलते होंगे कि जिनको पकौड़े की प्लेट दे दो, फिर वो रुक नहीं सकते। उनको पकौड़ा दे दिया — वो खाए जा रहे हैं। और कुछ ऐसे होते हैं, जो लगातार कसरत करते हैं। उनको दो दिन जिम जाने को न मिले, तो वो परेशान हो जाते हैं। पकौड़े वाला परेशान हो जाता है कि "पकौड़े काहे नहीं आया?" और जिम वाला परेशान हो जाता है कि "दो दिन हो गए जाने को नहीं मिला!" यह तो इस पर निर्भर करता है न कि आपने अपने आपको आदत क्या दे दी है।

प्रेम, एक प्रकार की सही आदत होता है — जिसमें हर पल एक नया और सही चुनाव करना पड़ता है।

बात समझ रहे हो? कठिन होता है किसी से पकौड़े छुड़वाना, पकौड़ा स्वादिष्ट होता है। देखो, एक धारणा चल रही है। अब चाहे तुम अब्राहमिक धर्म ले लो — चाहे भारत में ही जो तमाम दूसरी तरह की धार्मिक धाराएँ चलती हैं। वहाँ पर आपको बिल्कुल एक बाल-कथा, परीकथा सुना दी गई। वो पकोड़े जैसी आसान — उठाओ, खा जाओ।

वो परीकथा क्या है? एक गॉड है — और गॉड अलग-अलग तरीक़े का होता है अलग-अलग धाराओं में। गॉड ने यूनिवर्स बना दिया। इसमें अभी तक कोई तकलीफ़ हो रही है समझने में? परीकथा आसान है, पकौड़ा खाते जाओ। कोई इसमें इंटेलेक्चुअल प्रॉब्लम हो रही है समझने में? कोई मेहनत, कोई कसरत करनी पड़ रही है?गॉड ने यूनिवर्स बना दिया। फिर गॉड ने कहा — अब यूनिवर्स ऐसे-ऐसे चलेगा। फिर कुछ गॉड ने गुडीज़ बनाए, कुछ बैडीज़ बनाए। तो बैडीज़ लोग कभी जीतने लग गए, तो गुडीज़ ने गॉड से बोला — दिस इज़ नॉट फेयर। तो गॉड सेड — ओके वेट, आई ऐम कमिंग! फिर गॉड आ गया। वंस यू नो ही कुड नॉट कम, सो ही सेंट हिज़ सन।

अब इसमें कोई समस्या हो रही है क्या समझने में? इसमें कोई इंटेलेक्चुअल डेप्थ चाहिए क्या?

अब दूसरी ओर — अष्टावक्र ऋषि आ गए। वो बोल रहे हैं — "संसार है ही नहीं, प्रक्षेपण है।" अब क्या करोगे? अब फँस गए। तो बोल रहे, "देखना ही नहीं वीडियो मुझे। ये आते ही बोल गया कि, 'ये तो संसार ही नहीं, प्रक्षेपण है!”

एक न्यूज़ चैनल वालों ने मुझे बुलाया। वहाँ पे उन्होंने पहले ही पूछा, "अद्वैतवाद समझाइए।" तो अब जब अद्वैतवाद समझाऊँगा — तो उनको ये भी समझाऊँगा कि, "भाई, ये सब प्रक्षेपण है तुम्हारा।" वो एकदम लहूलुहान हो गए, लौटने लग गए। उनको समझ में नहीं आया — "क्या हो गया हमारे साथ?" उसमें से एक तो बिल्कुल ही तुनक गया। अगले दिन कोई मैच हुआ क्रिकेट का, तो उसमें भारतीय क्रिकेट टीम हार गई। उसने ट्वीट करी, वो जो स्कोर था — स्कोर लगाया। बोला, "आचार्य प्रशांत के मुताबिक़ यह मैच कभी हुआ ही नहीं। अब मैं यही मानना चाहता हूँ।"

वो उसने अपनी ओर से व्यंग्य करा था। वो कहना चाहता था कि अद्वैत वेदांत का मतलब है — कि जो चीज़ें अच्छी नहीं लगतीं, उनको मानो कि वो है ही नहीं। इसीलिए तो अद्वैत वेदांत कहता है कि संसार है ही नहीं। अब ये जर्नलिस्ट है, और बड़ा चैनल और ये इन्होंने अपनी बुद्धि लगाई है। अब ऐसों के लिए तो यही अच्छा है न, कि पकौड़ा डालते जाओ। हाँ, फिर गॉड ने कहा — "अब मैं नेक्स्ट आऊँगा।" फिर गॉड ने ऐसा करा, फिर गॉड ने कहा, "अब तुम लोग हो। यह तुम चार लोग हो। उसमें से यू नो, तुम इसको कंट्रोल करोगे। तुम इस एरिया में रहोगे। तुम यहाँ से नहीं जाओगे, तुम्हारे लिए ऐसे रूल्स हैं।" और फिर गॉड ने ये सब बोला, और बाक़ी सब बंदे बोले — "यस सर! अभी कूल है।" कोई इसमें खोपड़ा लगाना पड़ रहा है? लग रहा है कुछ?

और तभी वहाँ नागार्जुन आते, बोलते, "प्रतीत्यसमुत्पाद।" अब भागो — पकौड़ा-वकौड़ा छोड़ के, चटनी भी गिर गई। सब ख़राब हो गया, मूड ही पूरा ख़राब हो गया। "क्या बोल दिया इन्होंने?" पहले तो उच्चारण करने में ही लग जाएँगे 5–10 दिन। पकोड़े ख़राब सारे! वो बोल रहे हैं — "डिपेंडेंट को-ओरिजिनेशन" — जैसे वो पैदा हुआ, वैसे यह पैदा हुआ। दैट बीइंग दिस — दिस कम्स इन्टू बीइंग।" अब समझो — इसका मतलब क्या है? वहाँ महावीर खड़े हो गए। वो स्यादवाद बता रहे हैं, अनेकांतवाद बता रहे हैं। कोई पूछ रहे हैं, "इन दोनों का मतलब एक ही है या कुछ अलग-अलग है दोनों?" अनेकांतवाद, स्यादवाद और उसके सामने कहा जा रहा है, "देखो, तुम छोड़ो बाक़ी सब पकौड़े खाओ, खीर खाओ — आज गॉड का बर्थडे है।"

तो इस तरह की चीज़ें हमेशा ज़्यादा चलेंगी — जिनमें पकोड़े और खीर और एकदम लो-इंटेलेक्चुअल लेवल की बातें हो रही हों। ये चीज़ें हमेशा ही ज़्यादा चलेंगी न? जो चीज़ असली है, वो हमेशा आपकी बुद्धि की माँग करेगी — अगर आप उसको समझना चाहते हो। और ज़्यादातर लोग बुद्धि लगाना पसंद नहीं करते, क्योंकि अगर बुद्धि लगा दी — पहली बात तो बुद्धि लगाने में तकलीफ़। दूसरी बात, अगर बुद्धि लगा दी, तो जो नतीजा आएगा — वो उनके अहंकार को नहीं भाएगा। तो उसकी जगह यह सब चलता है — "यह हो गया," "फिर वो हो गया।"

फिर गॉड ने अपनी वाइफ़ से बोला कि, "यू नो, यू ट्रबल मी अ लॉट। तो मैं अबकी बार जाऊँगा। मैं नेक्स्ट वाइफ़ लेके आऊँगा।" तो गॉड की वाइफ़ ने कहा, "माय गॉड! यह तो नेक्स्ट वाइफ़ लाएगा!" तो गॉड की वाइफ़ ने मिरेकल करा। जब गॉड ज़मीन पर गया नई वाइफ़ लाने को, तो गॉड की वाइफ़ ही नई वाइफ़ बन के खड़ी हो गई। तो गॉड उसको ले आया, और गॉड जब उसको ले आया, तो गॉड ने उसका घूँघट उठाया। तो वाइफ़ बोली, "देखा! पकौड़ा खिलाया, बुद्धू बनाया! मैं तो पुरानी वाली वाइफ़ हूँ।"

आपकी धार्मिक कथाएँ इससे आगे की हों तो बताइए। दुनिया भर में धर्म के नाम पर जो गप्पबाज़ी और क़िस्से-कहानियाँ चलती हैं — चाहे भारत हो, चाहे दुनिया का कोई और देश, कोई और हिस्सा हो, दुनिया भर में जो धर्म के नाम पर कहानियाँ चलती हैं, इससे ऊँचे स्तर की होती हैं, तो बता दीजिए। तो इसलिए अद्वैत वेदांत बहुत प्रचलित नहीं हो पाया। आइकॉन, आइकॉन — तो अब से हम उसको बोलेंगे आइकॉनिक।

प्रश्नकर्ता: थैंक यू, सर।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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