प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, वैसे तो मेरा एक व्यक्तिगत प्रश्न है, लेकिन उससे पहले मैं उपनिषद् के बारे में एक प्रश्न का उत्तर जानना चाहता हूँ। जैसा कि आपने बोला कि उपनिषद् हमारे हिन्दू धर्म के केंद्र में नहीं रहे जिसकी वजह से इतनी दुर्दशा हुई। ऐसा क्या है हमारे हिन्दू धर्म में, जो वो केंद्र में नहीं रह पाए?
जैसे कि बहुत सारी दोष जो हैं, अंधविश्वास, रूढ़ियाँ, और ये तमाम सब चीज़ें हैं। और अगर ये देखा जाए तो जैसे और भी धर्म हैं, बाकी सारे धर्म, तो उनकी इतनी उम्र भी नहीं जितना हमारा धर्म पुराना है। और मैं इस चीज़ को मानता हूँ और मैं देखता हूँ कि उनमें भी ये सब चीज़ें कम नहीं हैं। मैं जहाँ से आता हूँ उस कस्बे में ही बहुत सारे अंधविश्वासी लोग भरे पड़े हैं। वो ताबीज़ और गंडा धारण करते हैं, और वो उन चीज़ों पर भी इतना कट्टर रुख अपनाते हैं कि हम उनको कुछ नहीं कह पाते।
मैं उन पर नहीं, लेकिन मैं अपने इस प्रश्न पर वापस आता हूँ, कि मतलब हममें ऐसी कौनसी भावना घर कर गई कि हमारा हिन्दू धर्म, हमारा सनातन धर्म और हमारा उपनिषद् का संदेश कमज़ोर पड़ गया? कालांतर में जो इतने बाहरी आक्रमणकारी आए, जिस तरह से उन्होंने यहाँ पर अधिग्रहण किया, और हम पर शासन किया, तो ऐसा क्यों?
इस सवाल पर थोड़ा प्रकाश डालें।
आचार्य प्रशांत: देखो बहुत कारण हैं और बहुत काल हैं, हर काल में अलग-अलग कारण हैं, लेकिन जो एक कारण है वो है प्रचार की कमी। ये बहुत ऊँचें हैं, उपनिषद्, लेकिन ये सीमित रह गए चंद लोगों तक, क्यों? क्योंकि सामाजिक-व्यवस्था अध्यात्म पर भारी पड़ी। सामाजिक-व्यवस्था थी जाति की, वर्ण की, उसने एक बहुत बड़ी तादाद तक इन बातों को पहुँचने ही नहीं दिया; जब ये बात पहुँचेगी नहीं तो वो लोग किस चीज़ में फिर मान्यता रखेंगे? तो तमाम तरह के फिर रीति-रिवाज़ और अंधविश्वास, ये खूब प्रचलित हो गए। एक ये बात।
दूसरी बात — उपनिषद् ऐसे नहीं होते जिसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी किसी को आप विरासत की तरह सौंपते चलो, हर पीढ़ी को इनका अनुसंधान स्वयं करना होता है। एक बहुत बड़ी आपने तादाद बना दी जिन तक आपने इनको पहुँचने नहीं दिया, क्योंकि सामाजिक-व्यवस्था ऐसी थी; और ऋषियों ने बहुत ज़ोर लगाया लेकिन सामाजिक-व्यवस्था को नहीं हरा पाए।
और जिन तक ये बातें पहुँचीं, उन तक भी बस पुश्तैनी-रूप से पहुँचीं; अब जब पुश्तैनी-रूप से आप तक उपनिषद् पहुँचेंगे तो आपकी उनसे क्या आत्मीयता होगी? तो जिन तक नहीं पहुँचे, उनके समझ पाने का सवाल ही नहीं, उन तक तो पहुँचे ही नहीं; जिन तक पहुँचे भी, उन तक बस इसलिए पहुँचे क्योंकि उनके पिताजी पंडित थे, पिताजी ब्राह्मण थे तो बेटे के हाथ में भी आ गए। अब ये चीज़ (उपनिषद्) ऐसी नहीं है कि वंशानुगत तौर पर चल सके, इसमें तो बड़े प्रेम से, बड़ी जिज्ञासा से स्वयं अनुसंधान करना पड़ता है। तो दोनों ही पक्ष मारे गए, जिन तक नहीं पहुँचे उन्हें भी नहीं मिला और जिन्हें मिला उन्हें भी नहीं मिला; कुल मिला कर के किसी को भी नहीं मिला।
इतना ही नहीं हुआ है, अब आज के समय में जब ये (उपनिषद्) मिल सकता है, अब जब कोई कहीं पर वर्जना नहीं है, कि उपनिषद् एक ही वर्ण के लोग पढ़ सकते हैं, बाकी लोग नहीं पढ़ सकते, तो अब इनके विरुद्ध एक घृणा-सी फैल गयी है उनमें जिन्हें नहीं मिला। क्यों? क्योंकि वो सोचते हैं कि ये तो ब्राह्मणों की चीज़ें हैं। अरे भाई! ये वो चीज़ है जो ब्राह्मणों को भी नहीं समझ में आती, ये वो चीज़ है जिसको ब्राह्मणों ने भी नहीं सम्मान दिया, इसको तो ब्राह्मणों ने भी कहाँ अपना रखा है, इसको तो सभी ने छोड़ रखा है; क्योंकि ये बपौती नहीं हो सकती। ये (उपनिषद्) रूपया-पैसा, ज़मीन-जायदाद थोड़े ही है, कि बाप ने कहा, “बेटा ये लो;" ये चीज़ तो सीधे-सीधे आपकी पात्रता से आती है। उपनिषद् मेरिटोक्रेसी (योग्यता-आधारित व्यवस्था) का केस हैं, जिसमें पात्रता होगी वो समझ सकता है; पात्रता नहीं होगी, बस नाम होगा, वंश होगा, जाति होगी, तो आपको नहीं समझ में आने की।
बात समझ रहे हैं आप?
तो इसीलिए अब लगभग शून्य से शुरुआत करनी पड़ रही है। सनातन समुदाय का शायद ही कोई वर्ग है जो इनको (उपनिषद् को) सबसे ऊपर रखता हो—ऊपर तो तब रखेंगे जब समझेंगे न—जो इन्हें समझता हो। और जहाँ ये (उपनिषद्) नहीं होंगे वहाँ अन्धविश्वास, अज्ञान, हिंसा, जितने तरह की बीमारियाँ हो सकती हैं सब होंगी।
प्र: आचार्य जी, जैसे बॉलीवुड हो या सुप्रीम-कोर्ट हो, वो हमारे त्योहारों पर बहुत सवाल उठाते रहते हैं कि जन्माष्टमी में हाँडी की ऊँचाई कितनी होनी चाहिए, दिवाली पर कितने पटाखे फोड़ने चाहिए। हालाँकि मैं इन परम्पराओं का समर्थन नहीं कर रहा, मैं मान रहा हूँ कि बहुत सारी प्रथाएँ केवल अंधविश्वास हैं, पर ये बातें हिंदू अथवा सनातन धर्म के विषय में ही क्यों की जाती हैं? इससे मुझे बहुत पीड़ा होती है।
आचार्य: इसीलिए होता है न क्योंकि आपमें बल नहीं है, और बल जिससे आता है उसकी ओर आप बढ़ना नहीं चाहते। आप इधर-उधर की छोटी-मोटी किताबें पकड़ कर बैठे हैं, आप पुराने रीति-रिवाज़, परम्पराएँ और पुरानी संस्कृति पकड़ कर बैठे हैं, तो फिर सबको हक मिल जाता है आक्षेप करने का।
देखिए, जो सीधा-सीधा सत्य है वो कहे देते हैं — दुनिया की कोई संसद, कोई न्यायालय धर्म से बड़ा नहीं होता। संसदें, न्यायालय, ये सब आते-जाते रहते हैं, धर्म सनातन होता है। तो ये बहुत खेद की बात है कि संसदों और न्यायालयों को हमने अधिकार दे रखा है धर्म को नियंत्रित करने का, या धर्म को अनुशासित करने का, या धर्म पर आदेश चलाने का, ये होना नहीं चाहिए। पर ये नौबत इसीलिए आयी है क्योंकि धर्म एकदम पराजित, आभाहीन, बलहीन हो चुका है; और विक्षिप्त भी हो चुका है, ऐसा हो चुका है कि अगर उसे न्यायालय दिशा न दे और अनुशासन न दे तो धर्म अपनी बेहोशी में न जाने किस गड्ढे में जा कर गिरेगा। तो फिर इसलिए न्यायालय के लिए आवश्यक हो जाता है कि वो धर्म को अपने निर्देश में रखे, ये होना नहीं चाहिए; और अगर ये हो रहा है तो इससे यही पता चलता है कि सनातन धर्म कितनी बुरी अवस्था में आ गया है।
देखिए, जो न्यायाधीश धार्मिक मामलों पर कलम चला रहे हैं, वो कोई धर्माधीश हैं? उन्हें क्या पता धर्म का? लेकिन वो भी कह देते हैं, “हमने भी गीता पढ़ी है।" अरे! गीता पढ़ने से तुम गीताविद् हो गए क्या? लेकिन आज चूँकि कोई नहीं है गीताविद्, इसीलिए कोई भी कह देता है, 'हमने भी गीता पढ़ी है।' और न्यायालयों को हम दोषी भी नहीं ठहरा सकते, क्योंकि अगर न्यायालय बीच में न आते तो हम अभी-भी जात-पात चला रहे होते, हम अभी-भी सती-प्रथा चला रहे होते, हम अभी-भी न जाने कितने दोषपूर्ण रीति-रिवाज़ चला रहे होते, पैतृक-संपत्ति में हमने बेटियों को हक नहीं दे रखा होता; ये सब हम धर्म के नाम पर कर रहे होते। न्यायालयों ने तो आ कर के बड़ी सहायता, बड़ी सेवा कर दी है हिन्दुओं की। लेकिन सेवा की ज़रूरत किसको पड़ती है? मरीज़ को ही पड़ती है; ये धर्म बीमार है।
प्र: आचार्य जी, जैसे दूसरे समुदाय की बात करें तो वो भी तो बहुत कट्टर और रूढ़िवादी हैं। वो कोविड-वैक्सीनेशन को भी मना कर देते हैं और पोलियो-उन्मूलन कार्यक्रम में सहयोग प्रदान नहीं करते, ये कहकर कि इससे प्रजनन-क्षमता ख़त्म हो जाएगी।
आचार्य: देखिए, ऐसे मानते हैं तो फिर वो इसका हर्जाना भी देंगे, दे रहे भी हैं।
जो भी व्यक्ति विज्ञान के विरुद्ध बात करेगा, तर्क और विचार और तथ्य के विरुद्ध बात करेगा, उसे तो जीवन सज़ा देगा ही। तो जो लोग ऐसा कर रहे हों, वो अपने दुश्मन ख़ुद हैं, आप उन्हें उदाहरण क्यों बनाना चाहते हैं, उनकी बात क्यों करना चाहते हैं? सबसे पहले तो हमें स्वयं को दर्पण में देखना चाहिए न, कि हम कैसे हैं। अगर आप देख रहे हैं कि किसी दूसरे समुदाय के लोगों में अन्धविश्वास बहुत फैला हुआ है, या वो वैक्सीनेशन नहीं करवा रहे हैं, या जो भी बोल रहे हैं, गंडा-ताबीज़, जो भी वहाँ पर चल रही हैं वाहियात बातें, तो वो सब करके उन्हें कोई उन्नति थोड़े ही मिलनी है; किसी को नहीं मिल सकती, ये जीवन का नियम है।
आप अगर व्यर्थ मान्यताएँ रखेंगे, बेहोश जीवन जिएँगे, सच्चाई को स्वीकारेंगे नहीं, तो आपको कमज़ोरी ही मिलेगी। ये हो सकता है कि वो कमज़ोरी आज नहीं दस-बीस साल बाद दिखाई दे, लेकिन कुतर्क के साथ और अवैज्ञानिक-दृष्टिकोण के साथ कोई भी समाज या समुदाय प्रगति तो नहीं कर सकता। जहाँ से प्रगति हो सकती है, वो चीज़ मैं आपके सामने ला रहा हूँ, बार-बार ला रहा हूँ, उस पर ज़ोर दे रहा हूँ। फिर कह रहा हूँ — हिन्दू धर्म को अगर कुछ बचा सकता है तो वो वेदांत है, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं, बाकी सब हटाना पड़ेगा, या बाकी सबको वेदांत से पीछे रखना पड़ेगा। जो चीज़ हटाने लायक है वो हटा दो, जो चीज़ थोड़ी ठीक लग रही है उसको वेदांत के प्रकाश में पढ़ो, उसकी वेदांत-सम्मत व्याख्या करो।
प्र२: आचार्य जी प्रणाम। आचार्य जी, आप कहते हैं कि हिन्दुओं का प्रमुख ग्रन्थ वेदांत ही है। आप हिन्दू समुदाय के भीतर के छोटे-छोटे तमाम समुदायों को नकारते हैं, और वेदांत के अलावा हिन्दुओं की जो अन्य हज़ारों पुस्तकें हैं उनको भी केंद्रीय नहीं मानते। पर हिन्दू की सहनशीलता ही तो उसकी पहचान है, हमारी विविधता ही हमारी शक्ति है। शक, हूण, मुस्लिम, पारसी, अंग्रेज़, इन सबको हमने प्यार से अपनाया। आप सिर्फ़ वेदांत को केंद्रीय क्यों मानते हैं? मुझे तो लगता है हर हिन्दू को अपने हिसाब से किसी भी किताब या कहानी में विश्वास रखने का अधिकार है। विविधता सुन्दर है, सत्य सबके लिए अलग-अलग होता है।
आचार्य: आपके लिए नहीं है, और किसी के लिए होगा। ये बात वेदांत से नहीं आ सकती, ये बात घोर अज्ञान से ही आ रही है। गज़ब है!
ये जितने छोटे-छोटे ग्रन्थ हैं, ये वेदांत-सम्मत हैं? कौन-से ग्रंथों की बात कर रही हैं आप, गरुण-पुराण? वो वेदांत-जैसा है? और गरुण-पुराण तो छोटा-मोटा भी नहीं है, वो तो बहुत प्रचलित है, और न जाने कितने सारे ऐसे (ग्रंथ) घूमते रहते हैं, और उनको लोग ऐसे (प्रणाम करते हुए) लेते हैं, “अरे! अरे! अरे! अरे!” वो वेदांत-सम्मत हैं?
ये तर्क क्या था, कि हम विविधता में विश्वास रखते हैं इसीलिए हम तिब्बतियों को, शकों को, हूणों को, और यहूदियों को...? ये तो उदारता है, जो वेदांत ही सिखाता है। और दूसरी बात, आपने वाकई इनमें से आधों को शरण दी है या मजबूरी थी? शक और हूण आपसे शरण माँगने आए थे, 'प्लीज़, प्लीज़, जगह दे दो?' कुछ इतिहास पढ़ा है? तिब्बती और यहूदी ठीक है, पर शक, हूण, ये आपसे शरण माँगने आए थे क्या? कल को कोई बोलेगा, 'हमने तुर्कों को भी तो पनाह दी है। पनाह ही नहीं दी है, हमने उन्हें पूरा पाकिस्तान दिया है, हम इतने उदार हैं।'
इन्हीं मूर्खताओं और इन्हीं कमज़ोरियों के कारण जो वास्तविक आर्यावर्त था उसे गँवा चुके हैं, वो बन गया पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, और अभी-भी सुधर नहीं रहे हैं, बता रही हैं, “विविधता है।" तो थाली में थोड़ा सड़ा हुआ अंडा रखो, थोड़ा ज़हर रखो, थोड़ा गोबर रखो, बोलो, 'विविधता ही तो हमारी शक्ति है। थोड़ा ज़हर भी खाना चाहिए, थोड़ा गोबर भी खाना चाहिए, विविध प्रकार का भोजन होना चाहिए।'
विविधता के पीछे जो ‘एक’ है, अगर विविधता उसकी ओर नहीं ले जा रही तो विविधता माया है, ये कहीं का नहीं छोड़ेगी। विविधता शक्ति नहीं होती, शक्ति तो ‘एक’ में होती है, आत्मा में होती है। वो विविधता जो आपको आत्मा से दूर कर दे, वो तो ठगिनी है, माया है। पर ये जो हमारी शिक्षा ने हमारे दिमाग में कचरा भरा है, ये वहाँ से आ रही है बात।
भाई, कुछ चीज़ों में डाइवर्सिटी अच्छी नहीं होती, वहाँ सिर्फ़ एक होना चाहिए, यूनिटी। कह दो, 'मेनी ट्रुथ्स, पचास सत्य, कमज़ोर हो जाओगे, ग़ुलाम बनोगे, पिटोगे, जैसे हम पिटे हैं। सब देवी-देवता यदि ब्रह्म तक ले जा रहे हों तो ठीक है। जब तुम ये गाँव-गाँव में जो देवता बदलते रहते हैं, जब तुम इनकी बात करते हो तो क्या ये कहते हो कि “ये देवता मुझे ब्रह्म तक ले जाएँगे”? नहीं, तुम ये कहते हो, 'ये देवता ही मेरे आखिरी हैं,' या 'कुल-देवता हैं, पितृ-देवता हैं, ये हैं, वो हैं।' ये तुम्हें ब्रह्म तक, ये तुम्हें एक तक ले जा रहे हैं क्या? एक तक ले जा रहे हैं क्या, बता दो?
तो ये डाइवर्सिटी घातक है। लेकिन हमें बताया गया है कि देखो, यही तो हिन्दू धर्म की खासियत है, क्या खासियत है? कि यहाँ कुछ भी चलता है; कुछ भी चलता है। और लोग बड़े शान से बोलते हैं, 'आप कुछ भी कर के भी हिन्दू हो सकते हैं। आप वेद जला दीजिए, आप तब भी हिन्दू हैं।' नहीं भाई साहब! अगर आप वेदों को नहीं मानते तो आप हिन्दू नहीं हैं। कोई भी शब्द परिभाषा के बिना अर्थहीन है। ‘हिन्दू’ की कुछ तो परिभाषा दोगे, या कह दोगे, “कोई भी हिन्दू है”? तो फिर तो ठीक है, सब ईसाई, सब मुसलमान, सब हिन्दू हैं। अगर कोई भी हिन्दू है तो फिर कोई हिन्दू नहीं है, फिर तो गाय, बकरी, घोड़ा, सब हिन्दू हैं।
कहीं पर तो सीमा खींचोगे न, कहीं पर कुछ तो शर्त लगाओगे, अनिवार्यताएँ करोगे, कि जो ऐसा करे, जो ऐसा जानता हो, वो हिन्दू है।
आप बताइए, क्या परिभाषा है आपकी हिन्दू धर्म की? आपका उच्चतम-न्यायालय भी जब कुछ नहीं बोल पाया तो बोल दिया, 'वे ऑफ़ लाइफ़ है,' क्या वे ऑफ़ लाइफ़ ? जिसमें सब-कुछ चलता है, 'सच अ वे ऑफ़ लाइफ़ जिसमें सब-कुछ चलेगा, इज़ कॉल्ड हिंदुइज़्म।' गौरव महसूस हो रहा है इस परिभाषा के साथ? 'अ वे ऑफ़ लाइफ़ इन व्हिच एनीथिंग गोज़ इज़ कॉल्ड हिंदुइज़्म।' और लिबरल्स को बड़ा मज़ा आता है, वो चाहते हैं कि यही परिभाषा चलती रहे, कि जहाँ कुछ-भी चलता है उसे हिन्दू धर्म बोलते हैं। नहीं, कुछ भी नहीं चलता। वेदांत अपरिहार्य है, और अगर वेदांत के प्रति आपकी निष्ठा नहीं, तो जिएँ आपको जैसे जीना है, लेकिन कम-से-कम अपने-आपको हिन्दू न बोलें। आप होंगे जो भी होंगे, आप जिएँ अपने हिसाब से, लेकिन (अपने-आपको) हिन्दू न बोलें, इतना कष्ट न करें।
ये विविधता आप गणित में क्यों नहीं दिखाते? ये विविधता आप अस्पताल में क्यों नहीं दिखाते? गणित में बोलिए, 'देखिए, दो और तीन, इसके विविध उत्तर होने चाहिए, पौने-छः, साढ़े-सात, बीस दशमलव एक दो। विविध उत्तर होने चाहिए, यही तो हमारी ताकत है।' आपने बड़ी मुझे सूची बतायी, शक, हूण, ये, वो, अब मैं भी एक सूची बताता हूँ, बताइएगा कि इस सूची में साझी बात क्या है? डच, पुर्तगाली, फ्रेंच, ब्रिटिश, अरब, तुर्क, अफ़गानी, मंगोल — क्या है इस सूची में? वो सब जिन्होंने पददलित किया आपको। कह दीजिए कि ये तो हमारी विविधता है कि हम इन सब से पिटे। हम एक से नहीं पिटते, हम विविध लोगों से पिटते हैं और विविध तरीकों से पिटते हैं।
कोई हमारे मंदिर तोड़ता है, कोई हमारी स्त्रियों का बलात्कार करता है, कोई पूरी जनसंख्या का धर्म-परिवर्तन करा देता है; हम विविध तरीकों से पिटते हैं। कोई आ करके सारा माल लूट ले जाता है, गरीब कर देता है; हम विविध तरीकों से पिटते हैं, विविध लोगों से और विविध तरीकों से। सच तो ये है कि जिसने भी हमें पीटना चाहा, हम उससे पिटे। आजकल चीनियों से पिट रहे हैं, वो बेचारे कह रहे हैं, 'हम क्यों पीछे रह जाएँ भाई, जब तुम खड़े ही हो बाज़ार में पिटने के लिए? सबसे पिट लिये, तो अब हम भी पीटेंगे। अब आज कल चीनी पीट रहे हैं, इसी तरह की बातों के कारण, कि सब-कुछ चलता है। कोई कुछ भी करे, सब चलेगा।