क्या है 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का वास्तविक अर्थ?

Acharya Prashant

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क्या है 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का वास्तविक अर्थ?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, वसुधैव कुटुम्बकम् का वास्तविक अर्थ क्या है? जब स्रोत एक है तो वो अलग-अलग रूपों में क्यों प्रकट होता है? वैविध्य है ही क्यों? सीमाएँ हैं ही क्यों? वस्तुएँ हैं ही क्यों? व्यक्ति हैं ही क्यों? नानात्व हैं ही क्यों? जब स्रोत एक है तो उसके अवतार अलग-अलग क्यों हैं?

आचार्य प्रशांत: किसके लिए अलग-अलग हैं? किसको दिख रहे हैं अलग-अलग? किसको दिख रहे हैं अलग-अलग? कौन है जो भेद कर रहा है कि सब अलग-अलग है? मन में अहंकार जितना घना होता है विविधता उतनी ज़्यादा दिखाई देती है। उतनी ज़्यादा डाइवर्सिटी (विविधता) तुमको दिखाई देगी। सबकुछ अलग-अलग दिखाई देगा। बाँटोगे, खूब बाँटोगे। अलग-अलग होने का अर्थ ही है बाँटना। ये अलग और ये अलग, ये अलग और ये अलग।

अहम् की यात्रा जब विराट की ओर होती है तो शनै:-शनै: जो अलग-अलग दिख रहा है, वो अलग-अलग की जगह एक-एक दिखने लगता है। सीमाएँ फिर अगर रहती भी हैं तो वो विस्तृत होने लगती हैं। बहुत ही जो छोटे मन का आदमी है वो कहेगा, ‘मैं अलग और पूरी दुनिया अलग।’ ये टुच्चा स्वार्थ है। मन जब उससे ज़्यादा फैलेगा तो वो कहेगा, ‘न मेरे साथ मेरा परिवार भी जुड़ा हुआ है। मुझे परिवार को भी देखना है।’ तुम्हारा अहम् एक पायदान ऊपर चढ़ा, उर्ध्वगमन हुआ उसका। अब कम से कम तीन-चार लोग उसे अपने से अलग नहीं दिख रहे। उनको वो कह रहा है कि मैं और ये एक ही हैं, अलग नहीं रहे।

अहंता जब और ऊपर की यात्रा करेगी तो वो कहेगा, ‘नहीं, मैं और मेरा समुदाय हम एक हैं। जान दे सकता हूँ इनके लिए।’ उसकी सीमा थोड़ा और फैली। अलग-अलग दिखना कम हुआ। फिर वो और ऊपर बढ़ेगा, कहेगा, ‘मैं, मेरा राष्ट्र एक है। प्राण चले जाएँ, राष्ट्र पर आँच नहीं आनी चाहिए।’ है, अभी भी सीमा है। राष्ट्र एक सीमा ही है। राष्ट्र भी एक बँटवारा ही है। पर अब थोड़ा विस्तृत बँटवारा है, बड़ा बँटवारा है। क्षुद्र, संकीर्ण बँटवारा नहीं है। फिर बाँटने का भाव और कम हुआ, ऊपर गया। वो बोलेगा, ‘दुनिया के सारे इंसान और मैं एक ही हैं।’ वो जो वाक्य है बड़ा प्रसिद्ध है आपके बीच – “वसुधैव कुटुम्बकम्।”

और फिर अहंता की यदि यात्रा जारी रही तो कहेगा, ‘मात्र इंसान ही नहीं जितने जीव हैं, वो और मैं एक ही हैं।’ नहीं, अलग-अलग नहीं हैं। उनके हित, मेरे हित अलग-अलग नहीं हैं। मैं ये नहीं कर सकता कि अपने लिए उनकी बली चढ़ा दूँ। अपनेआप को विशेष समझने का भाव जाता रहेगा। अपनेआप को केन्द्रीय समझने का भाव जाता रहेगा। यही तो निर्विशेषता है।

जब आप अपनेआप को खास समझना बन्द कर देते हो। तो इसका अर्थ है कि जीवन में ब्रह्मत्व प्रवेश कर रहा है, निर्विशेषता आ रही है। फिर एक स्थिति ऐसी आती है जब आपका अपनेआप को कुछ भी मानने का भाव ही अस्त हो जाता है। अब अलग-अलग होने का सवाल ही नहीं पैदा होता। क्योंकि जितना अलगाव था, उसमें मूल अलगाव तो यही था कि मैं हूँ। अब ये भाव ही नहीं रहा कि मैं हूँ।

जब मैं ही अलग नहीं समूची सृष्टि से, जब मेरा ही होना नहीं बचा, जब मैं ही विलय हो गया, अब अलग नहीं रहा, स्रोत में जाकर घुल गया, तो अब और कुछ भी कैसे अलग-अलग दिखेगा? सब एक है अब। इस स्थिति को कैवल्य कहते हैं, अलोननेस (एकाकीपन)। मात्र एक है, कुछ अलग नहीं। मात्र एक है।

और याद रखिएगा ये जो एक है ये भी संख्या वाला एक नहीं है। क्योंकि यदि संख्या वाला एक है तो उसकी सीमा होगी। फिर तो इस एक को अपने होने के लिए किसी दूसरे की ज़रूरत पड़ेगी। ये जो एक है। ये मात्र एक सुन्दर, निर्दोष, शून्यता है। आकाश जैसी खाली, पर अनन्त। कोई अन्त नहीं है।

समझ रहे हैं?

जिसने एक-एक देखना बन्द किया कि अलग,अलग, अलग, ये ऐसा, ये ऐसा। इकाइयाँ जिसको दिखाई देनी बन्द हुईं, उसके जीवन में कुछ ऐसा फिर होता है जो बढ़ता ही जाता है। संख्याएँ कम होती जाती हैं। वो जो संख्यातीत है, वो बढ़ता ही जाता है।

देखिए, हमने कहा ब्रह्म अनन्त है। साथ ही हमने ये भी कहा कि ब्रह्म मुक्ति है। साथ ही हमने ये भी कहा कि ब्रह्म प्रेम है। ठीक? साथ ही हमने ये भी कहा कि ब्रह्म सत्य है। इनको मिलाइए सारी बातों को, एक साथ देखिए, आपको क्या दिखाई देगा? आपको दिखाई देगा प्रेम अनन्त है। क्योंकि ब्रह्म प्रेम है और ब्रह्म अनन्त है तो प्रेम अनन्त है। संख्याओं का ज्यों-ज्यों अन्त होता है प्रेम की अनन्तता खुलती जाती है। सौदा ही है एक तरह का।

बात समझ में आ रही है?

जीवन में जो तमाम अलग-अलग छोटी-छोटी चीज़ें भर रखी हैं— पहचानें, वस्तुएँ, चित्र, बिम्ब। यों जो-जो हटते जाएँगे, वैसे-वैसे प्रेम, सत्य, मुक्ति, ये खुलते जाएँगे, बढ़ते जाएँगे। कितना खुलेंगे, कितना बढ़ेंगे? कोई सीमा नहीं। अनन्तता है। ये कोई न कहे कि कितना प्रेम? हाँ, पूछोगे तो जवाब मिल जाएगा।

छोटे बच्चे पूछते हैं – ‘माँ, आकाश कितना बड़ा है?’ माँ बोलती है, ‘इतना बड़ा है। दोनों बाहें फैलाकर। ठीक है, ऐसा ही कुछ जवाब तुम्हें दिया जा सकता है। इतना बड़ा है। छोटे बच्चे पूछते हैं, ‘ईश्वर कितना बड़ा है?’ माँ बोल सकती है, ‘हाथी जितना बड़ा है। हाथी जितना बड़ा है, हाथी जितना बड़ा है, बहुत बड़ा है।’ पर तुम्हारे लिए ठीक है, हाथी जितना बड़ा है।

अनन्त, दो अनन्तताएँ हैं— एक माया के विस्तार की। दूसरा शून्य की, आकाश की। जो तुम्हें चाहिए हो ले लो। माया भी अनन्त है। कोई अन्त नहीं उसका। कोई तुम उसका छोर नहीं पाओगे, कहाँ जाकर रुकती है। माया उतनी ही अनन्त है जितनी संख्याएँ। संख्याओं का कोई अन्त है? जितनी बड़ी संख्या हो, उसमें एक और जोड़ लो। कोई अन्त नहीं न? माया ठीक वैसे ही है। संख्याओं पर ही पलती है। विविधता पर ही पलती है। विविधता का कोई अन्त है?

बताओ, दुनिया में कितने रंग होते हैं? कितने रंग हैं? अगर तुम छोटे बच्चे हो, तुम बोलोगे विबग्योर (इन्द्रधनुष के सात रंग)। जितने इन्द्रधनुष में दिखाई देते हैं उतने होते हैं। फिर थोड़े बड़े होगे तो कहोगे नहीं-नहीं-नहीं-नहीं। अभी उसमें हिस्से हैं, अभी और हैं। कोई अन्त नहीं है।

दोनों विस्तार हैं। एक संसार का विस्तार है, अन्तहीन है वो भी। कोई छोर नहीं पाओगे, तुम चलते जाओ। और दूसरा सत्य का विस्तार है, उसका भी कोई छोर नहीं पाओगे। लेकिन एक पीड़ा का विस्तार है और एक आनन्द का विस्तार है; चुन लो जो चुनना है तुम्हें। दोनों का कोई अन्त नहीं है।

अगर नापना हो कि आनन्द की सीमा क्या है, तो पूछना, पीड़ा की क्या सीमा है? तुम पीड़ा को जितना गहरे से गहरा पाओ, समझ लेना आनन्द इतना ही गहरा हो सकता है। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि पीड़ा भी अनन्त है। तुम खोजने निकलोगे पीड़ा का ओर-छोर पाओगे नहीं।

आ रही बात समझ में?

छोटी-छोटी बातों में मन को पकड़ो जब वो भेद करता हो। जब वो बाँटकर देखता हो तब उसकी इस वृत्ति पर ज़रा रोशनी डालो, नज़र डालो कि वो बाँटकर देख रहा है। दाल में ज़रा नमक ज़्यादा हो गया, बर्दाश्त नहीं कर रहा है, बाँट दिया। इतना ही चाहिए, इससे हटकर जो है वो अलग है। नहीं, एक ही बात है, चलने दो। चलने दो न, एक ही बात है, भेद मत करो। कमरे में तापमान ठीक तेईस डिग्री होना चाहिए और पच्चीस डिग्री हुआ नहीं कि असहज हो गए, अकुलाने लग गए। ऐसे मत जियो।

जितना ज़्यादा भेद करोगे, जितना ज़्यादा अलग-अलग करोगे, उतना ज़्यादा तुम्हारा अहंकार अधोगामी हो रहा है। वो अपनेआप को क्षुद्र के साथ संयुक्त कर रहा है। बाँटकर मत देखो। चार-सौ-निन्यानवे रुपये की तुमने खरीददारी करी। एक-हज़ार का नोट दे दिया। दुकानदार को तुम्हें पाँच-सौ-एक लौटाने थे। दुकानदार ने दिये तुम्हें पाँच-सौ ही। और तुम खड़े हो, प्रतीक्षा कर रहे हो कि एक रुपया और देगा। तुम पाँच-सौ और पाँच-सौ-एक को भी अलग-अलग देख रहे हो। तुम क्या कर रहे हो? छोड़ दो, एक ही बात है। पाँच-सौ, पाँच-सौ-एक एक ही है, छोड़ दो। कोई फ़र्क नहीं पड़ गया। जाने दो। इतनी ज़रा-ज़रा सी बात में हिस्से करना ठीक नहीं।

यहाँ पर कुछ बैठे हुए हैं स्टूडेंट्स। मैंने देखा है, सौ में से चौसठ नम्बर आये हैं। कहीं पर आधा नम्बर और बढ़ सकता है। इसके लिए वो जाकर के टीचर की जान खा लेंगे। आधा नम्बर और यहाँ होना चाहिए। और अगर मुझे आधा नहीं दे सकते तो इसका आधा काटो। दस का सवाल था, मुझे छ: दिये, इसको साढ़े छ: क्यों दे दिये? हम दोनों ने एक से ही किया हैं। काटो, इसका काटो— ये क्षूद्रता है। इसी को कहते हैं अलग-अलग करके देखना। हर बात में अलग-अलग करके देख रहे हैं। जाने दो, छोड़ो, छोटी बात। कुछ नहीं हो गया।

समझ रहे हो?

जब तुम्हारे लिए पाँच-सौ और पाँच-सौ-एक में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। तो एक दिन फिर ऐसा भी आएगा जब तुम्हारे लिए सुख और दुख में भी कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। फिर तुम्हारी अलग-अलग करने की प्रवृत्ति बिलकुल ही शान्त हो जाएगी। अब तुम सुख-दुख के पार चले गए। अब तुम हार-जीत के पार चले गए। अब तुम राजा हो। अब कोई उत्तेजना तुम्हें व्यथित नहीं करेगी। सुख आ रहे हैं, दुख आ रहे हैं, तुम्हारे लिए क्या है? एक। मौसम बदल रहे हैं, स्थितियाँ बदल रही हैं, घटनाएँ घट रही हैं। तुम्हारे लिए सब कुछ क्या है? एक। कहाँ कुछ अलग-अलग है? इसी को समभाव भी कहते हैं।

समभाव उदासीनता नहीं है। समभाव जड़ता नहीं है। समभाव का अर्थ है वहाँ स्थित होना जहाँ तुम पर ऊँच-नीच कोई असर ही नहीं डालती। समभाव का अर्थ है वहाँ स्थित होना जहाँ तुम्हें सारे भेद छोटे लगते हैं एक के सिवा। उस भेद को समझना ज़रूरी है इस बात को खत्म करने से पहले। कोई भेद नहीं करना है, कोई भेद नहीं करना है उस सब में जो एक ही तल पर है। क्या? संख्याएँ।

सारी संख्याएँ एक तल पर है। उनमें क्या भेद करना है। एक हो कि एक हज़ार हो, बात एक ही है। क्यों? क्योंकि दोनों क्या हैं?

प्र: संख्या।

आचार्य प्रशांत: पाँच-सौ-एक है या पाँच-सौ है, उनमें भेद नहीं करना है। क्योंकि दोनों क्या हैं?

प्र: संख्याएँ।

आचार्य प्रशांत: लेकिन एक भेद है जो ज़रूर करना है। और वो भेद है नित्य और अनित्य का। इसी को विवेक कहते हैं। वो भेद करना है। हमेशा करना है। आखिरी सीढ़ी तक करना है। तब तक करना है जब तक कि ब्रह्मलीन ही नहीं हो जाते। उसकी बात करना व्यर्थ है। बहुत दूसरी बात है। तो इसीलिए कह रहा हूँ, वो भेद करना है।

ये अन्तर करना कभी नहीं छोड़ना है कि क्या था जो मानसिक तल पर था? और क्या है जो किसी दूसरी दुनिया का है? वो भेद नहीं त्यागना है। सत्य में और मिथ्या में भेद करना नहीं छोड़ना है। ब्रह्म में और माया में भेद नहीं छोड़ना है। वहाँ पर भेद करना है।

अब आप साफ़-साफ़ जान जाओगे कि उचित कर्म क्या है। अब आप साफ़-साफ़ जान जाओगे कि कहाँ प्रतिरोध या समर्थन देना है और कहाँ अप्रतिरोध में जीना है। तू मुझे पाँच-सौ-एक देने वाला था, तूने पाँच-सौ ही दिये, मैं कोई प्रतिरोध नहीं करूँगा। तू मुझे हज़ार देने वाला था, तूने चार-सौ ही दिये, मैं यहाँ भी कोई प्रतिरोध नहीं करूँगा। यहाँ मैं अप्रतिरोध में जिऊँगा। ये नदी का बहाव है। हमने अक्सर उसकी बात करी है। पत्थर सामने आया, प्रतिरोध क्या करना है, बगल से निकल जाएँगे। हम नहीं प्रतिरोध करेंगे। रेजिस्टेंसलेसनेस (प्रतिरोधहीनता)। कोई प्रतिरोध नहीं करेंगे।

लेकिन जान दे दूँगा अगर तूने मेरी मुक्ति छीनी। पूर्ण प्रतिरोध। अब ये व्यक्ति उचित कर्म को जान गया है। ये जान गया है कि किस बात को दरकिनार कर देना है, छोड़ देना है, इग्नोर (अनदेखा) कर देना है। और किस बात को बहुत गम्भीरता से लेना है, प्राणों की बाजी लगा देनी है। तू मेरे पैसे छीनने आया है, छीन ले। मैं कोई प्रतिरोध नहीं करूँगा। हँसते-हँसते ले जा। जा ले जा। तू मेरी मुक्ति छीनने आया है, पहले मेरी लाश गिरा।

बात समझ में आ रही है?

मेरे रिश्ते-नाते मुझसे छूट रहे हैं, कोई बात नहीं। प्रेम टूट रहा है? नहीं, ये स्वीकार नहीं है। लड़ेंगे।

समझ में आ रही है बात? कहाँ भेद करना और कहाँ नहीं करना है। कहाँ अलग-अलग देखना है और कहाँ नहीं देखना है। जहाँ कहीं भी कुछ ऐसा है जो सांसारिक है, विषयगत है, इन्द्रियगत है, वहाँ पर अलग-अलग देखने की ज़रूरत ही नहीं। नफ़ा-नुकसान एक है। ठीक? अप्रतिरोध। सुना ही है तुमने। सन्तों की कहानियाँ हैं। चोर आया चोरी करने। वो एक चप्पल लेकर भाग रहा है, दूसरी लेकर के उसके पीछे दौड़ रहे हैं। ले जा, ले जा।

जीसस ने कहा है कि कोई तुम्हारी शर्ट माँगे, तुम उसे अपना कोट भी दे दो। ले जा। सांसारिक चीज़ें हैं, इनमें हम अन्तर ही नहीं करते। नहीं अन्तर करते। लेकिन तुम्हें क्या लगता है जीसस से तुम उनका सत्य छीनना चाहोगे। क्या वो तब भी ये कहेंगे, ले जा? वो चढ़ गए न सूली पर। क्योंकि कुछ ऐसा था जो वो नहीं छोड़ सकते थे। वहाँ पूरा प्रतिरोध है। तुम उनसे और जो छीनना चाहते हो, छीन लो। वो कहेंगे, ले जा। अलग-अलग नहीं देखते यहाँ। भेद करते ही नहीं। पर एक दूसरा तल है। वहाँ भेद करना ज़रूरी है। ब्रह्म और माया एक नहीं है। वहाँ ये मत कह देना कि देखो क्या फ़र्क पड़ता है। क्या फ़र्क पड़ता है। वहाँ मत कह देना क्या फ़र्क पड़ता है। वहाँ फ़र्क पड़ता है और बहुत गहरा फ़र्क पड़ता है। वहाँ लड़ो।

बात समझ में आ रही है?

इसीलिए महावीर की अहिंसा और कृष्ण का अर्जुन को युद्ध के लिए प्रोत्साहन, बात बिलकुल एक हैं। तल अलग-अलग हैं। जब महावीर कहते हैं अहिंसा, तो वो कहते हैं अप्रतिरोध। जब कृष्ण कहते हैं हिंसा, तो वो कहते हैं प्रतिरोध। और प्रतिरोध और अप्रतिरोध दोनों के लिए जगह है। मूढ़ता हमारी ये है कि हमें पता ही नहीं होता कि किन बातों का विरोध करना है और किन बातों को यूँही छोड़ देना है, ध्यान ही नहीं देना है।

जिन बातों को हमें तवज्जो देनी ही नहीं चाहिए। वहाँ पर हम अड़े रहते हैं। वहाँ हम खूब भेद करते हैं। सब्ज़ीवाले, अठन्नी और दे। खून की नदियाँ बह जाएँगी अठन्नी के लिए। और यही गृहिणी थोड़ी देर में वापस आकर के घर में, एकान्त में जो सब कीमती है उसके पास, उसको यूँही छोड़ देगी, बेच देगी, तब कोई प्रतिरोध नहीं होगा। घर के बाहर खड़ा होकर के ये सब्ज़ीवाले से अठन्नी के लिए लड़ रही है। वहाँ ये बड़ा भेद कर रही है। बहुत भेद है कि बारह रुपये पाव है या साढ़े-बारह रुपये पाव है। और घर के भीतर ये भेद नहीं कर पा रही है कि अपनी आत्मा को बेचा कि नहीं बेचा। यहाँ भेद नहीं कर पा रहे हो कि अनछुए रह गए या बिक गए बाज़ार में। यहाँ कोई भेद नहीं कर पा रहे हो।

बात समझ में आ रही है?

यही जीवन जीने की कला है। ये जान पाना कि कहाँ कर्म करना है और कहाँ अकर्म में रहना है। जो ये जानता है, उसके दोनों ही रूप गहरे और सच्चे, वास्तविक होते हैं। वो जब लड़ेगा तो ऐसा लड़ेगा कि तुम उसे जीत नहीं सकते। तुम उसे मार सकते हो, उसे जीत नहीं सकते। पर वो व्यर्थ ही नहीं लड़ेगा। वो हमारी तरह नहीं है कि नीचे ढ़ाबे पर लड़ गया एक रोटी और दे। और गोलियाँ चल गयीं और वो मर गया। वो ऐसे नहीं लड़ेगा।

आ रही बात समझ में?

और दोनों ही उसके गहरे होंगे। उसका युद्ध भी बहुत गहरा होगा। उसका प्रतिरोध भी बहुत गहरा होगा। जब वो प्रतिरोध दे रहा है, तुम उससे पार नहीं पा पाओगे। उसकी आत्मा ने तय किया है कि ये नहीं हो सकता तो नहीं ही होगा, भले ही शरीर गिर जाए। उस दिन वो संस्कृत का एक वचन था, मैंने तुम लोगों को लिखवाया था जब बैठे थे बाहर, “कार्यं वा साधयामि शरीरं वा पातयामि।” या तो कार्य यही होगा या शरीर ही गिर जाएगा। ये प्रतिरोध होगा उसका। पर ये प्रतिरोध वो सिर्फ़ तब देगा जब दाँव पर प्रेम, सत्य, मुक्ति, आनन्द लगे होंगे। इनके अलावा वो प्रतिरोध नहीं देगा। ये वो सिर्फ़ तब कहेगा।

यहाँ जो कहा जा रहा है, “कार्यं वा साधयामि” कार्य, कौन सा कार्य? ये कार्य नहीं कि राशन खरीदना है। ये कार्य नहीं कि नौकरी में सौ रुपये और कमाने हैं। ये कार्य नहीं कि किसी का शरीर हासिल करना है। किस कार्य की बात हो रही है? जब कहा जा रहा है “कार्यं वा साधयामि” या तो कार्य ही होगा, “शरीरं वा पातयामि” या शरीर ही गिर जाएगा। किस कार्य की बात हो रही है? आत्यन्तिक कार्य की बात हो रही है, आत्मिक तल की बात हो रही है।

जब उसकी बात करोगे तो जान दे देंगे। शरीर गिरता है तो गिरे। “शरीरं वा पातयामि” शरीर गिरता है तो गिरे, रुकेंगे नहीं। और जब बाकी सारी बातें हैं, जाओ ले जाओ, ले जाओ। ये कोई संयोग मात्र नहीं है कि इतिहास में अक्सर सन्तों के हाथ में तलवार भी रही है। कि विशेषकर हिन्दुओं ने अपने अवतारों की जो अभिकल्पना करी, उसमें समस्त अवतारों के पास शस्त्र भी हैं। एक हाथ में वेद होंगे और दूसरे हाथ में शस्त्र होंगे। ये जीवन के दो पहलू हैं— अप्रतिरोध और प्रतिरोध।

आ रही बात समझ में?

और ये परम्परा चारों तरफ़ है। आप जो त्रिमूर्ति भी सोचते हो, वहाँ पर सृजनकर्ता है, पालनकर्ता है, और फिर प्रलयकर्ता, संघारकर्ता भी है। सिखों के गुरु थे, उनमें से अधिकांश ने अपना पूरा जीवन संघर्ष में ही बिताया। इस्लाम के पैगम्बर थे, वो दो दशक तक लड़ते ही रहे। क्योंकि प्रतिरोध आवश्यक होता है। एक स्थिति आती है जब आपको कहना पड़ता है कि नहीं, लड़ना ज़रूरी है। और तब लड़ाई ऐसे नहीं की जा सकती कि हल्की-फुल्की है। फिर वो आर-पार की है। फिर खून बहे चाहे लाशें गिरें, चाहे कोई न बचे। फिर वहाँ दया, मोह, माया के लिए कोई जगह नहीं है।

समझ में आ रही है बात?

अलग-अलग क्या है और क्या नहीं— इसका विवेक रखो। यही जीवन है।

प्र: क्वांटीटेटीव था उसमें हम इसलिए लड़ते हैं क्योंकि उससे हम एक्चुअल में नहीं लड़ पाते, उससे भागते हैं तो उसमें लड़ते हैं।

आचार्य प्रशांत: जो लोग जीवन की असली लड़ाइयाँ नहीं लड़ पाते, उनसे भागे होते हैं, ठीक ही कहा। वो फिर नकली लड़ाइयाँ में अपनी वीरता सिद्ध करते हैं। जो जीवन की रणभूमि में वास्तविक युद्ध नहीं लड़ पाये होते हैं वो फिर छोटे-छोटे, छुद्र, टुच्ची लड़ाइयाँ जीतने की कोशिश करते हैं। जो असली लड़ाई लड़ रहा है, जिसके दिल में राम बैठा हुआ है, वो छोटी लड़ाइयों को तो दरकिनार करेगा। कहेगा, ‘ये क्या लड़नी है।’

बात समझ में आ रही है?

ये इसका कोई मतलब नहीं। छोड़ो, क्या है। हम छोटी बातों पर ध्यान ही नहीं देते। हम छोटा होने पर ध्यान देते हैं। वो मत कर देना। छोटा-छोटा जो है वो हमसे छीन लो, पर ये कोशिश न करना कि हम छोटे हो जाएँ। छोटा होना हमारा स्वभाव नहीं।

YouTube Link: https://youtu.be/WDDY1fcwgaw?si=Idpn4QDr8I2zfNxe

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