प्रश्नकर्ता: अध्यात्म में कामवासना, शारीरिक-आकर्षण, इन सबके विरुद्ध सावधान रहने को कहा जाता है, लेकिन जिस प्रक्रिया से एक जीव इस दुनिया में, अस्तित्व में आता है, वह प्रक्रिया ग़लत कैसे हो सकती है?
आचार्य प्रशांत: जो सवाल पूछ रहे हैं, उनकी कुछ धारणाएँ हैं, जो सवाल के पीछे छुपी हुई हैं। उनकी सबसे केंद्रीय धारणा ये है कि शारीरिक-जन्म अपने-आपमें कोई बहुत पूरी या शुभ बात होती है। दूसरी धारणा उनकी ये है कि हम हमारा शरीर ही हैं।
देखिए, समझिए। आपने अपनी जगह तर्क बिलकुल भरपूर दिया है। आप कह रहे हैं कि, "हम जिस प्रकिया से दुनिया में आए हैं, वो प्रक्रिया कैसे ग़लत हो सकती है क्योंकि हम ही ग़लत नहीं हैं। शरीर आता है न काम और वासना के माध्यम से दुनिया में?" तो पूछने वालों का मानना है कि हम शरीर हैं, और हम दुनिया में आए हैं, बहुत शुभ काम हुआ है, और दुनिया में हमें लाने का काम वासना ने किया है, तो वासना के विरुद्ध फिर सावधान रहने की ज़रूरत क्या है? नहीं, ऐसा नहीं है।
पहली बात तो ये है कि आप शरीर हैं — यही आपका मूल कष्ट है। दूसरी बात — जबतक आप अपने-आपको जानते नहीं हैं, अपने-आपको और बाकी सब लोगों को शरीर ही मानते रहते हैं, तबतक आपके लिए सबसे बड़ी बात, सबसे शुभ घटना यही होती है कि किसी जीव का शारीरिक-आगमन हो जाए, वो आ जाए। आपको यही बहुत बड़ी बात लगती है, जन्म हो जाए। लेकिन जो समझदार हो जाता है, उसके लिए शुभ बात या बड़ी बात ये नहीं होती कि शारीरिक रूप से दुनिया में आ गए। उसके लिए बड़ी बात ये होती है कि मानसिक रूप से दुनिया से प्रस्थान कर गए। जो लोग इस बात की ख़ुशी मनाते हैं कि उनका शरीर इस दुनिया में आ गया, वो शरीर ही बनकर लगातार मौत जैसे कष्ट भोगते हैं। जो शरीर के जन्म की ख़ुशी मनाते हैं, वो शरीर ही बनकर जन्म पर्यन्त मृत्यु-तुल्य कष्ट भोगते हैं। और जो समझ जाते हैं कि अपने-आपको शरीर समझना भूल है, वो फिर आने की ख़ुशी नहीं मनाते, वो जाने की साधना करते हैं।
अध्यात्म आने का नाम नहीं है; अध्यात्म एक अंतिम विदाई का नाम है। अंतर समझिएगा। सांसारिक आदमी या देहाभिमानी आदमी इसी चक्कर में लगा रहता है कि वो और आए, और आए, और आए, इसी को तो जन्म-मरण का चक्र कहते हैं न? प्रकृति आपसे चाहती ही यही है कि आप अपनी प्रजाति के और-और-और इकाईयाँ-नमूनें पैदा करते जाएँ। आप जिस भी प्रजाति के हों, प्रकृति की आपसे अपेक्षा ये रहती है कि आप अपनी प्रजाति के ही और सदस्य पैदा करते जाएँगे। अध्यात्म बिलकुल अलग आयाम की बात करता है। वो कहता है — ये आने-जाने का कार्यक्रम तो तुम्हारा बहुत चलता रहा, तुम्हारा आना भी झूठा, तुम्हारा जाना भी झूठा। तुम आते हो जाने के लिए, तुम जाते हो आने के लिए। इस चक्र से ही तुम्हें बाहर आना है। ये आने-जाने का पूरा चक्र ही गड़बड़ है, तुम्हें इससे बाहर आना है।
तो अंतर समझिएगा, अध्यात्म में अगर कोई चीज़ ख़ुशी मनाने लायक होती है, उत्सव के योग्य होती है, तो वो क्या होती है? मोक्ष, मुक्ति, प्रस्थान; आगमन नहीं, बहिर्गमन, चले गए। तो तुम अपनी मूल-धारणा को देखो, तुम्हारी मूल-धारणा ही ग़लत है। चूँकि तुम अपनी मूल-धारणा को पकड़े हुए हो, इसीलिए तुम्हें कामवासना बड़ी शुभ बात लगती है। तुम कहते हो — शरीर का इस दुनिया में आना शुभ है न, तो फिर कामवासना भी तो अच्छी बात हुई। नहीं, शरीर का इस दुनिया में आना ही कोई शुभ बात नहीं है। मुझे मालूम है, ये बात बहुत लोगों के गले ही नहीं उतरेगी, क्योंकि हम तो अभ्यस्त हैं बच्चे के जन्म पर उल्लास और उत्सव करने के लिए। सबसे बड़ी ख़ुशी की बात यही होती है न, घर में नया बच्चा आ गया। आपके पास सबकुछ हो, आपके घर में बच्चा ना हो, आपको चैन नहीं पड़ता। प्रकृति भी यही चाहती है, और समाज भी यही चाहता है। तो मैं जो बात बोल रहा हूँ, वो आसानी से समझ में नहीं आएगी। लेकिन अध्यात्म की दृष्टि से ये बिलकुल कोई बहुत प्रसन्नता-हर्ष की बात नहीं है कि आप पैदा हो गए, बिलकुल भी नहीं। सच्ची दृष्टि से हर्ष की बात ये होती है कि अब आप दोबारा पैदा ना हों; आपकी आखिरी विदाई हो गई, निर्वाण हो गया आपका, अब आपको लौटकर आने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, अब आप फँसेंगे नहीं इसी कष्ट के चक्र में। समझ में आ रही है बात?
जो जितना अपने-आपको शरीर मानेगा, वो उतना ज़्यादा कामवासना को ही पूजेगा; बिलकुल सही बात है, क्योंकि शरीर आता ही कहाँ से है? कामवासना से, और अगर आप शरीर बन गए, तो फिर आपके लिए सबसे पूजनीय कामवासना हो ही जाएगी, आप ज़िंदगी भर यही करते रहोगे। और कामवासना का मतलब इतना ही नहीं होता है कि आप पुरुष हैं तो आपको स्त्री का शरीर चाहिए, आप स्त्री हैं तो आपको पुरुष का शरीर चाहिए, या आपको संतानें पैदा करनी हैं। कामवासना का अर्थ होता है — पदार्थ के प्रति बड़े सम्मान का, बड़े आदर का, बड़ी आस्था का रवैय्या रखना। पदार्थ को, मटेरियल को ही आखिरी चीज़ मान लेना। सोचना कि इसी से तो सबकुछ मिल जाना है, उसी को पूजने लग जाना। वो पदार्थ अपना शरीर भी हो सकता है, किसी और का शरीर भी हो सकता है, एक अच्छा कपड़ा हो सकता है, गाड़ी हो सकती है, पैसा हो सकता है, कोई गैजेट (उपकरण) हो सकता है, कोई बड़ा आलिशान घर हो सकता है, कुछ भी हो सकता है। जो भी व्यक्ति पदार्थ के पीछे पागल है — फ़र्क नहीं पड़ता कि वो पदार्थ क्या है — उस व्यक्ति को कामुक ही मानिए। इच्छा को ही तो कामना कहते हैं न? कोई ऐसा थोड़े ही है कि यौन-इच्छा को ही कामना कहते हैं, कोई भी इच्छा हो वो कामना ही है, काम। ठीक है? और सारी इच्छाएँ हमारी होती ही किसके प्रति हैं? पदार्थ के प्रति। तो जो अपने-आपको शरीर मानेगा, वो पदार्थ के प्रति ही पागल रहेगा।
मैं नहीं कह रहा कि आप पदार्थ को छोड़ सकते हैं। साँस भी अगर आप ले रहे हैं, तो भी पदार्थ का ही सेवन कर रहे हैं आपके फेफड़ें; पदार्थ को आप छोड़ नहीं सकते। लेकिन कामवासना में पागल आदमी की ये पहचान होती है कि वो उम्मीद लगा बैठता है कि पदार्थ से ही उसको आखिरी मुक्ति-तृप्ति-आज़ादी मिल जाएगी। यहीं पर वो मात खाता है। वो पदार्थ को मुक्ति के माध्यम की तरह नहीं इस्तेमाल करता, वो पदार्थ को ही मुक्ति समझ लेता है। वो ये नहीं सोचता कि गाड़ी हो अगर तो गाड़ी का सही इस्तेमाल करके सही मंज़िल तक पहुँचा जा सकता है। वो गाड़ी खरीद लेने में ही मुक्ति समझने लगता है। वो सोचता है कि जीवन का आखिरी शिखर यही है, कि अच्छी-से-अच्छी, महँगी-से-महँगी गाड़ी घर आ जाए। गाड़ी में कोई बुराई नहीं अगर आपको ये पता हो कि उस गाड़ी से जाना कहाँ है। लेकिन अगर आपके लिए सबसे बड़ी बात यही हो गई कि, "घर में मैंने महँगी-से-महँगी गाड़ी खड़ी कर ली", तो फिर आप कामवासना के रोगी हैं। समझ में आ रही है बात?
इसी तरीके से दुनिया में अगर हो तो दूसरे लोगों से तो वास्ता पड़ेगा ही न, और हर व्यक्ति जो आपके सामने आ रहा है, आँखों के देखे तो एक शरीर ही है। आँख तो शरीर को ही देखती है न? आपके सामने कृष्ण भी खड़े हो जाएँ, तो ये जो हाड़-माँस की आँख है, ये क्या देखेगी? ये तो कृष्ण का शरीर ही देखेगी। तो जबतक आप दुनिया में हैं, जबतक ये शरीर है, तबतक दूसरे लोगों से तो वास्ता पड़ता ही रहेगा, माने दूसरे शरीर धारियों से तो वास्ता पड़ता ही रहेगा। सवाल ये है कि आपने उस शरीरधारी के शरीर को ही अंतिम बात मान लिया है, या उस शरीरधारी की जो चेतना है उससे सरोकार है आपका? बात समझ रहे हो?
शरीर क्या है? गाड़ी। उस गाड़ी का इस्तेमाल किसको करना है? चेतना को करना है, चेतना को अपनी मंज़िल तक पहुँचना है। बात समझ में आ रही है? शरीर गाड़ी है, और गाड़ी का चालक कौन है? चेतना। चेतना को इस शरीर का इस्तेमाल करना है वहाँ पहुँचने के लिए जिसके लिए वो अधीर है। तो आप किसी को देखें, तो शरीर तो उसका दिखाई देना ही है, उसमें कोई अपराध नहीं हो गया। बात ये है लेकिन कि क्या आप उसको सिर्फ़ शरीर की तरह ही देख रहे हैं? कामवासना का रोगी वो है जो जब किसी को देखता है तो उसको सिर्फ़-और-सिर्फ़ शरीर दिखाई देता है। इसका मतलब ये नहीं है कि जो स्वस्थ व्यक्ति होगा या जो आध्यात्मिक व्यक्ति होगा, उसको शरीर नहीं दिखाई पड़ेगा, शरीर तो उसको भी दिखाई पड़ेगा, लेकिन उसे शरीर किसकी तरह दिखाई पड़ेगा? गाड़ी की तरह। जैसे आपके घर में कोई मेहमान आए, गाड़ी में बैठकर के आए, और आप ऐसे पागल निकलें कि उसकी गाड़ी को ही देखते रह जाएँ, गाड़ी के अंदर कौन बैठा है उसको देखें ही नहीं तो ये कितनी होशियारी की बात हुई? वैसे ही आपकी ज़िंदगी में कोई व्यक्ति आए, या आपकी आँखों के सामने कोई इंसान आए, और आप ऐसे पागल निकलें, कि आप उसके शरीर को देखते रह जाएँ, शरीर के अंदर जो चेतना बैठी है, उसको आप देखें ही नहीं, तो आप बराबर के पागल हुए न? कल्पना कर पा रहे हैं?
आपके घर कोई आया है, गाड़ी में बैठकर आया है, और आपने क्या किया? आप उसकी गाड़ी को ही देखे जा रहे हैं। उसके बोनट पर हाथ फेर रहे हैं, हेडलाइट देख रहे हैं, शीशे लगे हुए हैं उसमें जाकर के अपनी शक़्ल देख रहे हैं। कुछ भी कर रहे हैं, और वो अंदर बैठा हुआ है। उसको समझ में ही नहीं आ रहा, कह रहा है, "कैसा आदमी है ये? अंदर मैं हूँ, इसे मुझसे मतलब नहीं, इसे मेरी गाड़ी से मतलब है!" हम भी तो ऐसे ही होते हैं न? जो हमारे जीवन में होता है, हमें उससे मतलब नहीं होता, हमें उसके शरीर से मतलब होता है। इसे कहते हैं — कामवासना का रोग। बात समझ में आ रही है?
आप ऐसा नहीं कर सकते कि गाड़ी को त्याग देंगे। आपसे जो मिलने आया है, वो बिना गाड़ी के आप तक नहीं पहुँच पाता शायद, बहुत दूर से आया है। आप उसकी गाड़ी को सम्मान भी दीजिए, आप उसको बताइए कि, "वो पार्किंग है आप गाड़ी वहाँ खड़ी कर सकते हैं।" ठीक है, अच्छी बात है, पर जो मिलने आया है उसका नाम गाड़ी थोड़े ही है। वो गाड़ी के अंदर था, पर वो गाड़ी नहीं था। वैसे ही दो इंसान जब आपस में वास्ता रखें, तो शरीर ठीक है, दूसरे के शरीर का ख्याल कर लीजिए, जैसे गाड़ी को पार्किंग दे देते हैं कि हाँ, चोट ना लगे, गाड़ी में आप फ्यूल (ईंधन) ड़ाल देते हैं, गाड़ी की सर्विसिंग (रख-रखाव) करा देते हैं। वैसे ही शरीर को भी फ्यूल (ईंधन) देना पड़ता है, शरीर को ऐसी जगह रखना पड़ता है जहाँ उसे बीमारी ना लगे, चोट ना लगे। लेकिन शरीर को ही चूमने-चाटने लग जाएँ, माने कोई आया और आपने उसकी गाड़ी की डिक्की चूमनी-चाटनी शुरू करदी, और वो बेचारा अंदर बैठा है, सोच रहा है "ये गाड़ी में ही चिपका रहेगा?" ये समझ में आ रही है बात?
अपने-आपको अगर हम शरीर ही मानते हैं तो फिर हम इस तरीके के सवाल पूछा करते हैं कि "अरे, जिस कामवासना से ही ये पूरी मनुष्य-प्रजाति उत्पन्न हुई है, अध्यात्म क्यों उसके विरुद्ध सावधान रहने को कहता है?" भाई, मनुष्य प्रजाति नहीं पैदा हुई है कामवासना से, कामवासना से मनुष्य की चेतना नहीं पैदा हुई है, कामवासना से आत्मा नहीं पैदा हुई है, कामवासना से सिर्फ़-और-सिर्फ़ शरीर पैदा हुआ है। आदमी-औरत मिलकर के देह के माध्यम से आत्मा नहीं पैदा कर सकते, शरीर पैदा कर सकते हैं, और शरीर पैदा कर सकते हैं तो उसमें कौन-सा बड़ा काम कर लिया? माँस और माँस मिले और माँस पैदा कर दिया, कौन-सा तीर चला दिया? कौन-सा पहाड़ ढहा दिया? कौन-सा पदक मिलना चाहिए? असली चीज़ क्या है? गाड़ी, या गाड़ी के अंदर जो बैठा है?
श्रोतागण: अंदर जो बैठा है।
आचार्य: आपसे जो मिलने आया है, वो आपका दोस्त हो सकता है। आप अपने दोस्त का स्वागत करोगे, या गाड़ी जिस फैक्ट्री (कारखाना) में पैदा हुई है, उस फैक्ट्री (कारखाना) का धन्यवाद देने जाओगे? बोलो जल्दी, और गाड़ी बनाने वाली फैक्ट्री (कारखाना) ने आपका दोस्त नहीं पैदा किया।
माँ-बाप क्या हैं? जहाँ तक उनके शरीर की बात है, तो वो क्या हैं? गाड़ी बनाने वाली फैक्ट्री (कारखाना)। गाड़ी बनाने वाली फैक्ट्री (कारखाना) ने गाड़ी ही पैदा की है, गाड़ी में जो आपका दोस्त बैठा है उसको नहीं पैदा किया। लेकिन जो लोग गाड़ी का बोनट और बम्पर ही चाटते हुए ही पूरी ज़िंदगी बिता रहे हैं, जिनको गाड़ी के भीतर बैठे दोस्त का कुछ पता नहीं, वो सवाल फिर ऐसे ही पूछते हैं। समझ में आ रही है बात?
ख़लील ज़िबरान की बड़ी सुन्दर उक्ति है — "आवर चिल्ड्रन आर नॉट आवर चिल्ड्रन, दे जस्ट कम थ्रू अस (हमारे बच्चे हमारे नहीं हैं, वो हमारे द्वारा आए हैं)" हमारे नहीं हैं, हमारे क्यों नहीं हैं? अगर वो शरीर होते तो हमारे होते। जहाँ तक गाड़ी की बात है, वो बिलकुल फैक्ट्री की है। अगर सिर्फ़ गाड़ी खड़ी है, तो आप कह सकते हैं कि ये चीज़ जो है फैक्ट्री (कारखाना) की है। पर अगर गाड़ी के अंदर इंसान भी बैठा है, तो आप नहीं कह सकते कि ये फैक्ट्री (कारखाना) की है। इसी तरीके से अगर सिर्फ़ शरीर की बात हो रही होती तो आप कह सकते थे कि ये जो शरीर है ये पूरे तरीके से सम्भोग से आया है। पर उस शरीर के अंदर चेतना भी बैठी है, तो आप नहीं कह सकते। बात समझ रहे हो?
सिर्फ़ एक गाड़ी खड़ी है। अब आप ये कह सकते हो न कि ये जो चीज़ मेरे सामने है, ये शत-प्रतिशत कहाँ से आई है? फैक्ट्री (कारखाना) से आई है। पर अगर उस गाड़ी के भीतर एक इंसान भी बैठा है, एक जागृत चेतना भी बैठी हुई है, तो क्या अब आप कह सकते हो, कि सामने जो चीज़ है —गाड़ी और इंसान, गाड़ी के भीतर का इंसान, गाड़ी के भीतर की चेतना — क्या अब आप कह सकते हो कि ये जो मेरे सामने चीज़ है, ये शत-प्रतिशत फैक्ट्री (कारखाना) से आई है? कह सकते हो क्या? नहीं कह सकते न? ठीक वैसे ही हम सब की बात है।
अगर हम सिर्फ़ शरीर होते, तो निश्चित रूप से हम कामवासना की पैदाइश होते पर हम सिर्फ़ शरीर नहीं हैं। शरीर तो हमारी हस्ती का बहुत बाहरी छिलका है। शरीर हमारी हस्ती का एक बहुत बाहरी छिलका-भर है। हम वास्तव में जो हैं, वो चीज़ कामवासना की पैदाइश नहीं है, बल्कि ये ज़रूर होता है कि अगर आप अपने-आपको कामवासना की पैदाइश समझने लग जाते हो, तो आप वास्तव में जो हो उसको पूरे तरीके से भूल जाते हो।
प्रश्नकर्ता की भी कुछ ऐसी ही हालत है, वो बिलकुल भूले बैठे हैं कि वो कौन हैं। तो बहुत ज़ोर से उछलकर उन्होंने सवाल दागा है। कह रहे हैं — हम सब तो वासना से ही तो आते हैं। अगर आत्मा हो तुम, अगर झूठ नहीं बोला है उपनिषदों ने कि "अहम् ब्रह्मास्मि", तो आत्मा तो ना पैदा होती है, ना मरती है न? तुम तो पैदा हुए थे, माने जो पैदा हुआ था वो तुम नहीं हो। अच्छे से समझो बात को। तुम अपने-आपको तो पैदा बोलते हो न? शरीर तो पैदा हुआ था एक दिन, हुआ था न? और शरीर मरेगा भी एक दिन। लेकिन आत्मा ना जन्मती है ना मरती है, इसका मतलब — वास्तव में शरीर हो नहीं तुम, तो फिर शरीर के जन्म को लेकर के इतनी छलाँग क्यों मार रहे हो? इतनी क्या उत्तेजना है, शरीर के जन्म को लेकर के?
जिस दिन समाज थोड़ा भी जागृत हो जाएगा, उस दिन आपको एक निशानी साफ़ देखने को मिलेगी — बधाईयाँ फिर बच्चे के जन्म पर नहीं गाई जाएँगी, एक वयस्क मनुष्य की मुक्ति पर, बोध पर गाई जाएँगी। बच्चे ने जन्म ले लिया, उसपर ऐसा भी नहीं है कि छाती पीटी जाएगी, शोक मनाया जाएगा, वो एक साधारण घटना है। बच्चे तो यूँही जन्म ले लेते हैं, पशुओं के भी बच्चे हो जाते हैं, लगातार बच्चे-ही-बच्चे हो ही रहे हैं। कोई बिलकुल ही विक्षिप्त हो, पागल हो, उसके ही बच्चा पैदा हो जाएगा। बच्चा पैदा होने में कौन-सी बड़ी बात है? तो एक जागृत समाज की ये निशानी होगी, कि उसमें बच्चे का पैदा होना बहुत साधारण घटना समझी जाएगी। उसको कोई उल्लेख में ही नहीं लेगा। बधाईयाँ वहाँ किस बात पर बजेंगी? जब कोई बच्चा बड़ा होगा, और अपने लिए बोध को, मुक्ति को अर्जित कर पाएगा। उस दिन माना जाएगा कि आज बधाई लायक कोई बात हुई है, उस दिन गीत गाए जाएँगे।
और कौन-सा समाज कितना ज़्यादा पतन में धँसा हुआ है, इसकी पहचान ही यही है कि कौन-से समाज में कितनी ज़्यादा ख़ुशी इन्हीं चीज़ों पर मनाई जाती है, शादी पर, बच्चे के पैदा होने पर, जन्मदिन पर। यही बहुत बड़ी बातें हैं। इन बातों पर बहुत धूमधाम है कि आज हमारी शादी के पाँच साल पूरे हो गए, पच्चीस साल पूरे हो गए, आज बच्चे के जन्म के दस साल पूरे हो गए, या पहला साल है, या आज हमारे घर चौथा बच्चा जन्म ले रहा है। क्या धूम है, क्या मिठाईयाँ बँट रही हैं, ढोल बज रहे हैं! इससे यही पता चल रहा है कि बिलकुल नर्क है, अन्धकार है, और ज़बरदस्त कष्ट में होंगे ये सारे लोग जो इस पल में बधाईयाँ गा रहे हैं। भीतर-ही-भीतर रो रहे हैं।
और ऐसा समाज जहाँ पर शरीर सम्बंधित सभी घटनाओं पर बधाइयाँ गाई जाती हैं, ऐसे समाज में निश्चित रूप से जब कोई बोध की ओर बढ़ेगा, मुक्ति की ओर बढ़ेगा, तो ये तो छोड़ दो कि उसको बधाइयाँ मिलेंगी, उसको बाधाएँ मिलेंगी। ये अच्छे से समझो। जिस समाज में, जिस घर में यही सबसे बड़ी बात है कि फलाने की शादी हो गई, फलाने की सगाई हो गई, फलाने को बच्चा हो गया, उस समाज में, या उस घर में जब भी कोई मुक्ति-आज़ादी की ओर बढ़ेगा, समझ की ओर बढ़ेगा, तो उसे बधाईयाँ नहीं, बाधाएँ मिलेंगी। उन्हीं घरवालों से मिलेंगी, समाज के उन्हीं लोगों से मिलेंगी। ये दोनों चीज़ें साथ-साथ चलती ही हैं। जहाँ शरीर की पूजा होगी, वहाँ आत्मा के प्रति विरोध तो होगा-ही-होगा। स्पष्ट हो रही है बात?
तो कृपा करके ये विचार-भाव बिलकुल अपने मन से निकाल दें कि आपकी ज़िन्दगी का बहुत अहम, बहुत महत्त्वपूर्ण या केंद्रीय काम यही है कि बच्चा पैदा करना। ये भाव सबमें होता है, लेकिन महिलाओं में, कुछ प्रकृति ने और कुछ समाज ने, कुछ ज़्यादा ही कूट-कूटकर भर दिया होता है। कि अगर मातृत्त्व नहीं आया जीवन में तो जीवन हमारा अधूरा ही रह गया, ये बिलकुल बेबुनियाद और बेवकूफ़ी भरी बात है। इस बात को बिलकुल अपने दिमाग से निकाल दें। आपने जन्म ले लिया, यही क्या कम था जो अब आप चार और को जन्मा रहे हो?
जीवन का अर्थ समझो, इसमें जन्म की सार्थकता है। खुद भी अँधेरे में पैदा हो गए, और अपने पीछे चार और को अँधेरे में लाकर के छोड़ दिया, इसमें कोई बहादुरी नहीं है।