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वर्तमान में कैसे केन्द्रित रहें? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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वर्तमान में कैसे केन्द्रित रहें? || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरी परेशानी यह है कि मैं वर्तमान में केन्द्रित नहीं रह पाता। जैसे कभी अतीत की चिंता, कभी भविष्य की चिंता। और जो वर्तमान में चल रहा होता है वह भी ख़राब हो जाता है। दिमाग में ही कुछ-न-कुछ चलता रहता है, लेकिन उसे लागू नहीं कर पाता। कुछ शुरू नहीं कर पाता।

आचार्य प्रशांत: यह किसने बताया कि प्रेजेंट (वर्तमान) पर फोकस करना चाहिए?

प्र: जो भी मैं कर रहा हूँ उसकी समझ शत प्रतिशत नहीं रहती।

आचार्य: जो कर रहे होते अगर वो सही ही होता तो मन अतीत और भविष्य में भटकता क्यों? सवाल ये है कि सतनाम (प्रश्नकर्ता) कह रहे हैं कि मन प्रेजेंट में नहीं रह पाता, आगे-पीछे भागता रहता है। मैं पूछ रहा हूँ कि यह किसने बता दिया कि मन को प्रेजेंट में रहना ही चाहिए।

जिसको तुम कहते हो अतीत और जिसको तुम कहते हो भविष्य और जिसको तुम कहते हो ये क्षण, उपस्थित क्षण, प्रेजेंट मोमन्ट इन तीनों में कोई अन्तर नहीं है। ये तीनों समय की धारा के हिस्से हैं। जैसे खड़े हो तुम एक नदी के सामने, पानी है जो तुम्हारे पीछे है, पानी है जो तुम से आगे है और पानी ही है जो तुम्हारे समक्ष है, सामने है। इन तीनों पानियों में फ़र्क हो गया क्या?

धार बह रही है, कुछ पानी यहाँ है, कुछ यहाँ है, कुछ यहाँ है; तीनों में कोई अन्तर आ गया? आ गया हो तो बताओ। तो फिर ये इतना शोर क्या मचा रखा है कि फोकस ऑन द प्रेज़न्ट मोमन्ट (वर्तमान में केन्द्रित रहो) इत्यादि। लोग कह देते हैं कि हम जो प्रेज़न्ट में कर रहे हैं उस पर एकाग्र नहीं हो पाते, कन्सन्ट्रेट (ध्यान केन्द्रित) नहीं कर पाते। तुम जो कर रहे हो वो करने लायक़ ही नहीं है। ऊपर से तुम्हारी कोशिश ये है कि तुम उस पर एकाग्र हो जाओ, कैसे हो जाओगे?

तुम्हें एकाग्र होना है लेकिन उस क्षण पर नहीं, ग़ौर से समझ लो इस बात को, उस क्षण पर नहीं, उस पर जो क्षण से—

श्रोता: बाहर है।

आचार्य: बाहर है। उस पर जो उस क्षण से अतीत है, बाहर है। अतीत से मेरा अर्थ पास्ट नहीं, अतीत मतलब आगे।

श्रोता: बियोंड (परे)।

आचार्य: हाँ, बियोंड है। तो इस चक्कर में मत रह जाना, ये बहुत इस प्रकार का प्रचार, प्रोपेगेंडा (अधिप्रचार) फैला हुआ है, क्या? कि प्रेजेंट मोमन्ट में जियो। प्रेजेंट मोमन्ट में नहीं कन्सन्ट्रेट करना होता, उस पर करना होता है (ऊपर आकाश की ओर इशारा करते हुए)। जब उस पर करते हो ध्यान तो तुम अतीत में रहो, वर्तमान में रहो, भविष्य में रहो, जहाँ भी रहोगे चंगे रहोगे।

और अगर वो नहीं है तुम्हारी ज़िन्दगी में और तुम कहो कि नहीं साहब मैं जो कर रहा हूँ मुझे उसी पर फोकस करना है, प्रेजेंट पर फोकस करना है, तो पहली बात तो तुम्हारा वो फोकस बनेगा नहीं और बन गया तो आत्मघातक होगा।

तुम्हारे जीवन में परमात्मा नहीं, प्रेम नहीं, करुणा नहीं, ध्यान नहीं। पेशा तुमने अपना रखा है कोई ऐसा जिसमें पचास तरह की मलिनताएँ हैं, द्वेष है, घृणा है, हिंसा है। कुछ भी हो सकता है पेशा, इंसान को काटने का पेशा हो सकता है, जानवर को काटने का पेशा हो सकता है। पेशे होते हैं ऐसे कि नहीं कि इंसान को दुख पहुँचाओ। उनको इसी बात के पैसे मिलते हैं, इसको परेशान करो, उसको शंका में डाल दो, उसके मन में डर पैदा कर दो, इस बात के पैसे मिलेंगे। और पैसे होते हैं कि जितने पेड़ हों सब काट डालो, इस बात के पैसे मिलेंगे। जानवरों को काट डालो, इस बात के पैसे मिलेंगे।

अब तुम इस पर एकाग्र होना चाहते हो। तुम कहते हो, 'यही तो मैं कर रहा हूँ अभी। और मुझे मेरे गुरुओं ने सिखाया है कि फोकस ऑन द प्रेजेंट।' और प्रेजेंट में तुम कर क्या रहे हो? तुम एक निरीह पशु को काट रहे हो। क्या होगा वर्तमान पर केन्द्रित रहने से जब वर्तमान में जो तुम कर रहे हो वही घिनौना है?

सुन्दर कुछ तब होगा न जब तुम न वर्तमान की बात करो, न अतीत की बात करो, न भविष्य की बात करो। बात करो किसकी? उसकी (ऊपर की तरफ़ इशारा करते हैं), उसकी बात करो। उसके बाद तुमको अतीत में जीना है जियो, कोई नुक़सान नहीं होगा तुम्हारा। अतीत हो कि भविष्य हो कि वर्तमान हो, ये तो समय की धारा में बूँदें हैं।

काल के सभी खंड महाकाल के हाथ में खिलौने हैं। महाकाल के साथ रहो फिर पीछे का काल हो कि आगे का काल हो कि सामने का काल हो, कोई काल तुम्हें डराएगा नहीं। लेकिन अगर तुम यह कहोगे कि मेरा उससे (ऊपर की तरफ़ इशारा करते हुए) तो कोई लेना-देना नहीं, जैसा कि ज़्यादातर लोग कहने लग गये हैं कि साहब उससे तो कोई लेना-देना नहीं। जो इन्द्रियों के पार है, जो मन से आगे का है उसमें हमारी कोई श्रद्धा नहीं। हमें तो एक बात पता है, क्या? लिव इन द प्रेजेंट (वर्तमान में जियो)। तो यह बेवकूफ़ी भरी बात होगी। इससे तुम्हें कोई चैन, शान्ति, आनन्द नहीं मिलने वाला।

(प्रश्नकर्ता से कहते हैं) सिख हो, 'ग्रन्थ साहिब' का पाठ करते होओगे। बताओ, कहाँ उन्होंने सिखाया है कि लिव इन द प्रेजेंट। अगर अच्छे साधक हो तो 'नितनेम' रोज़ ही पढ़ते होओगे। बताओ, कहाँ लिखा है 'जपजी साहिब' में, कहाँ लिखा है 'आनन्द साहिब' में, कहाँ लिखा है 'शबद हज़ारे' में कि लिव इन द प्रेजेंट।

सारे गुरुओं ने, सन्तों ने तो एक सीख दी है, क्या? वो जो परमात्मा है, जो सत्य है, जो ओंकार है, जो प्रणव है उसकी सुरति में जियो। यही सिखाया है न उन्होंनें? लेकिन उसको भुलाये रखने का यह अच्छा बहाना है, कह दो, 'नहीं साहब, उससे तो हमारा कोई लेना-देना नहीं। हमने नया सूत्र अविष्कृत किया है और हमारा सूत्र है लिव इन द नाओ।' यह सूत्र ज़हरीला है, इससे बचना, बहुत ज़हरीला है।

उसके (आकाश की तरफ़ इशारा करते हुए) बिना तुम्हारी हालत ऐसी रहेगी बच्चे कि अतीत में रहोगे तो अतीत को भोगना चाहोगे, भविष्य में रहोगे तो भविष्य को भोगना चाहोगे और अगर वर्तमान में रहोगे तो वर्तमान को भोगना चाहोगे। उसके बिना तुम जहाँ रहोगे वहाँ ही हिंसक रहोगे और लूट-खसोट करना चाहोगे।

तुम देखना उन लोगों को जो कहते हैं, 'आई एम लिविंग इन द नाओ' ('मैं अभी में जी रहा हूँ।') उनके नाओ (अभी) का अर्थ क्या होता है? उनके लिए नाओ का अर्थ होता है उपभोग, कन्सम्प्शन कि बस यही वक़्त है, लूट लो। एक पिक्चर आयी थी उसका गाना था, "आगे भी जाने ना तू, पीछे भी जाने ना तू जो भी है बस यही एक पल है जीने वाले देख ले, कर ले पूरी आरज़ू"

पते की बात आख़िर में ज़ाहिर हो ही गयी। क्या है वो बात? 'कर ले पूरी आरज़ू!' तो पूरा खेल इस बात का है कि लिविंग इन द नाओ के नाम पर आरज़ूएँ पूरी करनी चाहिए।

बोलो, 'जानेमन क्या पता कल हो न हो, आओ अभी ही आरज़ूएँ पूरी कर लेते हैं। लिव इन द नाओ बेबी, लिव इन द नाओ। कल किसने देखा है, क्या हो जाए, क्या भरोसा! तो जो लूट-खसोट मचानी है, जितना उपभोग-सम्भोग करना है सब अभी कर डालो, जस्ट डू इट (कर ही डालो)।' घटिया चीज़ों के विज्ञापन आते हैं। और वो आपको बताते हैं, 'ओ! यस! अभी।' सुनते नहीं हो? वो भी तो यही सीख दे रहे हैं, 'जो करना है बस अभी कर डालो।'

और उसी बात से प्रभावित हो गये हो, मुझसे पूछ रहे हो, 'मैं फोकस नहीं कर पाता जो कुछ कर रहा हूँ उस पर।' मैं कह रहा हूँ, 'जो कर रहे हो, क्या वह पूजा है, वन्दना है, ध्यान है, प्रेम है, भजन है, आरती है, तपस्या है? तुम ऐसा क्या कर रहे हो जिस पर तुम्हारा ध्यान नहीं लगता?'

तुम कोई ढंग का काम कर रहे होते, फिर उस पर तुम्हारा ध्यान नहीं लगता तो मैं तुम्हारी मदद करता। तुम यहाँ का पानी वहाँ और वहाँ का तेल यहाँ करते रहते हो दिनभर। यही आम आदमी का काम है। हमारे तरफ़ बोलते हैं, “इस गुठली का दाम उस गुठली में, उस गुठली का दाम उस गुठली में।“ आम आदमी की ज़िन्दगी यही करते बीतती है न? यहाँ से निकाला वहाँ रखा, वहाँ से निकाला यहाँ रखा। यहाँ गन्दगी मचायी, वहाँ झाड़ू दिया। तेल, नमक, मेथी, लहसुन यही तो आम आदमी का काम है न।

परमात्मा अतीत और भविष्य के बीच में नहीं बैठा हुआ है। इतनी छोटी चीज़ नहीं है वो कि अतीत जहाँ ख़त्म होता है और भविष्य जहाँ शुरू होता है उसके बीच में ज़रा सी झीर्री है और उसमें परमात्मा बैठा है, परमात्मा है कि चींटी है! हमें तो ये पता है कि वो अनन्त है और तुमने बता दिया है कि ज़रा सी वह झीर्री मिलती है न कि अतीत की धारा बही आ रही है, अतीत आया, आया, आया और अतीत रुका। और अभी भविष्य शुरू होने ही वाला है, ज़रा सी जगह बची है, उसमें परमात्मा बैठा हुआ है। परमात्मा है कि बोनजाई है, बौना है कि छुप जाएगा उसमें?

परमात्मा वह अनन्तता है जिसमें समय की हज़ार धाराएँ बहती रहती हैं। परमात्मा में अतीत भी समाया हुआ है, भविष्य भी समाया हुआ है। और परमात्मा छुपा नहीं हुआ है किसी छोटी सी जगह में। सब जगहें परमात्मा में हैं। वो इतना विशाल है कि सबकुछ उसके भीतर है।

इसी तरीक़े से एक और दुष्प्रचार चलता है। दो उदाहरण दूँगा। एक तो चलता है कि साँस देखो भीतर जाती है, जाती है, जाती है और साँस फिर बाहर आती है, आती है। और भीतर जाने और बाहर आने के बीच में जो ज़रा सा अन्तराल होता है न, बस वही है वो। मैं कहता हूँ, ‘इससे बड़ी कोई मूर्खता की बात हो सकती है?’ कहा जाता है बस उसी पर ध्यान करो, वही है वो। और गुरुजन हो गये, वह बताते हैं, ‘देखो शब्द होते हैं न, शब्दों में प्रवाह होता है। शब्द है, शब्द है, शब्द है और शब्दों के बीच में ज़रा सा मौन होता है और वो जो मौन है वही असली चीज़ है।’ क्या बेहूदे तर्क हैं भाई!

परमात्मा वो है जिसमें सारे शब्द समाये हैं, जिससे सारे शब्द उठते हैं, जिसको सारे शब्द लौट जाते हैं और जिस तक कोई शब्द पहुँच नहीं पाता। उठते भी उसी से हैं, विलीन भी उसी में हो जाते हैं, लेकिन कोई शब्द उस तक पहुँच नहीं पाता। दो शब्दों के बीच में नहीं बैठ गया है परमात्मा।

इसी तरीक़े से सन्तों के पास जाओगे, कबीरों के पास जाओगे तो तुमसे कहेंगे कि साँस-साँस में वो बैठा हुआ है। कल ही आप लोग गा रहे थे,

"कहे कबीर सुनो भाई साधो वो साँसो की साँस में, मोको कहाँ ढूँढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में"

~ कबीर साहब

या कबीर साहब ने यह बताया है कि जहाँ से एक साँस रुकती है और दूसरी साँस शुरू होती है उसके बीच में छुपकर बैठ गया है वह? वो लगातार है, अविरल है, अनन्त है, अटूट है, अक्षुण्ण है। उसको तुम कहीं पर जाकर केन्द्रित नहीं कर सकते। तुम उँगली नहीं रख सकते कि यहाँ है और यहाँ नहीं है। तुम इशारा नहीं कर पाओगे उसकी ओर, तुम उसका अड्डा नहीं तलाश पाओगे। समझ में आ रही है बात?

और यही आज तक लोगों को बड़ी ग्लानि, बड़ा अपराध बोध दे देता है कि हमने न एक पाप कर दिया है। पूछो क्या। बोले, ‘हम न अतीत के बारे में सोच रहे थे।’ बड़ी समस्या है कि अब अतीत के बारे में सोच लिया! वैसे ही एक आएँगे, बोलेंगे मुझे समस्या है। क्या? ‘मैं भविष्य के बारे में सोचने लग गया।’ और ये जो फ़रीद साहब ने सौ बार तुमको बुढ़ापे पर श्लोक सुनाये हैं, वो क्या तुम्हें भविष्य में नहीं ले जा रहे? तब तो फ़रीद बहुत बड़े पापी हुए? और कबीर साहब तुम्हें बार-बार याद दिलाते रहते हैं मृत्यु की तो कबीर साहब भी बहुत बड़े पापी हुए? ये सब तुम्हें किसकी याद दिला रहे हैं?

श्रोता: भविष्य की।

आचार्य: भविष्य की। और तुम्हें तो आजकल के नये-नये गुरुओं ने बताया है कि भविष्य के बारे में तो सोच भी मत लेना, सोत भी मत लेना।

भाई, क्यों न सोचो भविष्य के बारे में, क्यों न सोचो? कर्म करो और कर्मफल कि नहीं सोचोगे? जबकि कर्म तुम कर ही रहे हो कर्मफल के उद्देश्य से। अगर कोई ऐसा होता जो निष्काम कर्म कर रहा होता तो उसके सामने तो ये प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता कि भविष्य की सोचूँ या न सोचूँ क्योंकि उसका कर्म है निष्काम। उसे भविष्य से कोई लेना-देना ही नहीं है।

तुम्हारा कर्म है सब सकाम, जो करते हो फल की ख़ातिर करते हो। अब करा फल की ख़ातिर और यह भी नहीं देखना चाहते कि फल मिला क्या। तो अब तो धोखे में जियोगे, क्योंकि कर्मफल से एक लाभ तो होता है, कि तुमने कर्म करा और उसका कड़वा फल मिला तो तुम समझ जाते हो, तुम्हें अवसर मिल जाता है समझने का कि कर्म ग़लत था। पर अभी तुम्हें क्या उपदेश दिया जा रहा है? कि कर्म करो और अपनेआप को ये बता दो, अपनेआप को ये धोखा दे दो कि हमें तो साहब भविष्य से कोई मतलब ही नहीं है। जब भविष्य से कोई मतलब ही नहीं तो फिर तुमने जो कर्म किया उसकी गुणवत्ता पर भी तुम ध्यान दोगे नहीं। क्योंकि जब फल आएगा तो तुम फल को देखकर अनदेखा कर दोगे और फल आना कड़वा ही है।

कड़वा फल प्रभु का आशीर्वाद होता है। कड़वा फल तुमको बताता है कि तुम्हारा कर्म ठीक नहीं था। पर अब तुम अपनेआप को इस धोखे में रख रहे हो कि हमें तो फल की कोई परवाह ही नहीं है, हम तो भविष्य की ओर देख ही नहीं रहे। और देख रहे हो भविष्य की ओर अन्दर-ही-अन्दर। धोखा ख़ुद को ही दे रहे हो। अब जो कड़वा फल आएगा तो कहोगे, 'हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता, हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता।' और फ़र्क पड़ रहा है भीतर-ही-भीतर। भीतर-ही-भीतर घुन लगी हुई है, खोखले हुए जा रहे हो। उससे कहीं भला है कि यह देखो कि आज तुम जो हो, वो पूरी तरीक़े से अतीत का निर्माण है। देखो कि तुम अतीत में कैसे थे। कोशिश मत करो कि मैं अतीत को भुला दूँगा, अतीत की ओर देखूँगा ही नहीं। देखो कि दो साल पहले भी तुम ऐसे ही थे, पाँच साल पहले भी तुम ऐसे ही थे, दस साल पहले भी तुम ऐसे ही थे।

अगर अतीत की ओर नहीं देखोगे तो तुम्हें पता कैसे चलेगा कि तुम एक मशीन की तरह जस-के-तस पड़े हुए हो।

ऊपर यह पंखा लटक रहा है, ये एक साल पहले क्या कर रहा था? लटक रहा था। लटकता था और घूमता था। ये दो साल पहले क्या करता था? लटकता था और घूमता था। पाँच साल पहले क्या करता था? लटकता था और घूमता था। ऐसे ही हम हैं। तुम बदले हो क्या ज़रा भी? पर तुम्हें यह कैसे पता चलेगा कि तुम बिलकुल नहीं बदल रहे अगर तुम अतीत की ओर नहीं देखोगे?

तुम वही-वही ग़लतियाँ दोहरा रहे हो। तुम उन्हीं गड्ढों में बार-बार गिर रहे हो। जो ग़लती तुमने एक बार करी, दूसरी बार करते हो फिर पाँचवी बार करते हो। पर तुम भुला देना चाहते हो कि तुम उन्हीं ग़लतियों को दोहराते चले आ रहे हो, क्योंकि अतीत की ओर देखोगे ही नहीं तो तुम्हें खूब बहाना मिल जाएगा ये कहने का कि नहीं साहब ये ग़लती तो हमने पहली बार करी है। पुराना जो कुछ था उसको तो तुम डिलीट करना चाहते हो, मिटा ही देना चाहते हो। और मैं तुमसे कह रहा हूँ, तुम उसी गड्ढे में गिरते हो पाँचवी बार लेकिन अपनी इस बेवकूफ़ी को छुपाने का बहाना क्या है? कि हम अतीत की और देखेंगे ही नहीं।

जो अतीत की ओर देखता है वह साफ़-साफ़ जान जाता है कि मैं अतीत द्वारा ही नियन्त्रित हूँ। मैं पन्द्रह की उम्र में जैसा था मूलतः आज भी हूँ वैसा ही। ऊपर-ऊपर से चीज़ें बदल गयी हैं, भीतर-भीतर वैसी ही हैं। हम उसे स्वीकार नहीं करना चाहते तो अच्छा बहाना है कि अतीत की ओर देखो ही मत। और तुम अभी जो कर्म कर रहे हो तुम जानते हो कि इसका फल कड़वा होगा।

प्र: हम पहले फल देखते हैं फिर कर्म करते हैं।

आचार्य: अगर यह तुमको याद रहे, समझो बात को, तुम अभी क़त्ल करने जा रहे हो और तुमको गुरुओं और सन्तों की बात याद आ जाए कि बुरे काम का बुरा नतीजा होता है। बहुत छोटी सी बात है। नतीजा तो भविष्य में ही आएगा पूरा तुम्हें। क़त्ल करने जा रहे हो और तुमको भविष्य की याद आ जाए। तो तुम्हारा हाथ थम जाएगा या नहीं, बोलो? बोलो!

श्रोतागण: थम जाएगा।

आचार्य: लेकिन अगर तुम क़त्ल करने पर उतारू ही हो तो तुम्हें एक अच्छा बहाना मिलेगा कि तुम बोल दो कि हम भविष्य की ओर तो देखेंगे ही नहीं। हमें तो बस कर्म करना है, फल जो आएगा, आएगा। हमें तो मतलब ही नहीं है। हमें तो आजकल के नये-नये गुरुओं ने बता दिया है कि डोंट थिंक ऑफ द फ्यूचर (भविष्य के बारे में मत सोचो)।

इतने धर्म है जिनमें बात हुई है क़यामत के दिन की, जजमेंट डे की। वो कब आना होता है?

श्रोता: भविष्य में।

आचार्य: भविष्य में। आदमी का मन ऐसा होता है कि उसे बार-बार याद दिलाया जाए कि देखो जो कर रहे हो उससे बचकर नहीं निकल पाओगे। इसीलिए यह विधि रची गयी थी, तुम्हें बताया गया था कि जो कर रहे हो उसका भुगतान तुम्हें करना पड़ेगा, नर्क में जाकर करना पड़ेगा या क़यामत के दिन करना पड़ेगा। वो सब भविष्य की ही तो बातें थीं। और वो बातें तुमको संयम में रखती थीं, लोग डरते थे कि पाप अगर करोगे तो नर्क में पड़ोगे।

अब तुमको बता दिया गया है कि भविष्य तो सोचना ही नहीं है। तो अब जो करना है सो करो, भविष्य तो है ही नहीं। जो करना है करो, भविष्य तो है ही नहीं। पर उसका जो तुमको हर्जाना देना पड़ेगा वो वही है जो तुम्हारे साथ हो रहा है सतनाम (प्रश्नकर्ता)। तुम कह तो दोगे अपनेआप से कि मुझे जो करना है मैं करूँगा, न आगे की सोचूँगा, न पीछे की सोचूँगा। लेकिन तुम जो कर रहे होगे, चूँकि वह मूलत: रद्दी होगा इस कारण तुम कभी उसमें पूरे तरीक़े से डूब नहीं पाओगे, आप्लावित नहीं हो पाओगे। तुम जो भी कुछ कर रहे होगे उसमें तुम्हारा मन उचाट रहेगा। ये सज़ा मिलेगा तुम्हें।

तो ये मत कहो कि मुझे इस क्षण में डूबना है, कहो कि मुझे उसमें (ऊपर आकाश की ओर इशारा करते हुए) डूबना है। इस क्षण में नहीं डूबना है। इस क्षण में डूबोगे तो समय के ग़ुलाम हो जाओगे। उसमें डूबना है, उसमें (आकाश की ओर इशारा करते हैं)। यह हियर एंड नाओ (यहाँ और अभी) के टोटकों से बचना, ये ख़तरनाक हैं, बहुत ख़तरनाक हैं।

प्र: आचार्य जी, ‘उसमें’ कैसे डूबें?

आचार्य: बाप-दादे जो मेहनत करके गये वह बेकार गयी क्या सब? पूछ रहे हो ‘उसमें’ कैसे डूबें। यह कोई नया-ताज़ा सवाल है?

प्र: आचार्य जी, ये सवाल तो है।

आचार्य: बाप लोग मेहनत कर गये बहुत सारी। इतने ग्रन्थ किसलिए हैं, इतनी विधियाँ किसलिए हैं? ये क़िस्से, ये कहानियाँ, ये कोआन, ये गीत, ये श्लोक, ये काफ़ियाँ, ये दोहे, ये भजन किसलिए हैं? ये इतने ग्रन्थ किसलिए हैं, ये सत्संग किसलिए है? ये तीर्थ किसलिए हैं, ये मन्दिर किसलिए है? ये डूबने के लिए ही तो हैं। ऐसे पूछ रहे हो जैसे कोई नयी-ताज़ी समस्या सामने आयी है कि परमात्मा में कैसे डूबें।

कबीर साहब तुम्हारे लिए इतना साहित्य छोड़ गये। चले जाओ नानक साहिब के पास, चले जाओ बुल्लेशाह के पास। चले जाओ अष्टावक्र के पास कि शंकराचार्य के पास। चले जाओ कृष्णों के पास, बुद्धों के पास। जाओ लाउत्सू से मिलो, जाओ जीसस के पास बैठो। पूछ रहे हो कैसे डूबें! दो घंटा, बस दो घंटा बैठ लो अष्टावक्र के साथ, डूब जाओगे, कितना मुश्किल है?

त्रिकाल का स्वामी कहा गया है परमात्मा को। ठीक है? जो मुक्त हो जाते हैं उन्हें कहते भी हैं कि वो त्रिकालदर्शी हैं। तो ये तीन काल कौन से हैं? अगर सिर्फ़ अतीत होता है और भविष्य होता है और आप कह रहे हैं अतीत और भविष्य के अलावा काल होता ही नहीं, तो ये त्रिकाल क्या है? दुई काल होना चाहिए था। बात बहुत सीधी है, जिसको आप नाओ बोलते हो वह भी काल का ही हिस्सा है। मत कह दो कि नाओ माने काल नहीं। जितनी देर में तुम बोलोगे कि नाओ माने काल नहीं, उतनी देर में तो काल बीत गया। जितनी देर में तुम नाओ का विचार करोगे, उतनी देर में तो नाओ समय बन गया। तो या तो नाओ जैसी कोई बात ही मत करो, तब नाओ समय से बाहर हुआ। ये जिसको तुम नाओ कहते हो, या तो उसकी कोई बात मत करो तब वह समय से बाहर हुआ। लेकिन जैसे ही तुमने उसकी बात छेड़ी, वो समय का हिस्सा हो गया।

प्र: गुरु ग्रन्थ साहिब में वो कहते हैं कि "अन्यो तिखी वाणु निखि एते मार्ग जाना।" तलवार की जो धार है, उससे भी बारीक वो रास्ता है। उसे थ्रेशहोल्ड (द्वार) कह लें पर वो इतना बारीक है। मुझे तो ऐसे ही समझ में आया था कि वह क्षण विशेष होगा।

आचार्य: गड़बड़ समझ लिये। उस रास्ते को बारीक ही मत समझो, उस रास्ते को शून्य समझो। एक बार कोई मुझसे पूछ रहा था कि कबीर साहब बोल गये, "प्रेम गली अति साँकरी। ता में दो न समाये।" पूछने वाले ने ऐसे ही कौतूहल में पूछा कि कितनी सँकरी है, कितनी सँकरी है कि दो नहीं समाते, एक समाता है। मैंने कहा कि बेटा इतनी सँकरी है कि एक भी नहीं समाता।

जब कहते हो "प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय", तो उसके साथ यह भी पढ़ो कि "जब मैं था तब हरि नहीं, और जब हरि हैं मैं नाही।" तो वह इतनी सँकरी हैं कि उसमें तुम भी नहीं जा सकते। इतनी सँकरी नहीं है कि उसमें दो नहीं जा सकते, वह इतनी सँकरी है कि उसमें एक भी नहीं जा सकता। तो वो रास्ता बाल जितना ही महीन नहीं है, वो रास्ता है ही नहीं, वह शून्य है। जब शून्य हो जाओगे तब वह रास्ता खुलेगा।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाही। प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो ना समाही।। ~ कबीर साहब

अगर कहते हो कि वह रास्ता बाल जितना महीन है तो तुमने बाल जितना तो बचा लिया अपनेआप को। अहंकार और क्या चाहता था, यही तो चाहता था कि थोड़ा सा बच जाऊँ। और अगर तुमने उसको बाल जितना भी बचा लिया तो सबकुछ बचा लिया। जैसे कि गेहूँ का एक बीज भी अगर बचा लिया तो पूरा खेत बचा लिया। तो अहंकार अगर बाल जितना भी बच गया तो सबकुछ बच गया। उसकी तो तमन्ना यही है कि सूक्ष्मरूप धारण कर लूँ और किसी तरीक़े से बस निकल जाऊँ ख़ुफ़िया रास्ते से। इन चक्करों में मत फँस जाना।

प्र: आप कह रहे हैं कि वह जो बात लिखी है गुरुनानक जी ने उस बात को हम ग़लत समझ रहे हैं।

आचार्य: अरे! ग़लत नहीं समझ रहे। हमने उसका जो अर्थ किया है उस अर्थ को हम ग़लत समझ रहे हैं। कबीर साहब ने भी तो यही कहा, "प्रेम गली अति साँकरी" अब वह 'अति साँकरी' को कुछ लोग सोचते हैं कि सँकरी तो होगी पर उसमें कुछ जगह तो होगी। यह भूल जाते हैं कि अति का सन्तों के यहाँ क्या अर्थ होता है। जब सन्त बोल दें अति तो समझ लेना कि भई ख़त्म! वरना सन्त आसानी से अति बोलता नहीं है। सन्त के लिए तो अति शब्द ही ठीक नहीं है।

"अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप। अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप॥"

~ कबीर साहब

ऐसे कबीर अगर कहें कि "प्रेम गली अति साँकरी", तो समझ लो कुछ ख़ास बात है, धोखा मत खा जाना। तो अति साँकरी से मतलब यह नहीं है कि उसमें थोड़ी सी जगह है। मतलब उसमें जगह है ही नहीं, शून्य है जगह।

"शून्य शिखर पर अनहद गरजे" — वह शून्य शिखर है। ऐसा नहीं है कि उस शिखर पर थोड़ी सी जगह है कि एक आदमी तो बैठ ही जाएगा। चोटी है, महीन चोटी है। तुंग-श्रृंग है, पर एक आदमी की कुर्सी तो डल ही जाएगी न। न-न-न, वह शून्य शिखर है। जब एकदम शून्य हो जाओ तब वहाँ पहुँचते हो, थोड़ी भी रियायत मत माँगना। आगे जाना हो आगे जाओ, पीछे जाना हो पीछे जाओ, सोचना हो सोचो, नहीं सोचना हो मत सोचो, 'वो' दिल में बसना चाहिए। ठीक?

ये भी सब हटाओ, खूब चलता है, कि आदमी को सदा निर्विचार रहना चाहिए। ये भी बात मूल्य की नहीं है। अरे! तुम करो विचार। तुम्हें विचार करना है, करो विचार। जो भी करना है, ‘उसके’ बच्चे बनकर करो। तुम्हें विचार करना है, करो। तुम्हें निर्विचार रहना है, तुम निर्विचार रहो। न विचार में कुछ रखा है, न निर्विचार में कुछ रखा है, जो रखा है ‘उसमें’ रखा है।

पर जो लोग उसकी हस्ती से इनकार करना चाहते है वो कहते है, 'नहीं साहब, हमें परमात्मा से कोई मतलब नहीं है। हम तो बस ये साधना कर रहे हैं कि विचार रुक जाए। ये तुम अपने ही ख़िलाफ़ साज़िश कर रहे हो न, अपने को ही धोखा दे रहे हो न? बहुत सारे लोगों को पाओगे वो ध्यान की नयी-नयी तरकीबें आज़मा रहे होते हैं, कहते हैं, 'विचार रुकना चाहिए, विचार रुक गया तो सब हो गया।' कुछ नहीं हो गया।

‘उसके’ लिए प्रेम नहीं है, दिल उसके प्रति ज़रा गीला नहीं है, आँखें ज़रा नम नहीं हैं तो कुछ नहीं हो जाएगा, तुम कितना भी निर्विचार धारण कर लो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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