वर्ण-आश्रम व्यवस्था जागृत लोगों के लिए न थी, न है || आचार्य प्रशांत, पुत्र गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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वर्ण-आश्रम व्यवस्था जागृत लोगों के लिए न थी, न है || आचार्य प्रशांत, पुत्र गीता पर (2020)

वेदानधीत्य ब्रह्मचर्यण पुत्र पुत्रानिच्छेत् पावनारथं पितृणाम्। अंगीनाधाय विधिवच्चेष्टयज्ञो वनों प्रविश्याथ मुनिर्बुभूषेत्।।

पिताने कहा- बेटा! द्विज को चाहिए कि वह पहले ब्रह्मचर्य- व्रत का पालन करते हुए सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करें; फिर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करके पितरों की सद्गति के लिए पुत्र पैदा करने की इच्छा करें। विधिपूर्वक त्रिविध अंगियों की स्थापना करके यज्ञों का अनुष्ठान करें। तत्पश्चात वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश करे। उसके बाद मौनभाव से रहते हुए संन्यासी होने की इच्छा करें। ~पुत्रगीता, श्लोक ६

प्रश्नकर्ता: मृत्यु हमेशा सिर पर नाचती रहती है उसमें हम इन आश्रमों को कैसे देखें, कैसे समझें? आज के जीवन में इन आश्रमों की कोई वास्तविकता है भी या नहीं? समझाने की अनुकंपा करें। सत् सत् नमन।

आचार्य प्रशांत: कैसी बात कर दी? पूछा है कि मौत हमेशा सिर पर नाचती रहती है, इन आश्रमों को कैसे देखें और आज के समय में इन आश्रमों की कोई वास्तविकता है भी या नहीं। ये कैसे लग गया आपको कि आज इनकी कोई प्रासंगिकता नहीं है; आज इनकी किसी तरह की कोई उपयोगिता नहीं है?

आश्रम क्या होते हैं? आश्रम होते हैं एक पूर्व निर्धारित तरीका जीवन जीने का। सौ वर्ष का आपका जीवन मानकर के जीवन को पहले की श्रेणीबद्ध कर दिया गया है। काल के पैमाने पर विभाजित कर दिया गया है। कह दिया गया है — पहले पच्चीस साल ऐसा, अगले पच्चीस साल ऐसा, फिर अगला पच्चीस ऐसा, अगला पच्चीस ऐसा। पहले ही बता दिया गया है कि भाई, अगर पैदा हुए हो तो ऐसे-ऐसे तुमको जीना है। ये होती है आश्रम व्यवस्था। ठीक है?

आश्रम व्यवस्था कुल ये है कि बच्चा पैदा हुआ है, और पैदा होते के दिन से ही उसके अगले सौ साल का लेखा-जोखा तय कर दिया गया है। उसको बता दिया गया है, ‘पहले पच्चीस साल तू ब्रह्मचारी है। और छब्बीसवें साल के पहले दिन ही ब्रह्मचर्य खंडित।’ अब जीवन में स्त्री आएगी। अगले पच्चीस साल क्या करना है? अभी तू गृहस्थ कहलाएगा। अभी तू बच्चे आदि पैदा करेगा।

जो लिखा है न कि पितरों की सद्गति के लिए पुत्र पैदा करो। पुत्री तो कभी लिखते भी नहीं। ‘पुत्री’। तो अभी तुम ये काम करो। बच्चे पैदा करो इससे पितरों को सद्गति मिलेगी। ये काम तुम्हें पचास साल तक करना है। और इक्यावनवे साल के पहले दिन से ही गियर बदल दोगे। अब तुमको क्या करना है? अब तुम जंगल की ओर मुंँह करके घर के आगे बैठ जाओ। वानप्रस्थ का यहांँ पर ये मतलब होता है। अभी भी देखा है न गाँव-गँवइ में, जो बुज़ुर्ग होते हैं वो कहांँ बैठने लग जाते हैं? वो घर के बिल्कुल आगे बैठना शुरू कर देते हैं और हुक्का गुड़गुड़ाते हैं। वो घर के अन्दर फिर कम जाते हैं ज़रा। वो वहीं बैठे रहते हैं दरवाजे पर खाट डालकर और देखते रहते हैं कौन आ रहा है और कौन जा रहा है। ख़ासतौर पर घर की लड़कियांँ वगैरह कब आती हैं, कब जाती हैं। उनकी बड़ी नज़र रहती है। क्यों ये कर दिया गया? ‘क्योंकि मालिक, आप जब पचास के होएँगे तब तक आपका लड़का पच्चीस का, तीस का हो चुका होगा। उसकी शादी-ब्याह हो चुकी होगी। वो बोलेगा, ’प्राइवेसी (निजता) मांँगता।’ तो आपके लिए तय कर दिया गया है कि आप बाहर बैठिए। अन्दर बेटे-बहु को थोड़ा... नहीं तो उनका गृहस्थ जीवन कैसे चलेगा? पितरों की सद्गति के लिए तो पुत्र पैदा करना पड़ता है न। माने आपकी ही सद्गति के लिए ही उन दोनों को पुत्र पैदा करने का मौका तो दो। नहीं तो आपको ही सद्गति नहीं मिलेगी। तो आप बाहर आकर के हुक्का गुड़गुड़ाएँ।’

और जब पचहत्तर के हो जाएँगे तो एकदम जर्जर, लुंज-पुंज, गिरने को, मरने को तो फिर आपको बोल दिया जाता है अब तुम जंगल निकल लो। कौन तुम्हारा झंझट उठाये? बढ़िया जाओ जंगल की तरफ वहीं पर मौन धारण करना, एकान्तवास करना, तपस्या करना, और उसके बाद वहीं पर वन्य प्राणीयों की क्षुधा शान्त करना।

भई! इतने जीव-जन्तु हैं जंगल में उनके भोजन की भी कुछ व्यवस्था तो करनी पड़ेगी न और इतने पौधे हैं उनके लिए खाद का भी तो इंतज़ाम करना पड़ेगा। तो इनको जंगल भेज दिया। जाओ तुम। निकलो। ये सब आपके लिए पहले से ही सुनिश्चित कर दिया जाता है। ये आश्रम व्यवस्था है। और आश्रम व्यवस्था को कभी भी उच्चतम शास्त्रों ने मान्यता नहीं दी है।

अभी आप पुत्रगीता पढ़ रहे थे उसमें भी आश्रम व्यवस्था का खंडन ही हुआ है। पिताजी बोल रहे हैं कि तुम आश्रम व्यवस्था पर चलो बेटे! और बेटे ने कहा, ‘आश्रम व्यवस्था की तुम बात करते हो बुढ़उ तुम्हें बात नहीं समझ आती। मरने के लिए खड़े हुए हो और मुझसे बोल रहे हो, शादी कर लो। तुमने क्या ज़िन्दगी देखी है अभी तक?’

तो जो इसमें खंडन भी किया जा रहा है पिता के तर्कों का वो वास्तव में आश्रम व्यवस्था का ही खंडन है। आश्रम व्यवस्था के साथ जो सबसे बड़ी समस्या है वो ये है कि वो पच्चीस साल के लड़के को या लड़की को अनिवार्य रूप से अध्यात्म से दूर कर देती है। वो कहती है कि अभी तो तुम इन पच्चीस साल ज़रा मौज मनाओ। भोग करो, संभोग करो, बच्चे पैदा करो। उसके बाद देखना, पचास के बाद देखना।

तो आपके जीवन का जो सबसे ज़्यादा ऊर्जावान साल होता है उसका इस्तेमाल कर दिया जाता है बल्कि उसका दुरुपयोग हो जाता है परिवार बढ़ाने में, पुत्र आदि पैदा करने में। आश्रम व्यवस्था किनके लिए सही थी? ऐसे लोगों के लिए सही थी जिनका कोई आध्यात्मिक रुझान नहीं था। माने निन्यानवे प्रतिशत आबादी के लिए आश्रम व्यवस्था बिल्कुल ठीक थी। उनको पहले ही बता दिया गया, ‘ऐसे जियो, ऐसे जियो, ऐसे जियो।’

पर वो जो एक प्रतिशत लोग हैं जिनको सच्चा जीवन जीना है उनके लिए आश्रम व्यवस्था किसी काम की नहीं होती। और उसका प्रमाण स्वयं न जाने कितने ऋषि-मुनि हैं जिन्होंने आश्रम व्यवस्था को कभी कोई महत्व दिया नहीं। कितने ही रहे जिन्होंने कहा। ‘हमें विवाह आदि नहीं करना।’ कितने ही रहे जो पच्चीस साल का ही ब्रह्मचर्य नहीं रखे थे। जिन्होंने कहा। ‘हम आजीवन ब्रह्मचारी हैं। हमारा ब्रह्मचर्य ऐसा नहीं है कि पच्चीस पर पहुंँच कर खत्म हो जाएगा।’

बात समझ में आ रही है?

अब आप पूछ रहे हैं कि आश्रम व्यवस्था की आज कोई प्रासंगिकता है। भाई! आज भी पूरे तरीके से आश्रम व्यवस्था ही तो चल रही है, हम और किस व्यवस्था पर चलते हैं? पूरी दुनिया आश्रम व्यवस्था पर चल रही है सिर्फ़ भारत ही नहीं। न सिर्फ़ भारत, न सिर्फ़ हिन्दू लोग, हर पन्थ के मानने वाले, हर देश के लोग आश्रम व्यवस्था पर ही तो चल रहे हैं आज।

आश्रम व्यवस्था माने क्या? एक पूर्व नियोजित तयशुदा जीवन जीना। इतने दिनों तक ये करना है, इतने दिनों तक ये करना है, इतने दिनों तक ये करना है, फिर इतने दिनों तक ये करना है। ऐसे तो पूरी दुनिया जीती है। चाहे हिन्दुस्तान हो, चाहे चीन हो, चाहे अमेरिका हो। हर जगह ऐसा ही तो चल रहा है।

हांँ, कहीं पर ये जो व्यवस्था है बहुत ज़्यादा कड़ी है, और कहीं पर ये व्यवस्था थोड़ी लचीली है। कहीं पर ये रहता है कि चलो, कोई बात नहीं पच्चीस में नहीं शादी करी बत्तीस में कर लो। और कहीं पर ये रहता है कि पच्चीस की भी मोहलत नहीं मिलेगी, ख़ासतौर पर अगर लड़की हो। इक्कीस-बाइस में ही निकल लो।

है कोई ऐसा जो सर्वथा मुक्त जीवन जीता हो? जो सर्वथा मुक्त जीवन जीता हो सिर्फ़ वही कह सकता है कि मैं आश्रम व्यवस्था से बाहर हूंँ। वरना तो सब आज भी आश्रम व्यवस्था का ही पालन कर रहे हैं। हो सकता है कि आप ऐसे हों जो किसी तरह के धर्म को न मानते हों अपनेआप को नास्तिक कहते हों। आजकल बड़ा प्रचलन है। लेकिन अपने बेटे से आप तब भी कहेंगे, ‘सन नाउ यू आर ट्वेन्टी फाइव आइ मीन व्हाट्स नेक्स्ट? (बेटा, अब तुम पच्चीस के हो, मेरा मतलब है कि अब आगे क्या?)

ये आप कुछ नहीं कर रहे ये आप आश्रम व्यवस्था की बात कर रहे हैं। जब आप अपने बेटे से बोलते हैं कि बेटा, अब आप पच्चीस के हो गए हो बताएंँ अब आप क्या करेंगे। तो आप वास्तव में यही तो कह रहे हैं भाई! ‘अब तुम मतलब, बताओ नाटक का अगला अध्याय क्या है। पर्दा उठाओ बेटा।’ या आप जब कहते हैं कि ये सब तो ठीक है कि मतलब तुम लोगों की शादी को अब चार साल हो चुके हैं, वो (बच्चा) कब आएगा? ये आप आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत ही तो बात कर रहे है न। और क्या कर रहे हैं?

दुनिया का हर मार्केटर (बाज़ारिया), हर विक्रेता, हर विज्ञापन दाता अच्छे से जानता है कि उसका जो माल है वो किस आयु वर्ग के लोगों के बीच बिकेगा? उसे कैसे पता बताओ? क्योंकि वो अच्छे से जानता है कि जब आप पैंतीस के आस-पास की उमर के होते हो तब सबसे ज़्यादा सम्भावना है कि आप मकान वगैरह खरीदने में पैसा लगाओगे। क्योंकि आश्रम व्यवस्था ऐसा अनुमोदित करती है। आश्रम व्यवस्था में ऐसा लिखा हुआ है! आधुनिक आश्रम व्यवस्था पुरानी वाली नहीं।

और आज तो आश्रम व्यवस्था का शिकंजा और भी कड़ा हो गया है न। आप जाइए अपने दफ़्तर और मान लीजिए आप पैंतीस-अड़तीस के हो गये हैं। तो आपके जितने सहकर्मी होंगे कलीग्स वो ऐसे ही पूछेंगे, ‘सो आइ मीन आइ एम गेटिंग माइ सेकेंड फ्लैट डन’ ( तो मेरा मतलब है कि मैं अब अपना दूसरा फ्लैट बनवा रहा हूंँ)। और आप कहेंगे, ‘मैं ही रह गया पीछे मेरा एक भी नहीं है।’ फिर आप भी लगाएँगे किसी बिल्डर (मकान निर्माता) के चक्कर। कहेंगे, ‘अरे, मैं छूटा जा रहा हूंँ पीछे पीछे।’ ये आश्रम व्यवस्था ही तो है। कि अरे, मैं अड़तीस का हो गया।

बड़े- बड़े सेलिब्रिटीज़ (प्रसिद्ध लोग) के और सीने अभिनेताओं-अभिनेत्रियों के आते हैं — ’थिंग्स टू डू बिफोर यू आर थर्टी’ (तीस का होने से पहले करने योग्य चीजें)। ये क्या है? ये आश्रम व्यवस्था नहीं है? कि तीस का होने से पहले ये सारे काम कर लेना। फिर आता है, ’थिंग्स टू डू आफ़्टर यू आर फोर्टी’ (आपके चालीस साल के होने के बाद करने योग्य बातें)। और आमतौर पर बिफोर थर्टी और आफ़्टर फोर्टी जो लिखा होता है वो करीब-करीब एक सा ही होता है। क्योंकि इच्छाएँ बदलती कहांँ हैं!

ये आश्रम व्यवस्था ही तो है न। और आप गिन रहे हो कि अच्छा ऐसे करना है, वैसे करना है। फिर आता है ऐसे ही — ’कुक्कू एंड किक्की विल गिव यू सीरियस रिलेशनशिप गोल्स’ (कुक्कू और किक्की आपको गम्भीर रिश्ते के लक्ष्य देंगे)। ये क्या है? ये आश्रम व्यवस्था नहीं है? कुक्कू और किक्की किसी द्विप पर जाकर किस तरह लफंगई कर रहे हैं तुम भी देखो और सीखो और तुम भी वही सब कुछ करो। ये पटकथा पहले से ही लिखी जा रही है न, आपको दोहराने के लिए कहा जा रहा है।

ये सब आश्रम व्यवस्था ही तो हुई। आश्रम व्यवस्था माने जो पहले से तय है, जो दूसरे तय कर रहे हैं तुम्हारे लिए, जो उम्र तय कर रही है तुम्हारे लिए, तुम उसका पीछे- पीछे पालन करते रहो। ये सब क्या है? जहांँ-जहांँ आप किसी दूसरे द्वारा तय किया गया जीवन जी रहे हैं, आप वास्तव में वही कर रहे हैं जो आश्रम व्यवस्था में होता था।

जानते हो खौफ़नाक बात क्या है? निन्यानवे प्रतिशत लोगों के लिए ऐसा ठीक भी है। जैसे मैंने कहा न कि आश्रम व्यवस्था निन्यानवे प्रतिशत लोगों के लिए बिल्कुल उपयुक्त थी। वैसे ही आज भी निन्यानवे प्रतिशत लोग ऐसे ही हैं। उनकी सामर्थ ही यही है। उनकी औकात ही यही है कि वो वही जीवन जिएंँ जो दूसरे उन्हें सिखा-पढ़ा रहे हैं। ये बहुत खेद की बात है, पर ऐसा ही है।

निन्यानवे प्रतिशत लोगों ने जैसे अपनी आत्मा को बेच खाया होता है, उन्होंने अपनी स्वतन्त्रता न जाने कहांँ गिरवी रख दी होती है, खा गये होते हैं, बेच आये होते हैं, पता नहीं क्या किया होता है। वो ये सामर्थ खो ही चुके होते हैं कि कोई मौलिक फैसला कर पायें। तो उन बेचारों को अगर तुम बताओगे नहीं कि कैसे जीना है तो वो जी ही नहीं पाएंँगे। उनको बताना पड़ता है।

तो फिर अख़बार वाले और कॉलोम्निस्ट (स्तम्भकार), सेलेब्रिरिटीज़ (प्रसिद्ध लोग) उन्हें आकर के बताते हैं कि इस साल न यहांँ पर वैकेशन करना (छुट्टी मनाना), बोलेंगे, ‘ठीक।’ तो हम कहते हैं, ‘ठीक है।’ हम भी आ जाएँगे वैकेशन करने।

बहुत अफ़सोस की बात है पर ऐसा ही है। ये सारी बातें जो मैं अभी बोल रहा हूंँ निन्यानवे प्रतिशत लोगों से बोल भी नहीं रहा। मेरी कोई बात उनके लिए महत्व नहीं रखेगी और उससे भी ज़्यादा खतरनाक बात ये है कि हो सकता है वो मेरी बातों को सुनकर मेरी ही बातों को एक नया आश्रम बना लें। क्योंकि उन्हें अपने पांँव पर तो चलना नहीं उन्हें किसी-न-किसी का सहारा चाहिए। अगर मैं उनसे कहूंँगा, ‘अपने पुराने सहारे छोड़ो।’ तो वो मुझे अपना नया सहारा बना लेंगे। तो उनसे मेरी कोई बातचीत नहीं है।

मैं उन एक प्रतिशत लोगों से बात कर रहा हूंँ जिनमें सही, सच्चा, मौलिक जीवन जीने की सम्भावना है लेकिन वो भटके हुए हैं। जिनका कम-से-कम इरादा है कि वो स्वतन्त्र जिएंँ, मैं उनसे बात कर रहा हूंँ। जिन्होंने अब इरादा भी छोड़ दिया है उनसे क्या बात करना?

बहुत लोगों का तो हाल ये होगा कि मैं जो यहांँ कह रहा हूंँ उसको वो समझेंगे कि मैं पुरातन वैदिक परम्पराओं का उपहास उड़ा रहा हूंँ। तो वो कहेंगे, ‘ये देखो इनके नाम में आचार्य लगता है और ये हमारे पवित्र पावन वर्णाश्रम धर्म का मख़ौल बना रहे हैं।’ उन्हें समझ में ही नहीं आएगा कि मैं वास्तव में क्या कह रहा हूंँ।

उन्हें समझ में ही नहीं आएगा कि वेदों का जो उच्चतम और आख़िरी लक्ष्य है मुक्ति, मैं उसकी बात कर रहा हूंँ। कोई वर्ण, कोई आश्रम मुक्ति से बड़ा नहीं होता। जाकर के पूछ लेना वैदिक ऋषियों से।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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