उत्तेजना की चाह ऊब की निशानी है || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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उत्तेजना की चाह ऊब की निशानी है || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: कुछ महीने पहले जीवन की हर गतिविधि के प्रति उत्तेजना थी, अब नहीं है, समझ नहीं पा रहा हूँ कि चल क्या रहा है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि सब पता है लेकिन बार-बार सवाल उठता है, ”क्या मैं इतना कमज़ोर हूँ जीवन को जानने के लिए? मैं ख़ुद को क्यों नहीं जान सकता?”

श्रोता: शुभम (श्रोता को इंगित करते हुए) कह रहा है पहले जीवन के प्रति उत्तेजना थी अब कोई उत्तेजना नहीं है? क्या तुम बोध शिविर की बात कर रहे हो?

श्रोता: नहीं, पहले ऐसा होता था कि मतलब पार्टी है, किसी का जन्मदिन है। हाँ, खुश हैं यह करेंगे वो करेंगे, अब खालीपन है। किसी से मतलब नहीं रह गया है, इतना अजीब सा लग रहा है कुछ दोस्त कुछ दिन पहले घर पर भी आए थे तो टोक रहे थे कि ”क्यों नहीं रह गया तेरे को मतलब?” अजीब लगा समझ नहीं पा रहा था कि क्या हो रहा है।

वक्ता: नागार्जुन एक बौद्ध भिक्षु थे तो उन्होनें एक बड़ी मज़ेदार बात बोली — उनका एक ग्रन्थ है शून्यता सप्तति, बड़ी मज़ेदार बात वो बोले कि — तुमने उत्तेजना लिखा है न? उत्तेजना रहती थी। उन्होंने लिखा कि शरीर में खुजली हो अगर तो उसे खुजलाने में बड़ी उत्तेजना रहती है, बड़ा एक्साइटमेंट रहता है, बड़ा मज़ा आता है। देखा है कभी? शरीर में किसी जगह पर खुजली हो जाए, खाज का रोग हो जाए तो उसे खुजलाने में कितना मज़ा आता है? फिर उन्होंने अगली पंक्ति लिखी कि उससे भी ज़्यादा मज़ा है, अगर खुजली हो ही न।

बात समझ में आ रही है?

हम उत्तेजना बोलते ही किसको हैं, हम कहते ही कब हैं कि मज़ा आ गया? हमें मज़ा आता ही तब है जब पहले हमें बीमारी हो। पहले खुजली होनी चाहिए फिर उसे खुजलाने में बड़ा मज़ा आता है, पहले कष्ट होना चाहिए। तुम उत्तेजित हो सको उसके लिए ऊब होनी ज़रूरी है। उत्तेजना के लिए बोरियत ज़रूरी है, ये बात समझ रहे हो, यह बात समझ में आ रही है?

यदि ज़िन्दगी से ऊब ही हट जाए, तो ऊब के साथ क्या हट जाएगी? उत्तेजना भी हट जाएगी ना? पर ऊब होती है ‘पैसिव’ असक्रिय और उत्तेजना होती है ऐक्टिव , सक्रिय। तुम दिन भर घर में ऊबे रहो, तुम कुछ कर नहीं रहे ऊबे हुए हो, पैसिविटी है, अक्रियता है पर दिन भर तुम घर की ऊब मिटाने के लिए जाते हो और एक फ़न राइड ले लेते हो, यह करते हो कि नहीं? शाम को जाएँगे और कहीं एडवेंचर पार्क चले गए और कुछ कर लिया, किसी डिस्को में चले गए और नाच लिया तो यह जो उत्तेजना है। अब यह असक्रिय नहीं है, यह सक्रीय उत्तेजना है, सक्रिय यह पता चलता है। तुमसे कहा जाए ‘’अब बताओ दिन भर के बाद जी तुमने क्या किया’’ तो तुम कहोगे ‘’दिन भर तो ऐसा कुछ नहीं शाम को डिस्क गया था, तुम्हें क्या याद है?’’

श्रोता: डिस्क गया था।

वक्ता: तुम्हें क्या याद है।

श्रोता: सक्रियता याद है।

वक्ता: तुम भूल ही गए कि उस सक्रियता से पहले क्या था ? तुम्हें यह तो याद रह गया कि उत्तेजना मिल गई रात में पर तुम भूल ही गए कि वह उत्तेजना तुम्हें क्यों लेनी पड़ी। क्यों लेनी पड़ी? क्योंकि दिन भर तुमने ऊब में गुज़ारा था तो तुम्हें यह तो याद है कि ज़िन्दगी से उत्तेजना चली गयी, क्योंकि उत्तेजना याद रहती है पर तुम यह छोड़ रहे हो कि ज़िन्दगी से उत्तेजना ही नहीं गयी है, ऊब भी चली गयी है। उत्तेजना गयी ही इसलिए क्योंकि ऊब चली गयी है, बस इतना ही है कि दृष्टि इतनी पैनी नहीं है कि वह यह देख पाए कि दोनों बातें गई हैं। उत्तेजना सक्रिय है न, ऐक्टिव है न? तो वह दिखाई पड़ जाता है, स्थूल है; ऊब दिखाई नहीं पड़ती वो तो लगातार बनी रहती है। हम सब ऊबे-ऊबे ही तो रहते हैं। अभी आप से कहें अपने बारे में कुछ बताएं तो आप तत्क्षण यह नहीं कह पाएँगे कि में ऊबा हुआ हूँ क्योंकि वह तो हमारी एक निरंतर अवस्था बन गई है जो बात निरंतर रहती है, वह पता नहीं चलती है।

हम लगातार ऊबे ही ऊबे रहते हैं, उत्तेजना बीच-बीच में मिलती है, ऐसे स्पाइक की तरह तो वह याद रह जाता है तुम फेसबुक पर अपनी फोटो लगाते हो, लगाते हो? तुम लिखते हो *“ऐट फ़न पार्क पार्टीइंग विद फ्रेंड्स”* । वह पार्टी कितनी देर चलती है? एक घंटा, दो घंटा पर दिन के बाकी २२ घंटे जो तुम ऊबे हुए थे क्या तुम उसकी भी फोटो लगाते हो? ऐसी फोटो लगाते हो *“ सिटिंग डल एंड बोर्ड सिंस लास्ट सिक्स आर्स”*, ऐसी लगायी है कभी? तो तुम्हें याद क्या रह जाता है उत्तेजना और उत्तेजना कितनी देर की थी? २ घंटे की। उस दो घंटे की तुम कीमत क्या अदा कर रहे थे, २२ घंटे की ऊब।

बात को समझना।

अब पूरा गणित देखो अब, दो घंटे की उत्तेजना कि तुम कीमत क्या अदा कर रहे थे? २२ घंटे की ऊब। २ घंटे की उत्तेजना चली गई, यह तुम्हें दिख रहा है और दो घंटे के साथ और क्या विदा हुआ है? २२ घंटे की ऊब, तो फ़ायदे का सौदा है कि नुक्सान का? बस इसी बात के लिए उत्तेजित हो जाते हैं!

बात ठीक है? अब समझो यह जो तुम्हारे दोस्त यार हैं, यह क्या हैं? यह वह नाखून हैं जिससे तुम अपनी खुजली खुजलाते थे। जब तक खुजली है तब तक उसको खुजलाना क्या देता है? मज़ा देता है पर तुम्हें खुजली नहीं है और नाखून तुम्हारे वैसे के वैसे ही हैं और तुम अपनी स्वस्थ खाल को ही खुजलाए जा रहे हो। तो अब तुम्हें क्या मिलेगा, दुःख मिलेगा, है न? घाव हो जाएगा। ये तुम्हारे दोस्त अब वह नाखून हैं जो तुम्हें खुजलाये जा रहे है जब कि तुम्हें खुजली है ही नहीं।

यह तुम्हें उत्तेजना देने की कोशिश कर रहे हैं जब कि अब ऊब है ही नहीं, तो अब तुम्हें क्या मिल रहा है इनसे? क्या मिल रहा है? घाव मिल रहे हैं और वही तुमने लिखा है कि सर, दोस्त सामने आते हैं और कहतें हैं कि ‘’यार, तेरी ज़िन्दगी में यह नहीं है, वह नहीं है’’। यही कहते हैं न, यह तुम्हें घाव दे रहे हैं।

जब खुजली ही न रहे और उसकी बाद भी कोई खुजलाता चला जाए तो घाव ही तो होगा। यह तुम्हारे दोस्त, यही तुम्हारा घाव हैं, इनको दूर करो, इनको कहो जिस बीमारी के कारण तुम आते थे, वह नहीं है। तुम्हारे कमरे में गन्दगी पड़ी हुई है और उस गन्दगी के कारण तुम्हारे कमरे में खूब मक्खियाँ और कीड़े मकोड़े आते हैं, अब गन्दगी विदा हो गई, तो कीड़ों मकौड़ों को भी तुम्हें क्या कहना होगा? क्या कहना पड़ेगा? ‘’महोदय, आप भी विदा हो जाएँ। आप जिस भोजन की तलाश में आते थे वो आपको अब मिलेगा नहीं। आपको जो दुर्गन्धयुक्त सामग्री चाहिए थी वह हमने साफ़ कर दी है, झाड़ दी है’’, पर अभी हो क्या रहा है? तुमने अभी इनसे रिश्ता बना रखा है तो सारे कीड़े-मकोड़े तुम्हारे पास आतें हैं और तुम्हें ताने मारते हैं। ‘’तू गन्दा नहीं रहा, तू बेवफ़ा निकला, बदबू ही न उठ रही!’’ और तुम्हें ग्लानी का भाव बैठ रहा है। तुम्हें लग रहा है कि ‘’मैंने कोई अपराध कर दिया है कि मक्खी आ करके मेरे कमरे में फ़ैली विष्ठा पर बैठती थी और मैंने विष्ठा साफ़ कर दी।‘’ तुम्हें लग रहा है कि अरे! यह क्या गलती कर दी मैंने? गलती क्या कर दी बेटा, तुम्हारा कमरा है साफ़ तो तुम्हें करना ही था न और याद रखना इन तुम्हारे दोस्तों का सम्बन्ध तुमसे नहीं था, तुम्हारे कमरे में फ़ैली गन्दगी से था। इनका सम्बन्ध यदि तुमसे होता तो इनका प्रेम अब और गहरा होना चाहिए था क्योंकि तुम पहले से बहतर हुए हो, तुमे पहले गंदे थे, अब स्वच्छ हो। यदि यह वास्तव में तुम्हें प्यार करते तो तुमसे इनका रिश्ता गहरा जाता पर इनका रिश्ता तुमसे था ही नहीं। मक्खी तुम्हारे ऊपर आकर बैठती है, मक्खी का रिश्ता तुमसे होता है? मक्खी का रिश्ता किससे होता है? तुम्हारे शरीर पर पड़ी गन्दगी से होता है। इस भ्रम में न रह जाना कि मक्खी तुमसे रिश्ता रखे हुए है। जिस दिन गन्दगी नहीं रहेगी उस दिन मक्खी नहीं रहेगी। हमारे सारे रिश्ते ऐसे ही होते हैं। हम सोचते यही हैं कि मक्खी हमारे पास आ कार के बैठी है।

सोचो न, मक्खी यहाँ आकर दिल पर बैठ गई है और तुम सोच रहे हो आई लव यू बोल रही है। वह आई लव यू नहीं बोल रही है, तुम पसीना बहुत मारते हो वह उसी के कारण चिपके हुई है। जिस दिन पसीना साफ़ होता है, पता चला आई लव यू भी खत्म हो गया फिर इसीलिए तो लोग घबराते हैं। सत्य से उन्हें पता है सत्य जिस दिन आएगा मक्खियाँ दूर हो जाएँगी। इसलिए तुम्हारी कोशिश चलती रहती है। यह जो पूरा षड्यंत्र चलता है सवाल नहीं लिखेंगे और पढेंगे नहीं, वह इसीलिए तो चलता है। मक्खियों से बड़े रिश्ते जोड़ रखे हैं, अब पता है मक्खियाँ टिकेंगी नहीं। अगर साफ़ हो गए तो हमारी पूरी कोशिश यह है कि साफ़ ही न होने पाएँ। यह सब मक्खियों की करतूत है और जा तुम भी उसी रास्ते पर चल रहे हो देखो, पश्चाताप हो रहा है। अरे! गलती कर दी कबीर को पढ़ आए, लल्ला से मिल आए। अब बताओ, दोस्त यार त्यागे दे रहें हैं। जाने दो उनको, वह दूर जाएँगे लेकिन दूर-दूर से तुम्हें देखेंगे और इसी में तुमने दोस्ती निभाई है। ऊपर-ऊपर से तुम्हें भले कितनी ही उलाहना दें कि कट्टा (कट्टा श्रोता का नाम है) तू बदल गया, तूने सारे वादे तोड़ दिये। ऐसे ही बोलते हैं न यारों का यार न रहा तू, पहलेवाला न रहा। यही कितना बोलें दिल ही दिल में पता है कुछ हुआ है, हो सकता है कि वह फ़ेसबुक से तुम्हे फ्रेंड्स में से हटा भी दें, पीछे से आकर देखेंगे प्रोफाइल तुम्हारी कि चल क्या रहा है तुम्हारे साथ और यही तुमने दोस्ती निभाई है।

अब तुम वह माध्यम बनोगे जिससे वह बदलेंगे ऊपर-ऊपर ऐसे ही लगेगा कि दोस्ती टूट गयी है; अंदर-अंदर कोई और बहुत गहरी प्रक्रिया चलेगी अब। बात अगर तुम तक पहुंची है, सफ़ाई अगर तुम तक पहुंची है, तो फैलेगी अगर वास्तव में पहुंची है। तो यह न समझना कि तुमने कुछ गलत कर दिया है या जो आदमी जानता है वह सबके लिए शुभ होता है, शुभम किसी के लिए अब अशुभ नहीं हो सकता।

ऊपर-ऊपर से कैसा भी लगे, तुम्हारे घर वाले कहते हैं न यह कर दिया, वह कर दिया? अंदर ही अंदर तुम्हारे लिए सम्मान बढ़ गया है उनकी नज़रों में ऊपर-ऊपर से वह कुछ भी बोलें। ऊपर-ऊपर से हो सकता कहें बदतमीज़ हो गया है, बेअदब हो गया है, बड़बोला हो गया है, मुँह ज़्यादा चलता हमें नहीं ठीक लग रहा। भीतर ही भीतर फ़िदा हुए जाते हैं। एकांत में बोलते होंगे पिता माँ से कि ”इसके जितनी अक्ल अगर मुझे होती, जब मेरी ऐसी उम्र थी तो यह न पैदा होता!”

आ रही है बात समझ में?

इसमें बिलकुल न रहो कि दोस्तों ने यह कह दिया, यारों ने यह कह दिया सब समझते हैं। स्वभाव तो सबका एक ही है न, सब समझते हैं बस वह मजबूर हैं क्योंकि उन्हें कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा। तुम वैसे ही रहो जैसे हो, तुम्हारा होना ही उनको रास्ता दिखा देगा। कब दिखा देगा, कैसे दिखा देगा इसकी फ़िक्र तुम मत करो और न तुम कोई योजना बनाओ कि मैं ऐसे इनको ऐसे समझा दूंगा और वैसे उन्हें समझा दूंगा। तुम्हारे समझाने से उन्हें कुछ समझ नहीं आएगा, विरोध करेंगे।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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