प्रश्नकर्ता सर, समाज में कुछ लोगों का दावा होता है कि वो समाज कल्याण के लिए काम करना चाहते हैं। लेकिन उसमें भी उनकी कामना छुपी हुई होती है। लेकिन कुछ लोग सचमुच ऐसा समझते हैं कि वो काम इसीलिए करना चाहते हैं क्योंकि वो वाक़ई समाज कल्याण करना चाहते हैं। तो वो अपनी छुपी हुई कामना को कैसे देखें?
आचार्य प्रशांत: उन लोगों को पूछने दो न। आपका क्या सवाल है?
प्र: सर, मेरा प्रश्न ये है कि जैसे मुझे ये लगता है कि मैं यूपीएससी (संघ लोक सेवा आयोग) सिविल सर्विसेज़ (नागरी सेवाएँ) परीक्षा पास करके समाज सेवा करना चाहता हूँ। मुझे वाक़ई ऐसा लगता है। तो इसमें भी क्या मेरी कोई छुपी हुई कामना है?
आचार्य: (मुस्कुराते हुए) अच्छा अगर नहीं मिलती है सरकारी नौकरी, कहीं कोई साधारण प्राइवेट जॉब करनी पड़ती है, तो करोगे समाज सेवा? और अगर करोगे तो उतनी ही करोगे जितनी वो नौकरी वगैरह पाने पर करते? ये प्रश्न है। अगर उस नौकरी में, सरकारी नौकरी में पद, रुतबा, तनख़्वाह न मिल रही हो तो भी करोगे समाज सेवा? ये कुछ सवाल हैं जिनका ख़ुद को ही ईमानदारी से जवाब देना होता है। ठीक है?
अपनी नज़र में हर कोई अच्छा ही रहना चाहता है। मैंने हायरिंग (नियुक्तियों) के लिए अपनी संस्थाओं में भी, और पहले जब मैं नौकरी करता था तो उन लोगों के लिए भी इंटरव्यू खूब लिये हैं। और जितने आकर के बैठते थे, सबके बड़े ऊँचे-ऊँचे, शुद्ध, दूध में धुले, नैतिक और लोक कल्याण के दावे होते थे। और मुझे इससे ज़्यादा मज़ा नहीं आता था किसी काम में कि दावों को बिलकुल खोलकर रख दूँ।
कोई ये कहता ही नहीं था कि साहब, मैं तो अपने स्वार्थ के लिए कर रहा हूँ, जो कर रहा हूँ। ऐसा जो कह दे, उसका तो मैं चयन कर लेता था, मैं कहता था, ‘झूठों में एक कम झूठा आदमी मिला।‘ वहाँ हर आदमी यही बोलकर आता था कि मैं तो देश के लिए कुछ करूँगा, मैं समाज के लिए कुछ करूँगा। मैं तो तलाशता था कि कोई मिल जाए तो सीधे-सीधे बोल दे कि भाई, जो करना है मुझे अपने लिए करना है।
भारत की ब्यूरोक्रेसी (नौकरशाही) दुनिया की सबसे भ्रष्ट ब्यूरोक्रेसीज़ (नौकरशाहियों) में से है। और यहाँ एक-एक अभ्यार्थी जब जाता है साक्षात्कार में, शाहजहाँ रोड पर तो सबका दावा यही रहता है कि मैं तो भारत की तक़दीर बदलने के लिए आइएएस बनना चाहता हूँ (मुस्कुराते हुए)। भाई, तुम इतने ही उत्सुक होते समाज की, भारत की तस्वीर बदलने में तो तुम्हारी पच्चीस-तीस-पैंतीस साल की उम्र हो रही है, अब तक भी तो तुमने कुछ करा होता न? और अगर इतना ही उत्सुक हो तो ये नौकरी नहीं भी मिले, तो तुम वो कर ही डालोगे जो तुम्हें करना है। तो फिर कर ही डालो।
और सरकार की सारी नौकरियाँ तो ऐसी होती भी नहीं हैं कि उसमें तुम समाज कल्याण कर लोगे। अगर आप सिविल सर्विसेज़ की बात कर रहे हो, तो उसमें एक-ही-दो ऐसी होती हैं जिसमें डायरेक्ट पब्लिक इन्टरफ़ेस (सीधे जनता से जुड़ना) होता है। बाक़ी तो सब पीछे के मैनेजीरियल जॉब्स (प्रबन्धकीय नौकरियाँ) होते हैं।
अब रेलवे-ट्रैफिक (रेलवे-यातायात) है या इन्फॉर्मेशन सर्विस (सूचना सेवा) है, या ऑडिट अकाउंट्स (लेखा-परीक्षा लेखा) है, और भी बहुत सारी ऐसी हैं, उनमें तुम क्या प्रत्यक्ष लोक कल्याण करोगे? पर सब ऐसे आते हैं कि बस विनोबा और गाँधी हैं जो अब कलेक्टर बनना चाहते हैं।
मुझे एक बड़ा सवाल पसन्द था, जानते हो क्या? ख़ासकर जो सरकारी नौकरी के आते थे प्रार्थी। मैं उनसे कहता था, ‘ये बताना, सैलरी कितनी मिलेगी तुम्हें?’ जानते हो खौफ़नाक बात? बीस में से उन्नीस को पता ही नहीं होता था कि उन्हें कितनी सैलरी मिलने वाली है। फिर मैं उनसे कहता था, ‘जानते हो, जब भी मैं किसी प्राइवेट कम्पनी में हायरिंग के लिए इंटरव्यू लेता हूँ तो वहाँ सबको पता होता है उन्हें कितनी सैलरी मिलेगी।' वास्तव में वो इंटरव्यू में आने से पहले ये पता करके रखते हैं कि पैकेज कितना है, सीटीसी (कम्पनी की लागत) कितनी है, इन हैंड (हाथ में) कितना है। वो ये सब पता करके रखते हैं।
और अगर सरकारी नौकरी के जो इच्छुक लोग हैं, उन्हें पता ही नहीं है कि उन्हें कितना पैसा मिलेगा, तो इसके दो ही अर्थ हो सकते हैं। या तो उन्हें पैसे से बिलकुल लगाव नहीं है या वो अच्छे से जानते हैं कि अरे! तनख़्वाह से क्या मतलब है, जो पैसा मिलना है वो कोई सैलरी से थोड़े ही मिलना है? तो सैलरी का कौन पता लगाये?
और भौंचक्के रह जाते थे बेचारे। मैं पूछता था, ‘बताओ, एज़ एन आइएएस (कलेक्टर के रूप में) तुम्हारी पहली टेक होम सैलरी (घर ले जानेवाली वेतन) कितनी होगी?’ नहीं पता होता था। तुम सोचो ये कितनी भयानक बात है! उस लड़के को ये पता ही नहीं है कि अगर वो बन भी गया आइएएस, तो उसको पहली सैलरी कितनी मिलेगी। इसका मतलब जानते हो क्या है? सोचो, इसका मतलब ये है कि उसे पहले से ही पता है कि सैलरी से क्या लेना-देना है, आइएएस कोई सैलरी के लिए बनता है! (हँसते हुए) आइएएस को पैसा कोई सैलरी से मिलता है? और दावा लोक कल्याण का है।
मैं नहीं कह रहा सब भ्रष्ट होते हैं, पर कुछ अपवाद होते भी हैं तो एक्सेप्शंस जस्ट प्रूफ़ द रूल (अपवाद केवल नियम को सिद्ध करते हैं)। सौ में दो-चार होते होंगे ऐसे जो कहते होंगे, ‘नहीं साहब, काम हमें अच्छाई के लिए ही करना है।’ पर उन दो-चार से क्या साबित हो जाता है?
आपको पता है सैलरी? (प्रश्नकर्ता से पूछते हुए)
प्र: हाँ, सर।
आचार्य: सचमुच पता है?
प्र: फिफ्टी सिक्स थाउसेंड (छप्पन हज़ार) सर।
आचार्य: और जो सरकारी पूरा पे-स्ट्रक्चर (भुगतान ढाँचा) होता है न, वो बड़ा जटिल होता है। प्राइवेट कम्पनीज़ में तो फिर भी बहुत सीधा-सीधा होता है। सरकारी में तो आगे जाकर के पीएफ (भविष्य निधि) भी है, ग्रेच्युटी (उपहार) भी है, रिटायरमेंट के बाद की अन्य चीज़ें भी हैं। अन्य कई प्रकार के बेनिफिट्स हैं जिसमें मेडिकल, हाउसिंग बहुत कुछ आता है, व्हीकल (वाहन) भी आता है। आपने सचमुच बैठकर उस सबकी गणना करी है क्या?
जब सौदा खरा-खरा होता है न, तो पूरी गणना करके रखी जाती है, करते हो कि नहीं? आप गाड़ी ख़रीदने जाते हो तो वो आपको जब गाड़ी की क़ीमत बताता है तो उसमें पाँच-छः चीज़ें जुड़ी हुई होती हैं। वो कहेगा, ‘इतना तो हम ले रहे हैं, इतना रजिस्ट्रेशन चार्जेज़ हैं, इतना इन्श्योरेंस चार्जेज़ हैं। इतने की आप इसमें एन्सिलरीज़ लगवा लो गाड़ी में। इतना इसमें और कोई टैक्स बता देगा, रोड टैक्स है, ग्रीन टैक्स है, इतने की एक्सटेंडेड वॉरंटी (बढ़ी हुई गारंटी) है।’ ये सब होता है न? और वहाँ पर आप बैठकर एक-एक चीज़ पूछते हो, ‘अच्छा, ये किस चीज़ का है, ये किस चीज़ का?’ ये सौदा खरा-खरा है कि साहब एक-एक रुपये का हिसाब पता होना चाहिए।
आप जब सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करते हो, एक-एक रुपये का कोई भी हिसाब पता करता है क्या? हाँ, प्राइवेट में पता करोगे, सरकारी में नहीं पता करते। कुछ करते होंगे, मैं सब पर नहीं आक्षेप लगा रहा। कुछ ईमानदार लोग हर जगह होते हैं। पर आपने प्रश्न पूछा कि अपनी नीयत का पता कैसे करें, तो पता ऐसे कर लो।
प्र: सर, जैसे सन् दो हज़ार बाईस में मेरा ग्रेजुएशन पूरा हुआ। उसके बाद मैं एक एनजीओ (गैर-सरकारी संगठन) जो मातृ और शिशु स्वास्थ्य के लिए काम करती थी, पिछड़े और ट्राइबल एरियाज़ (आदिवासी क्षेत्रों) में, तो वहाँ पर लगभग एक साल मैंने काम किया। तब वहाँ पर मुख्य रूप से मेरी सलाहकार की भूमिका होती थी और कम स्केल (स्तर) पर होता था। तो मुझे ऐसा वाक़ई लगा कि मतलब एज़ एन आइएएस ऑफिसर (एक कलेक्टर के रूप में) काम को और बढ़ाया जा सकता है और अच्छे तरीक़े से किया जा सकता है।
आचार्य वो बेचारी एनजीओ, उसको कलपता क्यों छोड़ आये तुम? उसको तुम्हारी सेवाओं की बहुत ज़रूरत थी लोक कल्याण के लिए। इतना अच्छा तुमको काम मिला था, उसको छोड़ आये तुम! जितनी मेहनत अब तुमने यूपीएससी की तैयारी में करी, जितने साल लगाये होंगे यूपीएससी की तैयारी में, उतनी मेहनत तुम उस एनजीओ के साथ कर देते, तो तुम्हें वहाँ भी कोई वरिष्ठ स्थान मिल जाता। कह रहे हो, आइएएस बनकर ज़्यादा व्यापक तरीक़े से काम कर पाओगे। तो आइएएस बनने के लिए जितने साल लगाओगे अब, या लगा चुके होगे, उतने ही साल तुमने वहाँ मेहनत कर दी होती तो उसमें भी तुम सीनियर बन जाते और अपने एनजीओ को और विस्तार दे पाते। उसको छोड़ क्यों आये? क्योंकि डीएम (कलेक्टर) नहीं कहलाओगे न एनजीओ में।
प्र: येस सर।
आचार्य: रिश्ते भी नहीं आएँगे, दहेज भी नहीं आएगा, ‘एनजीओ में काम करता है लड़का।’ हमारे यहाँ ये जो सब संन्यासी हैं संस्था में, इन्होंने कोई ब्रह्मचर्य चुना थोड़ी है। एनजीओ का वरदान है, निर्वैकल्पिक ब्रह्मचर्य। कोई आएगा ही नहीं। इसलिए डीएम बनना है।
अब देखो भाई, चीज़ रिकॉर्ड हो रही है इतने सारे कैमरे लगे हुए हैं, तो बहुत लोगों के दिल पर चोट लग जाएगी। कहेंगे, ‘साहब, आपने तो जितने भी आवेदनकर्ता हैं और यूपीएससी की तैयारी के लिए मुखर्जी नगर की पूरी फ़ौज है, आपने तो सबको ही भ्रष्ट घोषित कर दिया।’ तो भैया, मैं पहले ही कहे देता हूँ, ‘सबको नहीं कह रहा हूँ। आप में से जो दो-चार लोग सचमुच दिल के पाक़-साफ़ हों, उनको तो मेरा प्रणाम है। एकदम लीजिए प्रणाम करे देता हूँ (हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए)।‘
पर मुझे ये पता है कि पाक़-साफ़ लोगों का मैंने ख़ुद ही बहुत इंटरव्यू लिया हुआ है, और आज नहीं बीस साल पहले से। और जो जितना साफ़ हो मुझे उसकी सफ़ाई करने में उतना मज़ा आता था। भले वो लोग होते हैं जो आकर ख़ुद ही स्वीकार कर लें कि न मैं भगवान हूँ, न मैं शैतान हूँ, दुनिया जो चाहे समझे, मैं तो इंसान हूँ। मुझमें भलाई भी, मुझमें बुराई भी, लाखों हैं ऐब मुझमें, थोड़ी अच्छाई भी।
ये बन्दा मुझे अच्छा लगता है। खरी-खरी बात, सच्ची बात। क्यों झूठ बोलना? क्यों बेकार ही निस्वार्थता के और निष्कामता के और जन सेवा और लोक कल्याण के दावे करना? सीधे बोलो न, ‘इंसान हूँ, अपना स्वार्थ देखकर चलता हूँ। हाँ, कोशिश करूँगा कि दूसरों की भी कुछ मदद कर पाऊँ, कोशिश करूँगा कि थोड़ा कम भ्रष्ट हो पाऊँ।’ पर ऐसे लोग मिलते नहीं।
मुझे लगता है ऐसे लोग अगर जाकर के वहाँ पर यूपीएससी में पैनल के सामने खुलकर बोल दें, तो चयनित भी नहीं होंगे। वैसे हो जाएँगे। जानते हो मेरे इंटरव्यू में मुझसे एक सवाल पूछा था। उन दिनों करप्शन (भ्रष्टाचार) बड़ा मुद्दा चल रहा था। तो मुझसे पूछा कि अगर इन दोनों में से आपको चुनना है, तो ज़्यादा बड़ा मुद्दा किसको मानोगे — इकोनॉमिक ग्रोथ (आर्थिक विकास) या करप्शन? ‘आपके हिसाब से इन दोनों में से किसको हमें ज़्यादा तवज्जो देनी चाहिए, इकोनॉमिक ग्रोथ को या फ्रीडम फ्रॉम करप्शन (भ्रष्टाचार से मुक्ति) को?’
मैंने कहा, 'इकोनॉमिक ग्रोथ को।’ मैंने कोई आदर्शवादी जवाब नहीं दिया। उन्होंने कहा, ’यू विल टॉलरेट करप्शन? (आप भ्रष्टाचार को सहन कर लोगे?)’ मैंने कहा कि अगर इन दोनों में से किसी एक को ही चुन सकते हैं, तो मैं इकोनॉमिक ग्रोथ को चुनूँगा। ये आदर्शवाद नहीं चाहिए मुझे, कोरा पाखंड कि मैं बोलूँ नहीं-नहीं इकोनॉमिक ग्रोथ भले न हो, पर करप्शन नहीं होना चाहिए।
मैंने कहा, ‘सबसे आदर्श स्थिति तो ये है कि भाई दोनों ही मेरे उद्देश्य पूरे हो जाएँ, इकोनॉमिक ग्रोथ विदाउट करप्शन (आर्थिक प्रगति बिना भ्रष्टाचार के), इससे अच्छा तो कुछ हो ही नहीं सकता।' लेकिन अगर दोनों में से एक को चुनना है तो मैं कहूँगा, 'रहे आने दो करप्शन को, मुझे मेरे देश की जनता को ग़रीबी से बाहर निकालना है। वो ज़्यादा ज़रूरी है।’
मुझे लगा कि अब ये मेरा चयन नहीं ही करेंगे। वैसे भी मैं तो इस हिसाब से ही गया था कि अब चाहिए ही नहीं ये, पर वो बड़े खुश हो गये, नम्बर भी उन्होंने बड़े अच्छे दे दिये इंटरव्यू में। पर वो भाई, मेरे पैनल की बात थी। मेरे कहने पर आप लोग जाकर के कहीं ख़तरा, जोख़िम मत उठा लीजिएगा और फिर आप चयनित न हों तो मुझे दोषी बतायें।
तो आप तो चयनित होने के लिए वही करिएगा जो पीढ़ियों से होता आया है, कि वहाँ जाइएगा सफ़ेद शर्ट पहनकर, टाई-वाई लगाकर और खूब आदर्शवादी बातें करिएगा कि मैं तो भारत की तक़दीर बदलने के लिए पैदा हुआ हूँ। ‘भारत को मैं भ्रष्टाचार मुक्त कर दूँगा। एकदम मैं गाँव-गाँव में जाकर के ग्रासरूट डेवलपमेंट (ज़मीनी स्तर पर विकास) करना चाहता हूँ।’ ये सब बताइएगा। और हक़ीक़त ये है कि जब गाँव वाली या आदिवासी इलाकों वाली पोस्टिंग मिल जाती है तो उसको माना जाता है पनिशमेंट पोस्टिंग। लेकिन साक्षात्कार में सारे यही बोलते हैं कि मुझे तो सबसे पिछड़े इलाकों का विकास करना है।
प्र: सर, तो ऐसी स्थिति में जब अपना स्वार्थ या फिर अपनी कामना दिखे, तो फिर अब क्या करना चाहिए?
आचार्य: आप इंसान हो तो ख़ुद ही जब अपना भद्दा चेहरा दिखेगा, तो उसे साफ़ करना चाहोगे। इसमें मेरे बताने की तो कोई बात नहीं न। कोई आईना दिखा दे और दिखाई पड़े कि चेहरे पर बहुत गन्दगी है, तो पूछोगे थोड़े ही किसी से कि अब क्या करें। तौलिया उठाओगे, पोंछोगे, जाकर पानी मारोगे चेहरे पर, साफ़ करोगे।
प्र: सर, तो ये यूपीएससी एग्ज़ाम लिखने की दिशा में क्या करना चाहिए?
आचार्य: जाओ लिखो, क्या करना चाहिए क्या? तैयारी कर रहे हो तो इसीलिए कर रहे हो। लिख लो यूपीएससी को, पर अभी जो हम बात कर रहे हैं, इसको मत भूलना। पाखंड से न राष्ट्र का हित होता है, न व्यक्ति का।
बगुला-भगत बनने से कुछ नहीं होगा, है न? सफ़ेद उसका रंग, सफ़ेद पंख और पानी में वो तपस्वी की तरह एक टाँग पर खड़ा होता है। ऐसा लगता है वाह! क्या श्वेत, धवल इसका व्यक्तित्व है, बिलकुल किसी ब्यूरोक्रेट (नौकरशाह) की सफ़ेद शर्ट के जैसा! और एक टाँग पर खड़ा है, ज़रूर ये जगत के हित में तपस्या कर रहा है एक टाँग पर खड़ा होकर। कर क्या रहा है वहाँ वो? मछली का इन्तज़ार। तो ये पाखंड कम करो।
बाक़ी अगर कोई पद है, तो इसीलिए है कि कोई-न-कोई उस पद को स्वीकारे। अच्छी बात है कि देश को क़ाबिल ब्यूरोक्रेट्स मिलें। पर सारी क़ाबिलियत कामना के पीछे ग़ायब हो जाती है। ब्यरोक्रेट्स को बहुत-बहुत ज़रूरत है उस पाठ को पढ़ने की, जो अभी हमने पढ़ा है। और वो पाठ हमने पढ़ा है भगवद्गीता के सन्दर्भ में।
तो जब तक इस देश की नौकरशाही और नेताशाही, इनको अध्यात्म का पाठ नहीं पढ़ाया जाएगा तब तक राष्ट्र-कल्याण बहुत दूर है।
(हँसते हुए) बुरे फँसे हैं, हाँ? न अब उगलते बन रहा है, न निगलते बन रहा है। ये जो जवाब है, जाकर भीतर फँस गया है कहीं पर। जानते हो कि ये बात सच है, तो इसीलिए इसको उगल नहीं सकते। पर ये भी जानते हो कि इस बात को अगर निगल लिया तो भीतर बड़ी टूट-फूट मच जाएगी, तो इसीलिए निगल भी नहीं सकते। और जब मैं ऐसा किसी का हाल देखता हूँ, तो मुझे तो बड़ा मज़ा आता है।
देखो भाई, हम कोई यूपीएससी कोचिंग तो चला नहीं रहे कि तुमको तरीक़े बतायें इंटरव्यू पार करने के। न हम मोटिवेशन की दुकान चला रहे हैं कि तुमको बतायें कि किस तरीक़े से अपनेआप को प्रेरित करे रहो तैयारी करने के लिए। यहाँ तो सच का सौदा है। तुम्हें जोख़िम उठाना था तो तुमने उठाकर सवाल पूछ लिया। मेरे पास और कुछ है नहीं देने के लिए सच के अलावा, मैंने सच तुमको दे दिया। तो मैं फ़रेब तो सिखा नहीं पाऊँगा।
प्र: सर, मेरे यूपीएससी एग्ज़ाम के पीछे बात कामना वाली ही थी। लेकिन इसको ऐसे भी देखता था कि एकदम कोई चैलेंजिंग (चुनौतीपूर्ण) काम हो, उसमें अपनेआप को झोंक दो, तो फिर?
आचार्य: वो जहाँ काम कर रहे थे तुम एनजीओ में, नारी स्वास्थ्य या लोक-कल्याण का जो भी, शिशु-कल्याण का काम था, वो चैलेंजिंग नहीं था? तो ईमानदारी की बात करो न, कि चैलेंज-वैलेंज कुछ नहीं, असली बात ये (पैसे का इशारा करते हुए) और वो लाल-बत्ती है। ये सब जवाब, फिर बोल रहा हूँ, ये सब जवाब यूपीएससी कोचिंग वाले रटाते हैं इंटरव्यू में देने के लिए। ऐसे जवाब चाहिए तो वहाँ चले जाओ।
इस देश के एनजीओ सेक्टर को टैलेंट की बहुत-बहुत ज़रूरत है। मैं तो ये जो पूरा कठवाड़िया सराय, मुखर्जी नगर, और इन सबको बोलूँ कि तुम सब जनसेवा की भावना से इतने ओत-प्रोत हो, ‘सब-के-सब जाओ एनजीओज़ में ही काम करो, क्योंकि जनसेवा तो वहीं हो रही है।’ कोई नहीं जाएगा। सेवक किसी को नहीं बननी, सबको शासक बनना है। सेवक नहीं, शासक। सर्वर (सेवक) नहीं, ऑफ़िसर (अधिकारी)।
अब काफ़ी तुम हताश हो गये हो। जाकर दो-चार मोटीवेशन के बढ़िया, गरमा-गरम वीडियो सुनो और खटा-खट लग जाओ तैयारी में फिर से। और ये जो हमारी पूरी बातचीत हुई है, इसको ऐसे भुला देना जैसे ये कभी हुई ही नहीं है। एकदम भुला देना।
प्र: सर, मैं इसको ऐसे भी देखता था — अब बात एकदम साफ़ हो ही गयी है तो फिर — जैसे मैं ये कहीं-न-कहीं भीतर से जानता ही था कि ताक़त, पद इन सब चीज़ों की कामना है। लेकिन फिर मैं इसको एज़ एन एंड (अन्त के रूप में) नहीं देखता था, ओनली ऐज़ अ मींस टुवर्ड्स समथिंग ग्रेटर (केवल एक साधन की तरह किसी बड़े उद्देश्य के लिए)। तो फिर मैं अपनेआप को अभी तक ये कहता था कि तीन साल या फिर चार साल से ज़्यादा ये नौकरी नहीं करनी है। इस तरीक़े से भी तर्क देता था।
आचार्य: ये क्या मुग़ालते हैं? क्या ग़लत-फ़हमी है? तुम्हें कितने ब्यूरोक्रेट्स पता हैं जो तीन साल में सेवानिवृत्त हो जाते हैं, इस्तीफ़ा दे देते हैं भाई? (हँसते हुए) भंडारे में कोई बैठता है दो मिनट में उठ आने के लिए? या जो-जो मिल रहा है उसको पूरा साफ़ चाट जाने के लिए?
मिठाई की दुकान में मक्खी इसलिए घुसती है कि जो कुछ दिख रहा होगा उसका इंस्पेक्शन (निरीक्षण) करके लौट आऊँगी बस एक मिनट के अन्दर? या वहाँ घुसकर के वो वहाँ बस ही जाती है? वो तो बस जाएगी, वहीं रहेगी अब वो। वो निकाले नहीं निकलेगी। ब्यूरोक्रेट्स जहाँ मौक़ा मिलता है, वहाँ सर्विस का एक्सटेंशन (विस्तार) लेते हैं भाई! क्लॉज़ेज़ (उपवाक्य) होते हैं, एक-साल का एक्सटेंशन मिलता है, दो-साल का मिलता है। वो लेने के लिए होड़ लगी रहती है कि किसी-न-किसी बहाने से सर्विस का एक्सटेंशन ले लो।
तुम कह रहे हो, ‘मैं तीन-चार साल में छोड़ आऊँगा।’ ज़रा निकालना क्या अनुपात है, प्रपोर्शन (अनुपात) है ऐसे ब्यूरोक्रेट्स का? किसी भी सर्विस में, जो तीन-चार साल में रिज़ाइन कर देते हों, निकालना। तुम ही अपवाद हो?
सारी ज़िन्दगी तुम्हारी बिलकुल उसी स्क्रिप्ट (पटकथा) पर चली है जिस स्क्रिप्ट पर समाज ने तुम्हें चलना सिखाया। लेकिन तीन-चार साल बाद तुम अपवाद बन जाओगे, एक्सेप्शन बन जाओगे? तुम कहोगे, ‘नहीं, आज तक तो उस स्क्रिप्ट पर चल रहा था, आज तक मेरी ज़िन्दगी का एक-एक चैप्टर उसी स्क्रिप्ट के मुताबिक़ था। लेकिन अब मैं स्क्रिप्ट से बाहर फाँद जाऊँगा, वॉयलेट (उल्लंघन) कर दूँगा स्क्रिप्ट को।’ ऐसा कैसे हो सकता है?
जब आज तक तुमने सबकुछ वही करा जो तुम्हें स्क्रिप्ट ने करना सिखाया, यूपीएससी भी तुम्हें स्क्रिप्ट ने ही करना सिखाया है। जब आज तक तुम सबकुछ वही कर रहे हो जो सामाजिक स्क्रिप्ट तुम्हें करने के लिए मजबूर कर रही है, तो तुम आगे भी पूरी ज़िन्दगी उसी स्क्रिप्ट पर ही चलोगे। कुछ अलग नहीं कर सकते। कहाँ तुम कह रहे हो, ‘तीन साल बाद छोड़ दूँगा’?
किस ब्यूरोक्रेट्स को तुम पाते हो बिलकुल एक अलग तरह की ज़िन्दगी जीते हुए? सब एक से होते हैं। उन्नीस-बीस का फ़र्क होता है बस। सब स्क्रिप्ट पर चल रहे हैं। यूपीएससी भी सबने स्क्रिप्ट के अनुसार करी थी। अब आगे भी वो जो कुछ भी करते हैं पूरी अपनी सर्विस के दौरान, वो सब भी स्क्रिप्ट के हिसाब से ही कर रहे होते हैं। फिर स्क्रिप्ट के हिसाब से रिटायर भी हो जाते हैं और स्क्रिप्ट के हिसाब से रिटायर होने के बाद भी वो वैसे ही करते हैं, फिर मर जाते हैं। वहाँ क्या नया होगा?
एक्सेप्शन्स होते हैं, पर तुम ये बता दो, तुम अपनी ज़िन्दगी में एक्सेप्शनल (अपवादपूर्ण) कब रहे हो, जो अब तुम एक्सेप्शन बन जाओगे? और अगर एक्सेप्शनल सचमुच रहे होते, तो फिर आज वही काम क्यों कर रहे होते जो बीसों लाख लोग कर रहे हैं, यूपीएससी की तैयारी? ये एक्सेप्शनल होने का लक्षण तो नहीं है।
इतने उदास मत होओ। ऐसा कुछ नहीं हो गया कि हताश हो रहे हो। जो करना है करो, साफ़ नीयत के साथ करो। ठीक है? तुम्हारा तो मुँह ही उतर गया एकदम! हँसो-हँसो। अरे भाई, एक पद है, एक पोजिशन है, कोई तो उस पर बैठेगा ही न? तुम्हीं बैठ जाओ, पर अपनेआप से झूठ बोलकर मत बैठो उस पर। जो अपना वास्तविक इरादा है, कम-से-कम ख़ुद तो स्वीकारो।
प्र: सर, तो जो बात एकदम साफ़ है लेकिन उसके ऊपर मैं ये सारी बातें भी न बोलूँ, तो फिर उधर बढ़ने की इच्छा भी नहीं होती।
आचार्य: अब ये तो बात फिर पूरे तरीक़े से तुम्हारे निजी फ़ैसले की है। अगर तुम पाओ कि लाल बत्ती या वो जो कमिश्नरी का आतंक होता है, या जो बहुत सारा पैसा और ये सब चीज़ें होती हैं रुतबा-रसूख़, इनके लालच को हटाते ही यूपीएससी की तैयारी का भी मन नहीं करता, तो फिर अब तुम जानो कि क्या करना है ज़िन्दगी में। ये तो फिर अपना निजी फ़ैसला है न, ये तो अपने एक पर्सनल लव अफेयर (व्यक्तिगत प्रेम प्रसंग) जैसी बात है। इसमें तो फ़ैसला ख़ुद ही करना पड़ेगा। कोई और नहीं फ़ैसला कर सकता।
(हँसते हुए) और कुछ?
प्र: सर, एकदम ही समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करना है।
आचार्य: अरे, अभी इसी पल थोड़े ही फ़ैसला कर लेना है। न तुम कहीं भागे जा रहे, न मैं। जाओ, थोड़ा चिन्तन-मनन करो। आना, लौटकर आना।
कभी मैं भी तुम्हारी ही हालत में था। तुम्हें तो ये है कि तैयारी करूँ कि न करूँ। मुझे तो ये था कि अब नौकरी मिल गयी है, नौकरी करूँ या न करूँ। तुम जिस दिशा में जा रहे हो, उधर जाकर के, वहाँ से होकर के, वहाँ से वापस आ चुके हैं तो दो-चार बातें पता हैं। सोचना-विचारना, फिर पूछोगे तो बताएँगे।