आचार्य प्रशांत: आप कह रही हैं कि कोर्स के वीडियो देखकर के और जो कुछ वीडियोस में कहा गया है उसको लिखकर के और जो लिखा है उसे बार-बार पढ़कर के और बार-बार वीडियो देखकर के भी संतुष्टि नहीं मिलती। ख़तरनाक बात तब होती जब आप कहती कि यह सब करके आपको संतुष्टि मिल जाती है। क्योंकि यही तो इंसान ने हमेशा से करा है उपनिषदों के साथ और सब आर्ष वचनों के साथ। क्या करा है? उनको लिख लिया, उनको सुन लिया; उनको लिख लिया, उनको सुन लिया। और थोड़ा बढ़कर उनको रट लिया, और संतुष्ट हो गये। किस्मत की बात है कि अभी आप बची हुई हैं, आप इससे संतुष्ट नहीं हुई जा रही हैं।
आपको चिकित्सक एक पर्चा थमा रहा है। वो प्रिस्क्रिप्शन है, अनुशंसा है। उसको क्या करना है, पढ़ते रहना है उसको? कितनी बार पढ़ोगे? रट लिया उसको, अच्छे से रट लिया। और यही नहीं, उसकी तस्वीर घर में जगह-जगह पर लगा दी, प्रिसक्रिप्शन की, और उससे संतुष्ट भी हो गये। ज़्यादातर लोग हो जाते हैं। देखो न, देवी-देवताओं की चारों तरफ़ तस्वीरें लगी हुई हैं। मंदिर जा रहे हैं। जो भी धर्मग्रन्थ है, आपका पंथ है, उसका पाठ चल रहा है। संतुष्ट भी हो गये इस बात से। वो होती है निहायत भयानक बात! कैसे? दवाई का न मूल्य चुकाया, न अनुशासन से उसका सेवन किया, न जो परहेज़ बताया गया था उसका पालन किया, तुम्हें संतुष्टि मिल कैसे गयी?
किसी चमत्कार की आशा में न रहें; करना आपको ही है। कोई अधिक-से-अधिक राह बता सकता है, करना तो आपको ही है भाई। वो करे बिना कैसे संतुष्टि पा जाओगे? करा कहाँ? मेरे लिए वो बड़े ख़तरे की घंटी होती है जब कोई बोलता है कि मैं आचार्य जी दिनभर आप ही की वीडियो देखता रहता हूँ। हैं! (आश्चर्य करते हुए) तो फिर करता कब है तू? मैं तो समझता हूँ, मेरी एक-एक बात सही कर्म की तरफ़ एक प्रेरणा है, प्रोत्साहन है। वो कब हो रहा है, अगर आप दिनभर वीडियोज़ ही देख रहे हो तो?
जैसे कोई बार-बार बोल रहा हो कि एक क्षण की भी अब देर न करो, चलो उठो! शस्त्र उठाओ, मोर्चे पर जाओ! और आप कह रहे हैं, 'अहा! क्या बात कही है! पाँच बार और बोलो।' देखो, एक क्षण की भी अब देर न करो, चलो उठो! शस्त्र उठाओ, मोर्चे पर जाओ! 'अहाहा! दस बार और बोलो यही। हम बैठे-बैठे तुमको सुनेंगे।' कहने वाला कह रहा है, एक क्षण की भी देर न करो, शस्त्र उठाओ मोर्चे पर जाओ। और तुम उसी को सुने जा रहे हो, यह तो बोलने वाले का भी अपमान हो गया न? जिसको सुन रहे हो, सुन-सुनकर उसका ही अपमान कर रहे हो अगर सुनी हुई बात पर अमल नहीं कर रहे। और मैं तो दवा भी कम देता हूँ, परहेज़ ज़्यादा बताता हूँ। बल्कि परहेज़ ही बताता हूँ, दवा तो मेरे पास है ही नहीं।
मैं तो कह रहा हूँ, स्वास्थ्य तुम्हारा स्वभाव है, तुम उल्टा-पुल्टा खाकर के बीमार हुए हो। बस परहेज़ कर लो, ठीक हो जाओगे। और परहेज़ करना नहीं है, क्योंकि ज़बान को लत लग गयी है मसाले की, मिर्च की। मैं कैसे सहायता करूँ आपकी, बताइए। मैं इस मामले में वाक़ई बड़ा दुर्बल, बड़ा असहाय अनुभव करता हूँ। मेरे पास कोई जादुई छड़ी है ही नहीं। बहुत सीधी बात बोलता हूँ, पर कुछ कर नहीं सकता अगर वह आपके काम नहीं आ रही तो। क्योंकि वो आपके काम आएगी या नहीं वह मुझ पर नहीं, आप पर निर्भर करता है। मैं आपकी ज़िंदगी थोड़ी जी सकता हूँ या जी सकता हूँ? कुछ करना है, नहीं करना है, यह तो आप तय करोगे न। मैं अधिक-से-अधिक थोड़ी रोशनी डाल सकता हूँ। मैं राह की तरफ़ इशारा कर सकता हूँ, चलेगा कौन उस पर? मैं ही चल दूँ आपके लिए?
आप कह रही हैं, मैं जैसी ज़िंदगी जीती हूँ, मैं वैसे ही ज़िंदगी जीती रहूँगी और साथ ही में, मैं दिन में आपकी वीडियो सुन लिया करूँगी। इससे संतुष्टि मिल जाएगी। वीडियो बोल ही यही रहा है कि ज़िंदगी बदलो, आपने वीडियो को भी ज़िंदगी का हिस्सा बना लिया? ये गजब! हर वीडियो एक ललकार है कि बदलो जैसे जी रहे हो उस ढर्रे को, उस आधर को ही। और कुछ बदले बिना क्या करा, कि दिनचर्या में शामिल कर लिया वीडियो को भी। कैसे लाभ होगा कुछ भी, बताओ मुझे। वीडियो दिनचर्या में शामिल होने के लिए है या दिनचर्या में विस्फोट कर देने के लिए है? बताओ! हम कुछ भी कर लेते हैं।
ये बातें नहीं हैं। हम यहाँ बातचीत के लिए आये हैं क्या? कुछ मूल ग़लत-फ़हमी है। बतियाने आये हैं कि आओ, कुछ चाय-वाय, गर्म मूंगफलियाँ, चने, पापड़, बिस्कुट और बैठकर बतियाते हैं, और उसके बाद अपने-अपने घरों को चले जाते हैं? शाम अच्छी बीती। और अब रुकिए भी, रात के खाने का वक़्त हो रहा है। बच्चे घर पर इंतज़ार कर रहे हैं, श्रीमान जी बुला रहे हैं, कि श्रीमती जी। और समय पर सोना होता है, दफ़्तर जाना होता है। शाम अच्छी बीती, चर्चा सुहानी थी। खेद की बात है कि हममें से ज़्यादातर लोग ऐसे ही आये हैं।
किसी वास्तविक परिवर्तन का हमारा इरादा भी है? और अगर नहीं है, तो नहीं होगा! कुछ नहीं बदलेगा। ज़िंदगी तो एक बहाव है। आप कुछ न भी करिए, तो वो बहती रहेगी। हाँ, उस बहाव के विरुद्ध जाने के लिए या उस बहाव से बाहर आने के लिए आपको बहुत कुछ करना पड़ेगा। अधिकांश मानवता पता है न कैसे जीती है, वह बस बह रही है, एक अंधा, बेहोश बहाव, क्योंकि बहाव के ख़िलाफ़ जाना है तो बड़ा ज़ोर लगाना पड़ता है। और बहाव से बाहर आना है, उसमें और ज़ोर लगाना पड़ता है क्योंकि पूरी ज़िंदगी का हमारा अनुभव और आदत ही क्या है? बहाव में रहने की। बहाव से बाहर आ गये, ऐसी तो हम कल्पना ही नहीं कर पाते कि बाहर क्या मिलेगा तट पर। जीवन बड़ा सूखा-सूखा हो जाएगा, अभी सब गीला-गीला रहता है।
मुझे विदूषक मत बना लीजिए। मनोरंजन करने के लिए थोड़ी ही हूँ? लेट्स स्पेंड एन इवनिंग टुगेदर (चलो, साथ में एक शाम बितायें) वाला हिसाब थोड़ी है भाई!