1947 के बाद की एक बड़ी भूल || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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1947 के बाद की एक बड़ी भूल || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ताः प्रणाम आचार्य जी। मेरा प्रश्न एक वारदात से सम्बन्धित था तो मैं पहले वारदात के बारे में बताना चाहूँगा। हाल ही में मैं एक रेस्टोरेंट गया हुआ था और वहाँ पर खाना खा रहा था। और पास ही में मैंने एक फ़ैमिली (परिवार) को देखा, फ़ैमिली में एक फ़ादर (पिता) थे, उनके दो बच्चे थे, एक लड़का, एक लड़की। और जो फ़ादर थे, तकरीबन-तकरीबन पैंतालीस साल के रहे होंगे, कद-काठी ठीक-ठाक थी, गंजे थे। और साथ ही में उनके साथ, बिलकुल उनके बगल में उनकी बेटी बैठी हुई थी, वो बीस-बाईस की रही होगी मेरे ख़्याल से, कॉलेज जाने वाली लड़की होगी। और बिलकुल उनके सामने उनका ही बेटा बैठा हुआ था, वो तकरीबन चौदह-पंद्रह साल का, स्कूल-गोइंग स्टूडेंट होगा, काफ़ी मोटा-सा था।

तो मैं अपना खाना खा रहा था और मैं अपने ही कुछ काम में लगा था लेकिन वो बहुत तेज़ी से बातें कर रहे थे, बहुत ज़ोर-ज़ोर से बातें कर रहे थे। तो मेरा ध्यान वहाँ भटका, तो मैंने अचानक वहाँ देखा कि जो लड़की है वो अपने भाई को गाली बक देती है और गाली भी सीधा बहन की गाली और साथ में बैठे हैं उनके पिताजी। तो ये देख कर मुझे अजीब-सी एक — पहले विश्वास-सा नहीं हुआ, कि 'मैं क्या देख रहा हूँ, ये हो भी रहा है कि नहीं हो रहा?' पर ये बात मैंने फिर देखी और बात यहाँ ख़त्म नहीं हुई।

बात ये हुई कि जो पिताजी थे वो ये सब देखते हुए, अपनी ही जो बेटी है, उसको एक तरह से हग (गले मिलना) कर रहे हैं, जैसे कोई दोस्त करता है, और हँस-से रहे हैं, जैसे सब-कुछ बिलकुल ठीक है। और पूरे इस वारदात में मैंने देखा कि तीन बार यही चीज़ हुई, और तब से मैं थोड़ा-सा विचार में रहा, कि 'ये हो क्या रहा है, हम कहाँ की ओर जा रहे हैं?' कि पिता बैठे हुए हैं, बेटी साथ में है, और बेटी अपने ही भाई को बहन की गाली दे रही है और पिताजी उसको उल्टा हग कर रहे हैं।

मतलब मुझे अजीब-सा लगा, तब से ये विचार चलता ही जा रहा है, कि 'ये हुआ क्या और हम कहाँ की ओर जा रहे हैं?' तो आप कुछ इस पर बोलें।

आचार्य प्रशांत: देखो, जो भी हो रहा है ये शायद पिताजी अपने ज़माने में, अपनी पीढ़ी में खुद भी चाहते रहे होंगे। उस समय माहौल ऐसा नहीं था कि उन्हें ये सब करने का मौका मिले, तो उनके जो भी अरमान थे, अब उनकी बेटी पूरी कर रही है। वो इसीलिए बहुत खुश हो करके उसको गले-वले लगा रहे हैं, जो भी कर रहे हैं। इस पीढ़ी का जो ज़बरदस्त अंदरूनी खोखलापन है, वो वास्तव में इस पीढ़ी का अपना नहीं है, वो पीछे-से आ रहा है। मैं जब फर्स्ट-सेमेस्टर में ही था, आईआईटी में, और पहला रौंदेवू (मिलन समारोह) था, तो उसी में किसी प्रतियोगिता में मैंने बोला था कि 'आज़ादी से पहले, १९५० से पहले इतने सारे ऊँचे नाम हमको दिखाई देते हैं, सुनाई देते हैं भारत में, है न? और १९४७ के बाद उनका क्या हो गया सब? ऐसा क्यों है कि' — आपसे कहा जाए कि पिछली शताब्दी के भारत के चमकते सितारों की एक सूची बताइए, तो उसमें नब्बे-प्रतिशत नाम १९५० से पहले के ही होंगे? ऐसा क्यों हो गया, विचार करा आपने?

यदि मैं कहूँ, 'भारत के उल्लेखनीय लोगों की एक फ़ेहरिस्त बनाइए, पिछली शताब्दी के उल्लेखनीय लोगों की।' तो आप जो बनाएँगे, उसमें नब्बे-प्रतिशत नाम पिछली शताब्दी के पूर्वार्ध के होंगे, फ़र्स्ट-हाफ़ के; उत्तरार्ध का क्या हुआ, लेटर-हाफ़ का क्या हुआ? ऐसा क्यों है, कोई वजह तो होगी न?

ये पिछली दो-तीन पीढ़ियों से चला आ रहा संकुचन है, जो अब हमको एक विस्फोटक रूप में नज़र आ रहा है आज की पीढ़ी में। ये लगातार चल रहा था, और मैं समझता हूँ, पिछली पीढ़ियों में ये जो होता रहा, उसका एक महत्वपूर्ण कारण है शिक्षा का मटीरियलाइज़ेशन। शिक्षा से जो अध्यात्म पूरी तरह हटा दिया गया आज़ादी के बाद, ये बोल करके, कि 'साहब हम तो सेक्युलर (धर्मनिरपेक्ष) लोग हैं, तो हमारी शिक्षा में न ऋषियों की जगह होनी चाहिए, न संतों की, न श्लोकों की, न दोहों की,' — इसने आज़ादी के बाद की पीढ़ियों को कहीं का नहीं छोड़ा; और उन्हीं पीढ़ियों की पैदाइश अब वो लड़की-लड़के हैं, जो ये सब कर रहे हैं।

उनको मैं बहुत दोष दे नहीं पाता, क्योंकि उन्हें इसके अलावा कुछ पता ही नहीं है। और उनको मिल तो रहा है उनके पिताजी का पूरा संरक्षण, पिताजी खुद यही करना चाहते थे; पत्नी के साथ फ्रेंडली नहीं हो पाए, तो अब बेटी के साथ फ्रेंडली हो रहे हैं, जवान बेटी के साथ। मैं इसमें अब और क्या बोलूँ? बिलकुल ये, वैसे कहो तो मज़ेदार बात है और दूसरी तरह देखो तो भयानक बात है, कि बहन अपने भाई को बहन की गाली दे रही है, वो भी बाप को बगल में बैठा कर, और ये बात कूल है। और बाप एकदम खुश हो गए हैं, और बेटी को और ज़्यादा भींच लिया, एकदम उसके हाथ डाल दिया गर्दन में। आप कल्पना कर सकते हैं कि घरों का माहौल कैसा होगा अभी।

तो ये सब चल रहा था, चल रहा था, जैसे पूरा हिंदुस्तान ही तैयार बैठा था धर्म को और संस्कृति को एक बोझ समझ कर त्याग देने के लिए, पीछे छोड़ देने के लिए, बोझ समझकर गिरा देने के लिए, कि 'ये तो बेकार की चीज़ें हैं।' १९७० का इंसान भी तैयार ही बैठा था, १९९० वाला भी तैयार ही बैठा था। तैयार सब बैठे थे, पर एक नैतिक, मोरल भय था, जिसके कारण कर नहीं पा रहे थे, खुलेआम नहीं कर पा रहे थे। अब पिछले दस सालों में वो जो मोरल-बाउंड्री (नैतिक-सीमा) थी, वो भी लाँघ दी गयी है।

आध्यात्मिक खोखलापन तो पिछले पचास सालों का है, वो तभी से है, क्योंकि जब आपको शिक्षा ही नहीं दी जा रही है, मूल्यों में, सच्चाई में, अध्यात्म में, तो भीतर तो खोखलापन रहेगा ही न? वो सिर्फ़ आज की पीढ़ी में नहीं है, वो उनके बाप की पीढ़ी में भी है, उनके दादा की पीढ़ी में भी है; १९५० के बाद की सब पीढ़ियों में है, क्योंकि शिक्षा व्यवस्था ही इतनी गड़बड़ है और मूल्य गड़बड़ है।

एक कथन है, आज़ादी के बाद हमारे पहले प्रधानमंत्री का, कि उन्होंने बाँधों को लेकर के और भारी-उद्योगों को ले कर के कहा कि 'ये आधुनिक भारत के मंदिर हैं, दीज़ आर द टेंपल्स ऑफ मॉडर्न इंडिया। ' बस आप यही समझ लो कि यहीं पर दुर्घटना हो गई, बहुत भयानक दुर्घटना हो गई। बाँध मंदिर नहीं हो सकता भाई, नहीं हो सकता, और न ही साइंस की ऊँची-से-ऊँची किताब अध्यात्म का शास्त्र हो सकती। आपने साइंस और टेक्नोलॉजी के सामने इनर-एजुकेशन को, अध्यात्म को एकदम ही बेइज़्ज़त कर दिया। आपकी नज़र में उसका कोई उपयोग ही नहीं, आपने कहा, 'ये तो सब पुरानी, रूढ़िवादी, अंधविश्वासी बातें हैं, इनको त्याग दो। हमें तो अब आगे बढ़ना है। आगे कैसे बढ़ेंगे हम? तरक्की का क्या मतलब है? तरक्की का मतलब है आईआईटीज़ की स्थापना होगी, भारी-उद्योग लगाए जाएँगे, बाँध बनाए जाएँगे।' भारत ने यही तो दिशा ली थी आज़ादी के बाद के पंद्रह सालों में। इनर-एजुकेशन का भी एक-आध इंस्टीट्यूट बना दिया होता, आईआईई — इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ इनर-एजुकेशन। पाँच आईआईटी पर एक आईआईई भी बना दिया होता, वो बना नहीं न!

आंतरिक रूप से हम खोखले होते गए हैं, होते गए हैं, होते गए हैं। अब वो जो खोखलापन है, वो जो सड़न है, पिछले साठ-सत्तर सालों की, अचानक से आज की पीढ़ी में वो विस्फोटक रूप से निकल रही है। आप पूछेंगे, 'वो आज ही क्यों निकल कर आ रही है?' पिछले दस सालों में जो कुछ घटनाएँ हुई हैं उनके कारण। एक तो ये कि अब पचास-साठ साल हो गए थे, दबाव भीतर-ही-भीतर बन रहा था, गुब्बारा फूटने को तैयार बैठा था। और दूसरा, पिछले दस सालों में अध्यात्म का नाम बहुत ख़राब हुआ है, तो वो जो मोरल-बैरियर था न, कि 'अरे, हम कोई गलत काम कैसे करें,' वो गिर गया; वो कहा गया कि 'देखो! जो लोग ज़्यादा सच्चाई की और भगवान की और ईमानदारी की बातें करते थे, वो इतने भ्रष्ट निकले। जब वही इतने भ्रष्ट हैं तो हम भी भ्रष्ट हो जाते हैं, अब हमें कौन मना करेगा!' समझ में आ रही है बात? कि 'जो लोग ज़्यादा धर्म का नाम लेते थे, देखो वही कितने भ्रष्ट निकले! तो अब हम पर तो कोई उँगली उठाएगा ही नहीं, क्योंकि जब सभी भ्रष्ट हैं तो हम भी हो जाते हैं। जब संतजन भी भ्रष्ट हैं तो हमें होने में अब क्या परहेज़ है!' एक ये हो गया।

दूसरा, सब के पास डेटा का पहुँचना। ये, ये मैं नहीं कह रहा हूँ कि ये बुरी घटनाएँ हैं, मैं बस बता रहा हूँ कि कारण क्या रहे हैं। डेटा की रीच (पहुँच), और डेटा की रीच का मतलब होता है कि जो सबसे निकृष्ट कोटि का, सबसे घटिया कंटेंट होगा, उसको सबसे ज़्यादा रीच मिलेगी; वो डेटा को रीच नहीं मिल रही है, वो आदमी के घटियापन को रीच मिल रही है। मैं डेटा की रीच के खिलाफ़ नहीं हूँ, मैं बस उसका परिणाम बता रहा हूँ आपको। गाँव-गाँव में एक-एक हाथ में मोबाइल है, गरीब-से-गरीब आदमी के हाथ में भी मोबाइल है, और उसका सदुपयोग तो पता नहीं कितना हुआ है, दुरुपयोग ज़बरदस्त हुआ है। जो सदुपयोग हुआ है, उससे कुछ आर्थिक प्रगति हुई है, बेशक, लेकिन उसके दुरुपयोग से आंतरिक पतन ज़बरदस्त हुआ है, ज़बरदस्त।

आप एक प्रयोग कर के देखना। आप कभी किसी बस-स्टैंड या रेलवे-स्टेशन के सामने रात में दो-तीन बजे जाना, और उस वक्त आप देखना कि सब जो बेचारे ग़रीब किस्म के मज़दूर होते हैं या ठेले वाले होते हैं, रिक्शे वाले होते हैं, ये लोग अपना बैठ कर के, अपना मोबाइल ही लगा कर के कुछ देख रहे होते हैं, सुन रहे होते हैं। और आप देखना कि वो क्या देख रहे हैं, क्या सुन रहे हैं, आपके रोंगटे खड़े हो जाएँगे। भारत में ये हो रहा है डेटा का उपयोग। तो जो घटिया चीज़ें हैं, वो आज की पीढ़ी में ज़बरदस्त रूप से फैली हैं, क्योंकि डेटा इज़ी (आसान) है, और वो सारे घटिया काम डेटा पर सवार हो कर आ रहे हैं आपके पास। उसी डेटा के सस्ते होने का या फ़्री होने का नतीजा ये हुआ है कि ऐसे-ऐसे लोग जिन्हें जेलों में होना चाहिए था, आज वो समाज के हीरो बन गए हैं, सेलेब्रिटी बन गए हैं; और जेल में नहीं होते तो सड़कों पर धूल फाँक रहे होते, ऐसे-ऐसे लोग, वो सेलेब्रिटी बन गए हैं। समझ रहे हो?

और भी दो-चार कारण हैं, वो पिछले दस सालों पर ही नज़र डालोगे तो दिख जाएगा कि इसी पीढ़ी का क्यों खास पतन हुआ है। अब उसमें तुम ये भी जोड़ सकते हो, कि पहले तो आप सिनेमा भी देखने जाते थे तो एक सेंसर-बोर्ड होता था, तो वो सेंसर-बोर्ड कुछ तो चीज़ों को ठीक कर देता था या प्रतिबंधित कर देता था। अभी दो-तीन साल से वो भी नहीं रहा है, अब आप जो फ़िल्मों के नाम पर या वेब-सीरीज़ के नाम पर जो कंटेंट कंज़्यूम कर रहे हो, वो बिलकुल छुट्टा है। जो कोई भी, जो कुछ भी दिखाना चाहे, वो आपको दिखा दे रहा है, और उसकी सबसे बड़ी कंज़्यूमर जवान पीढ़ी है; और उन्हें सलाह देने वाला, समझाने वाला कोई नहीं।

उनके सामने कोई ऐसा आदर्श नहीं है जो आज के प्रवाह के विपरीत जाता हो, तो वो प्रवाह में बहे जा रहे हैं, बहे जा रहे हैं, उनको मैं क्या दोष दूँ? ये जो भी गंजे पिताजी थे, जिनकी आप बात कर रहे हो, आप अनुमान लगाओ कि इन्होंने किस तरीक़े से अपनी लड़की-लड़के की परवरिश करी होगी, कि वो लड़की-लड़के आज इन्हीं के सामने बैठ कर के आपस में एक-दूसरे को माँ-बहन की गालियाँ दे रहे हैं। और बाप कह रहे हैं, 'ओह! इट्स सो कूल, आई एम सच अ लिबरल पेरेंट। आई एम नॉट अथॉरिटेरियन (अधिकारवादी), आई एम फ़्रेंडली विद माइ किड्स। ' बिना 'मित्र' शब्द का अर्थ समझे, ये मित्रवत् होना चाहते हैं। तुम्हें ये तो पता नहीं कि फ्रेंड माने होता क्या है, तुम फ्रेंडली हो रहे हो।

कभी-कभी मुझे ऐसा भी लगता है कि ये स्थिति शायद अब सीमा पार कर चुकी है, अब खेल को पलटने का कोई तरीका बचा नहीं है। जो बर्बादी है, वो इतनी गहरी और इतनी व्यापक हो चुकी है कि शायद अब उसको रोका नहीं जा सकता, क्योंकि सब-कुछ ऐसी ही ताक़तों के हाथ में है जो इस बर्बादी को ही और आगे बढ़ाना चाहती हैं; सत्ता, पैसा, सामर्थ्य, नाम, सब उन्हीं के पास है। जिस चीज़ को तुम एक वारदात कह कर के प्रस्तुत कर रहे हो, वो वारदात तो क्या थी, वाक़या था, (व्यंग्यात्मक लहज़े में) वारदात कह रहे हो। जिस चीज़ को तुम वारदात कह रहे हो, बहुत सारे विज्ञापन-दाता होंगे जिनके लिए ये एक बड़ी कूल घटना है, आदर्श घटना है, वो इसी घटना को थोड़ा और ग्लैमराइज़ कर के तुम्हें एक ऐड (विज्ञापन) भी दिखा सकते हैं। भूलो नहीं कि आज कल्चर (संस्कृति) किनके हाथों में है। इंसान तो वही हो जाता है न, जैसी उसकी संस्कृति होती है? संस्कृति का मतलब समझते हो? तुम्हें जो संस्कार मिल रहे हैं। संस्कार माने क्या? तुम पर जो प्रभाव पड़ रहे हैं। भूलो नहीं कि आज तुम पर प्रभाव डालने वाले लोग कौन हैं। तुम पर जो प्रभाव डालने वाले लोग हैं, वो कहीं से ये नहीं चाहते कि तुम अंदरूनी तौर पर ऊँचे उठो या साफ़ रहो; उनकी सारी रुचि इसी बात में है कि तुम अंदरूनी तौर पर जाहिल रहो, अँधेरे में रहो, गंदे रहो, अज्ञानी रहो।

हमने बड़ी-से-बड़ी भूल ये करी है कि शिक्षा से अध्यात्म को हटा दिया और कल्चर बहुत गलत ताक़तों के हाथ में सौंप दिया। हिंदुस्तान का पूरा-का-पूरा कल्चर , सभ्यता, अभी आ रहा है फ़िल्मों से, और फ़िल्मों के बाद अब आ रहा है ये सब जो वेब-बेस्ड मीडिया हैं इनसे। ख़त्म कर दिया हमने भारत के अंतस को। हमें पता भी नहीं है कि हमारे शब्द हमारी ज़बान पर कौन दे रहा है।

वो लड़की जो गाली दे रही थी, वो गाली उस लड़की की अपनी नहीं थी, वो गाली उसको उसके कल्चरल-मास्टर्स ने दी है। और ये हमारी बेवकूफ़ी है, और हमारी कायरता है कि हमने बहुत गलत ताक़तों को अपना कल्चरल-मास्टर बना दिया है। अब बचा क्या? एजुकेशन भी गलत और कल्चर भी गलत, तो अब बचा क्या?

प्र: जैसा आपने बताया कि वहाँ पर वो, एक फ्रेंडलीनेस दिखाई जा रही थी। और आजकल यूज़ुअली (साधरणत:), इवेन साइकोलॉजिस्ट (मनोचिकित्सक) भी सलाह देते हैं, और ये काफ़ी ज़्यादा प्रपोगेट (प्रचारित) होता है कि पेरेंट्स और बच्चे के बीच फ़्रेंडलीनेस होनी चाहिए। तो मतलब मेरे विचार से ये भी एक तरह से बहुत बड़ा मिथ (मनगढ़ंत विचार) है, क्योंकि ये तो बहुत ज्यादा प्रपोगेट हो रहा है, कि 'यू मस्ट बी फ़्रेंडली विद योर चाइल्ड एंड ऑल। '

आचार्य: तीन साल के बच्चे को तीन साल के फ़्रेंड्स मिल जाएँगे, माँ-बाप का काम फ़्रेंड्स होना नहीं है। ये जो भी बेवकूफ़ी फैला रहा है, उससे विनती है कि माफ़ करो समाज को, क्यों दुर्दशा करना चाहते हो सबकी, कि बता रहे हो कि 'बी फ़्रेंडली विद योर टू इयर ओल्ड चाइल्ड। ' माँ-बाप फ़्रेंड्स हो गए तो माँ-बाप कौन बनेगा? अगर माँ-बाप को फ़्रेंड हो जाना है, तो फिर फ़्रेंड्स को माँ-बाप हो जाने दो। गुरु कौन बनेगा? मार्गदर्शक कौन बनेगा? ये तो काम फ़्रेंड करते नहीं, या करते हैं?

आप सबकी ज़िन्दगी में दोस्त रहे होंगे, उनमें से कितने दोस्त गुरु का धर्म अदा कर रहे थे, बोलो? आपके दोस्त गुरु का काम भी कर रहे थे क्या? तो अगर माँ-बाप भी दोस्त हो गए, तो बच्चे को ज़िन्दगी की नसीहत कौन देगा? या 'नसीहत' शब्द ही बेकार है? 'शिक्षा' शब्द का ही कोई अर्थ नहीं? माँ-बाप भी फ़्रेंड्स हो जाएँ, टीचर भी फ़्रेंड्स हो जाएँ, तो शिक्षक कौन बनेगा फिर, सिखाएगा कौन?

या तो तुम फिर फ़्रेंड वैसे बनो जैसे अर्जुन के कृष्ण दोस्त थे। अर्जुन और कृष्ण एक-दूसरे को सखा बोला करते थे, दोस्त भी थे, वो एक-दूसरे के दोस्त थे, पर उस तल की दोस्ती तो तुम करते नहीं न! जब तुम बोलते हो, कि 'मैं किसी का दोस्त हूँ, आई एम फ़्रेंड विद समवन ,' तो उसका क्या मतलब होता है? उसका यही मतलब होता है, बाप बेटी का दोस्त है इसका यही मतलब है, कि बेटी अपने भाई को बहन की गाली दे रही है और बाप उसको और ज़्यादा हग कर रहा है, कि 'आहा! कितनी स्वीटू है ये!' तुम्हारे लिए फ़्रेंडलीनेस का यही तो मतलब होता है न? तुम्हारे लिए फ़्रेंडलीनेस का ये मतलब तो नहीं है, कि 'अर्जुन, अगर तू सही काम नहीं कर रहा तो गीता का उपदेश सुन!' तुमने करा है ये कभी अपने फ़्रेंड के साथ, कि 'तुम अगर सही काम नहीं कर रहे हो तो आज मैं तुमको गीता सुनाता हूँ,' ये करा है? अगर तुम ऐसे फ़्रेंड हो सको, तो मैं कहूँगा, 'फ़्रेंड्स होना अच्छी बात है।' पर आपकी तो फ़्रेंड्स की परिभाषा ही यही है।

लोग आते हैं और बहुत गौरव के साथ बोलते हैं, कहते हैं, 'हमारे घर में बहुत खुला हुआ माहौल है, मैं तो अपने चौदह साल के लड़के के साथ बैठ कर के ड्रिंक करता हूँ। बहुत लिबरल माहौल है हमारे घर का।' ये लिबरल माहौल है या नर्क का माहौल है? नर्क और कौन-सी जगह होती है? वहीं तो, जहाँ बाप अपने चौदह साल के बेटे को नशा करना सिखा रहा हो, और कौन-सी जगह नर्क है? और जहाँ अपनी बेटी को खुद माँ ही नंगा होना सिखा रही हो, नर्क और कौन-सी जगह है? बाप का काम है बेटे को नशा करना सिखाना, और माँ का काम है बेटी को सिखाना कि कैसे टॉप (उच्च) के तरीक़े से नंगा हुआ जाता है; और इसको तुम किस नाम से बुला रहे हो? फ़्रेंडलीनेस , कि 'मेरे माँ-बाप तो बहुत फ़्रेंडली हैं।'

आप भी यहाँ बैठे हैं, आपमें से कई लोग अभिभावक होंगे; कृपा कर के (सच्चे) अभिभावक बनिए। ठीक है? आपके बच्चों को दोस्त बहुत मिल जाएँगे, अभिभावक दूसरे नहीं मिलेंगे। अगर आपने अपने अभिभावक होने का फर्ज़ नहीं निभाया तो कौन आएगा निभाने, बताओ? पेरेंट्स फ़्रेंड्स हो गए, तो फ़्रेंड्स पेरेंट्स बनेंगे क्या? मैं सहमत हूँ कि बच्चों के ऊपर दादागिरी नहीं करनी चाहिए, चढ़ नहीं बैठना चाहिए। पर वो एक अति की बीमारी होती है, कि घर में माँ-बाप द्वारा ही एक तरह की बुलीइंग चल रही है, वो एक तरह की बीमारी होती है। उतनी ही ख़तरनाक बीमारी या उससे ज़्यादा ख़तरनाक बीमारी तब है जब बाप-बेटा फ़्रेंड्स हो गए, और फ़्रेंड्स भी किस चीज़ में हुए? कि अगल-बगल बैठ कर के, 'हमारे तो बहुत ओपन माहौल है देखिए साहब।'

प्र: इसी का दूसरा पक्ष भी है आचार्य जी कि यदि कोई अभिभावक अपने बच्चे का सचमुच भला करना चाहे तो स्वयं बच्चे को पसन्द नहीं आता और वह अपने अभिभावक से नफ़रत करने लग जाता है।

आचार्य: देखो वही बात है न, उसकी एजुकेशन में उसको कभी ये बताया नहीं गया, कि 'कॉन्शियसनेस (चेतना) जैसी कोई चीज़ होती है, चेतना कोई चीज़ होती है, और मन को साफ़ रखना या मन को एक ऊपरी तल पर ले जाना एक ज़रूरी बात होती है,' उसको ये कभी बताया ही नहीं गया।

अब अगर पेरेंट्स ये कोशिश भी करेंगे कि उसको भीतरी तौर पर ऊपर उठाएँ, तो बच्चा कहेगा, 'ये तुम क्या फ़िज़ूल काम कर रहे हो? ये तुम जो काम करने की कोशिश कर रहे हो, इसका तो कोई महत्व ही नहीं है, क्योंकि स्कूल में ऐसा तो कुछ हमें बताया ही नहीं गया, न टी.वी. पर बताया गया, न कहीं बताया गया।'

और वो जो चीज़ है, जो आपको बताती है कि भीतर से उठना और साफ़ होना ज़रूरी है, उसको 'अध्यात्म' बोलते हैं। अध्यात्म से हमारे शिक्षाविदों को, राजनेताओं को, सबको एलर्जी है, इनको लगता है, 'अरे! ये तो घटिया काम है, घटिया काम है, ये नहीं करना है।' मत करो।

प्र: अभी आपने अध्यात्म का नाम लिया, तो इस पर मुझे कुछ चीज़ याद आयी, कि अध्यात्म में भी यह बात बहुत प्रचलित है, कि 'जो गुरु होंगे वो मित्र की तरह होंगे,' कहा गया कि..। परसों ही जैसे आपके ऊपर एक प्रश्न आया था, कि किसी ने पूछा था आपसे कि 'काफी एटीट्यूड लगता है,' तो मेरे ख़्याल से ये भी कहीं-न-कहीं अध्यात्म में भी अवधारणा है कि 'गुरु मित्र होता है।'

आचार्य: ये अध्यात्म में कहीं नहीं था, ये पिछले तीस-चालीस सालों में ज़बरदस्ती कुछ जुमले उछाले गए, उसमें से एक ये भी है। 'गुरु मित्र होगा,' ये बात अध्यात्म में तुम्हें नहीं मिलने वाली। हाँ, ये बात निहित ज़रूर होती है, क्योंकि मित्रता की उच्चतम परिभाषा ये होती है कि 'जो तुम्हारा ऊँचे-से-ऊँचा हित कर सके, वही मित्र है तुम्हारा,' तो उस अर्थ में गुरु तुम्हारा मित्र होता है।

लेकिन ये जो जुमला बन गया है न, कि 'गुरु शुड बी फ़्रेंडली ;'—फ़्रेंड्स और फ़्रेंडली में अंतर समझते हो न? 'मित्रवत् व्यवहार करे, दोस्त जैसा व्यवहार करे,' अब बात बाहर की है, व्यवहार की है, बात ये नहीं है कि वो अंदर से कैसा है। अंदर से तो गुरु हमेशा मित्र होता ही है, लेकिन बाहर से उसका व्यवहार वैसा नहीं होगा जैसा तुम्हारे नशेड़ी-पँगेड़ी दोस्तों का होता है।

अभी ये माँग की जाती है, कि 'द गुरु हैज़ टु बी फ़्रेंडली ,' और फ़्रेंडली का मतलब हुआ? 'तुम हमसे वैसे ही बात करो न, जैसे सब करते हैं, तुम हमसे व्यवहार भी ऐसे ही करो। मैं तुम्हारे पास आ कर के तुम्हारी पीठ थपथपा सकता हूँ। मैं तुम्हारे सामने बैठा हूँ तो मैं तुम्हारी ओर पाँव कर के बैठ सकता हूँ। तो वो सब-कुछ कर सकता हूँ जो दोस्तों के साथ किया जाता है,' तो ये फ़्रेंडलीनेस है।

इस फ़्रेंडलीनेस में आप बस ये चाह रहे हो कि आप गुरु को भी वहीं ला दो जहाँ आपने अपनी बाकी पूरी दुनिया बना रखी है, उसी तल पर गिरा दो गुरु को भी, क्यों गिरा दो? ताकि गुरु आपके किसी काम का न रह जाए। अब वो आपको उठा ही नहीं सकता; आपने जब उसको अपने ही तल पर गिरा दिया, अब वो आपको कैसे उठाएगा वो? वो आपको उठा सके, इसके लिए ज़रूरी है कि पहले वो ऊपर रहे आपसे; जो आपसे ऊपर ही नहीं है, वो आपको हाथ दे कर ऊपर कैसे खींचेगा? गुरु को फ़्रेंडली कर देने का मतलब है मैंने गुरु को भी इधर (मेज की ओर इशारा करते हुए) ही कर दिया। 'यू नो, ही इज़ जस्ट वन ऑफ़ अस गाइज़। हे गुरु! कम ओवर !' तो तुमने उसको वहाँ से उठा कर यहाँ गिरा लिया, अब वो बिलकुल तुम्हारे बगल में बैठा है, अब वो तुमको ऊपर कहाँ से खींचेगा? बेकार हो गया तुम्हारे लिए, यही चाहते थे।

अहंकार को बचाने के लिए और बढ़ाने के लिए जो काम करे गए हैं, जो सिद्धांत गढ़े गए हैं, जो जुमले उछाले गए हैं, अभी पिछले सौ-पचास सालों में, उनमें से एक ये भी है, कि 'टीचर नहीं चाहिए, फ़्रेंड चाहिए।' क्योंकि टीचर तो तोड़ता है न, और फ़्रेंड कौन होता है? जो तुम्हारे साथ दारू पीता है, तो टीचर नहीं चाहिए, फ़्रेंड चाहिए। और इस तरह के बहुत सारे नए-नए सिद्धांत हैं और जुमले हैं, ये सब ख़तरनाक हैं; और ये जितने ख़तरनाक हैं, उतने ही प्रचलित हैं।

जितने स्कूल चल रहे हैं आजकल, आप इनमें किसी में चले जाइए, ‘पैरेंट-टीचर मीट ' होती है, उनमें इस बात को बिलकुल एक कैनन (स्वीकृत नियम) की तरह, एक अकाट्य-सत्य की तरह पेरेंट्स को बोला जाता है, 'यू शुड बी फ़्रेंडली। ' और ये सब कौन बता रही हैं? वो जो टीचरें घूम रही हैं, वो जिन्हें खुद कुछ नहीं पता।

प्र२: भगवान श्री प्रणाम। अभी जो चर्चा चल रही थी, कि जो पिछले स्वतंत्रता के बाद से शिक्षा से अध्यात्म को हटा दिया गया। तो पहले तो नहीं समझ में आता था, लेकिन अब तो ये षड़यंत्र-सा लग रहा है। ये राजनेता भी नहीं चाहते कि अध्यात्म पहुँचे आदमी तक, क्योंकि वो फिर सबल होगा, निडर होगा, तो उसको ग़ुलाम नहीं बनाया जा सकता, डराया नहीं जा सकता। वहीं समाज का भी हित उसी में है, कि माता-पिता या जो भी सो-कॉल्ड पेरेंट्स हैं, वो भी चाहते हैं कि बच्चा ओबिडिएंट , आज्ञाकारी हो। पहले तो वही घुट्टी पिलाई गई थी, कि 'आज्ञाकारी जो होता है..,' सम्मान भी उससे जोड़ा गया था। तो उस चीज़ को तोड़ते हुए बड़ा डर-सा लगता था, कि जो ये माता-पिता कह रहे हैं वह कितना सही है। फिर शिक्षा में भी ऐसे ही नियम बना दिये गए थे कि ऐसे ही चलना है। तो उस समय तो नहीं समझ में आया, लेकिन आप के सान्निध्य में ये दिख रहा है कि ये षड़यंत्र बहुत गहन है।

आचार्य: नहीं, इसमें आप अगर और गहराई में ही जाना चाहते हैं तो बात इस षड़यंत्र की भी नहीं है, क्योंकि देखिए, माया हज़ार तरह के षड़यंत्र हमेशा करती है। ठीक है, ये षड़यंत्र हुआ कि शिक्षा-व्यवस्था से अध्यात्म को पूरी तरह हटा दो, ठीक है, मान लिया। इस षड़यंत्र का कोई जवाब क्यों नहीं था हमारे पास? भाई, जो औपचारिक शिक्षा-व्यवस्था है, जो फॉर्मल एजुकेशन-सिस्टम है, उसी में तो अध्यात्म को कोई जगह नहीं दी गई न? शिक्षा के और भी तो केंद्र हो सकते थे, समाज ने वो क्यों नहीं निर्मित किए? तो हमें उसका भी जवाब देना पड़ेगा, कि चलो स्कूलों में, कॉलेजों में अध्यात्म नहीं बताया जा रहा, कोई बात नहीं, तो और भी तो केंद्र होने चाहिए थे, उन्होंने अपना फ़र्ज़ क्यों नहीं अदा करा? वो भी जवाब देना पड़ेगा।

हमारा समाज अगर सशक्त होता, तो बच्चे को भले ही स्कूल में कुछ नहीं बताया जा रहा, जीवन के बारे में, मन के बारे में, अहं के बारे में, लेकिन फिर भी उसे पता होता। मोहल्ले-मोहल्ले में ऐसे सामुदायिक-केंद्र होते, जहाँ जीवन-चर्चा हो रही होती, जहाँ पर मन के बारे में और संसार के बारे में, दुनिया-जहान के बारे में चर्चाएँ हो रही होतीं। ये सब हो सकता था न? सरकार ने अपना काम नहीं करा तो नहीं करा, समाज ने भी तो अपना काम नहीं करा, और अब वही स्थिति सत्तर साल तक चलने के बाद आज भयावह हो गई है।

प्र२: जी आचार्य जी, पर मेरा प्रश्न यह था कि जैसे मीडिया इतनी गन्दगी फैला रहा है, तो उसके शिकार मेरे बच्चे भी हुए हैं। वो भी लिप्त हो गए हैं इन घटिया किस्म के वीडियो देखने में। उनको समझाने का पूरा प्रयास किया, पर विफल रहा। तो क्या कोई और चारा है?

आचार्य: हाँ, अब स्थितियाँ तो प्रतिकूल हैं ही, और ऐसी हालत में दोहरे, तिहरे, चौगुने प्रयत्न करने पड़ेंगे, अगर प्रेम है तो। और क्या? यही है, कोशिश करिए, और क्या कर सकते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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