उन्हें आत्मज्ञान मिला, हमें क्यों नहीं? ||आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी. कानपुर के साथ (2023)

Acharya Prashant

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उन्हें आत्मज्ञान मिला, हमें क्यों नहीं? ||आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी. कानपुर के साथ (2023)

जनक उवाच: कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति ।। वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद् ब्रूहि मम प्रभो ।।१.१।।

राजा जनक बालक अष्टावक्र से पूछते हैं — हे प्रभु! ज्ञान प्राप्ति का उपाय क्या है और मेरी मुक्ति कैसे हो? वैराग्य की प्राप्ति कैसे हाेती है? यह मुझे बताएँ प्रभु।

~ अष्टावक्र गीता, अध्याय १, श्लोक १

प्रश्नकर्ता: अष्टावक्र गीता के पहले श्लोक में जनक कहते हैं, ‘कथं ज्ञानं वाप्नोति।’ वो फिर मोक्ष की और वैराग्य की बात करते हैं, उनको वो जानना चाहते हैं। वो प्रश्न पूछते हैं अष्टावक्र से, उसके बाद पहले प्रकरण में उन्नीस श्लोक अष्टावक्र कहते हैं इसके संदर्भ में, और दूसरे प्रकरण के पहले ही श्लोक में जनक कहते हैं कि मुझे समझ में आ गया, मुझे आनंद आ गया।

तो आचार्य जी, मुझे क्यों नहीं होता? मैं बार-बार, कम-से-कम पचासों बार पढ़ा होऊँगा पहला प्रकरण कि मुझे भी समझ आ जाए। लेकिन वो क्यों नहीं होता है? वो राजा जनक को कैसे मिल गया, मुझे कैसे नहीं मिला, मुझे क्यों नहीं मिल रहा है?

आचार्य प्रशांत: नहीं, वो जो आप देख रहे हैं वो सिर्फ़ उतना है न जितनी बात हुई है, पर जो असली बात है वो बात से पहले हुई है। अष्टावक्र और जनक के मध्य जो पूरी कहानी है वो उस बात से ज़्यादा लंबी है। और आपको उस कहानी में बस वो उन्नीस श्लोक की बात पता चल रही है। तो आप बस वो उन्नीस श्लोक अगर दोहराएँगे, बार-बार पढ़ेंगे तो आपको पूरी बात नहीं पता चली न।

पूरी बात ये है कि जनक अपना सब राज्य, सिंहासन, अपने मसले सब छोड़-छाड़कर के जंगल आये हैं अष्टावक्र के पास। और कथा तो ये है कि अष्टावक्र की उम्र कुल उस वक़्त ग्यारह वर्ष की थी। ग्यारह नहीं भी मानो, इक्कीस वर्ष की भी थी अगर, तो भी वो जनक से उम्र में बहुत छोटे थे। और कोई इतनी कीर्ति तो फैल नहीं गयी होगी कम उम्र में कि मान लिया जाए कि यही देश के अग्रणी विद्वान हैं।

तो जनक के पास वो परख भी थी, वो जौहरी की नज़र भी थी कि वो पहचान पाये कि अष्टावक्र के पास ही जाना है। पहली बात, अपना राज्य वग़ैरा छोड़ कर आये। दूसरी बात, किसके पास जाना है ये सही-सही पहचान पाये। तीसरी बात, जिसके पास जाना है उसको आज्ञा नहीं दी कि तुम मेरे महल में आओ, स्वयं जंगल गये हैं उतरकर के। और अगली बात ये कि जानते हैं भलीभाँति कि किसलिए गये हैं, यूँही नहीं पहुँच गये।

पहले ही श्लोक में उनकी जिज्ञासा है। और जिज्ञासा एकदम साफ़ बात कर देती है, सत्य क्या, ज्ञान क्या, मुक्ति कैसे मिले, बताइए फट से। अष्टावक्र बताना शुरू कर देते हैं। तो ये जो आपको पता चल रहा है ये तो समझिए कि पिक्चर का क्लाइमेक्स (उत्कर्ष) है। उसके पहले जो पूरी कहानी रही है वो तो आपको अष्टावक्र संहिता में मिलती ही नहीं, है न? लेकिन वो कहानी है और बड़ी लंबी कहानी है। और वो कहानी बड़ी आवश्यक है, उस कहानी को समझे बिना ग्रंथ काम नहीं आते।

गीता के श्लोकों को जब आप पढ़ते हैं तो ये भी याद रखना पड़ता है कि एक ऐसे को बोले गए हैं, जिसे अब अपने भाइयों को और पितामह को और अपने आचार्यों को मारना है। और जिसमें उतनी निर्ममता न हो, जो कृष्ण के लिए अपने सब मोह-माया के धागे काटने को तैयार न हों, गीता वो सौ बार पढ़ते हैं उन्हें समझ में आती ही नहीं, लाभ नहीं होता। क्योंकि अर्जुन ने दाम चुकाया था; जनक ने शीश नवाया था; जनक ने भी दाम चुकाया था।

अर्जुन ने दाम चुकाया, जनक ने दाम चुकाया, आपने कोई दाम चुकाया तो है नहीं, बताइए गीता कैसे काम आएगी आपके? ऐसा थोड़ी है कि सिर्फ़ संस्कृत पढ़ लेने से मुक्ति मिल जानी है या कि श्लोक बाँचने से। श्लोक जीवनभर बाँचते हैं लोग, कुछ नहीं मिलता। दाम कहाँ चुकाये? असली चीज़ तो श्लोक भी नहीं है, असली चीज़ तो है दाम चुकाना।

इसीलिए जब मैं गीता पढ़ाता हूँ तो कहता हूँ सबसे पहले देखिए कि आप अर्जुन जैसे हैं, देखिए कि आपको भी निर्णय करने हैं। और अगर आप कृष्ण की सलाह पर अपने जीवन के निर्णय बदलने को तैयार हो, तो ही गीता आपके काम आएगी। छोटे-मोटे नहीं, बिलकुल जो केंद्रीय निर्णय हैं जीवन के, अगर आप उन निर्णयों को कृष्ण के सुपुर्द करना चाहते हो, तो ही गीता आपके काम आएगी, नहीं तो गीता आपके काम ही नहीं आएगी।

अब अष्टावक्र की बात सुनकर, दूसरे ही अध्याय से जनक कहने लग जाते हैं, 'वाह! अहो! सब समझ में आ गया।' मतलब क्या है इसका? मतलब ये है कि जनक पहले ही काफ़ी परिपक्वता लेकर के आये थे न अष्टावक्र के पास। वो परिपक्वता गुरु के पास जाने से पहले, शिष्य को स्वयं अपने में तैयार करनी पड़ती है। और वो तैयारी तपस्या का काम होती है, साधना है वो। उसमें बड़ी मेहनत लगती है कि भई, गुरु से मैं वही करवाऊँ न जो मैं स्वयं नहीं कर सकता। जो मैं स्वयं कर सकता हूँ वो तो मैं ख़ुद ही करके रखूँ। ये ज़िम्मेदारी की बात हुई न। एक परिपक्वता, एक आत्मनिर्भरता, एक स्वावलंबन, कि जितना मैं कर सकता हूँ उतना तो करूँ। बाक़ी का काम गुरु कर देंगे। ठीक है?

वो अगर नहीं करा है तो गुरु बेचारा फिर क्या करेगा! एकदम अपनी ओर से कुछ प्रयत्न ही नहीं है या बहुत कम प्रयत्न है, कम तैयारी है और गुरु के पास चले गए, गुरु क्या कर देगा। और जब पूरी तैयारी के साथ जाते हैं अष्टावक्र के पास या कृष्ण के पास तो काम बहुत जल्दी होता है।

इतनी सारी जेन बोध कथाएँ हैं, जिसमें जो जिज्ञासु है वो आता है प्रश्न लेकर के जेन गुरु के पास और वो प्रश्न करता है। और गुरु एक शब्द में उसका उत्तर दे देते हैं। और कहते हैं कि जिज्ञासु उसी क्षण मुक्त हो गया, उसके भीतर एकदम प्रकाश फैल गया, सारी बात समझ आ गयी। अब वो कोई चमत्कार नहीं हो गया उस क्षण का। बात उस क्षण की है ही नहीं, बात उसकी परिपक्वता और तैयारी की है। वो इतनी तैयारी करके आया था कि बस हो गया काम। वही चीज़ आप अष्टावक्र संहिता में देखते हैं, जनक पूरी तैयारी से, पूरा दाम चुका कर आये थे।

तो जाता है साधक और पूछता है मास्टर से कि बुद्ध कौन हैं। तो दो-तीन तरह के उसके जवाब हैं। एक जवाब आता है कि वो उधर जो तीन किलो पत्ते रखे हुए हैं, वो। एक जवाब ऐसा भी आता है कि वो जो उधर गोबर पड़ा हुआ है, वो। एक जवाब ऐसा भी आता है कि वो ऊपर जो खाली आसमान है, वो। और वही जवाब आता है और सुनने वाला उसी क्षण में निवृत हो जाता है। बोलता है, 'हो गया, निपट गया, सब समझ में आ गयी बात।'

लोग कहते हैं कैसे इस जवाब में ऐसा क्या ख़ास था कि सब समझ में आ गया। उस जवाब में कुछ ख़ास नहीं था, तैयारी में ख़ास था। वो जो साधक आया है वो जीवन में तमाम तरह की चुनौतियाँ पार करके और क़ीमतें चुकाकर के आया है।

प्र: सौभाग्य मेरा जो आपसे प्रश्न करने का मौका मिला। बहुत-बहुत धन्यवाद।

आचार्य: जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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