उनकी शक्ल देखने भर से नुकसान हो जाएगा

Acharya Prashant

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उनकी शक्ल देखने भर से नुकसान हो जाएगा
ये जितनें धूर्त हैं, ये कभी ये नहीं बताने आएँगे कि हम जितनें मूर्खतापूर्ण रास्तों पर चले हैं उनका हमने क्या कष्ट भोगा है, क्या अंजाम सहा है, उल्टे ये तुमको बताने आएँगें कि सही रास्ते न, अरे रे रे रे; काँटे ही काँटे बिछे हैं। तुम ऐसे रास्ते का ज्ञान दे रहे हो जिस रास्ते पर तुम कभी चले ही नहीं, तुम होते कौन हो? मत करो फ़ालतू लोगों की संगति वो तुम्हें कुछ नहीं भी बोलेंगे न तो उनके मुँह पर कुछ ऐसा होगा कि तुम थोड़े बिगड़ जाओगे; सिर्फ़ उसकी शक्ल देखने भर से बिगड़ जाओगे। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे कि आपने डिफ्रन्ट लेयर्स की बात करी है आपकी शिक्षा पिछले कुछ महीनों से मैं सुन रहा हूँ और चीजें समझ में भी आई हैं और उसमें काफ़ी इम्प्रूवमेन्ट (सुधार) भी हुआ है और उसके साथ-साथ मैं गीता और उपनिषद् भी पढ़ने लगा हूँ और ये प्रोसेस को हम स्पीड-अप कैसे कर सकते हैं? मैं आपसे कोई विधि नहीं माँग रहा हूँ सिर्फ़ आपसे ये इनपुट चाहता हूँ कि ये जो प्रोसेस है जो मैं कर रहा हूँ उसको मैं और स्पीड और तत्परता से कैसे कर सकता हूँ?

आचार्य प्रशांत: उदाहरण, संगति; भरोसा बढ़ जाता है। ऐसों की कहानियों के करीब रहो जो आपके करीब थे या आपसे पहले थे, हो चूकें हैं, जो जीतें हैं, आपके साथ हैं और लड़ाई में हैं। भरोसा बढ़ जाता है क्योंकि हमारा भरोसा टूटता भी तो दूसरों के तानों और आक्षेपों से ही है न! तो जब हम दूसरों के प्रति वल्नरेबल (असुरक्षित) हैं ही तो दूसरों का ही इस्तेमाल अपनी ताकत के लिए क्यों न करें? तो सही संगति, सही उदाहरण, कान में सही शब्द पड़ें।

लोग जिम जातें हैं, उसके पीछे एक वजह ये भी होती है, घर में उतनी मशीनें रख भी ली तो झूठ बोल लेंगे, बेईमानी कर लेंगे। वहाँ तुम जाते हो किसी मशीन पर बैठने और अपने आप से बता रहे हो तीस किलो उठाऊँगा और तुमसे पहले जो करके गया है वो पिन लगाकर गया है सत्तर किलो में, तो फिर बड़ी लाज आ जाती है और खासतौर पर तब जब दोनों ऑल्टर्नेट (वैकल्पिक) कर रहें हों कि तुम आते हो तो सत्तर से तीस कर रहे हो और फिर वो आता है तीस से सत्तर करता है।

तो सही संगति रखो। इसका उल्टा भी होगा किसी ऐसे के साथ चले गए जो दस ही करता है तो कुछ दिनों बाद तीस भी नहीं करोगे। मैंने हॉस्टल में जाकर के टेबल टेनिस खेलना सीखा। तो जो अच्छे खिलाड़ी थे, इंस्टिट्यूट लेवल के, वो नए प्लेयर्स के साथ वो खेलते ही नहीं थे, उनको इतना भी बोलो कि नॉक्स कर लो तो वो मना कर देते थे। बोलते थे, हमारी एक रिदम है और हमें वही करना है। तुम अगर हमें कुछ ऐसा दे रहे हो जिसपर स्मैश पड़ना चाहिए तो हम तो स्मैश मारेंगे और तुम क्या चाहते हो तुम ऐसे खेल रहे हो, तुम चाहते हो हम भी ऐसे ही ऐसे करें तुम्हारे साथ (धीरे-धीरे खेलने का इशारा करता हुए), हमने तुम्हारे साथ ऐसे ही करा तो हमारी रिदम खराब हो जाएगी तो हम किसी भी वजह से गलत संगति अपने पास रखेंगे ही नहीं।

गेंद, टेबल टेनिस में गेंद की जो आवाज़ होती है न वो बड़ी महत्वपूर्ण होती है आपका जब हाथ चल रहा होता है उसमें जो आवाज़ है, एक ही बार टक आता है वो सिंक्रोनाइज़ (साथ-साथ होना) हो जाता है। वो अगर रिदम टूट गयी वो सिंक्रोनाइजेशन (समकालिकरण) ऊपर नीचे हो गया तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा क्योंकि रिस्पान्स टाइम (प्रतिक्रिया का समय) बहुत कम होता है आप सोचकर नहीं खेल सकते इसमें खट, खट, खट, खट, खट, ऐसे चलता है खेल।

तो किसी भी वजह से अपने आपको बेकार संगति दिया मत करो। हमेशा ऊपर को खीचने वाला तुम पर एक दबाब रहे कि जिसके भी साथ हो वो ऐसा है कि तुम्हारे लिये एक चुनौती की तरह है वो, वो तुमसे कह रहा है कि अगर हमारे साथ होना है तो तुम्हें थोड़ा और उठना पड़ेगा तुम्हें और थोड़ा उठना पड़ेगा नहीं तो तुम हमारी संगति के लायक ही नहीं हो फिर।

अब ये बात कितनी ज़्यादा भिन्न है हमारी आम संगति से और हमारी आम पारिवारिक स्थितियों से, आप होंगे ऊँचे-से-ऊँचे आदमी, हो सकता है आप किसी बड़ी जगह पर काम करते हों वगैरह-वगैरह, हो सकता है व्यापार आपका बड़ा है, जो भी है। आप घर आते हो वहाँ क्या देख रहे हो आप? ननद-जेठानी की लड़ाई चल रही है और चल ही नहीं रही है कोशिश ये की जा रही है कि आप भी उसमें शामिल हो जाओ। आप सुनना नहीं चाहते आपको सुनाया जा रहा है, “ये क्या हो रहा है?” ये आपकी चेतना को खींचकर निचले तल पर लाया जा रहा है।

आपको क्या लगता है इसका आपके व्यापार पर अंतर नहीं पड़ेगा बिलकुल पड़ेगा क्योंकि आपके तल को नीचे कर दिया गया तो उसी हिसाब से आपके विचार भी बदल जाएँगे, भावनाएँ, उद्देश्य सब बदल जाने हैं तो किसी भी तरीके से कान में कोई व्यर्थ का शब्द तो पड़ने ही मत दो, पड़ने ही मत दो बिलकुल।

प्रश्नकर्ता: बट इसमें परेशानी ये है कि जो हमारे आस-पास वातावरण है, इतना ज़्यादा जो चीज़ मैं आपसे पूछ रहा हूँ उसमें इतना करप्शन (भ्रष्टाचार) है कि जब देखतें है तो लगता है कि ये तो वो है नहीं जो हम ढूँढ रहे हैं और क्योंकि वो समझ में आता है कि जो हम ढूँढ रहे हैं वो ये है नहीं तो अभी सिर्फ़ वो संगति सिर्फ़ उपनिषदों में, या गीता में या पुराणों में ही है और ये एक ऐसी संगति है जहाँ पर आपको ट्रस्ट (विश्वास) भी करना पड़ता है बिना ट्रस्ट के।

आचार्य प्रशांत: कितनें कृष्ण चाहिए आपको, आप कह रहे हैं सिर्फ़ गीता में, सिर्फ़ उपनिषदों में कितने कृष्ण चाहिए, “एक गीता काफ़ी नहीं है?”

प्रश्नकर्ता: पर्याप्त है।

आचार्य प्रशांत: तो बस हो गया। ऊँचाइयों पर हमेशा विरलता होती है और चीजें छोड़ दो, ऊँचाई पर जाओ तो वहाँ तो हवा और आक्सिजन भी विरल हो जाते हैं, लोग क्या ज़्यादा मिलेंगे। ऊँचाई का मतलब ही होता है एकान्त, अकेलापन, हवा के परमाणु भी वहाँ कम होने लग जाते हैं लेकिन खास बात ये है कि वहाँ फिर जो मिलता है वो करोड़ों पर भारी है, वैसा एक भला, लाखों की साधारण भीड़ से ।

हम इस बात पर बहुत कम ध्यान देते हैं। देखिए, आप अगर गलत परिवेश में हैं तो दो ही तरीकें हैं— वहाँ रुके रहना है कह रहे हैं, तो जी तोड़ प्रयत्न करिए उसको बदल देने के या वहाँ से हट जाइए या तीसरा तरीका है, बेईमानी का क्योंकि कई बार आध्यात्मिक कलेवर के साथ हो सकती है कि साहब मैं रहूँगा तो यहीं, पर यहाँ मुझे जो परेशानी हो रही है उसे बचने के लिये आधे घंटे आँख बंद करके ध्यान कर लूँगा, फलानी क्रिया कर लूँगा। ये जो तीसरा तरीका है ये बड़ी गड़बड़, बड़ी तकलीफ़ की बात है ये, कि पता है कि ज़िन्दगी एकदम नर्क है और उसकी वजह से बीपी हाई रहता है तो हम क्या करते हैं, हम फलानी क्रिया करते हैं, ये नहीं करना है।

ये बात भी न कि, मैं आपसे बात करता जा रहा हूँ, आते जा रहे हैं तो मैं साझा करता जा रहा हूँ, ये बात भी, ये काम बहुत मुश्किल है। अपने लिये एक नई हकीकत खड़ा करने का, एक नयी दुनिया ही रच लेने का, ये काम बहुत मुश्किल है, ये बात भी कोई आपके भीतर से नहीं निकल रही है माने सच्चाई से नहीं निकल रही है, आपकी समझ, आपके बोध से नहीं निकल रही है। ये बात भी हमें पढ़ा दी गयी है कि देखो जो चल रहा है उसी में साझेदार बने रहो क्योंकि इसे हटकर कुछ करना न बहुत, बहुत, बहुत, बहुत मुश्किल होता है, बहुत मुश्किल होता है, कर ही नहीं पाओगे, कर ही नहीं पाओगे, हो ही नहीं सकता ।

अभी आरटीओ में कुछ काम था संस्था की एक गाड़ी के सम्बन्ध में तो ये गये वहाँ पर , वहाँ बाहर खड़ा हुआ है दलाल। बोल रहा है, ‘अजी हो ही नहीं पाएगा, आप अपने आप कर के दिखा दो, कर के दिखा दो, हो ही नहीं सकता, हो ही नहीं सकता।’ ऐसे ये दुनिया हमको बताती है कि सीधे रास्ते से काम हो ही नहीं सकता।

क्यों? कुछ नहीं उसको दो-चार हज़ार चाहिए थे, हमने कहा, दे तो सकते हैं दो-चार हज़ार पर थोड़े मज़े लेलें और मज़े लिये तो काम ही हो गया देने ही नहीं पड़े । आज़मा कर तो देखो, उतना मुश्किल भी नहीं है जितना ये दुनियावी दलाल तुमको भरोसा दिलाते हैं, जितना ये तुम्हारा भरोसा तोड़ते है उतना नहीं मुश्किल है। करके तो देखो, जब भी कोई तुमसे बोले कि सही रास्ता बहुत मुश्किल है ये देख लेना कि कहीं उसने गलत रास्ते पर दुकान तो नहीं खोल रखी । तुम गलत रास्ते जाओगे नहीं तो उसका माल कैसे बिकेगा? उसको तो बताना ही पड़ेगा तुम्हें कि सही रास्ता बहुत मुश्किल है, इतना मुश्किल है नहीं, नहीं है।

लोगों को तो कुछ भी मुश्किल लग जाता है, बोधस्थल में लोग आते हैं देखतें है कहतें है, ‘ओ माई गॉड ! तुम लोग यहाँ जीते कैसे हो? ’जीते कैसे हो माने क्या, क्या तकलीफ़ है?' बट, नो आई मीन , “क्या आई मीन?” नई बट डोन्ट यू मिस सम्थिंग वो जो बेचने आई है उसी की वो बात कर रही है ‘डोन्ट यू मिस सम्थिंग’ भाग यहाँ से। कुछ मिस विस नहीं, सीधी राह चलोगे तो एक बिंदु पर आकर कहोगे यही तो सबसे आसान थी, मैं पगला था जो आजतक ऊल-जुलूल रास्तों में भटकता रहा ये सोचकर कि सीधी राह मुश्किल होती है और ऐसा नहीं है। देखिए आप सब होशियार लोग हैं, चैतन्य लोग हैं, ज़िन्दगी में एक बार, हो सकता है कई बार, आपको ये दिखाई पड़ा हो कि आप जिन रास्तों पर चल रहें हैं या चलने जा रहे हैं, निर्णय लेने जा रहे हैं वो रास्ते गड़बड़ है लेकिन फिर भी आपने वो गड़बड़ निर्णय लिया होगा और इसी तर्क से डरकर लिया होगा कि सही रास्ता बहुत मुश्किल है, ठीक। समझ में तो आ रहा है कि हम जो करने जा रहे हैं वो ठीक नहीं है पर जो विकल्प है, सही रास्ता, वो बहुत मुश्किल है।

जिसने भी आपको ये तर्क दिया बहुत बड़ा दुश्मन था आपका, मूर्ख था वो अपना ही दुश्मन था तो आपका भी दुश्मन था। सब याद आ रहें हैं न ‘बेटा, ज़िन्दगी के रास्ते ऐसे नहीं कटते, बहुत लम्बी हैं ये राहें, अकेले थक जाओगे, बुढ़ापे में टट्टी कौन पौछेगा?’

अरे! हँस क्या रहे हो यार, इन्हीं बातों पर चलकर खानदान खड़े कर लिये है तुमने, ये ही तो तर्क दिये गए थे और क्या थे और ये तो मैं जीवन के एक क्षेत्र की बात कर रहा हूँ, तमाम अन्य क्षेत्र हैं जिनमें यही बातें हैं। यही बोला गया न कि ये बात ठीक तो है लेकिन, लेकिन क्या? बहुत कठिन है। कठिन है तुम्हें कैसे पता, तुम तो कभी किसी सीधी चीज़ पर चले नहीं, तो तुम्हें पता कैसे कि ये चीज़ कठिन है। तुमने सब उल्टे ही उल्टे काम करे हैं दुनिया में, जो करने लायक नहीं हैं तो तुम अगर हमें ज्ञान दो भी तो किस बारे में कि उल्टे काम कितने वाहियात होते हैं। तुम उसमें विशेषज्ञ हो, तुम सही कामों के बारे में मुहँ खोल काहे को रहे हो, तुमने जब ज़िन्दगी में एक भी सही काम करी नहीं है तो। पर ये जितनें धूर्त हैं ये कभी ये नहीं बताने आएँगे कि हम जितनें मूर्खतापूर्ण रास्तों पर चले हैं उनका हमने क्या कष्ट भोगा है, क्या अंजाम सहा है, उल्टे ये तुमको बताने आएँगें कि सही रास्ते न, अरे रे रे रे; काँटे ही काँटे बिछे हैं, तुम ऐसे रास्ते का ज्ञान दे रहे हो जिस रास्ते पर तुम कभी चले ही नहीं, तुम होते कौन हो?

मत करो फ़ालतू लोगों की संगति वो तुम्हें कुछ नहीं भी बोलेंगे न तो उनके मुँह पर कुछ ऐसा होगा कि तुम थोड़े बिगड़ जाओगे; सिर्फ़ उसकी शक्ल देखने भर से बिगड़ जाओगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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