उद्गार मौन के' का अर्थ || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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उद्गार मौन के' का अर्थ || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

श्रोता : सर, आपने एक बार कहा था कि “सुनना है, शब्द के पीछे के मौन को जानना”। इसका क्या मतलब है?

वक्ता: अभी का ही उदाहरण ले लो। पूछ रहे हो कि ‘सुनना है, शब्द के पीछे के मौन को जानना’, ये आपने क्यों कहा था? तो अभी का ही उदाहरण ले लो। आसान है, बहुत आसान है।

यहाँ तीन तरह के लोग बैठें हैं। एक वो जो नशे में इतने धुत हैं कि उनके कानों में शब्द भी नहीं पड़े। उनसे तुम ये भी पूछो कि “बैठ के आये हो दो घंटे के सत्र में, तो वक्ता ने क्या कहा?” तो वो ये भी न बता पायेंगे। वो मशीन के तल से भी नीचे हैं। क्योंकिं यदि यहाँ एक मशीन भी हो, तो भी वो क्या रिकॉर्ड कर लेगी?

श्रोता *(एक स्वर में)*: शब्द।

वक्ता: शब्द तो वो भी जान जायेगी। जो मशीन के तल से भी नीचे हैं, वो शब्द भी न बता पायेंगे। और बहुत ऐसे हैं जिनसे जब भी पूछो, “क्या कहा?” तो न बता पायेंगे। उनकी चर्चा ही व्यर्थ है। वो हैं हीं नहीं, उनका अस्तित्व है ही नहीं, वो अनस्तित्व में हैं। वो बस ऐसा लग रहा था कि वो यहाँ पधारे हुए हैं, कुर्सियों पर शरीर; वो यहाँ थे ही नहीं। उनका होना, न होना है; उनकी मौजूदगी, गैर मौजूदगी है। ये निम्नतम तल है।

फिर उससे ऊपर एक और तल है। इन्होंने ध्यान दिया। पर इन्होंने मन से ध्यान दिया। तो मन ने तो वही पकड़ा जो वो पकड़ सकता है, जितनी उसकी काबिलियत है। मन शब्दों में जीता है तो मन ने शब्द पकड़ लिये। ये जो दूसरे तल के लोग हैं, इनसे जब पूछो कि “वक्ता ने क्या बोला?” तो ये ठीक-ठीक बता देंगें कि उन्होंने ये-ये बातें बोलीं। वो लिख कर दे देंगें। एक सुन्दर निबंध भी लिख सकते हैं कि “आज ये सब बोला गया, सब कुछ स्मृति में चला गया”। मन ने पकड़ा, स्मृति में डाल दिया।

लेकिन अगर उन्होंने लिखा कि मैंने प्रेम की बात करी तो क्या इससे उन्हें प्रेम मिल गया? अगर उन्होंने लिखा कि मैंने आनंद की बात करी, तो क्या वो आनंदपूर्ण हो गए? उन्हें क्या मिले? शब्द। पर प्रेम क्या है? शब्द? आनंद क्या है? शब्द?

अगर मैंने समझ की बात करी, तो क्या इससे उनके भीतर समझ जग गयी? उन्हें क्या मिला- ‘स’, ‘म’, ‘झ’। ‘स म झ’। अब ‘स म झ’ मिलने से तुममें कोई क्रांति तो नहीं आ गयी। न ‘स’ में क्रांति है, ना ‘म’ में क्रांति है और न ही ‘झ’ में क्रांति है । तो तुममें कहाँ से आ जायेगी? सच तो ये है कि तुम क्रांति भी लिख दो, तो भी तुममें क्रांति नहीं आ जायेगी। क्योंकि वो न ‘क्रा’ में है, न ‘न्’ में, न ‘ति’ में।

(सभी श्रोता हँसतें हैं)

क्रांति इनमें तो है ही नहीं, कि है? तो ये दूसरे तल वाले भी चूक गये। इन्होंने बस उतना ही पकड़ा, जितना कि मन पकड़ सकता है। क्या पकड़ा- शब्द।

और कुछ लोग तीसरे तल पर भी थे। दरअसल हैं। इन्होंने बस सुना और इन्हें नहीं पता कि उस सुनने से इन्हें क्या मिल गया। बस एक एकापन था, एक जुड़ाव, एक एकात्मकता। जैसे कि कहनेवाला और सुननेवाला एक हो गए हों। अब शब्द ऊपर-ऊपर चल रहे थे और भीतर-भीतर एक दूसरी धारा है, जो प्रवाहित हो रही है। वहाँ असली काम हो रहा है। ऊपर-ऊपर से ऐसा लगेगा कि वक्ता कह रहा है और श्रोता सुन रहा है। पर अंदर ही अंदर इससे कहीं ज्यादा गहरी और कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण एक दूसरी घटना चल रही होती है।

वो घटना ये है कि यहाँ जिस मौन से शब्द उठ रहे हैं, वो शब्द तुम्हें उसी मौन में ले जाते हैं। और ये दोनों मौन एक हो जाते हैं। अब कोई भेद नहीं रहा, अब ना कोई कहने वाला है और ना कोई सुनने वाला। मौन और मौन हैं, मिलन हो गया।

समझना इस बात को; मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वो सुनाई तो पड़ रहा है पर वो उठ मौन से रहा हैं। लग तो ऐसे रहा है जैसे कोई आवाज़ है, ध्वनि है, पर उसका स्रोत मौन है। ये हुई कहनेवाले की बात।

और अगर तुम वास्तव में सुन रहे हो, तो लगेगा तो ऐसा कि जैसे कानों में शब्द पड़ रहे हैं। पर ये जो शब्द हैं, ये तुम्हें मौन में ले जायेंगे। पड़ तो ध्वनि रही है कान पर, पर ले कहाँ जा रही है? मौन में। तो इधर भी मौन और उधर भी मौन, और, मौन और मौन एक जैसे होते हैं। शून्य और शून्य में कोई अंतर नहीं होता; सारे शून्य एक हैं। अब असली घटना घटी, अब वास्तव में संवाद हुआ। शब्दातीत, ‘वर्ड्स इन्टू साइलेंस’(शब्द से मौन की ओर)। शब्द ऐसे कान में पड़े कि हम मौन हो गए। पर वो शब्द वही हो सकते हैं, जो मौन से ही आ रहे हों। प्रत्येक शब्द तुम्हें मौन नहीं कर पायेगा। शब्द तुम्हें वही मौन कर पायेगा, जो मौन से उठा भी हो।

यही वास्तविक सुनना है। यही श्रवण की कला है; कि ऐसा सुना, ऐसा सुना कि शब्द पीछे रह गये। अब कोई हमसे पूछे कि “इन्होंने क्या-क्या कहा?” तो हो सकता है कि हम न भी बता पायें। जो दूसरे तल पर हैं, याद रखना कि वो साफ़-साफ़ बता देगा कि क्या कहा। पर जो तीसरे तल पर है, ये हो सकता है न भी बता पाये।

पहले तल वाला भी नहीं बता पा रहा था क्योंकि वो बेहोश था। और ये तीसरे तल वाला भी नहीं बता पायेगा क्योंकि ये परम होश में है। इससे भी तुम पूछोगे कि, “बताना बातें क्या-क्या बोलीं?” तो ये थोड़ा-बहुत ही बता पायेगा। कहेगा, “बातें तो कुछ खास याद नहीं, पर कुछ हुआ”। क्या हुआ? वो हम बता नहीं सकते क्योंकि हमें भी पता नहीं है। पर कुछ हुआ ज़रूर, और उस होने का नतीजा ये है कि बड़ी शांति अनुभव हो रही है। कुछ हुआ ज़रूर।” ये वास्तविक सुनना है।

इसी से तुम ये विवेक करना भी सीख लो कि क्या सुनना है और क्या नहीं।

शब्द वही सुनने लायक है जो तुम्हें मौन में ले जाए।

व्यक्ति भी वही भला है, जिसकी संगति में तुम मौन हो सको। जान लो कि कौन तुम्हारा मित्र है, कौन नहीं। जिसकी संगति में तुम मौन हो सको, वो तुम्हारा दोस्त है। और जिसकी संगति में तुम अशांत हो जाओ, वो तुम्हारा दुश्मन है।

जो गीत सुनो और बिल्कुल स्थिर हो जाओ, वो गीत भला तुम्हारे लिये। और जो गीत सुनो और उत्तेजित हो जाओ, वो गीत ज़हर है तुम्हारें लिये।

~ ‘संवाद’-सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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