आचार्य प्रशांत: अहंकार साथ है न, अहंकार क्या है? कुछ त्यागने वगैरह की चीज़ वो हो ही नहीं सकता। किसी चीज़ को आप अगर त्याग रहे हों तो वो तो आपसे बाहर की चीज़ हुई। अहंकार वो इकाई है जो त्यागने का भाव रखती है, जो ग्रहण करने का भाव रखती है। त्यागी हुई वस्तु नहीं, जो त्यागी है वहाँ पाओगे अहंकार को।
और चूँकि अहंकार किसी चीज़ में नहीं है तो इसीलिए अहंकार चीज़ों को अपेक्षाकृत ज़्यादा आसानी से छोड़ सकता है। वो कुछ खाना-पीना छोड़ सकता है, कुछ पहनना छोड़ सकता है, कहीं आना-जाना छोड़ सकता है, घर-द्वार भी छोड़ सकता है, क्योंकि ये सबकुछ जो छोड़ रहा है इनमें तो अहंकार सर्वप्रथम था ही नहीं। अहंकार था किसमें? जो छोड़ने की भावना रख रहा है उसमें, जो ग्रहण करने की भावना रख रहा है उसमें, जो अपनेआप को कहता है अहम्, मैं उसमें।
मैंने छोड़ा, क्या बचा इसमें? मैंने पाया, क्या बचा रहा इसमें? मैंने नहीं छोड़ा, क्या बचा रहा? मैंने नहीं पाया, क्या बचा रहा? तो आप कर्म कोई भी करते रहो; वो बाहर-बाहर की बात हो जाएगी न। समझ रहे हो? बाहर-बाहर के बदलाव हमेशा आसान होते हैं। जो आन्तरिक बदलाव होता है, उसमें प्राण कँपते हैं, उसमें क्रोध भी आता है। बाहर का बदलाव ऐसा है जैसे कपड़े बदल लेना। भीतर का बदलाव ऐसा है जैसे मस्तिष्क की शल्यक्रिया, जैसे हृदय का ऑपरेशन। क्या तुलना है?
कपड़े बदलने को अहंकार हमेशा राज़ी रहता है। बाहर-बाहर से कुछ छोड़ दो, बाहर-बाहर से कुछ पकड़ लो, क्योंकि उसमें कोई ख़तरा है ही नहीं। वहाँ कोई असली घटना घटी नहीं रही है। ‘आजकल मैंने भजन-कीर्तन करना शुरू किया है, आजकल मैंने साहित्य पढ़ना शुरू किया है, आजकल मैंने मौनव्रत रखा हुआ है। अब मैं ये नया करने लगा हूँ, अब मैंने ये पुराना छोड़ दिया' — ये सब सतही घटनाएँ हैं।
सतही हैं लेकिन आकर्षक हैं, क्योंकि वादा करती हैं। ये ऐसा ही वादा है कि जैसे तुमसे कोई कहे कि हाथ का मैल छुड़ा दो तो हृदय की धमनियों में जो अवरोध आया हुआ है वो गल जाएगा, मिट जाएगा। कि जैसे बाहर-बाहर की सफ़ाई से दिल की सफ़ाई भी हो जानी हो; वो हो नहीं सकता न, दिल की सफ़ाई तो जब भी होगी तो खून-खच्चर होगा।
बाहर की सफ़ाई तो कोई भी कर सकता है। तुम अपने ही हाथों से कर लो। दिल की सफ़ाई के लिए कोई प्रशिक्षित, विशेषज्ञ, जानकार चाहिए। है कि नहीं? साबुन लगाकर नहा तो हम रोज़ ही लेते हैं और तन का कचरा साफ़ कर लेते हैं। दिल में कचरा आ गया होगा उसे भी ख़ुद ही साफ़ करने लगोगे क्या? वहाँ पर अपनेआप को सौंप देना पड़ता है किसी ऐसे को जो इस क़ाबिल हो कि उसे दिल दे सको। जिसको अपने दिल का इलाज करने दे रहे हो, उसे तुमने दिल ही तो दे दिया।
घर में भूत बैठा हो और आप दीवारों का रंग बदल दो, तो कुछ बदल गया क्या? घर के अन्दर तो बैठा वही है न, कौन? भूत। घर के अन्दर भूत बैठा हो और आप घर का नाम बदल दो, तो कुछ बदल गया क्या? घर के अन्दर भूत बैठा हुआ, आप घर में एक कमरा और जोड़ दो, कुछ बदल गया क्या? बैठा तो घर में भूत ही है? घर में भूत बैठा हो, कुछ दिनों के लिए आप कहीं और रहने चले जाओ, कुछ बदल गया क्या? लौट के तो आपको यहीं आना है।
घर में बैठा है भूत! आप चार दिन के लिए अद्वैत शिविर में आ गये, कुछ बदल गया क्या? घर तो लौटोगे और वहाँ पर पहले कौन मिलेगा? भूत! उसका तो बहुत सीधा इलाज करना पड़ता है। वहाँ तो आर-पार की लड़ाई होती है। वहाँ नुस्खे नहीं चलते।
एक चीज़ कभी मत करना। मैं जो बोलने जा रहा हूँ वो बात बहुत गहरी आध्यात्मिक इत्यादि हो सकता है न लगे, पर समझना। अपनेआप से झूठ मत बोला करो। अपने ऊपर किसी तरह का व्यवहार, आचरण वगैरह लादा मत करो, थोपा मत करो। कुछ और बनने की कोशिश में मत रहा करो।
तुम दस कमरों में देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित कर दोगे तो भी भूत तो घर में ही बैठा है न अभी। तुम घर का नाम रख दो परमात्म धाम, तो भी घर में तो भूत ही बैठा है न; तो सजावट मत करो। जो हो उसको सामने लाने दो न, बात को ज़रा खुलने दो। घर में भूत है, तो सब भूतही हरकतें प्रकट होने दो न!
समझ रहे हो?
बड़े से बड़ा धोखा तब हो जाता है जब आपको भी लगने लग जाता है कि भूत है ही नहीं; वो है। आपने बस उसको अपनी समझ से बन्द कर दिया है एक कमरे में। आप सोच रहे हैं आपने उसको एक कमरे में बन्द कर दिया है, भूत वहाँ हँस रहा है, क्योंकि आपने उसको एक मनचाही जगह दे दी है। यहाँ वो सुरक्षित है। आप सोच रहे हो आपने उसको बन्द कर दिया है, क्वारंटीन (संगरोध) कर दिया है। और भूत जानता है कि उसे बन्द नहीं किया गया उसे एक सुरक्षित जगह दे दी गयी है; उसको सामने आने दो न, लीपापोती मत करो।
इसीलिए बड़ा बढ़िया हो रहा है कि इस शिविर में हम लोग खेल ख़ूब रहे हैं। भीतर की वृत्तियाँ ख़ूब सामने आती हैं, प्रकट हो जाती हैं, दिखता है। बहुत आसान है अपनेआप को समझा लेना कि मुझे तो दुनिया-जहान से कोई मतलब नहीं। अरे! खेलो न और देखो कि तुलना अभी भी बैठी हुई है कि बुरा लगता है जब गेंद डालते हो और चौका पड़ जाता है। देखो न कि बुरा लगता है कि जब कोई गेंद छीन के ले जाता है, फुटबॉल में।
खेल के मैदान पर समझोगे कि तमस का क्या अर्थ होता है? मन जितना भी चाह रहा है, शरीर साथ नहीं दे रहा। मन को पता है थोड़ा सा और दौड़ लूँ तो गेंद कब्ज़े में आ जाएगी। फिर ज़रा सा और दौडूँ तो सही, पास दे दूँगा, लेकिन कुछ और है जो मन के कहे पर भी नहीं चल रहा। अध्यात्म परंपरागत रूप से हमें यही सिखाता रहा है कि मन के चले मत चलो। “मन के मते न चालिए, मन के मते अनेक”, पर मन के मते चलने के लिए भी तमस से ऊपर उठना पड़ता है।
ये सारी बातें तभी स्पष्ट होंगी जब भूत को सामने आने दोगे। ज़िन्दगी में उतरो! हार-जीत देखो, संघर्ष देखो, ऊँचाइयाँ देखो, निचाइयाँ देखो, अपनी क्षुद्रताएँ देखो और उन सब के बीच में अपना बड़प्पन भी देखो। ज़िन्दगी में उतरना बहुत ज़रूरी है। मुँह मत छुपाओ ज़िन्दगी से। जब अनचाही या नयी परिस्थितियाँ सामने आएँ तो कहीं दुबक मत जाओ; उनके सामने खड़े हो, बात करो।
तन के अलावा कोई और आईना नहीं। जीवीएन ही जीपीएस है। वो तुम्हें तुम्हारे घर का पता बताएगा। पर तुम्हें वो पता बता पाये उसके लिए पहले तुम्हें जीना होगा। जीने का मतलब होता है समग्रता में अनुभव लेना। अनुभवों का एक विशाल कैनवास होना चाहिए। ये नहीं है कि अनुभव के नाम पर यही होता है कि ढाक के तीन पात — सुबह उठे, दफ़्तर गये, वापस आये, सब्ज़ी-भाजी, फिर सो गये, फिर टीवी, फिर दफ़्तर, फिर सप्ताहांत आया तो कहीं जाकर के पिक्चर देख आये। अनुभवों का दायरा व्यापक होना चाहिए।
जितना तुम नये अनुभवों में उतरोगे उतना तुम्हें अपने बारे में कुछ पता चलेगा। जो पता लगेगा हो सकता है वो अच्छा न लगे, तुम्हारी उम्मीदों के मुताबिक न हो; कोई फ़र्क नहीं पड़ता। वहीं पर तुम जानोगे कि मैं कौन हूँ? कितनी उम्मीदें रखते हो अपनेआप से, ये भी तभी जानोगे जब ज़िन्दगी के सामने उतरोगे। अन्यथा धारणाएँ बना लेना बहुत आसान है।
‘मुझे तो साहब! अब जीत-हार से कोई प्रयोजन ही नहीं, मुझे तो साहब! अब स्त्रियों से कोई प्रयोजन ही नहीं, मुझे तो साहब! अब रुपया-पैसा भाता ही नहीं। तथ्यों से रुबरु हो जाओ फिर बात करो। मैं को वहीं जानोगे, मैं, अहम् को जीवन के अलावा कहीं नहीं जान पाओगे। (श्रोता को सम्बोधित करते हुए) कैसा लग रहा था जब कैच छूट रहा था? लोग इधर-उधर से ताने मार रहे थे, कैसा लग रहा था?
श्रोता: ऐसे लग रहा था कि साबित कर दूँगा मेरी ग़लती नहीं है।
आचार्य: करके दिखाऊँगा, करके दिखाऊँगा! मैं प्रूफ़ (सिद्ध) कर दूँगा मेरी ग़लती नहीं है। प्रोजेक्टाइल (प्रक्षेप्य या फेंका गया) ही ऐसा था।
श्रोता: अनइवन बाउंस सर याद रहेगा, लम्बे समय तक। (सभी हँसते हैं)
आचार्य: अनवइन बाउंस , ये देखते हो कितना तात्कालिक रूप से होता है, सोचना नहीं पड़ता, तुरन्त होता है। ये मैं है। ये क्या है? ये मैं है। और इसमें कोई घबराने, शरमाने की बात नहीं है। ये प्यारा है। ये नन्हे बच्चे जैसा है। आप कहेंगे, अभी बोला भूत! नन्हा बच्चा भी बहुत शोर जब करे और तुम्हें उससे कोई संवेदना न हो, तो भूत समान ही है तुम्हारे लिए।
इतना डरो मत अहंकार से कि अहंकार को मार देना है कि नष्ट कर देना है। ठीक है। अपना ही लौंडा है। कौन है? जब भी अहंकार कोई हरकत करे तो उससे एक ही बात बोलो कि दिल को छू जाती है, तेरी कसक, तेरी तत्परता। तू कितनी बेताबी में है, इतनी जल्दी में है और किससे मिलने की जल्दी है तुझे मैं जानता हूँ। वो मिल नहीं रहा है तो तू अनाप-शनाप हरकतें कर रहा है।
अहंकार कोई दैत्य, राक्षस, भूत इत्यादि थोड़े ही है। उसको भी शांति चाहिए। उससे ज़्यादा सत्य से कोई प्यार करता नहीं, पर रास्ता वो जानता नहीं। या ये कह दो कि रास्ता वो अपना ही जानता है जैसे, मी एंड माय रोल (मैं और मेरी भूमिका)। चाहता तो जो है वो ठीक ही चाहता है।
(उन्हीं श्रोता को सम्बोधित करते हुए) ये भी ठीक ही चाहता था, लेकिन अपनेआप में उसको भरोसा इतना होता है कि काम बिगड़ जाता है। नीयत में थोड़े ही बुराई थी। तो जब भी उसको विक्षिप्तता की, घुटन की, जलन की, क्रोध की, तुलना की हरकतें करते देखो, उससे यही कहो कि समझता हूँ मैं ये सारी कशिश किसके लिए है। पता है मुझे तुझे क्या चाहिए। पता है मुझे कि क्या नहीं मिल रहा तो तू इतना बेताब है; मिलेगा, धैर्य रख!
वो है न, मन रे, तू काहे ना धीर धरे (गुनगुनाते हैं) तो यहाँ तो सवाल है आपको तो जवाब भी पता है कि मैं को क्या चाहिए। दे देंगे तो मस्त हो जाएगा, नहीं देंगे तो त्रस्त रहेगा।
जैसे कोई छोकरा हो वो उपद्रव करता हो, हाँथ-पाँव फेंकता हो, गाली-गलौज करता हो और आप उसे कन्धों से पकड़ें और आँखों में आँखें डाल कर कहें, क्या है? बस इतना काफ़ी है। शांति से आँखों में आँखें डाल कर कहिए, क्या है? चुप हो जाएगा। वो हिंसा तभी करता है जब वो पहले रूआँसा होता है। उसके उपद्रव को उसकी व्यथा से जनित जानिएगा। उपद्रव का शौक नहीं है उसको। परेशान है, इसलिए उपद्रव कर रहा है, उसकी परेशानी दूर कर दीजिए।
परेशानी दूर करने का जो सीधा, बिलकुल सीधा तरीक़ा है वो आपको बता दिया, उसे बाहर आने दीजिए, छुपाइये मत! उसे खोल देंगे, आप खुल जाएँगे; उसे बन्द रखेंगे, आप बन्द रहेंगे।
इसी को कबीर ने क्या बोला है? खोलने को, “घुंघट के पट खोल रे” (गुनगुनाते हैं) मतलब समझ में आ रहा है, ‘घुंघट के पट’ का क्या मतलब है? कि क्या छुपाये-छुपाये फिर रहे हो? तुम अपनेआप को खोल दो, पिया अपनेआप को खोल देंगे।
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