कबिरा आप ठगाइये, और न ठगिए कोय|
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुःख होय||
~संत कबीर
वक्ता: इसको समझने के लिए एक दोहा और लिखिए इसके साथ:
माया तो ठगनी भयी, ठगत फिरत सब देश|
जा ठग ने ठगनी ठगी, ता ठग को आदेश||
मुक्ति सर्व आयामी और पूर्ण है| अस्तित्व में कुछ भी ऐसा नहीं है जो एक अनिवार्य बंधन के रूप में हमारे ऊपर हो| समझने वालो ने इस बात को बड़ी गहराई से समझा है कि कुछ भी अकस्मात कहीं हो ही नहीं रहा, कि कुछ भी बिना हमारी इच्छा के, बिना हमारी सहमति के हो ही नहीं रहा| बंधन है तो इसीलिए कि हमारी सहमति है, बंधन नहीं है तो भी इसीलिए कि हमारी सहमति है|
एक अवस्था में हैं तो इसीलिए हैं क्योंकि उसी अवस्था में होना चाहते हैं| ध्यान दीजिएगा, संयोग नहीं है, अनिवार्यता नहीं है, प्राराब्द्ध नहीं है, यदि किसी अवस्था में अपने आप को पाते हैं तो सिर्फ इसीलिए कि उसी अवस्था में होना चाहते हैं| मुक्ति पूरी-पूरी है हम को किसी और अवस्था में हो जाने की लेकिन अस्तित्व सिर्फ़ हमारी इच्छा का आदर कर रहा है| हम चाहते हैं उस अवस्था में रहना, तो हमे उसी अवस्था में रहना पड़ रहा है| और जिस क्षण चाहेंगे अवस्था बदल जाए, वो बदल जाएगी|
ज्यों ही इच्छा उठेगी कुछ और होने की उस इच्छा का आदर किया जाएगा, बात बदल जानी है| ये बात बहुत गहरी है, ये हम से हमारी सारी लाचारियाँ छीन लेती है, सारे बहाने छीन लेती है| हम बिलकुल ये न कहें कि कुछ भी हमारे ऊपर बस आरोपित कर दिया गया है, लाद दिया गया है, थोप दिया गया है, बाहरी परिस्थितियों के फल स्वरुप हो रहा है, कि “हम तो विवश हैं, हम करें क्या?” नहीं, कुछ नहीं, यदि आप विवश हैं तो इसीलिए क्योंकि आपने विवशता चुनी है| तो विवशता को अपनी ढाल न बनाएँ, आप पूर्णत: मुक्त हैं विवश न होने के लिए भी| पर यदि विवश पाते हैं अपने आप को तो वो सिर्फ़ इसीलिए है क्योंकि आप चुन रहे हैं विवशता को|
आप चुन रहे हैं और आपके चुनाव का आदर किया जा रहा है| आप जो भी चुनाव करेंगे अस्तित्व उसका आदर करेगा| आपके चुनाव के अनुरूप आपको फ़ल मिल जाएगा, जीवन मिल जाएगा, लेकिन अस्तित्व आ कर आपसे ये नहीं कहेगा कि कोई और चुनाव करो| जो भी आप चुनना चाहते हैं उसकी आज़ादी पूरी-पूरी है| आज़ादी इतनी गहरी है कि उसमे स्वयं अस्तित्व भी खलल नहीं डाल सकता| जिस दिन तक आपकी इच्छा गुलाम बने रहने की है, स्वयं अस्तित्व भी आपको विवश नहीं कर सकता कि गुलामी छोड़ दो|
जिस दिन तक आपने मन बना रखा है कि “मुझे भ्रम में जीना है” उस दिन तक कोई ताकत, वो परम ताकत भी आपको विवश नहीं कर सकती क्योंकि आपका बंधन में रहने का मन भी स्वयं उसी की माया है, स्वयं उसी की लीला है| तो आपका यदि मन कर रहा है अभी कि “मैं बीमार रहा आऊँ, कि मैं भ्रम में रहा आऊँ” तो आपकी इच्छा का आदर किया जाएगा| ध्यान दीजिए, मैं नहीं कह रहा हूँ कि कोई बाहरी व्यक्ति आ कर के प्रभावित नहीं कर सकता| मैं कह रहा हूँ स्वयं परम भी, पूर्ण अस्तित्व भी, वो भी कहेगा, “ठीक तुझे जैसे रहना है रह|” वो भी बदलाव के लिए, योग के लिए सामने तभी खड़ा होगा जब आप अनुमति देंगे|
आपकी अनुमति के बिना ‘वो’ भी आपके पास नहीं आ सकता| याद रखिएगा आख़िरी ‘हाँ’, या आख़िरी ‘न’ आपको बोलनी है; आपकी मुक्ति हर मायने में पूरी है| जब तब आप नहीं कहते, “हाँ, स्वीकार है” स्वयं परम भी आपसे मिल नहीं सकता; और तो छोड़ दीजिए कि कोई इंसान आपको मिल लेगा या पा लेगा या बदल देगा, स्वयं परम भी न आपको बदल सकता है, न मिल सकता है; जब तक आप नहीं कह देते| आपको अपनी पूरी जानकारी में, जानते बूझते हाँ कहना पड़ेगा, और याद रखिएगा वो बेहोशी की ‘हाँ’ नहीं हो सकती|
आपको जो भी ऊँचे से ऊँचा चैतन्य संभव है उतने चैतन्य में आपको हाँ बोलना पड़ेगा, ठीक वैसे, जैसे बेहोशी में दी गयी कोई भी सहमति मायने नहीं रखती, चाहें कुछ खरीदने कि, चाहें शादी ब्याह की| आपको होश में परम को हाँ कहना पड़ेगा, यही आपकी गहरे से गहरी मुक्ति है| इसीलिए समझने वालो ने कहा है मुक्ति हमारा स्वभाव है| इतनी गहरी है हमारी मुक्ति कि स्वयं परम हम से नहीं मिल सकता जब तक हम न चाहें, इतनी बड़ी मालकियत है हमारी|
कह रहे हैं कबीर, “कबिरा आप ठगाइए|” दूसरी जगह कह रहे हैं कबीर, “जा ठग ने ठगनी ठगी, ता ठग को आदेश| माया तो ठगनी बड़ी, ठगत फिरत सब देश|” हाँ, है ‘वो’ जिसमें माया को ठग लेने की काबीलियत है, वो माया जो दुनिया को नचाती है, उस माया को वो नचा देगा| पर वो जो पूरी माया को नचा सकता है, वो जो मन को, भटके हुए मन को वापस उसके घर में ला सकता है, वो भी ये कर नहीं सकता बिना उस मन की सहमति के| उस मन को कहना पड़ेगा, “मैं प्रस्तुत हूँ ठगे जाने के लिए, आओ मुझे ठगो|”
बड़ी ये मधुर सी बात है, आपको आपकी सहमति के बिना ठगा भी नहीं जा सकता| वो परम जो माया को ठग ले वह आपके मन को नहीं ठग सकता, जब तक आप न कहें कि “मैं तैयार हूँ|” वो जबरदस्ती नहीं करता, बलात्कारी नहीं है वह, आपको कहना पड़ेगा, “मैं प्रस्तुत हूँ, आओ हरो मुझे, ले चलो|” आप नहीं कहेंगे तो काम नहीं होगा| उसने दे रखी है इतनी मुक्ति कि तुम जब तक चाहते हो भ्रम में जीयो, कोई भी आ कर के तुम्हारे भ्रम को जबरदस्ती दूर नहीं करेगा| तुम भ्रम में जीना चाहते हो जियो, तुम जीवन को उलटे-सीधे निर्णयों से भर लेना चाहते हो भरो, तुम्हारा एक-एक दिन गलत है, तुम्हारी सारी प्रक्रियाएँ गलत हैं, तुम्हें दिन भर में जो करना चाहिए, तुम वो नहीं करते हो, तुम्हें जो नहीं करना चाहिए, उसमे तुम लगातार तत्पर रहते हो|
कोई तुम्हें आ के रोकेगा नहीं| जो तुम कर रहे हो, उसके फ़ल मिलते रहेंगे पर उसके बाद भी जो तुम करते रहना चाहते हो, वो करने की तुम्हारी मुक्ति अबाधित रहेगी| तुम अभी भी करना चाहते हो करो, अस्तित्व आकर के तुम्हारे हाथ नहीं पकड़ लेगा, बिलकुल नहीं पकड़ लेगा, तुम करो अभी भी करना चाहते हो तो| बंधन भी तुम्हारे चुनने से तुम को मिलते हैं, इसीलिए कोई बहुत मासूम चेहरा लेकर खड़ा न हो जाए, कि “हम क्या करें? लाचार हैं, विवश हैं, हम तो बंधे हुए हैं|” न न न कोई बंधे हुए नहीं हो| किसको ठग रहे हो? और ठगे दुःख होए| जो तथ्य है पहले उसको स्वीकार करो, यह तुम्हारा अपना चुनाव है, तुम्हारा अपना स्वार्थ है, तुम्हें इस में कुछ हित दिखता है, तुम्हारे अहंकार को इसमें मज़ा आता है, तुमने चुना है|
यह खेल तुम्हारा अपना चुना हुआ है| तुम्हें ठग लेने के लिए वो तैयार बैठा है, लेकिन बड़ा मीठा ठगना है उसका, जैसे प्रेम में किया गया अपहरण, जहाँ प्रेम पहले है अपहरण बाद में, जहाँ अपहरण भी तभी है जब प्रेम पूरा पूरा हो| यदि प्रेम नहीं है तो वह तुम्हारा अपहरण करने आएगा ही नहीं, इसीलिए कबीर कह रहे हैं, “कबिरा आप ठगाइए|” तुम्हारी सहमति के बिना तुम्हें नहीं ठगेगा वो, प्रेम नहीं है तो वो आएगा ही नहीं तुम्हारे घर, तुमको उठा ले जाने के लिए| उसका नाम हरि है, वो हरता है; पर वो नहीं हरेगा, तुम हाँ नहीं कर रहे ना, तुम हाँ कर दो तो हर ले, पर वो तुम्हें नहीं ठगेगा| ताकत उसमे पूरी है, पर वो नहीं ठगेगा तुम्हें, अभी तो तुम्हारी हाँ बहुत दूसरी चीज़ों को है, अभी तो तुम्हारी अपने सामर्थ्य को हाँ है| तुम कहते हो, “मैं कर लूँगा, किसी और से अपना अपहरण क्यों करवाऊँँ? ये तो बड़ी नपुंसकता की बात होती है, कि कोई आया और हमें उठा कर के ले गया| हम कर के दिखाएँगे, हमारी ताकत है|”
जब तक आपकी ताकत है, आपकी ताकत का आदर किया जाएगा| जब तक आपका चुनाव है कि “अभी हम स्वयं कोशिश कर के देखेंगे” आपके चुनाव का आदर किया जाएगा, आप करिए, और कोशिश करिए| समय का कोई अंत नहीं है, समय अनादि अनंत, पूरा विस्तार है उसका, आप जब तक चाहें कोशिश कर सकते हैं, कोई आके आपके हाथ पाँव नहीं पकड़ेगा| हाँ, आपकी कोशिशों का फल आपको अनवरत मिलता रहेग| जब तक आपको वो फ़ल मीठा ही लगा जा रहा है, आपको पूरी मुक्ति है| आप विष वृक्ष का फ़ल रस ले ले कर खा रहे हैं आपको पूरी आज़ादी है, खाइए|
जो परम स्वयं सर्वथा मुक्त है उसी से आप आए हैं, आप भी सर्वथा मुक्त हैं| कोई विवशता ज़रा भी नहीं है, कोई शर्त लगाई ही नहीं गयी है| आप हाँ बोलिए, आप सम्मुख खड़े हो जाइए, सिर्फ़ तभी वो आपको ठगेगा भी, अन्यथा नहीं ठगेगा| हाँ, जब आप “हाँ” बोल कर के, समर्पित भाव से, अपने शस्त्र रख के, हथियार डाल के खड़े हो जाएँगे, तब उसका कर्म शुरू होता है और जब उसका कर्म शुरू होगा तो आप ठगे से खड़े रह जाएँगे|
याद रखिएगा ठगे जाने की परमिशन, अनुमति आपने ही दी थी; पर ये आपको पता नहीं था कि उस ठगने का अर्थ क्या होता है? अनुमति आपने ही दी थी| जैसे की आप ही अनुमति दें कि “आओ मुझे ले लो आलिंगन में” पर आलिंगन का अर्थ क्या है यह आप जानते नहीं, यह आपका पहला आलिंगन है| अनुमति आप ही देंगे, “आओ ले चलो मुझे” पर जब वो ले चलेगा तो आप ठगे से खड़े रह जाएँगे, और अपने आप से पूछेंगे, “यह अनुमति पहले ही क्यों नहीं दे दी? इतने दिनों तक क्यों अड़ा खड़ा रहा? इतने दिनों तक क्यों बाधा डालता रहा? इतने दिनों तक क्यों “मेरी ताकत मेरी सामर्थ्य” ऐसे ही चिलता रहा? इतना मधुर है यह ठगा जाना, इतना प्रेमपूर्ण है यह आलिंगन कि बहुत-बहुत पहले मुझे अपनी रज़ामंदी दे देनी चाहिए थी|” पर कोई बात नहीं खेल है, आपको आज़ादी थी उसे किसी भी रूप में खेलने की|
देने वाले ने पूरी-पूरी आज़ादी दी है| खेल खेलने की आज़ादी दी है, खेल न खेलने की आज़ादी दी है, नियम भी तय करने की आज़ादी दे दी है, ऐसा विचित्र खेल है, सब कुछ है, पूरी आज़ादी है|
तो दो तरीके हो सकते हैं जीने के: पहला तरीका है जिसमे हम जीते ही रहते हैं, वो तरीका है, “मैं कर के दिखाऊँगा|” और यही मत समझिएगा कि यह उन्ही लोगों का तरीका है, जिनका पता ही चल जाता है कि इनका अपने आप में बड़ा यकीन है| यह हर एक का तरीका है, जो बड़े दुर्बल, दीन-हीन दिखाई देते हैं, उनका भी यही तरीका है| जो लगातार अपनी मजबूरियों का रोना रोते हों, “मेरे पास रुपया नहीं है, पैसा नहीं है, शिक्षा नहीं है या मैं परिस्थितियों से विवश हूँ, मेरा परिवार ऐसा है, मेरा छोटा सा बच्चा है, मैं कैसे चल सकता हूँ? मैं ये कैसे कर सकता हूँ?” न न न जो कोई भी अपनी जो भी दुर्बलता दिखाता हो, वहीँ पर उसकी चालाकी है| और इसी चालाकी को कबीर कह रहे हैं, “और न ठगिए कोय|” तुम किसको बेवकूफ बना रहे हो? ये जीने का एक तरीका है|
जहाँ अभी आप को अपनी सामर्थ्य में बड़ा यकीन है| जिसे अपने सामर्थ्य में बड़ा यकीन होता है, वो उस सामर्थ्य का उपयोग सिर्फ़ एक अंत के लिए करता है, ठगने के लिए| उसका समूची सृष्टि से एक ही नाता होता है हिंसा का, पारस्परिक ठगे जाना और ठगने का| प्रेम का नाता नहीं होता| यह एक प्रकार का जीवन है “जगत मेरा शत्रु है, अस्तित्व मेरा शत्रु है, मुझे कुछ कर के दिखाना है, मुझे अपनी सुरक्षा करनी है, चारों तरफ़ मेरे दुश्मन ही दुश्मन फैले हैं| कर्ताभाव का अर्थ ही यही है कि मेरे दुश्मन चारों ओर फैले हैं और मुझे अपनी सुरक्षा?
श्रोतागण: करनी है|
वक्ता: कर के दिखानी है| ये एक प्रकार का जीवन है, “चारों तरफ़ दुश्मनों की टोलियाँ तैयार खड़ी हैं और मुझे बचना है|” यह एक प्रकार का जीवन है, जिसमें आप की निग़ाह लगातार अपने को ठगने से बचाने पर और दूसरे को ठग लेने पर है| इसमें केन्द्रीय बात यही है कि जगत दुश्मन है, अस्तित्व शत्रु है|
और एक दूसरी दृष्टि है जो कहती है कि, “न, तुम शत्रु नहीं हो| जिस मिट्टी से मैं उठा हूँ मेरी दुश्मन कैसे हो सकती है? जिस जगत में मैं अपने आप को मौजूद पाता हूँ शरीर रूप में, मन रूप में, वो मेरा शत्रु कैसे हो सकता है? जिस श्रोत से मेरी ये चेतना अद्भुत होती है, वो शत्रु कैसे हो सकता है?” वहाँ आप सहज, सरल रूप से समर्पित हो कर खड़े हो जाते हैं, और आप कहते हैं, “मैं तैयार हूँ| मैं ठगे जाने को तैयार हूँ| आओ अपना असली रूप मुझे दिखाओ, मैं प्रस्तुत हूँ| मैं तैयार हूँ मेरी आँखें चौंधिया दो, मैं तैयार हूँ मेरे ऊपर प्रेम वर्षा कर दो|”
जो कृष्ण का अर्जुन को विराट रूप दिखाना, अर्जुन तैयार हो गया था ठगे जाने को| ‘कबीर आप ठगाइए और न ठगिए कोय|’ अनुमति दीजिए कि आपके साथ वो अद्भुत घटना घट सके| ‘हाँ’ कहिये कि जादू हो सके| ये दृष्टि मत रखिए कि आप कर देंगे, आप जो भी कर देंगे उसके पीछे कार्य कारण के नियम लगे होंगे, वो जादू नहीं हो सकता| वो श्रम हो सकता है, जादू की आपकी सामर्थ्य नहीं है| आप जो कुछ भी करेंगे उसके पीछे कारण होंगे| आप तो इतना ही कर पाएँगे कि दो इकाईयों का श्रम करें तो दो इकाईयों का फ़ल भी पा जाएँ, आप तो इतना ही करेंगे कि एक क़दम चलें तो एक क़दम आगे बढ़ जाएँ| आप ये नहीं कर पाएँगे कि चले एक क़दम और पहुँच किसी और आयाम में जाएँ, आप ये नहीं कर पाएँगे कि बिना कुछ करे सब कुछ पा जाएँ| ये जादू कहलाता है, ये आपके करे नहीं होगा| इसके लिए तो आपको सारा करना समर्पित कर देना होगा, “मैं अपना सारा कर्तत्व समर्पित करता हूँ| आओ मैं तैयार हूँ|”
जादू होता है अगर आप अपनी आँखों को अनुमति दें, जादू देख पाने की| ‘कबिरा आप ठगाइए’ आप ठगे से खड़े रह जाएँगे, लेकिन पहले अपने मन को अनुमति दीजिए कि हाँ, तुझ से आगे कुछ है, तेरे जो नियम हैं, तेरी जो दुनिया है, तेरी जो सोच है, तेरी जो धारणाएँ हैं, उनसे आगे कुछ है; मान, और कह कि है| और ज्यों ही श्रद्धा में विनय में मन कहता है कि है, हो सकता है| त्यों ही उसका सम्पूर्ण ऐश्वर्य आपको दिख जाता है| वो दिख सके आपको, उसके लिए पहले आप का मानना ज़रूरी है| पहले आप की अनुमति ज़रूरी है, आपको अपने आप को अनुमति देनी पड़ेगी कि हाँ, वैसा हो सकता है, मैं मानने को तैयार हूँ| जैसे-जैसे आप अनुमति देते जाएँगे, वैसे-वैसे संसार आपके लिए बदलता जाएगा|
और यह संसार आपके लिए एक मशीन है, जिसमे सब कुछ बंधे-बंधाए नियमों पर चलता है, जैसे एक मशीन में होता है| जब तक संसार मशीन है, तब तक आपको शान्ति नहीं मिल सकती क्योंकि संसार के मशीन होने का अर्थ होता है कि आपको लगातार श्रम करना पड़ेगा| आपको कुछ भी मिलेगा ही तभी जब आप श्रम करेंगे, जैसा कि मशीन में होता है| मशीन में आउटपुट तभी निकलता है जब पहले इनपुट जाता है| तो आपकी ज़िन्दगी सिर्फ़ खटने में बीतेगी, ज़िन्दगी में विश्राम सिर्फ़ तब मिल सकता है, जब आप मानें कि संसार मशीन भर नहीं है, संसार जादू है, जहाँ पर बिना कुछ किये सब मिल जाता है; मशीन में बिना कुछ किये कुछ नहीं मिल सकता|
हम सब की गहरी से गहरी अवधारणा यही है कि “जब तक करूँगा नहीं, पाऊँगा नहीं|” यही तो अहंकार है न कि अपने करे पाता हूँ, और यह कहने में हमें बड़ा आनंद मिलता है, “अरे मैं अपनी सुरक्षा नहीं करुँगी तो कल मेरा क्या होगा?” आपका बड़ा गहरा विशवास है कि जगत मशीन है| “कल को गाड़ी में तेल नहीं डला तो गाड़ी चलेगी कैसे?” आपको बड़ा विशवास है अपने तर्क पर| गाड़ी बिना तेल के चलेगी, आप गाड़ी को अनुमति तो दे कर देखिए| गाड़ी उड़ेगी बिना तेल के, जादू होगा, आप हाँ बोल कर देखिए| लेकिन नहीं उस हाँ बोलने में आप विगलित होते हैं, फिर आपकी क्या क़ीमत रह जाएगी?
“हमने तेल भराया नहीं तब भी चल रही है, हमें नहीं चाहिए ऐसी गाड़ी, भले उड़ती हो, हमें नहीं चाहिए| अरे हमने तेल भराया नहीं, हम खुद्दार हैं, हम सिर्फ़ उस गाड़ी में बैठते हैं जिसमे हमने अपनी ज़िन्दगी खटा-खटा के तेल भराया हो, अन्यथा हम बैठेंगे नहीं| जिस गाड़ी में कोई भी मुफ्त का तेल भरा दे, उस गाड़ी में बैठना हमारी तौहीन है| हम नहीं बैठेंगे|” जब तक आपका स्वाभिमान इतना प्रचंड है, तब तक आपको कुछ नहीं मिल सकता, भिखारी बनना पड़ता है| जो भिखारी बनने को तैयार है उसे सब मिल जाता है, जो हाथ फ़ैलाने को तैयार है उसे सब मिल जाता है, पर आप तो अभी…|
देखिए, ये दोनों भाव एक हैं: पहला, “मैं कर के दिखाऊँगा”, दूसरा, “मैं मजबूर हूँ|” दोनों में एक बात बिलकुल साझा है, क्या? “करना मुझे है, मैं न करूँ तो होगा नहीं| मैं चार दिन को घर कैसे छोड़ दूँ?” बड़ा गहरा अहंकार है| आप चलाते हो? आप छोड़ दोगे तो नाव डूब जाएगी? आप छोड़ दोगे तो नाँव डूब जाएगी? इतनी घोर नास्तिकता है? इतनी घोर नास्तिकता है? ‘कबिरा आप ठगाइए और न ठगिए कोय’, जो खुद खड़ा हो जाए कि “लूट लो मुझे” उस पर ऐश्वर्य की बारिश हो जाएगी| और जो अभी इसी जुगत में हैं कि “न न न न, हम कर लेंगे|” उसका जगत से सिर्फ हिंसा का नाता रहेगा, कबीर कह रहे हैं, “और न ठगिये कोय|” बात आ रही है समझ में?
बड़ी मज़ेदार बात है ना, ‘माया तो ठगनी भयी ठगत फिरत सब देश, जा ठग ने ठगनी ठगी ता ठग को आदेश’ पर उस ठग का आदेश भी आप पर लागू नहीं होता| लागू तभी होगा जब आप कहें कि “हो|” यह तो प्रेम की बातें हैं, जबरदस्ती में नहीं होती| वो बार बार पूछेगा “स्वीकार है? स्वीकार है?” आप कहोगे ही नहीं कि “है” तो कैसे होगा? आपका और परम का रिश्ता तो प्रेम का है| माया को भी वो ऐसे ही ठगता है, प्रेम में; और कोई तरीका ही नहीं है उसके पास माया को ठगने का|
माया को वो ऐसे नहीं ठगता कि, माया चालाक है तो वो और चालाक है, प्रेम में ठग ली जाती है बेचारी माया| माया में भी इतना भोलापन है कि वो प्रेम में ठग ली जाती है| माया भी एक स्थान पर आकर के कह देती है “हाँ” आप नहीं कहते| ‘जा ठग ने ठगनी ठगी, ता ठग को आदेश’ वो ठगनी भी ठग ली गयी, आप कब ठगे जाओगे? माया भी एक बिंदु पर आ कर के हथियार डाल देती है, माया कहती है, “हूँ तो तुम्हारी ही, मेरी वजूद तुम्हारे होने से है| तुम से ही तो उद्भूत हुई हूँ|” माया बड़ी समझदार है, इतना तो जानती ही है कि किसकी है और किस से जाकर के मिल जाना है| ‘हाँ’ बोल देती है, हम अभी तक हाँ नहीं बोल रहे, कब बोलेंगे?
और याद रखिएगा आप जब ‘हाँ’ बोलेंगे तो वो हाँ आप अनिश्चित को ही बोलेंगे, वो हाँ आप अज्ञात को ही बोलेंगे, तभी तो ठगे से खड़े रहे जाएँगे ना? यदि सब कुछ पता ही हो कि किसको हाँ बोल रहे हैं, तो फिर क्या था? आप नहीं जानेंगे| चाहें आज बोलें, चाहें आज से सौ जन्म बाद बोलें, जब भी बोलेंगे, बोलेंगे अज्ञात को ही ‘हाँ’; इसीलिए थोड़ी बहादुरी चाहिए, थोड़ी श्रद्धा चाहिए, अज्ञात को हाँ बोलना है ना| आपकी सारी कोशिश यह है, “हाँ बोल देंगे, पर पहले ठीक-ठीक बताओ किस को हाँ बोलनी है? कौन है यह परम, पहले पूरा-पूरा बताओ? तब हाँ बोलेंगे| और वो हमें ठग कर के हमारा क्या-क्या नुकसान करेगा पूरा-पूरा पता होना चाहिए?”
वहाँ पर खेल थोड़ा दूसरा है राहुल जी, जब हाँ बोल दो तब उसका पता चलता है| ऐसे नहीं होता कि दूर दूर से पहले पता चले और फिर हाँ बोलो| पता चलता है, बिलकुल पता चलता है, पूरा पता चलता है पर उनको पता चलता है जो न जानते हुए भी हाँ बोलते हैं| जिन्होंने अज्ञात को हाँ बोला, उन्हें ज्ञान मिल गया| जिन्होंने अनिश्चिता को हाँ बोल दिया, उन्हें परम निश्चिता मिल गयी|
तो थोड़ी सी बहादुरी चाहिए; ये बहादुरों का, सूरमाओं का काम है| आपकी पूरी कोशिश यह है, “पहले पक्का बताओ कि हमारा अपहरण हो जाएगा उसके बाद क्या होगा?” प्रेमी ऐसे नहीं पूछते, वो कहते हैं जो भी होगा प्रेम में ही होगा| और याद रखिएगा प्रेम की कमी उसकी ओर से नहीं है, वो तो प्रेम वर्षा करने को आतुर खड़ा है, प्रेम की कमी आपकी ओर से ही है|
हाँ बोलने में उसको कोई संकोच नहीं है| वो तो हाँ के अलावा कभी कुछ बोलता ही नहीं, आपको बड़ा संकोच है| आप तो उसको हर रूप में स्वीकार हो, वो तो आपकी बचकानी से बचकानी हरकतों को भी आदर दे रहा है| आप “न न न न” बोले जा रहे हो, वो आपकी न को पूरा आदर दे रहा है, रूठ ही नहीं रहा|” आप लगातार न ही न बोल रहे हो, प्रतिपल न बोलते हो, आपका हर क्षण नास्तिकता का है, आप न के अलावा और कुछ बोलते ही नहीं, वो तब भी बुरा नहीं मान रहा| वो तब भी कह रहा है “ठीक है, खड़ा हूँ| कभी तो हाँ बोलोगे|” हाँ बोल के देखिए|
सब कुछ तो करवा लिया दुनिया ने, इतने लोगों ने वैसे ही ठग लिया, जीवन घावों की एक लम्बी श्रंखला तो है ही, आप ज़रा एक और को मौका दीजिए कि वह आपको ठग ले| जब आपने अपनी पूरी चालाकियाँ, घोर चालाकियाँ कर लीं तब भी यह ही पाया है अंत में कि आप ठगे गए “बेवकूफ बन गया, कुछ और चाहिए था कुछ और मिल गया, कहीं और जाना था कहीं और पहुँच गए?” यही हुआ है न सदा? यही कहानी है न? मन माँगा तो कभी मिला नहीं है| जब भी शक्ल दिखती है आईने में, तो एक बेवकूफ की ही शक्ल दिखाई देती है| ठीक है कि नहीं है? इसी कारण अपनी शक्ल बदलने को हम बड़ा उत्सुक रहते हैं| वो शक्ल ही बेवकूफ की है| इतना बेवकूफ जब बना ही है तो एक और को मौका दीजिए कि वो आपको बेवकूफ बना ले|
डर मत जाओ कि “दुनिया ने इतना बेवकूफ बनाया, जिस पर ही भरोसा किया उसी ने भरोसा तोडा| अब कहीं परम भरोसा कर लिया तो कहीं परम रुप से न टूट जाए|” यही तो डर है कि “छोटों-छोटों पर भरोसा किया तो छोटी-छोटी चोटें लगी हैं और परम पर परम भरोसा कर लिया तो कहीं परम चोट न लग जाए|” नहीं वहाँ चोट नहीं लगती, वहाँ सिर्फ़ परम सहारा मिलता है, वहाँ सिर्फ़ परम विश्राम मिलता है| डोरी सौंप के तू देख एक बार| कबीरा आप ठगाइए| कबीरा आप ठगाइए|”