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तुम्हारी कमज़ोरियाँ कितनी खूबसूरत हैं, और बेवकूफ़ियाँ कितनी हसीन || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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तुम्हारी कमज़ोरियाँ कितनी खूबसूरत हैं, और बेवकूफ़ियाँ कितनी हसीन || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: वीडियो था ‘अपनी कमज़ोरियों से भिड़ जाओ’ तो उसके सम्बन्ध में थोड़ा प्रतिवाद है— अपनी कमज़ोरियों से कभी मत भिड़ो क्योंकि कमज़ोरियाँ भी आपके व्यक्तित्व का पहलू है। अपनी कमज़ोरियों पर विजय पानी हो तो स्वीकार करो कि हाँ, मैं हूँ ऐसा, कमज़ोरियों को स्वीकार करते ही कमज़ोरियाँ आपकी ताकत बन जाएँगी। जिस भी चीज़ को आपने स्वीकार कर लिया वो आप पर अपनी पकड़ कमज़ोर कर देती है, लड़ना नहीं है; न खुद से, न दूसरों से, बस सहजता पूर्वक स्वीकार करना है; क्योंकि कोई भी पदार्थ पूर्ण नहीं होता और न कभी हो सकता है। लड़ोगे तो हारोगे, स्वीकार करोगे तो जीतोगे।

आचार्य प्रशांत: आप बड़े संकट में हैं। जहाँ कहीं से भी आप ये दूषित दार्शनिकता उठाकर लाये हैं वो जगह आपके लिए शुभ नहीं है। वो जगह किसी के लिए भी शुभ नहीं है जहाँ से ऐसे सन्देश दिये जाते हैं कि अपनी कमज़ोरियों से कभी मत भिड़ो क्योंकि वो भी आपके व्यक्तित्व का पहलू है। सबसे पहले कमज़ोरियों का अर्थ क्या है? कमज़ोरी का अर्थ है वो सबकुछ जो आपको वो होने से रोकती है जिसके बिना आप चैन नहीं पाने वाले, वो आपकी कमज़ोरी है।

सच के बिना आप चैन नहीं पाने वाले लेकिन आपके भीतर कुछ बैठा है जो आपको झूठ से ही बाँधे रखता है वो चीज़ आपकी कमज़ोरी है जो आपको झूठ से ही बाँधे रखती है। आज़ादी बिना, मुक्ति, उड़ान बिना आप बैचैन ही रहते हो, बन्धनों में किसको चैन है? लेकिन आपके भीतर कुछ बैठा है जो आपसे कहता है कि नहीं, नहीं, नहीं तुम उड़ान के काबिल नहीं हो, तुम आकाश के लायक नहीं हो, तुम बन्धनों में ही पड़े रहो, तुम बन्धनों को ही स्वीकार कर लो। ये चीज़ आपकी कमज़ोरी है, इसे कमज़ोरी बोलते हैं।

जो कुछ आपको परेशान करता है और परेशान ही रखना चाहता है उसे आपकी कमज़ोरी कहते हैं। जो कुछ आपको छोटा और दुर्बल बनाए हुए है और छोटा और दुर्बल बनाये रखेगा उसे कमज़ोरी कहते हैं। अब आप कह रहे हो— ‘नहीं, कमज़ोरियों से मत भिड़ो क्योंकि वो आपके व्यक्तित्व का पहलू है।’ अरे होंगे पहलू, वो पहलू मुझे परेशान करता है तो मैं उसको निकालकर फेंक दूँगा न! मेरी ज़िम्मेदारी अपने व्यक्तित्व के किसी पहलू के प्रति थोड़ी है, मेरी ज़िम्मेदारी अपने प्रति है न, मेरे व्यक्तित्व के सब पहलू तो आती-जाती चीज़ें हैं। शरीर ने, समाज ने, जन्म ने, संस्कार ने व्यक्तित्व के पहलू दिये हैं इतना तो समझते ही होगे, आलोकचंद्र? व्यक्तित्व के जितने भी आपके पहलू हैं वो कहाँ से आते हैं? वो तो समय की धूल है जो आप पर पड़ती रहती है, कभी इधर से कभी उधर से। जैसे होली का दिन हो और आप सड़क पर निकल पड़ो कहीं से आप पर काला पड़ा, कहीं पर बैंगनी पड़ा, नीला पड़ा, पीला पड़ा, गुलाबी पड़ा ये सब व्यक्तितव के पहलू हैं।

तो आप क्या कहोगे कि जितना कुछ आपके ऊपर पड़ा हुआ है आप इसको रहने दोगे? ‘क्योंकि ये तो मेरे व्यक्तित्व का पहलू है।’ व्यक्तित्व का क्या पहलू है? ऊपर से आयी हुई चीज़ है वो परेशान करती है, चुभती है तो उसको हटा दो न। पैंट पहन रखी है आपने और वो पेट पर बिलकुल कस रही है तो उसको बदलोगे या नहीं बदलोगे? या ये कहोगे कि ये तो मेरे व्यक्तित्व का पहलू है?

पहलू हो चाहे पैंट हो जब वो तुमको बेचैन रखे है; साँस भी नहीं ठीक से लेने दे रहा है, तुम्हें तुम्हारे सहज, विराट, मुक्त स्वभाव में जाने नहीं दे रहा तो तुम उसके साथ समझौता कैसे कर लोगे? लेकिन समझौता कर लोगे अगर डरे हुए आदमी हो। जितना तुमने यहाँ पर दर्शनशास्त्र लिखकर भेजा है न, ये डर का दर्शन शास्त्र है, ये डर को बचाये रखने का है कि हम डरे हैं और डरे हुए ही रहेंगे।

कमज़ोरी को हटाने में मेहनत लगती है न भाई और कमज़ोरी से हमारा पुराना रिश्ता है। कमज़ोरी की हमारी आदत है तो कमज़ोरी में हमें अब सुरक्षा लगने लगी है। हम जानते खूब हैं कमज़ोरी को तो कमज़ोरी के साथ हम हिल-मिल गये हैं। कमज़ोरी जब हट जाएगी तब जो आएगा उससे हमारा कोई परिचय नहीं है। तो वो जो नया आगन्तुक है जो कमज़ोरी के हटने के बाद आता है हम उससे डर जाते हैं, हम कहते हैं, ‘वो अपरिचित है।’

कमज़ोरी कितना भी रुलाती है परिचित है और फिर मेहनत! कमज़ोरी आसानी से थोड़ी हट जाती है; मेहनत लगती है, कौन मेहनत करे जम्हाई लो सो जाओ, खाओ-पियो, तोंद फुलाओ, पड़े रहो और कोई कहे कि क्यों नहीं मेहनत कर रहे हो अपनी कमज़ोरियों को मिटाने के लिए? तो थोड़ा दर्शनशास्त्र झाड़ दो। कमज़ोरियों से कभी मत भिड़ो और ये सब जो आपने लिखा है फ़ालतू की बातें।

‘अपनी कमज़ोरियों पर विजय पानी है तो स्वीकार करो कि मैं हूँ ऐसा’।

‘हाँ, यहाँ तक ठीक है बिलकुल, स्वीकार तो करना ही पड़ेगा कि मैं हूँ ऐसा, स्वीकार का मतलब क्या होता है? स्वीकार करके रुक जाना या उसके बाद जान लगाकर मेहनत करना! स्वीकार तो करना पड़ेगा, स्वीकार कर लोगे कि मैं निहायती लालची आदमी हूँ, फिर क्या करोगे? फिर क्या करोगे मैं लालची आदमी हूँ चलो अब लालच का एक काम और करें। और ये तो कहो ही मत मैंने स्वीकार कर लिया कि मैं लालची आदमी हूँ तो तत्क्षण मेरा लालच तिरोहित हो जाएगा।

ऐसा नहीं होता! लालच एक-एक कोशिका में बैठ गया होता है, बहुत पुरानी आदत है। एक बार तुमने जान लिया कि तुम लालची हो उसके बाद बहुत मेहनत से उस लालच को हटाना पड़ता है। ये कोई बात नहीं है कि स्वीकार कर लो कि मैं लालची हूँ। उसके बाद वो लालच तुम्हारी ताकत बन जाएगा। कैसे बन जाएगा? भाई कौन सी परीकथा सुना रहे हो और फिर ये परीकथा भी तुम्हारी नहीं है आलोक, ये आधुनिक अध्यात्म की है।

ये नए-नवेले गुरुओं की भाषा है जो तुमने उधार ले ली है और मेरी तरफ़ उछाल दी है, और उन्होंने ये भाषा तुम्हें क्यों सुनायी है? क्योंकि जैसे उन्होंने तुमसे कहा कि नहीं, न संघर्ष की ज़रूरत है, न साधना की, न तपस्या की, अपने खिलाफ़ किसी युद्ध में उतरना नहीं है। वैसे ही तुम बिलकुल प्रसन्न हो जाते हो कि एक बढ़िया गुरु मिला, ये कह रहा है कि किसी संघर्ष की कोई ज़रूरत ही नहीं है, कोई मेहनत नहीं करनी है, कुछ छोड़ना नहीं है।

गुरुजी की दुकान चल जाती है तुम भी प्रसन्न हो जाते हो कि आन्तरिक आलस और डर को गुरुजी से अब मुझे वैधता मिल गयी, कोई तो मिल गया न जिसने मेरे आलस को और डर को सत्यापित कर दिया, सर्टिफाइ कर दिया कि ठीक है, जैसे हो ठीक हो।

‘कमज़ोरियों को स्वीकार करने से ही आप देखोगे कमज़ोरियाँ आपकी ताकत बन जाएँगी।’ अच्छा, तुम्हें गणित का सवाल नहीं आता तुमने स्वीकार कर लिया तुम्हें नहीं आता अब ये बात तुम्हारी ताकत बन गयी? तुमने जान लिया कि तुम्हें सवाल नहीं आता अब तो मेहनत शुरू होती है भाई! ये तो एक मूलभूत ईमानदारी की बात है कि तुम्हें सवाल नहीं आता तो तुम मान लोगे तुम्हें नहीं आता, लेकिन मानने भर से कुछ नहीं होगा उसके बाद क्या करना पड़ेगा? बहुत सारा श्रम, ये कैसे तुमने तुक भिड़ा दिया कि कमज़ोरियों को स्वीकार करते ही कमज़ोरियाँ ताकत बन जाएँगी? कैसे? हुआ है कभी तुम्हारे साथ या व्यर्थ का दर्शन झाड़ रहे हो?

‘जिस चीज़ को भी आपने स्वीकार कर लिया वह आप पर अपनी पकड़ कमज़ोर कर देती है।’ अच्छा, शराबी स्वीकार कर लेता है वो शराबी है तो उसका पीना छूट जाता है या कम हो जाता है? होता है ऐसा? कामुक आदमी अच्छे से जानता है कि वो हद दर्जे का सेक्सुअल परवर्ट (यौन विकृत) है तो इससे उसकी कामुकता कम हो जाती है? कौनसा कामुक आदमी है जो नहीं जानता कि उसकी कामुकता गन्धाती है, और वो गले तक, नाक तक कामुकता में डूबा हुआ है? सब जानते हैं न? और ये जानने भर से तुम्हारी कामुकता कम हो जाती है क्या?

नहीं, वो कम होती हैं जब तुम मुट्ठियाँ भींचते हो और एक सख्त संकल्प करते हो कि जीवन का परिवर्तन करना है, समय, ज़िन्दगी व्यर्थ नहीं जाने देने हैं; तब होता है।

‘लड़ना नहीं है, न खुद से, न दूसरों से।’ हाँ, क्योंकि लड़ने के लिए एक निडर इंसान चाहिए, डरपोक चूज़ों की बस की नहीं है लड़ना आलोक चन्द्र। ‘लड़ना नहीं है न खुद से न दूसरों से,’ अच्छा! दूसरे आ रहे हैं तुमको सौ तरह के बन्धनों में डालने तो क्या करना है? प्रेम गीत सुनाना है? खड़े-खड़े मुस्कुराना है? यही कर-करके तो न जाने कितनों की दुर्गति हो गयी। अध्यात्म की शुरुआत होती है नकार से, ‘न’ से, विरोध से। ये स्वीकार वगैरह बहुत आखिर की बातें हैं। कहाँ फँस गये तुम और किसने बड़ी चालाकी से आखिरी बात को प्रथम बताकर तुम्हारे सामने परोस दिया है?

“नेति-नेति” की प्रक्रिया होती है, ‘न-न-न नहीं, नहीं मानूँगा, नहीं सुनूँगा, नहीं झुकूँगा, लड़ूँगा, घुटने नहीं टेकूँगा।’ ‘नकार, नकार और नकार ये क्या तुम पाठ बता रहे?’ ‘लड़ना नहीं है न खुद से, न दूसरों से, बस सहजता पूर्वक स्वीकार करना है’ तो तुम सहजता पूर्वक जो बात मैंने कही उसे भी स्वीकार कर लो मुझसे काहें को लड़ने आ गये, काहें को इतना बड़ा तुमने चिट्ठा लिखकर भेज दिया।

यहाँ तो बता रहे हो बस सहजता पूर्वक स्वीकार करना है, इस बात को ज़रा अपनी ज़िन्दगी में ही आज़माकर देख लो, जो कुछ हो रहा हो तुम्हारे साथ देख लो उसे सहजतापूर्वक स्वीकार करके और कल्पना कर लो की कौन-कौनसी चीज़ें हो सकती हैं; वो सहजतापूर्वक स्वीकार करने की है क्या?

हाँ, सहजतापूर्वक स्वीकार करने में सुविधा खूब रहती है, कौन जाएगा रणभूमि पर खून बहाने! सहजतापूर्वक स्वीकार करो और कायर होने का ठप्पा न लग जाए तो बोलो, ‘न, हम कायर नहीं हैं हम दार्शनिक हैं, हमारे फ़लाने गुरुजी ने हमें ये दर्शन शास्त्र दिया है इसीलिए हम लड़ने नहीं आए। ऐसा नहीं हम कायर हैं, हम कायर नहीं, हम दार्शनिक हैं हम इसलिए लड़ने नहीं आये।’

नहीं, ये जो तुम्हारा पूरा दर्शन शास्त्र है ये कायरता के मुँह पर पहना गया बेईमानी का मुखौटा है। किसको बेवकूफ़ बना रहे हो?

‘लड़ना नहीं है क्योंकि कोई भी पदार्थ पूर्ण नहीं होता और न कभी हो सकता है।’ घटिया फ़िलोसॉफ़ी (दर्शन), पदार्थ नहीं हो, तुम चेतना हो। बिलकुल कोई पदार्थ पूर्ण नहीं होता, न हो सकता है; पर तुम पदार्थ हो क्या? तुम्हारे गुरुजी ने यही बताया है तुम्हें कि तुम पदार्थ हो? पदार्थ पूर्ण नहीं हो सकता लेकिन चेतना तो पूर्ण होने के लिए लालायित ही रहती है न लगातार! उसी पूर्णता को पाने के लिए ही तो तुम बेचैन हो, उसी पूर्णता को पाने के लिए तो हम और तुम जी रहे हैं न!

बिलकुल पदार्थ पूर्ण नहीं हो सकता, तुम्हारे हाथ की उँगलियाँ पूर्णता की माँग भी नहीं करतीं, करतीं हैं क्या? तुम्हारी नाक ने कभी बोला है मुझे पूर्णता चाहिए, तुम्हारी दाढ़ी ने बोला है? तुम्हारी तोंद ने बोला है? ये नहीं बोलते की हमें पूर्ण होना है, पूर्णता की माँग कौन करता है? हमारी चेतना, हम चेतना हैं आलोक, हम पदार्थ नहीं हैं।

ए, बी, सी। अध्यात्म की बहुत शुरुआती बात है यह, पदार्थ को नहीं पूर्ण होना होता पर तुम चेतना हो जिसे पूर्णता चाहिए और अगर उसे पूर्णता चाहिए तो उसे संघर्ष करना पड़ेगा, उसे लड़ना पड़ेगा किसके खिलाफ़? उन सब बन्धनों के खिलाफ़ जिन्होंने उसे माने चेतना को बाँध रखा है।

‘लड़ोगे तो हारोगे।’ जैसे तुम हो वैसे लड़ोगे तो निश्चित रूप से हारोगे कोई दो राय नहीं है। ये तुम्हारी पहली बात है जिसे मैंने भी स्वीकार किया। लड़ोगे तो हारोगे और इसी डर से तुम लड़ते ही नहीं, लड़ोगे तो हारोगे।

‘स्वीकार कर लोगे तो जीतोगे।’ अच्छा! ये चालाकी है। ये ऐसी सी बात है कि एग्ज़ाम (परीक्षा) दोगे तो फेल हो जाओगे और एग्ज़ाम नहीं दोगे तो टॉप कर जाओगे। गज़ब! एग्ज़ाम दोगे फेल हो जाओगे; मैं बिलकुल तुम्हारे साथ हूँ, तुम अगर कहते हो कि एग्ज़ाम दोगे तो एक बार फेल होओगे तो मैं कहूँगा, ‘नहीं, एग्ज़ाम दोगे, तुम पाँच बार फेल होओगे। तुम्हारी हालत ऐसी ही है।’ लेकिन तुमने दूसरी बात बोली न, एग्ज़ाम नहीं दोगे तो टॉप कर जाओगे ये खुद के खिलाफ़ षडयन्त्र है। अपने दुश्मन क्यों बन रहे हो? बाज आओ।

ऐसा ही सवाल है ये कह रहे हैं कि उद्धृत किया है कहीं से— ‘जहाँ हो वहीं मज़े में हो जाओ, न फ़कीर बनने की ज़रूरत है, न सम्राट बनने की, जो है उसे बस स्वीकार करो प्रभु का प्रसाद समझकर, जहाँ हो वहीं मज़े में हो जाओ।’ और गटर में हो तो? गटर में हो तो बाहर निकलोगे या बताओगे कि जहाँ हो वहीं मज़े में हो जाओ और प्रश्नकर्ता साहब अधिकांश मानवता गटर में ही है, उन्हें ये मत बताओ कि जहाँ हो वहीं मज़े में हो जाओ। हम ऐसी जगह फँसे हुए हैं जहाँ हमें नहीं होना चाहिए। मत बताओ कि जहाँ हो वहाँ मज़े में हो जाओ।

बार-बार ये बात याद रखना, पूछना और अगर गटर में हो तो? फिर पूछना क्या गटर में ही नहीं हो? और अब बताओ ये क्या सलाह दी जा रही है तुम्हें! तुम तो जिस जगह हो वहीं पर रहो। उसी में आगे और है— ‘परमात्मा की सृष्टि में हर चीज़ खिली हुई है तुम भी उसके साथ-साथ खिलो, झूमो, नाचो।’

यहाँ कौनसी चीज़ खिली हुई दिख रही है तुमको? भाई, कौनसा नशा करके ये सब बातें बोली गयी हैं? कैसे, क्या खिला हुआ दिख रहा है जिसको देखो वो बेहाल है, बदहाल है। कभी एक महामारी है, कभी दूसरी बीमारी है। कभी शारीरिक तल पर लाशें गिर रही हैं, कभी मानसिक तौर पर तुमको रुग्णता और मृत्यु दिखाई दे रही है। यहाँ तुम्हें क्या खिला हुआ दिखाई दे रहा है कि कह रहे हो कि खेलो, खिलो, झूमो,‌ नाचो, गाओ?

खेलना, खिलना, झूमना, नाचना, गाना ये सिर्फ़ चेतना के उत्थान के साथ सम्भव है। अन्यथा हमारी जो सामान्य स्थिति है, न उसमें खेल हो सकता है, न उसमें गीत हो सकता है, न उसमें क्रीड़ा, न उसमें आनन्द। जो कुछ भी ऊँचा है जीवन में वो मेहनत करके पाना पड़ता है और जो कुछ भी प्रकृति प्रदत्त है; उसमें इंसान तो लगातार बेचैन ही रहेगा।

ये अन्तर अच्छे से समझ लेना इसी जगह पर आकर बहुत सारे दार्शनिक भूल कर जाते हैं। वो भूल भी पता नहीं भूल है या जानबूझ कर करी गयी भूल। देखो एक खरगोश का बच्चा जैसा पैदा होता है न वो वैसा रहते-रहते अपने जीवनभर जितना भी उसका जीवन है, जब तक उसे कोई भेड़िया खा नहीं जाता, जितना भी उसका जीवन है। वो खरगोश का बच्चा जैसा पैदा हुआ है, वैसे ही रहते-रहते जीवन भर ये सबकुछ कर सकता है खेलना, झूमना, गाना इत्यादि-इत्यादि; वो नाच सकता है बिलकुल हो सकता है। उसे न कोई शिक्षा चाहिए, न उसे चेतना का आरोहण चाहिए उसे कुछ नहीं चाहिए। वो खेलेगा, झूमेगा, नाचेगा, गाएगा। लेकिन उसी खरगोश के बच्चे के साथ एक आदमी का बच्चा पैदा हुआ है वो नहीं खेल पाएगा, झूम पाएगा, गा पाएगा, नाच पाएगा; अन्तर है।

आदमी के बच्चे को बहुत मेहनत करनी पड़ेगी, अपनी चेतना को बहुत साफ़ करना पड़ेगा तब जाकर वो इस हालत में पहुँचेगा कि वो खेल पाये, झूम पाये, गा पाये, नाच पाये। लेकिन उसका उसको पुरस्कार ये मिलेगा कि आदमी का बच्चा जब नाचेगा और झूमेगा और गाएगा असली खेल, असली गीत, असली नृत्य, तो उसका खेल और उसका गीत खरगोश के बच्चे के खेल से बहुत ऊपर का होगा।

समझो बात को। इन दोनों के अन्तर को बहुत साफ़-साफ़ समझना वरना हमें कह दिया जाता है कि देखो जैसे फूल झूम रहा है हवा में वैसे तुम भी झूमो। और ये बात सुनने में इतनी आकर्षक लगती है कि हम कोशिश भी करने लगते हैं झूमने की, कि हम झूम रहे हैं। नाचो, हम भी नाचने लग गये। ये देखो हवा चल रही है, सब पेड़ नाच रहे हैं, गिलहरी भी नाच रही है तुम भी नाचो और कुछ मूर्ख नाचना भी शुरू कर देते हैं।

उन्हें लगता है हम भी नाचेंगे सब तो नाच रहे; हम भी नाचेंगे। देखो परमात्मा की सृष्टि में हर चीज़ खिली हुई है, हम भी खिल जाते हैं। तुम ऐसे नहीं खिल जाओगे यकायक समझो! खरगोश का बच्चा पैदा होते ही नाच-गा लेगा उसे जीवन भर किसी असेंशन की, उत्थान की, बेहतरी की, आरोहण की, उन्नति की कोई ज़रूरत नहीं है।

तो ये उसको एक सुविधा मिली हुई है कि जैसे हो तुम वैसे ही अपना मस्त रहो, वो अपना मस्त रह लेगा। लेकिन इंसान को सुविधा नहीं मिली हुई है, इंसान को एक चुनौती मिली हुई है। क्या? कि तुम्हें अगर नाचना है, खेलना है, झूमना है, गाना है तो तुम्हें बहुत आन्तरिक चुनौती करनी पड़ेगी, स्वीकार करनी पड़ेगी, तुम्हें संघर्ष करना पड़ेगा, तुम्हे ऊँचा उठना पड़ेगा।

तो ये आदमी को चुनौती मिली है लेकिन फिर इस चुनौती का पुरस्कार क्या मिलता है? कि जब आदमी अपनी चेतना के ऊँचे तल से नाचता है, गाता है, खेलता है, झूमता है तो उसमें जो गुणवत्ता होती है वो खरगोश के तल की गुणवत्ता से बहुत ऊपर की होती है। ये अन्तर स्पष्ट करना ज़रूरी है। लेकिन इस अन्तर को स्पष्ट करने की जगह गुरुदेव लोगों ने क्या करा है? उन्होंने कह दिया कि तुम भी तो खरगोश के बच्चे जैसे ही हो; देखो खरगोश का बच्चा कितनी आसानी से नाच रहा, गा रहा है तुम भी नाचो, गाओ। देखो, फूल हवा में कैसा नृत्य करते हैं तुम भी करो न।

अरे, फूल के लिए न कोई कर्तव्य होता है, न धर्म होता है, न संकल्प होता है फूल के पास चेतना ही नहीं है। फूल और आदमी में अन्तर है भाई। फूल और आदमी को एक ही तल पर क्यों रख रहे हो? एक ही तराजू में तोल मारा दो ऐसी चीज़ों को जो सामान हैं ही नहीं!

तो ये सब बातें नासमझी है और उन्होंने बहुत लोगों को बर्बाद किया, ये नहीं करनी चाहिए। आदमी पैदा होने का मतलब है एक कर्तव्यशील जीवन तुम्हें बिताना पड़ेगा, तुम्हें चुनौतियाँ स्वीकार करनी पड़ेंगी, उनसे तुम मुँह नहीं चुरा सकते, तुम्हें संघर्ष करना पड़ेगा। भिड़ो और आगे बढ़ो। अनवरत अनन्त यात्रा है ये एक। ठीक है?

प्र: अचार्य जी, ये जो चाह है कि हम भी झूमें नाचे उल्लास के साथ जियें। ये हर किसी की चाह है, लेकिन जब ये तथ्य; मैं अगर अपनी भी बात करूँ तो अगर ये तथ्य मेरे सामने आता है कि यहाँ तक पहुँचने के लिए भी बहुत सारा संघर्ष है, बहुत दर्द से निकलना पड़ता है, बहुत सारी चीज़ें जो करनी पड़ती है। तो फिर पहला जो तर्क आता है मन से वो यही आता है कि जीवन तो छोटा है और अनिश्चित है तो इतना दर्द क्यों उठाएँ? इससे अच्छा है कि नाचो।

आचार्य: वो जो तुम नाचोगे न उस नाच में तुम्हें कोई सुख मिलेगा नहीं क्योंकि आदमी जब खरगोश बनकर नाचने लगता है तो ये आदमी का अपमान हो गया। नाचा दो तरीके से जा सकता है, एक बिलकुल ऊँचे बढ़ जाओ तो भी गीत आ जाएगा, नृत्य आ जाएगा, झूमने लगोगे। और एक है कि बिलकुल गिर जाओ तो भी नाचने-झूमने लगोगे।

जो गुरु लोग तुमको ऊँचा नहीं उठा सकते वो फिर एक सस्ता और घटिया तरीका अपनाते हैं। वो कहते हैं इनको हम ऊँचा उठा नहीं पा रहे तो ऐसा करते हैं इनको नीचे गिरा देते हैं, नीचे गिर जाएँ, फूल जैसे हो जाएँ, ये खरगोश जैसे हो जाएँ। फूल जैसा हो जाना, खरगोश जैसा हो जाना इसमें तुम्हारे लिए कोई बड़प्पन नहीं है, ये तुम्हारा अपमान कर दिया गया। क्योंकि फूल और खरगोश में क्या नहीं होती? चेतना की ऊँचाई नहीं होती, अब तुम उनकी तरह होकर के नाच रहे हो अगर तो तुम्हारे लिए कोई अच्छा नहीं है।

इसीलिए फिर इस तरह के गुरु लोग अध्यात्म में ड्रग्स को भी प्रोत्साहित करते हैं, सैकेडलिक्स को। वो कहते हैं मुक्ति के साथ जो आनन्द आता है वो दिला पाने के तो हम काबिल हैं नहीं, तो एक काम करते हैं अपने लोगों से कहते हैं कि तुम गाँजा फूँको या और ड्रग्स हैं उनको लो और झूमो और जो तुम झूमोगे तो हम बता देंगे कि यही तो आध्यात्मिक आनन्द है।

शराब पीकर जो आदमी झूम रहा है और जो आदमी गिलहरी बनकर झूम रहा है और जो आदमी सूरजमुखी का फूल बनकर झूम रहा है; ये तीनों आदमी अपनी चेतना को गिराकर झूम रहे हैं और चेतना को गिराकर तुम झूम भी लोगे तो वो तुम्हारे लिए बहुत कष्टप्रद होगा। वो टॉर्चर (यातना) है। जैसे कि कोई आदमी है तो अन्दर से दुःखी और तुम उसको बोल रहे हो, ‘नाचो, तो नाच तो देगा; कभी हुआ है तुम्हारे साथ की तुम हँसना नहीं चाहते पर ज़बरदस्ती हँसना पड़ रहा है।’

कहीं पहुँच गये हो पार्टी वगैरह में, तुम नाचना चाहते नहीं पर तुमसे कह दिया वो दूल्हा वो घोड़ी तुम भी नाचो और तुम नाच रहे हो और नाच नहीं रहे हो तो किसी ने तुम्हारे मुँह में बिलकुल बोतल डाल दी तो तुम भी डाउन हो गये या कह दो हाइ हो गये और तुम भी लगे नाचने। उसकी बहुत तुम्हें मीठी और आनन्दप्रद यादें हैं क्या? या उस घटना को तुम एक अपमान की तरह एक कड़वाहट के साथ याद करते हो? बोलो, बोलो।

आदमी को हँसी ऊँचाइयों पर ही शोभा देती है, आदमी को नृत्य आज़ादी में ही शोभा देता है। कैदी हो तुम, बन्धक हो और अपनी ज़ंजीरें बजा-बजाकर, खनखना-खनखनाकर नाच रहे हो तो धत्त तेरी की! जलील आदमी हो तुम। लेकिन यही सिखाया जा रहा है कि तुम जेल में हो कोई बात नहीं बाहर आने की कोशिश न करो, तुम तो नाचो और नाचकर अपनेआप को बता दो कि बाहर आने की तो ज़रूरत है ही नहीं।

वैसे शायद बाहर आ भी जाते पर अब नाचना शुरू कर दिया, कभी बाहर नहीं आने वाले।

प्र२: और जैसे आज का जो बाज़ार है जो लगातार हमें हमारे दुखों को छुपाने के बाद कहता है कि आपको संघर्ष की ज़रुरत नहीं है आपको और ज़्यादा एक्सेप्टेंस , भोगने की ज़रुरत है, कि आप और भोगें, और खरीदें, और खाएँ, और पिएँ, और खुश रहिए। तो जब इतना सबकुछ है उपलब्ध तो कोई क्यों बढ़ना चाहेगा? क्यों वो अपनेआप को इस संघर्ष से उतारेगा? क्योंकि जीवन का मतलब ही आपको लगातार यही सिखाया जा रहा है कि है इसी में कि खाओ-पिओ, ऐश करो।

आचार्य: जो भोग रहे हैं न उनके लिए भोग रोग जैसा है। भोगते हैं, रोते हैं, भोगते हैं, रोते हैं। भोगने से अगर तुमको वाकई आनन्द मिल रहा हो तो भोग लो, फिर क्या तकलीफ़ है और भोगने से काम बन ही रहा होता तो फिर तो बढ़िया ही बात थी भोग ही लो। और कोई आये और पूरी ईमानदारी के साथ कह दे कि चीज़ें भोगकर, फर्नीचर खरीदकर और इधर-उधर देश-दुनिया घूमकर मज़े लेकर के उसको बिलकुल आनन्दपद की प्राप्ति हो जाती है तो मैं कहूँगा, शाबाश! बहुत अच्छी बात है, फिर तो जो करे जा रहे हो करे जाओ और करो।

प्र ३: आप बार-बार कहा करते हैं कि जानो, जानो पूरा जानो, हासिल क्या होगा पूरा जानकर?

आचार्य: मैं नहीं बताता। कैसा लगा? तुम वाकई इतने बेहोश हो या मेरी सेवा में अपना मज़ाक प्रस्तुत करते हो? कि सर बड़े टेंशन में नज़र आते हैं, अक्सर तो इनसे कुछ मज़ाक कर दिया करें। साहब ये जानने के लिए सवाल पूछ रहे हैं कि हासिल क्या होगा जानकर। अरे अगर जानकर कुछ हासिल नहीं होगा तो तुम ये भी क्यों जानना चाहते हो कि क्या हासिल होगा जानकर? अगर उत्तरों की कोई कीमत नहीं होती तो तुम्हें इस सवाल का भी उत्तर क्यों चाहिए होता?

पर अभी मैं तुम्हें इसका एक सही उत्तर न दूँ तो बेचैन रह जाओगे, एक अधूरापन पकड़ेगा। है न? इसलिए जानना पड़ता है। हमारी जो चेतना है वो ज्ञानधर्मा है। उसको अगर ज्ञान नहीं मिलता तो वो अधूरी रह जाती है। वो जानना चाहती है, समझना चाहती है। ये स्वभाव है तुम्हारा। इसपर प्रश्न नहीं लगा सकते तुम कि ऐसा स्वभाव क्यों है?

ऐसा है! ऐसा है! बस तुम्हें जानना है। और अगर तुम पूछोगे, ‘क्यों जानना है?’ तो मैं कहूँगा, इसीलिए जानना है, उसीलिए जानना है जिस वज़ह से तुमने ये सवाल पूछा है। मुझसे मत पूछो क्यों जानना है, अपनेआप से पूछो कि तुम्हें क्यों जानना है; कि क्यों जानना है। जिस वज़ह से तुम्हें ये जानना है कि क्यों जानना है वो वज़ह ही तुम्हारे सवाल का जवाब है।

हर आदमी जानना चाहता है, हर आदमी को जानना भी है तो क्या? सच। इसीलिए जब तुम जानना चाहो और तुम्हें कोई झूठ बोल दे तो तुम्हें अच्छा नहीं लगता, लगता है? दो बातें देख लो— पहली बात, तुम हमेशा उत्सुक रहते हो, जिज्ञासु रहते हो, तुम्हें कुछ पूछना है, जानना है; आँखें भी इधर-उधर देखती रहती हैं; क्या चल रहा है पता करें, हो क्या रहा है, इधर क्या हो रहा है, उधर क्या हो रहा है। छोटा बच्चा भी ये सब कर रहा होता है, कभी सिर इधर करेगा, कभी आँख इधर करेगा, कभी हाथ उधर को बढ़ाएगा।

ये सब क्या है? हमें जानना है पहली बात, दूसरी बात यूँ ही कोई फ़ालतू चीज़ नहीं जाननी है, अपनी क्षमता अनुसार तुम सच जानना चाहते हो इसीलिए बड़ा धोखा लगता है जब कोई झूठ बोल जाता है। समझ में आयी बात?

तो ये बात स्वभाव की है इस पर व्यर्थ का सवाल नहीं उठाते कि मैं क्यों जानूँ। ‌अभी भी तुम जानना ही चाह रहे हो कि तुम क्यों जानो!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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