तुम्हारी चालाकी ही तुम्हारा बंधन है; जो सरल है वो स्वतंत्र है || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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तुम्हारी चालाकी ही तुम्हारा बंधन है; जो सरल है वो स्वतंत्र है || आचार्य प्रशांत (2015)

आचार्य प्रशांत: प्रश्नकर्ता ने कहा कि, "पिछले कुछ वर्षों से मुझे लगातार असफ़लताएँ मिल रही हैं लेकिन उससे मुझपर कुछ ख़ास प्रभाव पड़ नहीं रहा है। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं इस खेल का हिस्सा हूँ ही नहीं। ऐसा क्यों हो रहा है?"

ऐसा नहीं है कि तुम पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ रहा है। थोड़ा प्रभाव तो पड़ रहा है इसी कारण यह सवाल पूछ रहे हो। भीतर से भले ही तुम्हें यह भाव ना उठता हो कि तुम असफल हो गए, लेकिन निश्चित रूप से तुम्हारे बाहर, तुम्हारे चारों ओर ऐसी आवाज़ें हैं जो तुम्हें यह एहसास कराना चाहती हैं कि तुम असफल हुए। तुम्हें भले ही ना लगता हो कि कुछ गड़बड़ हो गई लेकिन और लोग हैं जो निश्चित रूप से तुमसे यह कह रहे हैं कि गड़बड़ हो रही है। क्या ऐसा है? और यही वजह है कि तुम सवाल पूछ रहे हो। जो असली है वो तुम्हारी मदद कर रहा है। तुम बड़े क़िस्मत वाले हो। वो तुम्हारे भीतर बैठा है और भीतर से तुमको निश्चिंत कर रहा है। निश्चिंत माने समझते हो? जिसको चिंता ना हो। वो तुम्हारे भीतर बैठा है और तुमको निश्चिंत कर रहा है कि, "क्यों नाहक परेशान होते हो, यह सफलता-असफलता कोई ख़ास अर्थ रखती नहीं हैं!" वो तुमसे कह रहा है, “मस्त रहो, मग्न रहो।”

लेकिन उसके प्रति तुम्हारा समर्पण अभी पूरा नहीं है। इसी कारण तुम्हें उसकी आवाज़ के अलावा और भी आवाज़ें सुनाई दे रही हैं। और यह दूसरी आवाज़ें भीतर वाले से विपरीत बातें कर रही हैं। यह तुमसे कह रही हैं, “अरे, सफ़लता बड़ी बात है, असफ़लता बड़ी व्याधि है।” और तुम अगर इनसे पूछो कि, "सफलता-असफलता क्या?" तो यह कहेंगी कि, "सफलता और असफलता को ‘हम’ परिभाषित करेंगे। ‘हम’ तुम्हें बताएँगे कि इस तरह की अगर घटना हो जाए तो उन्हें तुम सफलता कहना, यह घटनाएँ हो जाएँ तो उन्हें तुम असफलता कहना।"

इन बाहर वालों का खेल समझो। यह पहले तो तुम्हें यह तय कर के दे देते हैं कि असफल किसको बोलते हैं और सफल किसको बोलते हैं; यह तय किसने किया, तुमने नहीं किया, उनहोंने तय किया। और उसके बाद यह तुमपर ठप्पा लगा देते हैं कि तुम सफल हो या असफल हो। इन दोनों बातों को मिलाओ, यह तय करते हैं कि सफल माने क्या, और फिर यह तय करते हैं कि सफल होना बड़ी बात, तुम्हें सफल होना ही पड़ेगा। इन दोनों बातों को मिलाओ तो तुम्हें दिखाई देगा कि यह तुमसे कह रहे हैं कि तुम हमारी ग़ुलामी करो – “हमने तुम्हें बताया न कि उधर जाना सफलता का नाम है और हमने तुम्हें यह भी बताया कि अगर तुम सफल नहीं हुए तो तुम्हारा जीवन निरर्थक।”

इन दोनों बातों को मिलाओ तो क्या सामने आया? कि यह तुमसे कह रहे हैं, "उधर जाओ।" सीधे-सीधे आदेश नहीं दे देते तो बात को इतना घुमा फिरा कर कहते हैं क्योंकि अगर सीधे-सीधे आदेश दे देंगे तो हो सकता है तुम विद्रोह कर दो। अगर सीधे-सीधे आदेश ही दे देंगे तो यह खेल तुम्हारे सामने प्रकट हो जाएगा। तुम इनके झाँसे में नहीं आओगे इसीलिए इतना बड़ा स्वांग रचा जाता है। तुम्हारे मन में इस प्रकार के मूल्य स्थापित किए जाते हैं कि इस चीज़ को सफल मानना।

देखा है कभी यह तुमने कि तुमसे दो बातें हमेशा कही जाती हैं- सफ़लता क्या है, यह बाहर वाला आकर बताता है और यह बात भी बाहर वाला आकर बताता है कि सफल होना ज़रूरी है। एक बार यह दोनों बातें तुम्हारे मन में बैठा दी गईं, तो अब तो तुम उसी दिशा चलोगे न जिस दिशा तुम्हें यह बाहर वाले ले जाना चाहते हैं। इन बाहर वालों को बड़ी तकलीफ़ होती है जब किसी के भीतर से आवाज़ आनी शुरू हो जाती है। और मैं कह रहा हूँ कि बाहर वालों को जो असुविधा हो रही है वो तुम्हारा परम सौभाग्य है। बाहर वालों को जो तकलीफ़ हो रही है वो तुम्हारी बड़ी क़िस्मत है।

तुम बाहर की आवाज़ यदि कम सुन पा रहे हो तो यह प्रमाण है इस बात का कि कोई और आवाज़ है जो तुम्हें सुनाई देने लगी है और कोई और धुन है जिसपर अब तुम नाचना चाहते हो। वो बाहर की छिछोरी धुनों की तरह नहीं है। वो कोई बड़ी सूक्ष्म सी बात होती है, जैसे मौन का मधुर संगीत। बाहर वाले नहीं समझेंगे उसको। तुम्हें यह बिना माँगे मिला है। असल में यह मिलता ही बिना माँगे है। अनुकम्पा तुमपर यही है कि जो बिना माँगे मिलता है वो तुमसे अभी छिना नहीं है। उसका मिलना तुम अभी भूल नहीं गए हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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