तुम्हारे लिए जगत न मिथ्या है, न मिथ्या कहो || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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तुम्हारे लिए जगत न मिथ्या है, न मिथ्या कहो || आचार्य प्रशांत (2014)

श्रोता: सर, कई बार एसा होता है कि ये जो बात है कि माइंड जो कुछ भी दिखा रहा है वो सब झूठ है, इसको माइंड नकार देता है। पर फिर बैठ के सोचते हैं तो इस दुनिया का कोई आधार भी समझ नहीं आता।

वक्ता: नहीं, ‘झूठा’ जो है न, वो तो मन का एक परिकल्पना होता है। जब आप मन को कोई चीज़ बोलते हो कि झूठी है, तो वो उसको उसी अर्थ में जांचता है जिस अर्थ में उसने ‘झूठा’ शब्द समझ रखा है। अब आप ‘झूठा’ आम तौर पर किसको बोलते हो? जो कि गैर-तथ्यात्मक है। जब कोई गैर-तथ्यात्मक बात करता है, तो आप क्या बोलते हो? “तू झूठा है।” (एक ऊँगली दिखाते हुए) ये दो उंगलियाँ है, तो आप मुझे बोलोगे?

श्रोता: झूठा है।

वक्ता: तो अभी आप सत्य के लिए थोड़ी ही ‘झूठा’ शब्द इस्तेमाल कर रहे हो। आप झूठा किसके लिए बोल रहे हो?

श्रोता: गैर-तथ्यात्मिक बात को।

वक्ता: अब आप बोलो कि ये जगत झूठा है, तो जगत तथ्यात्मिक है कि नहीं है? और आप बोल रहे हो कि झूठा है। तो ये तो आपने अपनी परिभाषा ही गलत कर दी न। आप जो झूठा शब्द इस्तेमाल करते हो, वो क्या जांचने के लिए इस्तेमाल करते हो? तथ्य। अब आप बोलो कि जगत झूठा है, तो ये बात गलत है। बिल्कुल गलत है। जगत को झूठा नहीं बोला जा सकता, जगत को बस यही बोला जा सकता है कि ऐसी-ऐसी इसकी प्रकृति है, ऐसा है। इन्द्रियगत है, द्वैतवादी है। झूठा बोलेगे तो परिभाषाओं में टकराव हो जाता है, पहले से एकत्रित की हुई परिभाषा से टकराव हो जा रहा है। अर्थ सम्बंधित परेशानी है। समझ रहे हैं न?

झूठे की क्या परिभाषा है? ‘झूठ’ को परिभाषित करो? जब कुछ गैर-तथ्यात्मक होता है, तो हम उसे झूठा बोल देते हैं। अब क्या जगत तथ्य है या नहीं? तो आप उसे झूठा कैसे बोल सकते हैं? इसलिए मन विरोध करता है। तो उसको झूठा मत कहिये न। कोई सही शब्द पकड़ लीजिये। ‘अप्रक्षेपित जगत’। अब ठीख है। यह ‘अल्पकालिक जगत’। अब भी ठीक है। यह ख्वाब जैसा जगत, अब भी ठीक है, ‘द्वैतवादी जगत’ अब भी ठीक ही। ‘गलत’ बोलेंगे तो वो मन के सॉफ्टवेयर में उलझ कर रह जाएगी वो बात। समझ रहे हैं?

फिर शान्ति से जब दुनिया को देखें, तो उसको ये नाम भी देने की कोई विशेष ज़रूरत नहीं है कि झूठा है, या सच्चा है? नहीं तो ये एक तरह का इल्ज़ाम ही है दुनिया पर- “तू झूठी है।” और इल्ज़ाम कौन लगा रहा है? जो खुद अपनेआप को उस दुनिया का वासी ही मानता है। तो ये कहने की ज़रूरत नहीं है कि झूठा है।

क्या होता है न कि आध्यात्मिकता में अगर सिद्धांतों का या नैतिकता का मिश्रण हो गया, तो जल्दी ही मन विरोध कर देता है और फिर आध्यात्मिकता भी बहुत दिन चल नहीं पाती। बंदे को ड्रॉप-आउट करना पड़ता है। अब जैसी यही बात थी, ‘झूठे’ वाली। एक दिन ऐसा आएगा जब आपका मन आपको चिल्ला कर के कहेगा, “दुनिया झूठी है क्या? नहीं हैं न! नहीं है न! तो फिर पढना बंद कर ये सारी किताबें। यें झूठ बोल रही हैं। जब दुनिया झूठी नहीं है, तो ये सारी किताबें गलत हुईं। तो बंद कर इनको।” समझ रहे हैं? और ये आपको बिलकुल अलग काट देगी। फिर ये किताबें आपसे हमेशा के लिए छूट जाएंगी।

आध्यात्मिक पथ वही खांडे की धार होता है। बार-बार कहते हैं न कबीर, “अति सांकरी गली,” इसका मतलब ही यही होता है कि उसमें भटकने की कोई गुंजाइश नहीं है। उसमें दाएं-बाएँ की कोई गुंजाइश नहीं है। अगर आपकी व्याख्याएँ, परिभाषाएं, पाँच प्रतिशत भी दूषित हैं, तो आप गिर जाओगे। अगर आप जो उस चीज़ को समझ रहे हो, उसमें एक रत्ती की भी मिलावट है, तो आप बहुत जल्दी गिर जाओगे। इसीलिए लोग आगे नहीं बढ़ पाते क्योंकि जो भी उनको अनुवाद मिलते हैं, या भावार्थ मिलते हैं, वो सब दूषित होते हैं, संक्रामित। फिर वो गिर जाते हैं। जो बिलकुल साफ़ बात होगी, वही चल पाएगी सीधे। बिलकुल साफ़ होनी चाहिए।

मन तर्क की तलाश में रहता है लगातार।

मन समझ लीजिये शक्की पति है। उसको रोज़ अपनी बीवी की अग्नि-परीक्षा करनी है। तो आपके जो भी आध्यात्मिक ज्ञान हैं न, मन उनको लगातार इधर-उधर से परीक्षा करके, खोट निकालने की कोशिश में लगा रहता है। मन का काम ही यही है। आप यहाँ पर बैठे हैं। मैं जो कुछ भी बोल रहा हूँ, आपको क्या लग रहा है, थोड़ी देर बाद आपका मन क्या कर रहा होगा? सामने से नहीं, बैकग्राउंड में, क्या कर रहा होगा? वो इस पूरे मसाले को जितनी हद तक टेस्ट करके और विश्लेषण करके खोट निकालने की कोशिश कर सकता है, और वो वही करेगा।

तो मन लगातार क्या कोशिश कर रहा है? मन तो इसी कोशिश में लगा ही हुआ है कि कुछ गलती निकल जाए। समझ रहे हैं? वो तो लगातार अग्नि-परीक्षा लेने में लगा हुआ है। “कुछ तो गलत होगा ही?” और एक उसको मिल गई गलत-चीज़, तो वो कहेगा कि जब एक चीज़ गलत हो सकती है, तो बाकी सब भी तो गलत हो ही सकता है। तो वो कहेगा- “हटाओ, हटाओ! सब हटाओ।”

तो आध्यात्मिकता के नाम पर कोई भी खोट वाला सिद्धांत मत पलने दीजियेगा मन में।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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