तुम्हारा मन तुम्हारा है भी? || आचार्य प्रशांत, बाबा बुल्लेशाह पर (2019)

Acharya Prashant

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तुम्हारा मन तुम्हारा है भी? || आचार्य प्रशांत, बाबा बुल्लेशाह पर (2019)

बलिया आशिक़ होइआ रब्ब दा, मलामत हुई लाख, तैनूं लोकीं काफ़िर आखदें, तूं आहो-आहो आख। ~ संत बुल्लेशाह जी

बुल्ला रब का आशिक़ हो गया है और चारों तरफ़ से लानतें मिल रही हैं। लोग आकर के रब के आशिक को काफ़िर कह रहे हैं और बुल्लेशाह इसे स्वीकार कर रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: लोग तुझे कह रहे हैं 'काफ़िर', कह रहे हैं, 'काफ़िर, काफ़िर', और तू कह रहा है, 'आहो, आहो।' आहो माने? ‘हाँ।’ तो बुल्ला रब का आशिक़ हुआ, अब चारों तरफ़ से लानतें ही मिल रही हैं। छी-छा लेदर! और लोग आकर रब के आशिक़ को क्या कह रहे हैं? काफ़िर, काफ़िर। बुल्ले कह रहे हैं वो तुझे जितना बोलें ‘काफ़िर’, तू उतना बोल ‘आहो, आहो; ठीक। ठीक है।’

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सत् श्री अकाल। बाबा बुल्लेशाह जी के इस दोहे में कहा गया है कि लोग आपको काफ़िर या भटका हुआ कहते हैं, तो आप कहो, 'हाँ, काफ़िर हूँ।' आचार्य जी आपने एक सत्र में कुछ दिन पहले कहा था कि उपेक्षा का गुण साधना में बड़े काम की चीज़ है, लेकिन दुनियावाले बोलें तो उपेक्षा की जा सकती है, उपेक्षा तब कैसे करें जब अपने ही मन का कोई कोना हम पर लानतें भेजे?

अपने ही मन को उपेक्षा की दृष्टि से देखना बड़ा मुश्किल है, बहुत जल्दी हम हिल जाते हैं, डिग जाते हैं। कृपया राह दिखलाएँ, धन्यवाद।

आचार्य: तुम्हारा मन (हँसते हुए), कर बैठे चूक! देखो न, भेद कहाँ खींच रहे हो। कह रहे हो, ‘आचार्य जी, आपने सिखलाया था कि उपेक्षा, अवहेलना, अनदेखा, अनसुना करना साधना में बड़े काम का गुण है। कि इधर-उधर की बातों की, व्यर्थ चीज़ों की उपेक्षा करते चलो, इग्नोर (नज़रअंदाज) करते चलो।’ ये बोला होगा मैंने कभी आसपास। कह रहे हैं, 'आपने तो बोला।’ और ये बात भी ठीक है कि लोग काफ़िर-काफ़िर बोलें और तू आहो-आहो बोलता चल। तो ये बात तो बड़ी अच्छी है कि उपेक्षा करो उनकी। उनकी तो कर दो, अपनी कैसे करो! ये सवाल है।

तो अपना ही मन अगर तुम पर सवाल उठाये, अपना ही मन अगर तुम्हें बोलना शुरू कर दे कि तू काफ़िर है — काफ़िर माने अधर्मी, विधर्मी या धर्मभ्रष्ट, पापी कह लो; जिसने कुफ़्र पकड़ लिया। अपना ही मन अगर अपने पर लानतें भेजने लगे तो क्या करें? तो गड़बड़ ये हुई कि कह रहे हो, 'अपना मन।' ग़लत जगह विभाजन कर रहे हो। ये विभाजन कुफ़्र है।

विभाजन बस एक है असली। कौनसा विभाजन? जब तुम देखो कि एक वो है और दूजी उसकी क़ुदरत। अगर विभाजन देखना भी है तो बस यही देखो — एक वो, दूजी उसकी क़ुदरत। और क़ुदरत, संसार, चूँकि उसकी है, इसीलिए उससे अभिन्न है, तो ले-देकर बचे एक। इनके अलावा जगत में तुम जितने विभाजन करते हो वो सब गड़बड़ हैं। देखो, जब भी विभाजन करोगे, तो एक अच्छा एक बुरा हो जाएगा न? किसी भी जगह अगर तुम्हें दो दिख रहे हैं, तो उन दो में एक पसन्दीदा हो जाएगा, एक नापसन्द हो जाएगा, एक ऊँचा हो जाएगा, एक नीचा हो जाएगा। कुछ तो दोनों में अन्तर देखोगे, और जहाँ अन्तर है वहाँ ममता है।

जहाँ अन्तर है, वहाँ मोह है और आसक्ति है।

जहाँ दो हैं, वहाँ तुम दो में से किसी एक से तो संयुक्त हो ही जाओगे।

बात समझ रहे हो?

तो इसीलिए ये अन्तर मत देखो कि लोग अलग हैं, और तुम्हारा मन अलग है। अभी तुमने ये अन्तर देखा है। तो तुम कह रहे हो कि लोगों की उपेक्षा करना आसान है, अपने मन की उपेक्षा कैसे करें। तुम दोनों को अलग-अलग देख रहे हो न। तुम समझ रहे हो लोग एक इकाई हैं, और ये जो मन है, ये अलग इकाई है। तभी तो तुम इसको कह रहे हो 'मेरा मन’।

मेरे लोग तो नहीं कह रहे न, मेरा मन कह रहे हो। अब ये ‘मेरा मन’ कहाँ से तुम्हारा है भाई? ये उतना ही पराया है जितना पराया संसार है। संसार को तो कहते हो पराया, और मन को कह देते हो 'मेरा मन'; यहीं पर चूक हो रही है। और संसार पराया बनकर कभी तुम पर न हमला करेगा न कब्ज़ा, संसार तो अपना बनकर ही पकड़ेगा तुमको। जब तक संसार पराया है तब तक तो फिर भी ग़नीमत है, बचे रहोगे। जिस क्षण वो अपना हो गया, बचना बहुत मुश्किल हो जाता है।

परायी वस्तु को कौन बहुत अधिकार या महत्व देता है! दिक्क़त तो तब आती है न जब वो चीज़ अपनी हो जाती है। समझाने वाले इतना तो समझा गये कि मन की कोई सामग्री मौलिक होती नहीं, मन की कोई भी सामग्री उसकी अपनी होती नहीं। मन में जो कुछ है वो कहाँ से आया? संसार से आया। तो संसार को तो कह रहे हो पराया, और ये मन कहाँ से आया? मन संसार से ही आया, तो मन को फिर तुमने कैसे अपनाया?

संसार है यदि पराया, तो मन को तुमने कैसे अपनाया जबकि मन संसार से ही आया। ये तो गड़बड़ हो गयी न। यही मूल चूक है, यहीं मात खा रहे हो। मन अगर तुम्हारा है, तो फिर तो तुम संसार के ही हो गये। ये कुफ़्र हो गया। अब तो तुम आहो-आहो बोलते ही रहो। अब तो दुनियावाले बिलकुल ठीक कह रहे हैं कि काफ़िर ही हो। काफ़िर कौन? जो मन को अपना समझे। काफ़िर वही नहीं है जो संसार में खोया हुआ है, काफ़िर वो भी है जो कहे, 'मेरा मन।'

मन नहीं अपना है। मन अगर तुम्हारा ही है, अपना ही है, तो तुम फिर मन से ही प्रीत कर लो। फिर तुमको खु़दा क्यों चाहिए? तुम्हारे मैं-भाव को अगर मन में ही अपनापन मिल रहा है तो उससे कहो, 'तू मन से ही यारी करले, मन ही यार हुआ तेरा।' मन अपना है क्या? मन की यारी से सुकून मिला कभी? मन अपना कैसे हुआ?

तो जैसे बाहर के सुरेश, रमेश और सतेन्दर और योगेन्दर को बोलते हो पराया, वैसे ही मन को भी कुछ नाम दे दो। मन का कुछ नाम रख दो, क्या? बाबूलाल। और ये न कहा करो ‘मेरा मन’, बोलो, ‘बाबूलाल बोल रहा है अब कुछ।’ थोड़ी देर पहले आये थे सुरेश और रमेश परेशान करने; सुरेश, रमेश तो चले गये, पीछे छोड़ गये बाबूलाल को। अब बाबूलाल पक-पक, पक-पक-पक करे ही जा रहा है, रुक ही नहीं रहा। दिक्क़त तब आती है जब बाबूलाल को बोलने लग गये 'मेरा'। ये जो ममत्व है, ये कहीं का नहीं छोड़ेगा। कैसी लग रही है बाबूलाल की संगति? (व्यंग्य करते हैं) मेरे साथ तो हो नहीं।

कुछ बात समझ में आ रही है?

और बाबूलाल का एक दोस्त है, वो भी बहुत अपना लगता है। उसका क्या नाम है? साबूलाल। ये (शरीर को सम्बोधित करते हुए)।

एक तो कहते हो ‘मेरा मन’, और दूजा कहते हो ‘मेरा तन’। ये बाबूलाल-साबूलाल ने मिलकर के जीना मुहाल कर रखा है। अकेला छोड़ते ही नहीं। सोचो न हर समय दो साथ लगे हुए हैं। कैसे चलेगा काम? जहाँ भी जा रहे हो, ये दो साथ लगे ही हुए हैं — एक बाबूलाल, एक साबूलाल। और तुम कह रहे हो, 'नहीं, लीव मी अलोन।’ (मुझे अकेला छोड़ दो) अलोन! पड़ोसियों से कह देते हो ’लीव मी अलोन’ , मुझे अकेला छोड़ दो। बाबूलाल-साबूलाल से कभी बोला है, ’लीव मी अलोन’? तब भूल ही जाते हो प्राइवेसी (गोपनीयता) जैसी भी कोई चीज़ होती है।

कमरे के बाहर बड़े शौक से टंगा देते हो ’डू नॉट डिस्टर्ब’ (परेशान न करें), और ये भूल जाते हो कि जो तुम्हें डिस्टर्ब (परेशान) कर रहे हैं वो तो तुम्हारे साथ ही कमरे के अन्दर घुसे हुए हैं। और वो कमरे का किराया भी नहीं दे रहे। कमरे का किराया दे रहे हो तुम, और मज़े मार रहे हैं अन्दर बाबूलाल और साबूलाल।

और वो ये भी नहीं कि तुम्हारा एहसान मानते हों कि मुफ़्त में हमें यहाँ ठहराया, वो अन्दर घुसकर तुम्हारा ही खेल चौपट कर रहे हैं। कभी उनको बोलकर दिखाओ ’डू नॉट डिस्टर्ब’। बोलकर दिखाओ! घर में लगा लो पोस्टर बहुत बड़ा, उसपर लिखो — ‘बाबूलाल, ख़बरदार!’ और बाथरूम में लगा दो — ‘साबूलाल, ख़बरदार!’ क्योंकि वहाँ साबूलाल साफ़ दिखाई देता है। (सभी श्रोतागण हँसते हैं)

गुसलख़ाने में साबूलाल के साक्षात दर्शन होते हैं तो वहाँ लगाओ बहुत बड़ा-बड़ा — ‘साबूलाल ख़बरदार!’

रब्ब दा आशिक़ होना है, ये क्या तुम दायें-बायें लेकर के फिर रहे हो?

बुलिया आशिक़ होया रब्ब दा, मलामत हुई लाख, तैनूं लोकी काफ़िर आखदे, तू आहो-आहो आख।

सन्तों के वचन सूक्ष्मतम तल के होते हैं। जब वो बोल रहे हैं कि लोकां, लोग तुझे काफ़िर कह रहे हैं, तो लोग तुमने क्या सोचा? लोगों से मतलब है सुरेश और रमेश? तुम मतलब ही नहीं समझे। सूक्ष्म बात थी। वो तुम्हारे तीनों शरीरों की बात कर रहे हैं, वो सामाजिक शरीरों की बात नहीं कर रहे हैं। जब वो कह रहे हैं 'लोग', तो लोग माने सामाजिक लोग नहीं, लोग माने वो तीन शरीर जिन्होंने तुम्हारी आत्मा को आच्छादित कर रखा है। वो तुम्हारे स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीर की बात कर रहे हैं कि ये तीनों हैं जो तुझे परेशान कर रहे हैं। और जब ये तीनों तुझे परेशान करें तो तू बोल, 'हाँ जी, हाँ जी।’

तन से, मन से — इनसे सावधान रहो। इनसे सावधान हो तो बाहर वाले किस गिनती के हैं! वो तो अपनेआप चुप हो जाएँगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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