तुमसे बहुत प्यार है, खून पिएँगे तुम्हारा || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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तुमसे बहुत प्यार है, खून पिएँगे तुम्हारा || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी! मेरा एक बचपन का बहुत अच्छा दोस्त है, हम पच्चीस-तीस सालों से साथ हैं। पिछले महीने मैं शिविर आया था, मैंने यही बात उसको बतायी, लेकिन उसने मेरी बात नहीं सुनी और कहा कि मैं ये सब नहीं सुन सकता। मैंने समझाने की कोशिश की मगर वो इस बात को समझने की स्थिति में नहीं था। मैं बस एक सही मौके का इन्तज़ार कर रहा था, ताकि मैं उसकी मदद बेहतर तरीक़े से कर सकूँ। दो दिन पहले ही उसका देहान्त हो गया, उसको दिल का दौरा पड़ा।

मैं देख पा रहा था कि उसे दिल का दौरा किन कारणों से पड़ा। बहुत अधिक तनाव के कारण, अपनी करियर (व्ययसाय), महत्वाकांक्षाओं के कारण, पारिवारिक तनाव, जिन रिश्तों में वो था उनके कारण। मुझे लगता है कि ये सबकुछ उसको, उसी की ओर ले जा रहा था। और अड़तीस की उम्र में ही उसका देहान्त हो गया। उसके दो बच्चे हैं और मरने से पहले वो अपने बच्चों के भविष्य को लेकर परेशान था।

मैं उसके अन्तिम संस्कार के लिए गया था और जब मैंने उसे उठाया और ले जा रहा था, तब मुझे एहसास हुआ कि ये सामान्य मृत्यु नहीं, हत्या है। क्योंकि उसके आस-पास के सभी लोग उसके साथ इस तरह का व्यवहार कर रहे थे कि उसे केवल ऐसी चीज़ों की महत्वाकांक्षा रखनी चाहिए, उसे केवल ऐसा भोजन करना चाहिए। आप कुछ भी मार सकते हैं और खा सकते हैं, सभी प्रकार के प्रभाव जो शारीरिक या मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं थे। ये किसी भी तरह से स्वस्थ नहीं था और इससे मौत हो रही थी।

मैं हर तरह से उसकी मदद करने की कोशिश में लगा था कि वो उपनिषदों की ओर आये, परंतु ये शायद काफ़ी नहीं था। इतना प्रभाव मैं उस पर नहीं डाल पाया कि वो इस दिशा की ओर देख पाये।

जब मैं उसका अन्तिम संस्कार भी कर रहा था तो मैं सोच रहा था कि हमें कितना जागरूक रहना होगा, उन प्रभावों को लेकर जो हमें बाहरी दुनिया से मिलते हैं। निश्चित रूप से हमें उन प्रभावों के प्रति जागरूक रहना है जो हमें मीडिया (संचार माध्यम) आदि से मिल रहे हैं, लेकिन ये हमारी बहुत महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है कि हम जागरूक रहें कि हम कैसे लोगों को प्रभावित कर रहे हैं।

तो इसी को मुझे थोड़ा और गहराई से समझना है, कैसे इसके प्रति और सतर्क रहा जा सकता है? और मैं ये नहीं चाहता कि ये हादसा मेरे जीवन से यूँ ही निकल जाए। मैं चाहता हूँ ये मुझे और ज़िम्मेदार बनाये ताकि मैं और लोगों की बेहतर मदद कर पाऊँ जो मेरे साथ हैं। इस पर आपके विचार क्या हैं? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: देखिए, इसी चीज़ से मैं घबराता हूँ। यही न हो इसके लिए पूरी कोशिश कर रहा हूँ। हम सब बहुत ख़तरे में हैं और हम सब एक दूसरे को ख़तरे में डाले हुए हैं। आप अपने मित्र की बात कर रहे हैं, अड़तीस की उम्र में देहान्त हो गया। वहाँ पता चल गया है कि मृत्यु हो गयी है, अकाल मृत्यु हो गयी है, अड़तीस की उम्र में ही।

आप जितने भी लोग यहाँ बैठे हुए हैं, आप सब के सिर पर तलवार लटक रही है। और कोई और नहीं है आपका दुश्मन, हम ख़ुद ही अपने दुश्मन हैं और हमारे आस-पास जो लोग जिन्हें हम अपना स्वजन बोलते हैं, अपना प्रिय बोलते हैं, हम ही उनके दुश्मन हैं। न हमें हमारा मित्र पता है, न हमें हमारा शत्रु पता है। कोई किसी की हत्या कर दे, कानून में सज़ा है। कोई किसी की ज़िन्दगी बर्बाद कर दे उसका प्रिय बनकर, स्वजन बनकर, पति या पत्नी बनकर, इसकी किसी कानून में कोई सज़ा नहीं है। माँ-बाप बच्चें की ज़िन्दगी बर्बाद कर दें, कोई कानून सज़ा नहीं देता। हाँ, थप्पड़ मार दें तो पुलिस आ जाती है।

किसी को हृदयाघात होता है, बिलकुल भी इसको हत्या नहीं माना जाता, लेकिन हार्ट अटैक (हृदयाघात) के अधिकांश मामलों में उस व्यक्ति के आस-पास के लोग बिलकुल ज़िम्मेदार होते हैं उसकी मौत के लिए। ज़्यादातर जो बड़ी बीमारियाँ हैं, उनका सम्बन्ध ही मन की ख़राब हालत से हैं। शरीर की हालत से तो है ही, आप ग़लत खाना खा रहें हैं तो उससे तो निसंदेह दुष्प्रभाव है, लेकिन मन का बहुत बड़ा उसमें क़िरदार है। चाहें वो हाइपर टेंशन (उच्च रक्तचाप) हो, कार्डियक डिसीज़ (हृदय रोग) हो, मधुमेह हो और भी न जाने कितनी बीमारियाँ। बल्कि कहना ये चाहिए कि शायद ही कोई बीमारी हो जिसका मन से ताल्लुक़ न हो।

और अगर आपके मन को बीमार किया जा रहा है तो मुझे बताइए, आपके मन पर सबसे ज़्यादा प्रभाव डालने वाला है कौन? आप बीमार इसलिए हुए, आपकी मौत इसलिए हुई, क्योंकि आपका मन बीमार था। और मन बीमार होता है, मन पर पड़ने वाले प्रभावों से। वो प्रभाव आपके दिमाग पर किसने डाले? कोई कोलम्बिया में बैठा है, कोई रूस में बैठा है, कोई अर्जेंटीना में बैठा है, कोई मार्स (मंगल ग्रह) पर बैठा है, उन लोगों ने आ करके डाले? आपके मन को बीमार, कमज़ोर कौन करता है दिन-रात? बोलिए न। जो आपके आस-पास के लोग हैं।

और उनके मन को कौन बीमार करता है? आप करते हैं। इसको हम बोलते हैं रिलेशनशिप (रिश्ता)। ‘तुम मुझे बर्बाद करो, मैं तुम्हें बर्बाद करूँगा, तुम मुझे डाइबिटीज़ (मधुमेह) दो मैं तुम्हें हाइपरटेंशन (रक्तचाप) दूँगा’ — ये रिश्ते हैं, इसे हम सम्बन्ध बोलते हैं। ‘तुम मुझे जीने लायक़ मत छोड़ो, मैं तुम्हारी ज़िन्दगी बर्बाद कर दूँगा। बराबर का रिश्ता है बिलकुल। जीवन साथी हैं। माने जीवन भर एक दूसरे को बर्बाद करेंगे।

मुस्कुराने की बात नहीं है, मैं स्टैंड-अप कॉमेडी नहीं कर रहा हूँ कि ये सब आप सुनकर जाएँ और, और ज़्यादा अपने यारों के झुरमुट में खो जाएँ और जीवनसाथी की बाहों में समा जाएँ कि वाह-वाह, आज तो मज़ा ही आ गया, आज तो मूड़ बहुत अच्छा बना है। ये मैं हक़ीक़त बता रहा हूँ हत्याओं की।

अभी-अभी हमने एक लाश गिरने की बात सुनी है। आप किसी की छाती में खंजर उतार देते हैं, बड़ा भयावह दृश्य होता है। खून बह रहा है चारों ओर, पुलिस का सायरन होता है, वहाँ पर फ़ीता लगा दिया जाता है — यहाँ वारदात हुई है। और आप किसी को इतना तनाव देते हैं, आप किसी से इतनी माँगें करते हैं, आप किसी के दिमाग़ पर इतने बुरे प्रभाव डालते हैं कि उसका दिल ही बैठ जाता है। पता नहीं चलता न कि आपने क़त्ल करा है? पता ही नहीं चलता।

भारत वो देश है दुनिया का जहाँ रिश्ते सबसे मज़बूत और स्थायी होते हैं। और भारत दुनिया की हार्ट अटैक कैपिटल है, डाइबिटीज़ कैपिटल है, हाइपर टेंशन कैपिटल है। भारत वो जगह है जहाँ हम रिश्तों के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता दिखाते हैं, टोटल कमिटमेंट (पूर्ण प्रतिबद्धता)। और भारत से ज़्यादा कहीं हृदयाघात नहीं होते, मधुमेह नहीं होता, रक्तचाप नहीं होता।

आपको समझ में नहीं आ रही है बात। आप बहुत अच्छे पति या पत्नी हो सकते हैं, कैसे? ‘नहीं, खाना तो मैं तुम्हें पूरा खिलाऊँगी, खाना खिलाने में कोई कोर कसर नहीं। डॉक्टर ने दवाइयाँ लिख दी हैं वो दवाइयाँ भी मैं खिलाऊँगी तुम्हें पूरी, दिन में चार बार दवाइयाँ। मैं पूरे यतन से दवाइयों का डब्बा बनाऊँगी, तुम्हें खिलाऊँगी। लेकिन इतने ताने मार-मार के खिलाऊँगी कि दवाई फ़ायदा क्या करेगी, तुम में ज़हर और उतार दूँगी।’

‘मैं पति हूँ, मैं तुम्हारा पूरा ख़याल रखूँगा, कैसे? कोई दूसरा तुम्हें छूने न पाए पाये, तुम्हारे पास पैसे पूरे होने चाहिए, लेकिन तुम्हारे मन, जीवन, तन पर ऐसे नारकीय प्रभाव डालूँगा कि अन्दर-ही-अन्दर तुम्हारा क़त्ल होता रहेगा। और इसकी मुझे सज़ा मिल नहीं सकती। क्योंकि वो क़त्ल दिखाई ही नहीं देता। हाँ, पता चल जाता है, जब लाश गिरती है, तब पता चल जाता है। लेकिन दिक्क़त ये है न, कई मामलों में लाश गिरती नहीं। आदमी मर के भी अपनेआप को घसीटता रहता है, लाश चलती रहती है, तो पता ही नहीं चलता है कि क़त्ल हो चुका है। बल्कि मिसालें दी जाती हैं — ‘देखो, बुड्ढा-बुड्ढी दोनों अस्सी साल के हो गये, दोनों में कितनी मोहब्बत है!’

अब बड़ी विषम स्थिति पैदा हो जाती है! एक ओर तो मैं भलीभाँति जानता हूँ कि हमें बर्बाद करने में सबसे बड़ा योगदान हमारे निकट के लोगों का है। दूसरी ओर मैं ये भी जानता हूँ कि जिनसे शरीर का नाता है, खून का नाता है, उन्हें यूँ ही छोड़ भी नहीं सकते। कोई छोड़ रहा होता है तो मैं ही उसे कहता हूँ कि छोड़ मत देना। जब अन्धेरे में साथ थे, बेवकूफ़ियों में साथ थे, तो अब अगर तुम्हें रोशनी मिल रही है, तो रोशनी में भी साथ रखो। बाँटो रोशनी, छोड़ मत देना!

इन दोनों बातों को एक साथ लेकर के चलना है। पहली बात तो ये साफ़-साफ़ जानना है कि मेरा दुश्मन मेरे बिलकुल निकट का है। वो सब बाद के होंगें मेरे शत्रु जिनके साथ मेरे मुकदमें वगैरह चल रहे हैं या जिनको मैं कहता हूँ कि इनसे मेरी दुश्मनी है। वो सब दूर के दुश्मन हैं। असली दुश्मन बहुत नज़दीक का है। पहली बात है ये जानना, स्वीकारना। ये बात दिल तोड़ देगी, बहुत बुरा लगेगा, पर ये बात माननी पड़ेगी।

और फिर जिगर दिखाना है ये कहने का कि हाँ, मैं जान गया हूँ कि मेरे नज़दीक वाला ही मेरा दुश्मन है, लेकिन मैं फिर भी करुणा रखूँगा, मैं इसको छोड़ नहीं दूँगा। ये मेरा दुश्मन है लेकिन मैं दुश्मनी नहीं दिखाऊँगा। मैं ऐसा कोई मुगालता, ऐसा कोई भ्रम नहीं रखूँगा कि मैं अपनेआप को बोलूँ कि एक मेरे जो नज़दीक है ये मुझे बहुत प्यार करता है। नहीं करता प्यार, कभी नहीं किया, वो कर ही नहीं सकता, वो प्यार जानता ही नहीं। मुझे क्या, किसी को नहीं कर सकता। उसे भगवान से प्यार नहीं मुझसे क्या होगा! छोड़ दो ये बात कि प्यार है, इश्क, लव वगैरह कुछ नहीं, बेकार की बात। इसलिए नहीं कि उसने तुमसे नहीं किया। मैं बोल रहा हूँ, ‘वो कर ही नहीं सकता, उसमें काबिलियत ही नहीं है किसी से भी करने की।’

छोटी चीज़ नहीं होती है प्रेम। प्रेम करने के लिए बड़ी पात्रता चाहिए होती है। निन्यानवे प्रतिशत लोग किसी से भी प्रेम नहीं कर सकते, आपसे क्या करेंगे। और निन्यानवे प्रतिशत में हम सब शामिल हैं, भाई। ये अस वर्सेज़ देम (हमारे बनाम उनके) की बात नहीं है। तो मानना होगा कि प्यार का ‘प’ पता नहीं हमको, न पाया है और फिर कहना होगा, ‘नहीं पाया कोई बात नहीं, भीतर कटुता, बिटरनेस नहीं रखेंगे। अपनेआप को अभागा मानकर रोयेंगे नहीं। हमें नहीं मिला कोई बात नहीं, हम काबिल बनेंगे और देंगे।’

तुम नहीं दे पाये हमें प्रेम, हम बिलकुल पहले तो मानेंगे। अपनेआप को झूठे सपनों में नहीं रखेंगे। मानेंगे साफ़-साफ़ नहीं मिला, नहीं मिला। और फिर कहेंगे, ‘हमें नहीं मिला, कोई बात नहीं। पाया नहीं, दे तो सकते हैं न। और वैसा वाला नहीं देंगें जैसा तुमने दिया नकली, ढोंग का, स्वाँग, देह का, धन का, वो वाला नहीं देंगें, वास्तविक प्रेम देंगे। तुमसे हमें चोट मिली है, हम तब भी प्रेमपूर्ण रहेंगे।’ ये करुणा है।

आ रही है बात समझ में?

चुपचाप हो रही हत्याओं में शामिल मत होइए। न किसी को अपनी हत्या करने की अनुमति दीजिए। जीना है और जीवन बाँटना है। जो हमारे साथ हुआ, अच्छा होता कि नहीं होता, पर दूसरों के साथ वैसा नहीं करेंगे, न होने देंगें। हमारे साथ बुरा हो गया, इससे हम ये अनुज्ञा, लाइसेंस नहीं पा गये कि हम भी दूसरों के साथ बुरा करेंगे। क्यों? ‘तूने मेरी ज़िन्दगी बर्बाद की, अब दूसरों की करता हूँ।’ नहीं, नहीं, नहीं ये छूट नहीं मिली है। न ये छूट मिली है कि हमारे साथ ग़लत हुआ है और हम ये जान गये, तो जीवन भर अपनेआप को कहेंगे, ‘पीड़ित हैं, शोषित हैं, विक्टिम हैं।’

हाँ, हुआ है हमारे साथ ग़लत, लेकिन हम अपने ऊपर विक्टिम का, शोषित का, उत्पीड़ित का ठप्पा नहीं लगा लेंगे। बार-बार ये कहते नहीं फिरेंगे कि अरे! मेरे साथ तो बड़ा ग़लत हुआ, मेरे साथ तो बड़ा ग़लत हुआ। कुछ नहीं, हटाओ! बिलकुल साफ़-साफ़ जानते हैं कि रिश्ते ठीक नहीं हुए, नहीं मिले, लेकिन उस बात से हमें हक़ नहीं मिल जाता विक्टिम कार्ड खेलने का। हम सही जिएँगे। जो हमें प्रेम नहीं दे पाया, कभी-न-कभी जाकर के जीवन के अन्तिम वर्षों में ही सही, उसको भी ये सीखा देंगें कि प्रेम होता क्या है।

अगर आपको चोट लगी भी है तो उस चोट का सबसे सार्थक बदला यही है — तुम जो मुझे नहीं दे पाये, मैं तुम्हें दिखाता हूँ कि वो दिया कैसे जाता है और तुमको ही दूँगा। हाँ, ये बात पक्की है कि जब मैं तुमको दूँगा तो तुम्हें समझ में नहीं आएगा कि जो तुम्हें दे रहा हूँ उसकी क़ीमत क्या है। तुम्हें उस चीज़ की क़ीमत पता होती, तो तुमसे हमें न मिल गयी होती वो। वास्तविक प्रेम की क़ीमत तुम्हें कभीं ख़ुद नहीं पता थी, इसीलिए तुमने हमें दिया नहीं। हम जानते हैं कि हम अगर आगे बढ़ेंगे, समझेंगे, जानेंगे, तुम्हें वास्तविक प्रेम देंगे भी, तो तुम उसका कुछ मूल्य करोगे नहीं। तो मत करो, वो तुम्हारी बात है। हम वो करेंगे जो हमें करना है। नहीं तो हम तुम्हारे जैसे ही हो जाएँगे न। तुम्हारे जैसा नहीं होना।

ये हठ, ये अकड़ एकदम छोड़ दिजिए — मैं, मेरा खानदान, मेरे लोग, मेरे दोस्त, मेरे यार, मेरा परिवार। आई कम फ्रॉम द सेठ फैमिली (मैं सेठ परिवार से हूँ), वी आर द शुक्लाज़ (हम शुक्ला हैं)। हटाओ! किसको ये स्वाँग बता रहे हो? द शाइन ऑफ़ द कपूर्स (कपूर की चमक)। वहाँ अन्दर क्या चल रहा है, वो ही जानते हैं।

कोई अनहोनी घटने का इन्तज़ार मत करिए! अनहोनी घट ही रही है। अभी जगिए, अभी चेतिए!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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