वक्ता: तुममें कुछ हो जाने की संभावना नहीं है। तुममें बड़ा हो जाने की, वृहद् हो जाने की संभावना नहीं है, तुममें पूर्ण हो जाने की संभावना नहीं है। तुम पूर्ण हो ही ।संभावना की बात तब है जब कुछ छुपा हुआ हो। क्षमता की बात नहीं है। तुम जो हो, अभी हो, पूरे। बस तुम सपना ले रहे हो कि तुम अधूरे हो। संभावना की बात तब करना जब अभी तुममें कुछ छुपा हो, सोया हुआ हो। तुममें कोई संभावना नहीं है। तुममें से कोई भी नहीं है जिसमें कोई भी संभावना हो। संभावना की बात तो तब आती है, जब अभी कोई कमी हो। तुम कहते हो कि मुझमें कुछ बन जाने की क्षमता है, नहीं कुछ बन जाने की बात है ही नहीं। तुम अभी ही पूरे हो, बस तुम्हें ये धोखा हो गया है कि तुम अभी अधूरे हो। संभावना तो बहुत छोटी चीज़ होती है। संभावना तुम्हें भविष्य के सपने दिखाती है। संभावना कहती है कि आगे कुछ हो जाओगे, तुममें क्षमता है, तुममें काबिलियत है। मैं कह ही नहीं रहा कि तुममें क्षमता है, तुममें काबिलियत है, मैं कह रहा हूँ कि अभी पूरे हो, भविष्य पर कुछ छोड़ा ही नहीं। जिस वृत्त को तुम वृत्त कह रहे हो, वो वृत्त था ही नहीं वो गोला क्षेत्र (स्फीयर) था पर भूला बैठा था कि स्फीयर है। स्फीयर होना ही उसका स्वभाव है। बस कुछ समय के लिए वो भूल गया था। तुम भी बस भूल गए हो। याद करो, अभी वापस आ जाएगा।
श्रोता: उस वृत्त को भी तो किसी ने बताया ही था।
वक्ता: क्या बताया था? बताया था या याद दिलाया था? याद करो।
श्रोता: ये कैसे याद करें? और ये भी याद कौन दिलाएगा?
वक्ता: उत्सुकता हो, तो याद दिलाने के लिए पूरा अस्तित्व तैयार खड़ा है। एक बात बताओ, एक वृत्त है और उसको पकड़ कर उसका पापड़ बना दिया जाए, ऐसा दबाया जाए कि उसका पापड़ बन जाए। एक गेंद लो और उसको दबा दो, फर्श पर रख कर उस पर रोलर चला दो, तो क्या बन जायेगा वो? गेंद को कैसा लगेगा पापड़ बन कर? कैसा लगेगा? अच्छा लगेगा? एक बेचैनी रहेगी ना? वो बेचैनी तुम्हारे भीतर भी है क्योंकि तुम जो हो वो तुम हो ही नहीं, तुम कुछ और ही हो। तुम कुछ और हो और पापड़ बन कर बैठ गए हो। तुम हो कुछ, पर तुम्हारे ऊपर रोलर चला दिया है किसी ने। सोचो, बन गए हो पापड़ इसलिए रहते हो बेचैन। और इसी बेचैनी को ही याद बना लो, स्मृति बना लो। स्मृति अतीत की नहीं। स्मृति इस बात की, कि मेरा वास्तविक स्वभाव क्या है। अब अगर पापड़ होना तुम्हारा स्वभाव होता तो तुम बेचैन नहीं रहते। बेचैन हो? सब बेचैन हो ना? बोर रहते हो, डरे रहते हो, खीझे रहते हो। मन कहीं लगता नहीं है। पापड़ होना तुम्हारा स्वभाव नहीं है।
इस बेचैनी के ही माध्यम से याद करो कि तुम वास्तव में क्या हो। इस बेचैनी को समझो, ये बेचैनी यूँ ही नहीं है। इसका कोई सबब है। अगर सब कुछ ठीक रहता तो तुम ऐसे बेचैन नहीं रहते। कोई भूल हो रही है, कहीं कोई नासमझी है। नासमझी यही है कि तुम अपने आप को जो माने बैठे हो तुम वो हो नहीं। अपने आप को जानो कि तुम क्या हो और वही हो जाओ, तभी खुश रहोगे। और बेचैनी को जितना ध्यान से देखोगे, उतना पाओगे कि मददगार आ जाऐंगे, एक नहीं हज़ार आ जाऐंगे। पर पहले तुम अपनी बेचैनी को अनुभव तो करो। तुम तो अपनी बेचैनी को दबाए रहते हो। तुम्हें बोरियत होती है, तुम पूछते नहीं कि मैं बोर क्यों हूँ। तुम भागते हो और जाकर एक चलचित्र (सिनेमा) देख आते हो। तुम अपनी बेचैनी को दबा देते हो। तुम्हें उदासी महसूस होती है, तुम्हें अकेलापन महसूस होता है, तुम अपने आप से पूछते नहीं कि मैं इतना अकेला क्यों महसूस कर रहा हूँ, मैं उदास क्यों रहता हूँ? तुम उस उदासी को ठीक से पहचानते नहीं। तुम अपना मोबाइल फोन उठाओगे और किसी से बात करना शुरू कर दोगे ताकि वो उदासी दब जाए। किसी बात के दबने से उस बात का निवारण नहीं हो जाता। वो बस दब गयी। उसका इलाज नहीं हुआ। और दबाने में तुम्हारी बड़ी उत्सुकता है, कि चीज़ों को दबा दो। टल जाए, बस टल जाए।
टालते रहने से क्या होगा? सामना करो। यही बेचैनी तुम्हें कुछ याद दिला देगी। इसी से तुम्हारा रास्ता निकलेगा। इसी को अपनी सहेली बना लो। इससे भागो नहीं, इससे डरो नहीं। इसे समझो, इसके करीब जाओ और किसी डॉक्टर वगैरह का इंतज़ार मत करो। तुम्हारी सामर्थ्य इतनी है कि तुम्हें किसी के सहारे की ज़रुरत नहीं है। तुम्हारे पास अपनी चेतना है, किसी बाहरी आदमी की तुम्हें ज़रुरत नहीं है। उसी चेतना को जागने दो, सब अपने आप हो जाएगा ।
– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं ।