तुम सदैव मुक्त हो, सब तुम्हारी इच्छा है

Acharya Prashant

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तुम सदैव मुक्त हो, सब तुम्हारी इच्छा है

समस्त कल्पनामात्र - मात्मा मुक्तः सनातनः।

इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत्॥

~ अष्टावक्र गीता

अध्याय १८ श्लोक ७

अनुवाद: सब कुछ कल्पना मात्र है और आत्मा नित्य मुक्त है। धीरपुरुष इस बात को जानकर फिर बालक के समान क्या अभ्यास करे? अर्थात् ज्ञानी के लिए अभ्यास निरर्थक है।

आचार्य प्रशांत: धीरपुरुष जानता है ये। अब वो क्या ये बचकानी हरकतें करे? क्या अभ्यास कर रहा है? क्या अभ्यास? कैसा अभ्यास? तभी तो अष्टावक्र ऐसे हैं कि मुझे बिल्कुल तरंगायित कर देते हैं, मौज दिला देते हैं। मर रहा हो आदमी उसको अष्टावक्र सुना दें वो भी लहरा जाएगा। लहर खाकर मरेगा। सबकुछ आत्मा मात्र है और आत्मा है नित्य मुक्त धीरपुरुष समझता है ये। अब वो क्या अभ्यास करे। वो क्या कहे कि अभी मैं नैतिकता का अभ्यास करता हूं, विवेक का अभ्यास करता हूं, वैराग्य का अभ्यास करता हूं, साधना करता हूं, तपस्या करता हूं, कुछ नहीं। सब कुछ कल्पना मात्र हैं, सब कुछ मानसिक हैं। जो तुम्हें सुझाई दे, जो तुम्हें सुनाई दे, जो तुम्हें दिखाई दे, जो तुम्हें ना भी दिखाई दे, जो तुम्हें कल्पना में आता हो और जो तुम्हें लगता हो कि कल्पना से परे हो; वो सब मात्र कल्पना है।

जिस कुछ को भी लेकर तुम मन में कोई भी ख्याल बना लेते हो, ये ख्याल भी कि ख्याल नहीं बनाया जा सकता, वो ख्याल भी कल्पना मात्र हैं। आत्मा नित्य मुक्त है उससे खेल लो छुपन-छुपाई। कभी पकड़ ना पाओगे। क्योंकि तुम्हारी उंगलियां कुछ ऐसी है जो मुड़कर के तुम्हें नहीं छू सकती। तुम्हारी आंख कुछ ऐसी है जो मुड़कर के तुम्हें नहीं देख सकती।

आत्मा नित्य मुक्त है उस पर उंगली ना रख पाओगे, वो तुम्हारी उंगली है। कोई उंगली जो खुद को छू लेती हो, उंगली छूकर दिखाए। जिस बिंदु से छू रहे हो उस बिंदु से कहिए स्वंय को छू के दिखाए। छूने के लिए दूरी जरूरी है। उंगली का कोई भी बिंदु किसी अन्य बिंदु को छू सकता है शरीर के। स्वंय को नहीं छू सकता, आत्मा के साथ तुम्हारी मजबूरी यही है। वहां द्वैत नहीं है, वहां दूरी नहीं है। कैसे छू पाओगे, छूने के लिए दूरी जरूरी है।

हमारी मुलाक़ाते ऐसी ही होती है। हम छूते भी ऐसे ही हैं, हमारा प्रेम भी ऐसा ही है। दूरी ना हो तो हो नहीं सकता, छुएंगे तभी जब दूरी हो। जहां दूरी ना हो वहां छुआ ना जाए तब बड़ा बुरा लगता है। आजकल एक गाना चल रहा था। बड़ा अच्छा लगता था सुनने में “मगर बिछड़े तो याद आया बिछड़ना भी जरूरी था।” बड़े जज़्बात में गाया गया था। यहां यादों का दरिया है और अष्टावक्र कह रहे हैं संपूर्ण विश्व कल्पना मात्र है। ल्यो ये दरिया क्या हुआ? दरिया का तो दलिया कर दिया। उसमें कुछ ठोस छोड़ा ही नहीं। जो कुछ बहता है दरिया हो कि आंसू, कल्पना है।

इसी सूत्र को पकड़ लीजिए जीवन बिल्कुल मुक्त हो जाएगा। आत्मा में स्थापित हो जाएंगे। जो बहता दिखे वो समझ लेना कल्पना है। तुम बहाव में न बह जाना।

बहने-बहाने कि तुम्हारी बहुत गहरी वृत्ति हैं; जो बहे सो कल्पना मात्र। और कल्पना कर-कर के ही बहाते हो।

कल्पना न हो तो बहाव हो सकता है? बहाव न हो तो कल्पना हो सकती हैं?

“दौड़त दौड़त दौड़िया, जेती मन की दौड़”

अब बालक का मन! क्या अभ्यास करते रहते हो? अभ्यास माने क्या? वही कर रहे हो पत्थर पर लकीर खींच रहे हो, रगड़े जा रहे हो रगड़े जा रहे हो, क्या है? उछलना, कूदना, हिलाना यही तो अभ्यास है इसी को तो मना कर रहे हैं अष्टावक्र। तुम्हें लग रहा है और क्या मना कर रहे हैं।

तुम्हारे लिए कहा गया है ये हिलना-डुलना बंद करो। हिलाना-डुलाना सब माया है। आत्मा नित्य मुक्त हैं। जो मुक्त हैं वो हिलेगा तो जाएगा कहां, उसके जाने के लिए जगह ही नहीं है।

मुक्त माने सीमाओं से मुक्त। जब सीमा ही नहीं है तो सीमा के पार अनुपस्थिति की कोई जगह कहां बची, जहां तुम जाओगे।

क्या अभ्यास करते हो। अभ्यास तो उसका जिसके छूटने की कोई संभावना तो हो। आत्मा कोई अभ्यास नहीं होता, कोई साधना, कोई विधि नहीं होती। उससे मुक्ति की कोई संभावना ही नहीं होती। वास्तव में अभ्यास कर-कर के तो तुम अपनी गहन नास्तिकता का सबूत देते हो

तुम कहते हो परमात्मा मिला नहीं था, कोशिश करते हैं मिल जाएगा। शांति उपलब्ध नहीं थी, कोशिश कर रहे हैं मिल जाएगी। यही सब तो है अभ्यास। साध रहे हैं अभी, दूरी है अभी। अष्टावक्र कह रहे हैं दूरी कैसी? सारी दूरियां कल्पना मात्र हैं। कल्पना को त्याग दो। सपने में जो खोया है, वो सपने में अर्जित नहीं होगा। और सपने में अर्जित कर भी लिया तो भी अर्जित क्या किया। उठ जाओ! खोना ही झूठ था तो पाना सच कैसे हो जाएगा।

तुम अष्टावक्र के पास जाओ कहो सत्य पाना है महाराज। वो कहेंगे खोया कैसे, पहले ये समझाओ। जब खोना झुठ तो पाना सत्य कैसे हो सकता है? पर दुकानें ख़ूब है यहां जो तुम्हें पाने की शिक्षा दे रही है। ईश्वर की प्राप्ति करो, सत्य का अनुसंधान करो। ख़ूब सिखाया जा रहा है और कुछ पाने योग्य नहीं है मात्र परमात्मा पाने योग्य हैं। अष्टावक्र कहेंगे हम तुम्हें इन बहानों का आश्रय लेने ही नहीं देंगे। बैठ जाओ तुम यहीं और पहले बताओ कि खोया कैसे? अब तुम फंसे क्योंकि पाने में बड़ी छूट रहती हैं। क्या छूट रहती है कि अभी तो तैयारी चल रही है, अभी तो आया थोड़े ही है,अभी तो आया ही नहीं है। अष्टावक्र कहते हैं - "आ हाँ! आ गई है। अभी करो,अभी है। सत्य स्वभाव हैं, परमात्मा उपलब्ध है। तुम बताओ तुमने पाया कैसे नहीं?" अब तुम फंसे, तुम तो बड़ी मौज में थे।

तुम कहते थे परमात्मा तो वैसे ही बड़े-बड़े योगी, ज्ञानी बोल गए हैं कि मिलता है नहीं। बड़े-बड़े तपस्वीयों ने सदियों साधना की तब भी उन्हें नहीं मिला तो हमें क्या मिलेगा। वो तो चाहते थे कि उन्हें मिले तब नहीं मिला। हम तो खुद ही ये नहीं चाहते कि मिले हमें, तो और नहीं मिलेगा। तो तुम अपनी जान क्यों ले रहे समाधे। तुम कहते हो हमें मिलेगा नहीं और मिलने के फलस्वरूप फिर जैसी शुद्धि जीनी पड़ती है वो जीने की हम पर कोई अनिवार्यता आएगी नहीं। तो बढ़िया है अभी मौज करते हैं।

जैसे छोटे बच्चे होते हैं ना कि अभी स्कूल खुला नहीं अभी मौज करते हैं। ऐसी ही तुम्हारी हालत है जब तुम मोक्ष की बात करते हो। कि अभी आया नहीं चलो मौज करते हैं। छोटे बच्चों को देखा है एक पीरियड खत्म होता है, अभी दूसरी अध्यापिका आई नहीं है बीच में मौज मारते हैं। ऐसे ही हम मौज मार रहे हैं कि अभी मोक्ष आया थोड़ी ही हैं, मौज कर लेते हैं अभी। मोक्ष की तैयारी चल रही है। अष्टावक्र कान पकड़ लेते हैं कि आ चुका है। टीचर भी यहीं है, पीछे से देख रही है तुमको। तुम सोच क्या रहे थे टीचर है नहीं, वो लगातार है और तुम फंसे।

ये जो पूरा खेल है ये कुछ और नहीं है ढकोसला है, दगाबाजी है, अपनों को ही धोखा है। हम प्रार्थी हैं, हम अभ्यार्थी हैं, हम मुमुक्षु हैं, हम अंतरराष्ट्रीय साधक हैं। अच्छा! हमें तो अब पहली बार पता चला कि आत्मा को जहाज़ पर बैठकर पकड़ लोगे। उपनिषद् कह गए हैं ना कि वह हिलता नहीं पर वो गतिमान से भी गतिमान है। तो शायद तुमको लगा कि वो पुरानी बात है, पहले फास्ट के कुछ और पैमाने रहे होंगे, आजकल कुछ और हैं। पुराने जमाने में जो फास्ट था आज वो स्लो माना जाएगा तो हम ज़रा बोईंग 747 पर बैठकर उसे पकड़ ही लेंगे। आत्मा कितनी भी तेज़ होगी 100 मील/घंटा से तो कम ही तेज़ भागती होगी। नहीं, ऐसा नहीं है। ये सब बहाने हैं, ये झूठी बातें हैं। चाहे 747 हो या 1747 आत्मा उससे भी तेज़ है। प्रकाश की गति से भी तेज़ है। इतनी तेज़ इसलिए है क्योंकि उसे कहीं जाना ही नहीं है।

जो कहीं नहीं जाना चाहता वो हर जगह होता है। नहीं पकड़ पाओगे क्योंकि उसने तुम्हें पकड़ रखा है। जैसे दो पहलवान मल्ल कर रहे हो, अब एक दूसरे को पकड़ने की कोशिश कर रहा है। क्यों नहीं पकड़ पाएगा क्योंकि दूसरे ने पहले को पकड़ रखा है। जिसने तुम्हें पकड़ रखा हो तुम उसे कैसे पकड़ पाओगे। आत्मा तुम्हारे भीतर नहीं है, भीतर बाहर सब जगह हैं। तुम्हें घेरे हुए हैं, तुम्हें पकड़े हुए हैं। उसकी जकड़ से तुम कभी मुक्त नहीं हो सकते। उसकी जकड़ में ही तुम्हारी मुक्ति हैं।

बहानों पर मत जाना, मोक्ष का इंतजार मत करना। अष्टावक्र कह रहे है क्या तुम ये बच्चों वाली कि आज बारिश हो गई, आज स्कूल नहीं जाना पड़ेगा। देखा बच्चे कैसे खुशी मनाते हैं। सुबह-सुबह बारिश हो रही हो तो कभी-कभी होता है बरसात में ऐसा, सुबह-सुबह मूसलाधार। और ख़ूब पानी भर गया है, स्कूल में भी, रास्ते में भी और बस नहीं आएगी; आज छुट्टी है बढ़िया है। मोक्ष कर लिया एक दिन। जितने टीचर है, सब मोक्ष के लिए अमादा है। जिसको देखो वही मोक्ष लेकर पीछे बैठा हुआ है। दिखाओ मोक्ष, पियो मोक्ष, पहनो मोक्ष, मोक्ष ब्रेक। मोक्ष की मंचिंग करा देते हैं। ऐसे तुम्हारी हालत है कि नहीं?

जितने दिन मोक्ष से बचे रहे उतना अच्छा है। एक दिन नहीं बच सकते। तुममें से कोई ऐसा नहीं है जो पहले से ही मोक्ष में स्थापित न हो। तो बेईमानी तो करो मत। और करनी है तो करे जाओ, उससे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारी बेईमानी से तुम्हारा मोक्ष टल कब रहा है। मुफ्त तुम हो ही। हां, अपनी मुक्ति का प्रयोग करके अपने आप को अमुक्त घोषित करो वो तुम्हारी मर्ज़ी है। कर लो पर फिर हमें परेशान मत करो। तुमने खुद चुनी है अमुक्ति, तुमने खुद चुनी है दास्तां और बंधन। अब रोने मत आना कि जीवन ने परेशान कर दिया। जीवन ने नहीं परेशान किया।

मुक्त तो तुम सदा हो क्योंकि आत्मा नित्य मुक्त है। और उसी मुक्ति के कारण तुम ये छूट ले पा रहे हो कि अपने आप को अमुक्त घोषित किए हैं। और अमुक्त की तरह व्यवहार करते हो, अमुक्त की तरह जीवन जीते हो। ये तुम्हारी मुक्ति का ही फल है। मुक्त ना होते तो इतनी बेअदबी कर पाते। ये जो तुम इतनी दण्डता दिखाते हो, ये जो अश्लील आदतें हैं तुम्हारी, ये जो घटिया जीवन है, ये जो परम सत्ता के प्रति अभद्रता है तुम्हारी, ये सब कुछ तुम्हें कैसे उपलब्ध होता, तुम्हें कैसे इसकी छूट मिलती, तुम्हें कौन इसकी अनुग्या देता अगर तुम मुक्त ना होते।

देखते नहीं हो, सच को लात मारते रहते हो, शांति को ठुकराते रहते हो। मुक्त ना होते तो ये सब करके भी सांस कैसे ले पाते। पर सांस तो चल ही है भले ही दर्द के साथ चल रही है पर चल तो रही है। ये यही बताता है कि बड़े मुक्त हो। जैसा चाहते हो वैसा करते हो। हां उसका परिणाम भी भोगते हो पर कर तो ले ही जाते हो ना। ये तुम्हारे सब मुक्ति के ही परिचायक है। मुक्त तुम हो ही, बस अमुक्ति का बहाना है। अमुक्ति के मज़े की आसक्ति हो गई है। घटिया स्वाद ज़बान पर चढ़ गया है। अब जब मुक्ति की याद आती है तो मुक्ति ज़रा फिकी लगती है। अब वहां पीछे कोने में बैठ कर बीड़ी पीनी है और साथ में बोलो ब्रह्म हूं तो कुछ मेल तुम्हें दिखाई नहीं देता इसमें। बीड़ी और ब्रह्म एक साथ चलते ही नहीं तो इसीलिए कहते हो ब्रह्म अभी हूं नहीं, ब्रह्म अभी होना है। अभी तो मैं क्या हूं? अभी तो मैं बीड़ी खोर हूं। आत्मा यदि तुम हो तो आत्मा तो बड़ी हल्की है।

आत्मा में तो बड़ा तेज़ है, बड़ा गौरव है। और तुम तो अतिक्रमणीय, महाआलसी अब अगर आलस बनाए रखना है तो साथ ही साथ ये कहना पड़ेगा न कि मैं अभी आत्मा थोड़े ही हूं। आत्मा तो पा लेनी है, अभी कोशिश जारी है। क्योंकि अगर तुम आत्मा हो तो ये आलस कैसा। आत्मा के साथ तो हमने आलस्य सुना नहीं।

आलस बचाना है तो आत्मा को दूर रखना पड़ेगा और ये करते हैं। आलस की गंदी लत लग गई है, पाल ली है तुमने। वो भी है उसी दिन तक जिस दिन तक तुम्हें अपनी मुक्ति का उपयोग करके आलस को बचाए रखना है। जिस दिन तुम कह दोगे और क्यों कह दोगे वो भी अकारण ही कहोगे, कोई ऐसा नहीं है कि मेरे शब्दों से प्रेरित होकर के कह दोगे, वो भी तुम्हारी अपनी मौज है, तुम्हारी अपनी मुक्ति हैं। जिस दिन कह दोगे कि हटाओ ये सब गन्ध-फंद, अरे बहुत हो गया फालतू की चकल्लस। अभी हटाओ ना नहीं चाहिए उस दिन मुक्त हुए। कब कहते हो तुम जानो, न कोई बाध्य कर सकता है, न कोई तुम्हें प्रेरित कर सकता है। ये सारी बातें की कोई गुरु आ कर के दिशा दिखा देगा, कोई ग्रंथ आरती रोशनी दे देगा; बेकार की बातें हैं।

गुरु और ग्रंथ बहुत हुए बहुत गए उनसे कुछ नहीं होता। तो तुम स्वंय बुद्ध-शुद्ध आत्मा हो तुम्हें कौन गुरु चाहिए और कौन सा गुरु तुम्हें प्रकाश दे सकता है। गुरुता स्वंय तुम्हारा स्वभाव है। जिस दिन तुम चाहोगे उस दिन गुरुता खिलेगी। जिस दिन तक तुम नहीं चाह रहे दुनिया के सारे गुरु तुम्हारे आगे विफल रहेंगे।

आत्मा कोई दो थोड़े ही होती हैं। कोई अंदर का गुरु, कोई बाहर का गुरु थोड़ी ही हो सकता है। जो नित्य है उसके दो टुकड़े थोड़े ही हो सकते हैं। जो मुफ्त है उसको विभाजित थोड़े ही किया जा सकता है। तुम स्वंय नित्य मुक्त आत्मा हो। तुम्हें कौन क्या बताएगा। तुम्हें कौन राह सुझाएगा। तुमने अपनी मर्ज़ी से राह छोड़ी थी। तुम अपनी मर्ज़ी से अपनी राह बनाओगे। हर राह तुम्हारी हैं, हर राह की चाह तुम्हारी हैं। कोई न तुम्हें पथविमुख होने के लिए विवश कर सकता है और ना ही कोई तुमको पथ पर वापस ला सकता है। हर पथ तुम्हारा है, खुला आकाश तुम्हारा है। खुले आकाश में उड़ते-उड़ते तुम्हारा कभी मन कर सकता है कि तुम किसी पथ से संयुक्त हो जाओ, मर्ज़ी है तुम्हारी।

तुम्हीं आकाश में उड़ते पंछी हो, तुम ही आकाश हो, तुम ही वो पथ हो; सब तुम्हारा खेल है। जिस दिन चाहोगे वो खेल बंद हो जाएगा। आकाश तुम्हारा है ये कहना भी अपमान है तुम्हारा। तुम स्वंय आकाश हो। और जब कहूं कि तुम स्वंय आकाश हो तो ये बात भी थोड़ी भद्दी हो गई क्योंकि मन को गति मिल गई, कल्पना की सीमा आ गई।

कहूं पक्षी, कहूं आकाश जो भी कुछ कहूं कुछ कहा ही तो, कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। सब सुंदर है, सब बढ़िया है जहां हो तुम वहीं पर पूरे हैं। और कहां नहीं हो तुम। अब बताओ किसको चाहिए मुक्ति और किसको चाहिए शांति और किस को होना है निर्मल। तुम्हें मलिन कर कौन सकता है। मलीनता तुम्हारी मौज है। विकार और वृत्तियां तुम्हारी दासियां है। जिस दिन तक तुमने इन्हें आज्ञा दे रखी है, जिस दिन तक तुमने इन्हें सर पर चढ़ा रखा है ये उछल-कूद कर रहे हैं। तुम्हारी अनुमति से आए हैं तुम्हारी अनुमति से पीछे हट जाएंगे। तुम्हारा ही रूप है, तुम्हारा ही अनुचर हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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