तुम होते कौन हो जज करने वाले? || (2021)

Acharya Prashant

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तुम होते कौन हो जज करने वाले? || (2021)

प्रश्नकर्ता: मेरा एटिट्यूड रहता है कि अगर कोई बंदा है उसमें कुछ अच्छाईयाँ हैं कुछ बुराइयाँ भी हैं; एवरीथिंग इज देअर (सब कुछ है)। तो उसके अंदर जो अच्छाइयाँ हैं उसके उस अच्छाई को बढ़ावा दिया जाए और तारीफ की जाए, जिससे उसमें सकारात्मक बदलाव हो। और 'किसी को जज न करो' इस विषय में मैं सोचता हूँ कि यदि कोई अपराधी भी मेरे सामने आ जाए तो मैं सोचता हूँ कि जज करने वाला मैं कौन होता हूँ, उसको बुरा कहने वाला मैं कौन होता हूँ। उसकी भी कुछ मजबूरियाँ रही होंगी तभी वो अपराधी बन गया और उसमें भी कुछ अच्छाईयाँ हैं। तो मैं उसकी अच्छाइयों को देखता हूँ। क्या मैं सही हूँ इस विषय में?

आचार्य प्रशांत: देखिए पहली चीज़ जो इन्होंने कही कि आदमी होता है आदमी में कुछ अच्छाईयाँ भी होती हैं कुछ बुराईयाँ भी होती हैं। तो जो अच्छाइयाँ हैं उनकी ओर क्यों न देखें, पॉज़िटिव (सकारात्मक) क्यों न जिएँ।

आपका जो पूरा मेंटल मॉडल है न पेराडाइम , वो बिहेवियरल (स्वभाव सम्बन्धी) है। आप देख रहें हैं कि एक आदमी है — बहुत ग़ौर से समझिएगा — एक आदमी है उसके पास कुछ चीज़ें हैं, कुछ अच्छी चीज़ें, कुछ बुरी चीज़ें हैं। कुछ उसे आप बोल रहे हैं 'उसके पास' 'उसमें', कुछ गुड क्वालिटीज़ हैं, कुछ बेड क्वालिटीज़ हैं। तो आप उन चीज़ों की बात कर रहे हैं जो उसके पास हैं, आप उसकी नहीं बात कर रहे 'जो वो है'।

आप उसके केंद्र की बात ही नहीं कर रहे हो आप उसके बिहेवियर की बात कर रहे हो। आप उसके केंद्र की बात नहीं कर रहे हो, आप उसके गुणों की बात कर रहे हो। जो असली बात है वो ये है कि अगर केंद्र ही गलत है तो कुछ भी अच्छा नहीं हो सकता। और जब आप ये बोल देते हो कि उसमें कुछ बुरा तो है लेकिन साथ-ही-साथ कुछ अच्छा भी है तो आप उसे ये भरोसा दे देते हो कि, "तुझे अपना केंद्र विस्थापित करने की, अपना सेंटर डिस्प्लेस की कोई जरूरत नहीं बेटा, तू ठीक है, तू ठीक है, बस तुझसे कुछ गलतियाँ हो गईं हैं।" और यही कहकर के तो हम किसी को भी बदलने नहीं देते, बेहतर नहीं होने देते। या ये कह लीजिए कि हम सारा बदलाव, सारी बेहतरी बस सतही तौर पर आने देते हैं, गहराई से किसी को नहीं बदलने देते।

उदाहरण के लिए आप कहेंगे दुर्योधन में भी तो कुछ अच्छाइयाँ थीं, कहते हैं कि नहीं कहते हैं? इससे बात पूरी तरह समझ में आ जाएगी। दुर्योधन में भी तो कुछ अच्छाइयाँ थीं न? क्या अच्छाइयाँ थीं? आप कहेंगे अनुशासन था, नहीं तो वो इतना अच्छा गदा युद्ध कैसे करता। बात समझ रहे हैं? वो भी तो इतना बड़ा योद्धा था, सूरमा था, भीम को टक्कर देता था, तो ज़रूर बहुत अनुशासन से उसने गदा भांजना सीखा होगा। अनुशासन है उसमें लेकिन वो सारा अनुशासन उसका किस केंद्र से आ रहा है? सेंटर क्या है उसका?

आप कहोगे, "दुर्योधन में भी तो कुछ पॉज़िटिव है न, बी पॉज़िटिव !" पर दुर्योधन का सारा जो डिसिप्लिन , अनुशासन है वो किस केंद्र से आ रहा है? वो अनुशासन क्यों था उसमें? ताकि वो किसी की गद्दी हड़प सके, ताकि वो कृष्ण के खिलाफ़ खड़ा हो सके। तो दो कौड़ी की है न ऐसी पॉज़िटिविटी जो गलत सेंटर से आ रही है। सेंटर तो बताइए मुझे? आप क्वालिटी देख रहे हो सेंटर देख नहीं रहे।

कंस में कुछ गुण नहीं थे क्या? जुडास में नहीं थे? मेघनाद, कुम्भकरन, विभीषण, शकुनि में नहीं थे? शकुनि से अच्छा कौन फेंकता था पाँसा? तुम मुझे एक आदमी दिखा दो जिसमें कोई अच्छाई ना हो। और इन सब अच्छे लोगों ने ही आज दुनिया को तबाह कर दिया, दुनिया नर्क बना दी, इतनी प्रजातियाँ सब विलुप्त हो गईं। हमें पता भी नहीं है कि हम इतिहास के सबसे गंदे दौर में जी रहे हैं। ये किसने किया? ये इसी रवैए ने किया कि हर आदमी में कुछ अच्छा होता है, कुछ बुरा होता है। आदमी कैसा है ये तो बताओ।

मेरे पास ये है (रुमाल और रिमोट हाथ से उठाते हुए), ये सफेद है ये काला है तुम बोल दोगे — ये मेरी अच्छाई है, ये मेरी बुराई है। इसमें तुमने ये तो बताया ही नहीं कि ये जो मेरी अच्छाई है ये सारी अच्छाई मैं किसके लिए इस्तेमाल करूगाँ अगर मैं ही बुरा हूँ तो। बहुत-बहुत अनुशासन है, कहाँ से आ रहा है? अलकायदा से आ रहा है। वो अपना सारा डिसिप्लिन किसलिए इस्तेमाल कर रहा है बोलो मुझे?

इतने सारे स्लॉटर-हाउसेज (बूचड़खाने) हैं वो सुप्रीम इफिशन्सी (उच्च कार्यक्षमता) के साथ ऑपरेट (संचालन) कर रहे हैं। क्या पॉज़िटिव बात है! कुछ सीखना चाहिए, हमें भी इनसे भी कुछ सीखना चाहिए। भई, वो इतनी जो इफिशन्सी दिखा रहा है वो किसलिए दिखा रहा है? कत्ल करने के लिए दिखा रहा है। पर आपमें इतना प्रेम नहीं होता कि किसी के जीवन में इतनी गहराई से प्रवेश करके उसको बताएँ कि तुझमें जो अच्छाई भी है न वो अच्छाई किसी बहुत ग़लत चीज़ को समर्पित है। जिसको तुम अच्छाई बोलो। और फिर तुम अच्छाई बोलते किन चीज़ों को हो? जो तुम्हारे काम की लग रही है तुम उसे अच्छाई बोल देते हो।

अच्छे और बुरे का सिर्फ एक निर्धारण होता है — केंद्र (हृदय की ओर इंगित करते हुए), या तो ये अच्छा है या तो बुरा है, बाइनरी चलती है इसमें, कोई बीच की बात नहीं होती। लेकिन ये भी एक मोडर्न पैराडाइम (आधुनिक आदर्श) है — "यू नो लाइफ इज़ ग्रे (जीवन काला और सफेद दोनों है) कोई पूरी तरह सही नहीं होता, कोई पूरी तरह ग़लत नहीं होता, वी शुड लर्न फ्रोम एवरीबॉडी (हमें सभी से सीखना चाहिए)। ये सब शैतानी वक्तव्य हैं इन्होंने ही दुनिया खा ली।

युअर ट्रुथ टू यू एंड माइन टू मी, देयर आर मल्टीपल ट्रुथस, वी लिव इन अ वेरिएटैड वल्ड (आप अपने जगह सही हो और मैं अपने जगह, दुनिया में कई सत्य हैं)। बर्बाद कर दिया इन बातों ने दुनिया को। तो फिर दुर्योधन का सच दुर्योधन के साथ, अर्जुन का सच अर्जुन के साथ; कृष्ण क्यों अर्जुन के साथ खड़े हैं? हू इज़ कृष्ण टू जज दुर्योधन? (कृष्ण कौन होते हैं दुर्योधन को जज करने वाले?), कि भीम इसकी जाँघ तोड़ दे। ये तो बड़ा जज्मेंट कर दिया। फिर तो ये सुप्रीम कोर्ट किसलिए है, बड़े पापी हैं सब जज ही जज हैं, उनका तो काम ही है जज करना।

कुछ बात समझ में आ रही है?

दूसरी बात — "हाऊ एम आई टू जज एनीबॉडी (मैं दूसरों के विषय में निर्णय कैसे ले सकता हूँ), जिसने भी जो कुछ भी किया है उसका कुछ अतीत है न।" अगर सब अपने अतीत के ही ग़ुलाम हैं तो फिर विकल्प कहाँ है? फिर तो किसी भी चीज़ पर किसी को भी सज़ा दी ही नहीं जा सकती। अगर हर व्यक्ति अपने अतीत का और बाह्य परिस्थितियों का ही ग़ुलाम है, जो कि बात इसमें कही जाती है कि मैं कैसे जज करूँ जो कुछ भी कोई कर रहा है उसके पीछे कोई कारण होगा। तो फिर एजेंसी कहाँ है, चॉइस कहाँ है? फिर तो हर चीज़ वैध ठहराई जा सकती है, जस्टिफाई की जा सकती है, ये बोलकर कि 'मैं क्या करूँ'। वही — "देवदास मैं तो मजबूर थी मैं क्या करूँ, हालात ऐसे थे कि मुझे ये करना पड़ा, मैं बुरा आदमी थोड़े ही, हूँ मुझसे बुरा काम हालातों ने करवा दिया।" ये क्या बकलोली है? (श्रोतागण हँसते है) कुछ भी! 'मैं क्या करूँ', और ये खूब चलता है।

और अब तो ये और चलेगा, क्यों? क्योंकि अब आज हर आदमी अपने-आपको घोषित करने में लगा हुआ है कि, "मानसिक तौर पर मुझे भी कोई बीमारी है।" आई एम नॉट कूल , अगर मुझे कुछ है नहीं। अगर मेरा खोपड़ा शांत है तो इसका मतलब मैं आउटडेटेड (पिछड़ा हुआ) हूँ। अगर आपको कोई बीमारी नहीं चल रही है इस वक़्त, इसका मतलब ये है कि आप अनकूल हो बहुत।

कूल होने का मतलब ही यही है कि आपको दो चीज़ें घोषित करनी पड़ेंगी। पहला — कि आपके साथ बचपन में कोई-न-कोई ज़बरदस्त हादसा हुआ था। कोई सेलिब्रिटी मुझे दिखा दो जो ये डिक्लेयर करने पर ना उतारू हो कि उसके साथ तीन की उम्र में, पाँच की उम्र में क्या हुआ था। ये कैसे घरों में रहते हैं कि इनके साथ यही सब होता रहता है? अजीब!

और दूसरी चीज़ ये कि कुछ-न-कुछ खोपडे में होना चाहिए — "मुझे ये बीमारी है, मुझे फलानी बीमारी है, मुझे फलानी बीमारी है।" अब क्या है न, शरीर की बीमारी बताओगे तो पकड़ में आ जाएगी कि बीमारी नहीं है, जो बोल रहा है कि मेरे एक पाँव नहीं वो तो दिख रहा है पाँव है, झूठे। तो ये मानसिक बताते हैं जो पकड़ में ही नहीं आ सकता, है कि नहीं है। "मुझे ये चल रहा है, मुझे वो चल रहा है।" और एक बार तुमने ये बोल दिया तो अब तो तुम्हें लाइसेंस मिल गया न — "मैं क्या करूँ मैंने थोड़े ही करा है, मुझसे तो मेरी बीमारी ने करा दिया, *डोंट जज मी*।" ये क्या है?

"मैंने थोड़े ही करा है, मुझसे तो मेरी बीमारी ने करा दिया। मुझसे ऐसा हो जाता है उस समय। जब मेरे साथ वो वाला मेनिआ आता है मुझपर या वो फलाना फोविआ चढ़ जाता है तब मैं ऐसा करने लग जाती हूँ, *डोंट जज मी*।"

ये बहुत-बहुत ख़तरनाक बातें हैं — "ये तो मेरा खाना है, *इट्स माइ फूड़ डोंट जज मी, हाऊ केन यू जज माइ प्लेट*।" वो जान है किसी की। तूने किसी को भी मारकर खाया है और तू बोल रहा है, "डोंट जज मी * ।" क्या मज़ाक चल रहा है? और ये समाज में स्वीकृत हो चुका है, ये * कल्ट बन चुका है। ये न्यू एज टु्रुथ है *डोंट जज मी*।

"मैं होता कौन हूँ", कितनी आपने ह्यूमैनिटी दिखाई। "मैं होता कौन हूँ किसी को जज करने वाला" अच्छा! तो आपने ये चीज़ भी क्यों जज की कि होते कौन हैं जज करने वाले? ये भी एक जज्मेंट है कि नहीं? कि आइ एम नोबॉडी टू जज एनीबॉडी, इज़ दिस इटसेल्फ नॉट अ जज्मेंट ? आपने अभी-अभी अपनी हैसियत नापी कि नहीं नापी? ये बोल कर के कि मैं छोटा हूँ या कि मैं वेल इक्विपड (साधन सम्पन्न) नहीं हूँ किसी को जज करने के लिए। तो ये भी तो एक जज्मेंट है न, ये भी क्यों किया? होना ये चाहिए था कि आपसे कहा जाए जज राइटलि (सही मत दो), कहा जाना चाहिए था जज ऑनेस्टली (ईमानदारीपूर्वक मत दो)। उसकी जगह आपको क्या कह दिया गया? "*डोंट जज*।"

कुल मिलाकर के उद्देश्य बस एक है — ना तुम मुझे मेरी खोट बताओ, ना मैं तुम्हें तुम्हारी खोट बताऊँगा, अहंकार सर्वोपरि है, तुम वैसे जियो जैसे तुम्हारा अहंकार बोलता है और मैं वैसे जिऊँगा जैसा मुझे मेरा अहंकार बोलता है। मैं भी दुनिया का नाश पीटूगाँ, तुम भी दुनिया का नाश पीटो, और दोनों एक-दूसरे को जज नहीं करेंगे।

समाज में इतनी बेवकूफियाँ चल रही हैं, इसलिए चल पा रही हैं क्योंकि वो लोग जो जान रहे हैं कि ये बेवकूफियाँ हैं, वो मुँह पर नहीं बोलते कि ये बेवकूफी़ है। क्यों नहीं बोलते? "अरे हम कैसे जज करें, अगर हम कुछ बोलोंगे तो हमसे कहा जाएगा ओ माइ गॉड ही इज़ सो जज्मेंटल * ।" हाँ हूँ * जज्मेंटल , काले को काला सफेद को सफेद बोलूँगा।

खुलेआम बदतमीज़ियाँ चल रही होंगी। ये (ऋषिकेश) एक धार्मिक स्थल है, ठीक? और अभी रात में यहाँ पर न जानें यहाँ क्या-क्या बेवकूफियाँ और वाहियात गाने ये सब चालू हो जाएँगे। और आप लगा दीजिए अपना तर्क कि, "देखो उस गाने के पीछे न, ज़रूर उसके अतीत में छुपी हुई कोई दुर्घटना है तो मैं उसको कैसे मना कर सकता हूँ?" भई दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को फिर अस्पताल में होंना चाहिए न, वो गाने लगाकर नाच क्यों रहा है? अगर उसको इतनी ही चोट लगी है दुर्घटना से, तो फिर उसको सही जगह पर रखा जाना चाहिए, क्वारंटीन (संगरोध) करो भाई बेचारा दुर्घटनाग्रस्त है।

आपके सामने जो कुछ हो रहा हो अगर आप उसको सीधे-सीधे बोलकर के खुलेआम रोकना शुरू कर दें, टोकना शुरू कर दें, तो वो रुकेगा, उसे रुकना पड़ेगा। पर हम उसे स्वीकृति दे देते हैं, कैसे? मौन स्वीकृति, पेसिव एक्सेप्टेंस * । हमारे सामने चल रहा है, हम कुछ बोलते ही नहीं। "क्यों बोलें, * हू एम आइ टू जज ?"

ऋषिकेश में माँस मना है। आप जिस रेस्त्राँ में बैठे होगें, आपके बगल के टेबल पर मटन बिरयानी चल रही है, "हू एम आइ टू जज ?" और धार्मिक तौर पर नहीं, सामाजिक तौर पर नहीं, कानूनी तौर पर मना है। आप बोल दीजिए — "हू एम आइ टू जज , क्या पता बकरे ने आत्म-हत्या ही करी हो?"

गंगा बीच पर वो प्रीवेडिंग-पोस्टवेडिंग फोटोशूट चल रहा होता है, कोई उन्हें कुछ बोलने वाला नहीं। मैं नहीं कह रहा हूँ आप जाकर के वहाँ उन पर चीखें-चिल्लाए या कुछ करें। पर एक चीज़ कहती है सेज काउंसिल , समझते हैं सेज काउंसिल ? किसी को जाकर के उसके हित में कोई सलाह देना। इतना तो बोल सकते हो कि, "गंगा का तट इसलिए नहीं है कि तुम यहाँ पर अधनंगी हो कर अपना प्रीवेडिंग-पोस्टवेडिंग कराओ। लोग यहाँ पर शांति, मौन और ध्यान के लिए आते हैं, तुम दोनों ये कर क्या रहे हो यहाँ पर?" और ये बात चिल्ला कर के या हिंसात्मक तरीके से बोलने की ज़रूरत नहीं है, धैर्य के साथ और सज्जनता के साथ भी बोली जानी चाहिए या नहीं? पर आप नहीं बोलोगे। "हू एम आइ टू जज ? इन दोनों में प्यार इतना हो, क्या पता कि ये गंगा किनारे ही प्रेममय हो गए।"

बंटाधार हुआ जा रहा है सबकुछ, इसीलिए क्योंकि हमने उन चीज़ों को मौन स्वीकृति दे रखी है। आवाज़ नहीं उठाएँगे, लगेगा हम होते कौन हैं। और वो खूब आवाज़ उठाते हैं। ये शैतान के जितने एजेंट हैं आप ज़रा-सा कुछ इनके ख़िलाफ़ कर दीजिए देखिए ये कितनी आवाज़ें उठाएँगे। मीडिया पर यही छाए हुए हैं, प्रेस पर यही छाए हुए हैं।

ले-देकर के तर्क एक है — कमज़ोरी को प्रश्रय देना है। "क्या पता बेचारा ये इसलिए कर रहा हो क्योंकि ये मजबूर हो। हमें क्या पता इस बेचारे की स्थितियाँ क्या हैं, इसलिए ये कर रहा है।" इस तर्क के केंद्र में जान रहे हैं न क्या है, क्या है? कमज़ोरी के प्रति बहुत सारी सहानुभूति। और वो सहानुभूति सिर्फ कमज़ोरी को बचाए रखने का काम करती है। झूठ के प्रति बहुत सारी सहानुभूति; झूठ बचा रह जाता है।

"नहीं जी, हम तो मीट-मच्छी नहीं खाते हैं लेकिन बच्चे खाते हैं। हें हें हें! वो क्या कर सकते हैं उनकी भी तो अपनी ज़िंदगी है न। अब तो उनको देखना है। हम कैसे रोक-टोक कर सकते हैं, हें हें हें! लिबरल पेरेंट्स हैं भई।"

"हमने तो बस ये बोल रखा है घर पर मत खाना जब खाने का मन हुआ करे तो बाहर चले जाया करो। या हमने उनके बर्तन अलग कर दिए हैं घर पर।" बर्तन अलग करके ज़हर काहे नहीं पिला देते? अलग-सा कटोरा हो, ज़हर का कटोरा। बोलो?

बर्तन अलग करने से ही तुम पाप से मुक्त हो गए, तो एक मस्त कटोरा लाओ काले रंग का और बोलो — "हम क्या कर सकते हैं। हमारे बर्तन तो अलग थे हम उसमें चाय पीते थे, वो नुन्नू जाकर के ज़हर पी आया काले कटोरे में। हम क्या कर सकते हैं।" तब काहे नहीं बोलते, "उसकी मर्ज़ी, हू एम आई टू जज "?

ज़हर पी रहा होता तब काहे रोकते हो? बोलो? तब तो जज कर लिया। तब कहाँ गई पर्सनल फ्रीडम, इंडिविजुअल लिबर्टी ? भई एक आदमी का अपनी जान पर कुछ अधिकार होना चाहिए या नहीं? उसका पूरा अधिकार है वो पी रहा है, तब काहे रोकने गए? और अलग कटोरे में पी रहा है भई! तब कैसे रोकने पहुँच जाते हो?

और अगर तुमको पता है कि कुछ बातें ग़लत होती ही हैं जैसे कि ज़हर पीना, तो वैसे ही तुम्हें ये क्यों नहीं पता कि कुछ और बातें भी ग़लत होती ही हैं? या सिर्फ एक ही चीज़ ग़लत होती है; ज़हर पीना? ये कौन सी फिलॉसफी (दर्शन) है कि ज़हर पी रहा होगा कोई तब तो हम उसको रोक-टोक सकते हैं पर और वो दुनिया भर के कुकृत्य कर रहा होगा तो उसको रोक-टोक नहीं सकते। सिर्फ ज़हर पीना ही ग़लत काम है? उसके अलावा नम्बर दो पर कोई ग़लत काम नहीं आता? और नहीं आता तो आप आवाज़ क्यों नहीं उठाते?

फिर हमारी एक समस्या ये भी है कि हमें पता भी तो नहीं है कि किस चीज़ पर किसी को रोकें-टोकें। मैं इतना ज़ोर देकर इसलिए बोल पा रहा हूँ क्योंकि मुझे स्पष्टता है। उसी स्पष्टता से मेरी ऊर्जा आ रही है। मैं जानता हूँ कि कुछ ग़लत है, कुछ सही है। आप तो खुद ही अपने भीतर गुत्थम-गुत्था हो, गड्ड-मड्ड कन्फ्यूजड , तो आपको लगता है, "क्या पता सही ही हो, कौन फ़ालतू में कढ़ाई में सर डाले, कहीं बेइज्ज़ती न हो जाए, कहीं ये ना निकल कर आए कि ये जो लोग कर रहे थे वही सही था हमने फ़ालतू में विरोध करके अपनी बेइज्ज़ती करा ली।" लेकिन अगर आपके पास वो स्पष्टता नहीं है क्लेरिटी कनविक्शन नहीं है तो फिर ज़िंदगी भी आपकी बहुत बढ़िया नहीं चल रही होगी।

आध्यात्मिक आदमी कभी निरपेक्ष नहीं खड़ा हो सकता, कि वो तटस्थ खड़ा है और जो कुछ भी चल रहा है उसको चलने दे। ऐसे ही नहीं इतने जानने वालों को, ज्ञानियों को इतिहास में यातनाएँ दी गईं, मृत्युदंड भी दिया गया। इसलिए दिया गया क्योंकि वो खड़े हो जाते हैं फिर। वो कहते हैं, "बात हमें दिख गई है अब अनदेखा कैसे कर दें?"

थोड़ी देर पहले आपने एक बात कही थी कि एक धार्मिक मूल्य है या संस्कार की बात है सच बोलना, आपने कहा था। सच बोलोगे तो तब न जब पहले सच दिखाई देगा और सच का दिखाई देना प्रतिपल होता है। आपको अभी नीचे उतरोगे सड़क पर नहीं दिखेगा, तो कहाँ दिखेगा? सड़क पर नहीं दिख रहा घर पर दिख जाएगा अपने? ये ऐसी-ऐसी बात है कि मेरी जो आँखें हैं न वो सड़क पर नहीं देख पातीं पर घर आते ही देखने लग जातीं हैं। ये कौन सी फर्ज़ी आँख है?

दिखेगा तो यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखेगा। फिर ख़तरा हो जाता है, क्या है कि सड़क पर दिख गया तो चलो कोई बात नहीं अनजाने-बैगा़ने लोग थे, उनको टोक दिया। अब घर पर जाकर कैसे टोकेंगे। वहाँ पतिदेव बैठे हुए हैं, उनको टोका तो ख़तरा है। तो फिर हम कहते हैं जब पतिदेव को नहीं टोक सकते तो सड़क वालों को भी नहीं टोकेंगे, सुरक्षित रहो। हम किसी को नहीं टोकेंगे और बोल देंगे — "मैं तो बहुत लिबरल आदमी हूँ, मैं टोका-टोकी नहीं करता भई, सबको सबकी फ्रीडम (आज़ादी) मिलनी चाहिए।"

ये सब आपको सामान्य लग रहा है। आपको नहीं समझ में आ रहा कि हम — इतना पुराना इतिहास है आदमी का और उससे कहीं ज़्यादा पुराना इतिहास है जीवन का, और उससे कहीं ज़्यादा पुराना इतिहास है पृथ्वी का, और उससे भी और ज़्यादा पुराना इतिहास है ब्रह्मांड का। इंसान तो एकदम उसमें सबसे नया-नया है। फिर भी इंसान का बहुत पुराना इतिहास है, लाखों वर्षों का। वो जो लाखों वर्षों का हमारा इतिहास है वो कुछ दशकों में हम खत्म किए दे रहे हैं। तो आप समझ रहे हैं? कहाँ लाखों साल और कहाँ कुछ दशक, चालीस-पचास साल, साठ या सत्तर साल, इतने में हम सब साफ़ करे दे रहे हैं, सब खत्म।

उन्नीस-सौ-सत्तर, उन्नीस-सौ-अस्सी के बाद से पृथ्वी की जो दुर्दशा हुई है वो पिछले लाखों-करोड़ों साल में कभी नहीं हुई। और हुई भी थी तो बाहरी घटनाओं के कारण हुई थी। कि बहुत बड़ा कोई पत्थर आकर के साइबेरिया में गिर गया, मेक्सिको में गिर गया, तो बाहरी चीज़ थी, रोक नहीं सकते। पर किसी जीव या किसी प्रजाति ने इस ग्रह को इतनी क्षति लाखों-करोड़ों सालों में नहीं पहुँचाई थी जितनी हमने पिछले दस-बीस साल में पहुँचा दी है।

आप सोचिए तो हम कितनी गलत फिलॉसफी के साथ जी रहे होंगे। हम जो कुछ कर रहे हैं वो हमारी वेल्यूज़ से ही तो आ रहा है न? तो सोचिए तो कि इस युग की, इस समय की, इस एज की जो वेल्यूज़ हैं, जो मूल्य है वो कितने ग़लत होंगे कि इतना ज़बरदस्त डिवास्टेशन , संहार हमने पृथ्वी पर ला दिया है। ला दिया है, ला देंगे नहीं, ला दिया है। और उसके बाद हमें ये लगता है सब नॉर्मल (सामान्य) ही तो है, सब नॉर्मल ही तो है, *ऑल इज़ कूल*। (चेहरे पर खिन्नता के भाव से)नॉर्मल है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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