तुम ही मीरा, तुम ही कृष्ण || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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तुम ही मीरा, तुम ही कृष्ण || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्नकर्ता; आप मीरा जी के प्यार को क्या नाम देंगे? आप उसे भक्ति बोलेंगे या उसे कृष्ण के प्रति प्यार कहेंगे?

आचार्य प्रशांत: तो जसप्रीत (प्रश्नकर्ता) हम अपनी बात करें। मीरा हुए बिना, मीरा को जान नहीं पाओगे। बाहर-बाहर से देखोगे, दूर-दूर से समझने की कोशिश करोगे, कुछ बात बनेगी नहीं। जो तुम हो नहीं, उसको तुम जान सकते नहीं। मीरा क्या है और उसका कृष्ण से क्या सम्बन्ध है, इसके लिए मीरा ही होना पड़ेगा। तुमने जो कभी खाया नहीं, उसका स्वाद कैसे बताया जाए शब्दों से? तुमने जो पानी कभी पीया नहीं, वो प्यास कैसे बुझाएगा तुम्हारी? और उसके बारे में मैं कुछ बता भी दूँ कि H२O होता है और दिन भर बताऊँ और सब समझा दूँ कि कौन-कौन से बॉण्ड होते हैं, कॉवेलेंट बॉण्ड क्या होता है, हाइड्रोजन बॉण्ड क्या होता है, तो क्या प्यास बुझ जाएगी? मीरा और कृष्ण के बारे में तुमको दुनिया भर की कहानी सुना भी दूँ तो होगा क्या? मीरा और कृष्ण होना पड़ेगा न। इसीलिए कहा कि अपनी बात करो कि, ‘हम कहाँ पर खड़े हैं’ और वही असली सच है।

प्र: अगर कोई हो ऐसा?

आचार्य: अगर-मगर का सवाल नहीं है।

प्र: वैसा बनने के लिए भी तो जानना पड़ेगा।

आचार्य: वैसा जान-जान कर नहीं बना जाता। जब तुम कहते हो कि जान कर बनना है, तो तुम ये कहते हो कि भविष्य में बनना है। कुछ होगा तब बनेंगे और अभी क्या हैं? आधे-अधूरे। भविष्य में क्या हो जाएँगे? पूरे। अभी हैं अधूरे- यहीं पर चूक हो जाती है। अगर मैं तुमसे कह रहा हूँ कि मीरा हुए बिना, मीरा को नहीं जाना जा सकता तो ये इसीलिए नहीं कह रहा हूँ कि इसमें कोई योग्यता है। इसीलिए कह रहा हूँ कि मीरा तुममें ही बैठी हुई है और इसका तुम्हें पता ही नहीं है। उसको जब याद करेगी, तो सब समझ जाएगी अपने आप। भविष्य में नहीं घटेगी ये घटना, अभी घटेगी। अभी मीरा है वो, तुम सब मीरा हो और कृष्ण भी तुम्हीं हो। जान बस जाओ कि मीरा क्या, कृष्ण क्या, तो सब अभी होगा। वो जानना भविष्य में नहीं है, अभी है। समझना चाहते हो कि कैसे मीरा भी अभी हो और कृष्ण भी अभी हो?

मीरा प्रकृति है, तुममें जो कुछ तुम्हें प्रकृति से मिला है, वो मीरा है। ये शरीर, ये मन जो कुछ भी तुम्हें प्रकृति ने दिया है, वो मीरा है। कृष्ण चैतन्य है। वो प्रकृति पर निर्भर नहीं करता, वो प्रकृति का साक्षी है। वो देखता है प्रकृति को और प्रकृति के साथ है, साक्षी रूप में। तुम साक्षी तभी हो सकते हो जब करीब आ जाओ। मुझे किसी को देखना है, तो बड़ा करीब आना पड़ेगा। इस करीब होने को ही कृष्ण का रास कहते हैं कि कृष्ण प्रकृति के बड़े करीब आ गए। इसी को तुम्हारे एच.आई.डी.पी की भाषा में बोलते हैं चैतन्य हो गया।

चेतना क्या है? कृष्ण, और मन क्या है? मीरा। कृष्ण भी तुम्हीं में, मीरा भी तुम्हीं में; इन दोनों को मिल जाने दो। इसके बाद ऐसे ही नाचोगे जैसे मीरा नाचती थी, उतने ही खुश रहोगे जितनी मीरा खुश रहती थी। पर ये तब तक तुम समझ नहीं सकते जब तक वो मीरा सोई पड़ी है, जब तक वो मीरा दूर है कृष्ण से। मीरा, मीरा तभी है जब तक वो कृष्ण के पास है और कृष्ण भी कृष्ण तभी हैं जब मीरा उन्हें याद कर रही है। राधा और मीरा ही कृष्ण पर निर्भर नहीं हैं, कृष्ण को भी उनका साथ चाहिए।

राधा और कृष्ण सिर्फ प्रतीक हैं, ये पौराणिक तत्व हैं, ये प्रतीक हैं। मन के गहरे सत्यों को बताने के लिए कुछ बातों का सहारा लिया जाता है। राधा और कृष्ण की बात पूरी प्रतीकात्मक है। प्रतीक मतलब जो किसी ओर इशारा करता है, तुम्हें समझना पड़ेगा उस इशारे को। मीरा है तुम्हारे हाथ, तुम्हारे पाँव, तुम्हारी आँखें, तुम्हारी ज़बान, तुम्हारा पूरा शरीर, तुम्हारे मन की एक-एक हरकत- ये दो तरीकों से हो सकती है।

पहला, अचेतन होकर, बेहोशी में। तब तुम विरह में होते हो, तब तुम दुखी होते हो, बैचन होते हो। काम करते हो, पाँव चलते हैं, हाथ चलते हैं, मुँह से शब्द निकलते हैं, आँखें देखती हैं। पर वो सब बड़ा अव्यवस्थित रहता है, जैसे हमारा रहता है। इधर को चलते हैं और उधर पहुँच जाते हैं, मन कभी इधर को भागता है, कभी उधर को भागता है। ये सिर्फ मीरा है, जो कृष्ण से दूर है और इस कारण ये मीरा पगलाई हुई है। तुम्हारा मन पगलाया रहता, है न? कभी एक लक्ष्य की ओर भागता है और कभी दूसरे की ओर। कभी सोचते हो, "क्लास अटेंड करूँ" और कभी भागने का मन करता है। कुछ जानते नहीं हो जीवन में कि किधर को जा रहे हो, नहीं पता क्यों पढ़ रहे हो, क्यों नौकरी कर रहे हो, कभी कोई आकर्षित करता है, कभी कोई। ये तुम्हारा मन है, ये तुम्हारा शरीर है, जो कृष्ण के वियोग में है, जो दूर है चेतना से। मिलन नहीं हो पा रहा इसीलिए बिलकुल इधर-उधर पगलाया हुआ है, बेचैन है, भटक रहा है। यही जब योग में आ जाता है, योग माने मिल जाना। यही जब मिल जाता है, तब चेतना चमकने लगती है। तब यही मीरा बड़ी सुंदर हो जाती है। इसके गीत, इसके काम ऐसे हो जाते हैं कि फिर सैंकड़ों सालों तक याद रखे जाते हैं। इतनी ताकत और इतना साहस आ जाता है उसमें कि समाज की परवाह करना छोड़ देती है। तुम भी छोड़ दोगी जब तुम्हारे कर्म चेतना से निकलेंगे, समझ से निकलेंगे। कृष्ण माने समझ और जब वहाँ से निकलेंगे तो जैसे मीरा निर्भीक हो गई थी, तुम भी हो जाओगे। उसको ज़हर से भी डर नहीं लगा था। राणा ने विष दिया तो मानो अम्रत दिया, मीरा रानी फिर दिवानी कहाने लगी। तुम्हें भी फिर दीवाना-दीवानी कहलाने में कोई अंतर नहीं होगा। मगन रहोगे। ऐसी लागी लगन…

प्र: मीरा हो गई मगन।

आचार्य: और मगन होने का मतलब समझते हो? एक तरह की खुमारी, एक हल्का सा नशा, जो बिना पिये आता है। एक बेखुदी, जिसमें तुम कहते हो कि, "होने दो जो हो रहा है, हम मौज में हैं।" जब तुम चलते भी हो तो ऐसा लगता है कि नाच रहे हो। बिना बात ही खुश रहते हो। स्थितियाँ कैसे भी रहती हैं, तुम मौज में रहते हो। ये मीरा है जो परवाह नहीं कर रही कि, "मेरी जात क्या है", राजा के घराने से है और गुरु किसको बनाया था? एक निचली जात के व्यक्ति को। जूते सीते थे। वो अच्छे से जान गई है कि जात-पात में कुछ नहीं रखा। ऐसे ही तुम भी हो जाओगे, इन सब छोटी बातों की परवाह करना छोड़ दोगे। पर उसके लिए समझ का जगना ज़रूरी है। समझ ही कृष्ण है। ये व्यवाहरिक बात बता रहा हूँ, काम की, अभी की बात। जब समझ जागेगी, तब मीरा नाचेगी। उसी का नाम मिलन है, उसी का नाम योग है और उसी का नाम है, जीवन जीने की कला।

मीरा क्या है इसको देखो; एक साहसी औरत और एक समझदार औरत। मीरा वो है जो समझती भी है और नाचती भी है। गंभीर नहीं है वो कि उदास है, मुँह लटकाकर बैठी हुई है। जब वो कहती है कि, "गिरधर-गोपाल मिलो मैं तड़प रही हूँ", तो उसमें भी उसका आनंद है। वो अच्छे से जानती है कि कृष्ण को तो मरे हज़ारों साल बीत गए। जब वो गिरधर-गोपाल बोल रही है, तो ये मत समझ लेना कि वो उसी मुरलीधर को बुला रही है जो यमुना किनारे खेला करते थे। वो सिर्फ उसका तरीका है कहने का कि, "मुझे जीवन समझदारी में और प्रेम में जीना है।"

गिरधर-गोपाल समझदारी का, चेतना का दूसरा नाम है, प्रेम का दूसरा नाम है। मीरा होना अनिवार्य है हम सब के लिए। जीवन मिला ही इसीलिए है कि हमारी मीरा और हमारे कृष्ण मिल सकें। जिनके जीवन में मीरा और कृष्ण नहीं मिलते, वो बिलकुल सूखे, उदास घूमते रहते हैं, वो कुछ ऐसा बाहर पाने की कोशिश करते रहते हैं जो सिर्फ भीतर ही मिल सकता है। जो योग भीतर होना चाहिए था, उस योग को वो बाहर चाहते हैं। कैसे? कि, "थोड़ा पैसा मिल जाए, किसी से शादी कर लूँ, थोड़ी इज्जत मिल जाए समाज में, घर बनवा लूँ, गाड़ी खरीद लूँ", बस यही सब साधारण बातें। वो कुछ ऐसा बाहर तलाशते हैं जो बाहर मिल नहीं सकता, वो सिर्फ भीतर ही मिल सकता है। समझ में आ रही है बात?

मीरा को एक व्यक्ति की तरह मत देखना जो बाहर है। हम सब मीरा और हम सब कृष्ण।

यकीन नहीं हो रहा कि हम सब कृष्ण? "मेरी शक्ल देखो, मैं कृष्ण जैसा लग रहा हूँ? मेरे पास न मोर पंख है, न मुरली है, मैं कैसे कृष्ण?" "मुझे तो नाचना भी नहीं आता मैं मीरा कैसे हो गई? मुझे ज़हर पीने से बड़ा डर लगता है। वो सड़क पर नाचने लगी थी नंगे पाँव, मैं ऐ.सी से बाहर नहीं निकल सकती।" तुम भी वैसे हो जाओगे जब इश्क तुम्हें हो जाएगा। सड़क पर नाचोगे और सड़क पर नाचना वो नहीं कि फ़िल्मी गाना है और उस पर सड़क पर नाचते हैं। सड़क पर नाचने का मतलब है कि सारी आफतों के बीच भी नाचोगे, कि जीवन में संघर्श चलते रहेंगे और तुम नाचते रहोगे। परिस्थितियाँ अपना काम करती रहें पर उससे तुम्हारे उत्सव में कोई अंतर नहीं पड़ेगा। तुम कहोगे, "रोज़ पार्टी है, लगातार पार्टी चल ही रही है।" तुम ये नहीं कहोगे कि, "दिवाली आ जाए तो खुश हो लेंगे। बर्थडे कब है भाई?" एक सतत लगातार नृत्य चलता रहेगा। मज़ेदार है न मीरा?

वो सब कुछ जो मीरा ने छोड़ा था, हमें तो वही चाहिए। महल चाहिए, पैसा चाहिए, इज़्ज़त चाहिए, हमें तो ये सब चाहिए। मीरा ने छोड़ा नहीं था, मीरा को कुछ मिल गया था। जब हीरे मिल जाते हैं तो ये छोटी-मोटी चीज़ें छूट जाती हैं। जिसको कोहिनूर मिल गया हो वो इधर-उधर के पत्थर रखेगा क्या? तो मीरा ने त्यागा नहीं था, उसने फेंक दिया था। उसने कहा था कि अरबों की चीज़ मिल गई है तो ये दो-चार रुपयों की चीज़ का क्या करना है। तो डरो मत कि, "पापा क्या कहेंगे? बड़ी दिक्कत!" उस असली को पा लो तो ये बाकी जितनी नकली चीज़ें हैं सब छूट जाएँगी।

तुम कैसे-कैसे तो सवाल करते हो। संवाद में कोई कहता है कि, "डर बहुत लगता है।" कोई कहेगा कि, "ये आदत लग गई है कैसे छुड़ाएँ?" ये सब दो कौड़ी की बातें हैं, ये सब छूट जाएँगी जब मीरा बनोगे। फिर ये इधर-उधर की बातें कि दो रुपये खो गए उदास हो गए, दो परसेंट नंबर कम आ गए तो उदास हो गए, फिर ये सब बातें नहीं होंगी। किसी पिंजरे में बंद हों दो खरगोश और इंच-इंच जगह के लिए लड़ते हों और जब मुक्त हो जाते हैं और पूरा जंगल उनका है, तो फिर लड़ेंगे क्या इंच-इंच जगह के लिए? फिर कहेंगे कि, "हम बादशाह हैं, ये एक-एक इंच की बात कौन करता है?" एक-एक इंच की बात करनी ही इसीलिए पड़ती है क्योंकि पिंजरे में बंद हो।

मिल जाओ कृष्ण से, दूर नहीं हैं कृष्ण, अपने भीतर हैं। मंदिर मत जाया करो कि कृष्ण के पाँव छूने हैं। ऐसे हो जाओ कि अपने पाँव छू सको। काबिलियत सब में है कि अपने ही पाँव छू सको। आत्म-पूजा से बड़ी कोई पूजा होती नहीं। आत्म-पूजा तो तब करोगे न जब दूसरों की पूजा करना बंद करो। तुम्हारी नज़र हीरे पर पड़े कैसे, जब तुम्हारी नजर लगातार पत्थरों पर है? उस बड़े को जानो, वो तुम्हारा अपना है। उसी के कारण अभी तुम मुझे समझ पा रहे हो। वही तुम हो। उसी के कारण अभी तुम मुझे सुन पा रहे हो। उसी के कारण अभी तुम मौन हो। इसी का नाम कृष्ण है। इसकी अहमियत को जानो और इसी में जीना शुरु कर दो। फिर सब कुछ बढ़िया रहेगा। पढ़ोगे मौज में, खेलोगे मौज में। बेचैनियाँ हट जाएँगी। परिस्थितियाँ गड़बड़ हो सकती हैं, शरीर भी हो सकता है बीमार हो जाए, हो सकता है कभी रुपया-पैसा न रहे, ये सब चीजें आती-जाती रहती हैं, तुम्हारे हाथ में नहीं है, पर परिस्थितियाँ कैसी भी रहें तुम मौज में रहोगे। ये जो अभी रूखे रहते हो, उदास, गिरी पड़ी हालत, जैसे रस निचोड़ लिया गया हो, ऐसे नहीं रहोगे। कभी गन्ना देखा है, जब वो रस निकालने की मशीन में से हो कर बाहर आता है? तो वो जो निचुड़ा हुआ गन्ना होता है, वैसे ही हमारी शक्ल है। ये कुछ नहीं है, ये वियोग है। किसी काम में मन नहीं लगता है। कहने को जवान हो पर कोई जोश नहीं है। न मन जवानों जैसा है, न शरीर जवानों जैसा है। मीरा नाच लेती थी, ऐसे नहीं थी कि पंद्रह मिनट नाची और गर्मी लग गई और बेहोश हो गई। हम में से ज़्यादातर की ये हालत है कि पंद्रह मिनट नाचने के बाद ख़त्म। कृष्ण को देखा है? कृष्ण की छवि देखी है? गीता भी बोल सकते हैं और चक्र भी है हाथ में, कि जब ज़रूरत होगी तो पूरी तरह लड़ भी लेंगे और समझ इतनी है कि उसमें से गीता आ जाती है।

सब तुम्हारे भीतर है। ये सब कुछ तुम्हारी शक्तियाँ हैं, इनको पाओ। जवानी का मतलब समझते हो?

दिनकर की पक्तियाँ हैं:

"पत्थर सी हो मासपरशियाँ, लोहे से भुजदंड अभय,

नस-नस में लहर आग की तभी जवानी पाती जय!"

ऐसा कुछ हमारे पास है नहीं। कहाँ पत्थर सी मांसपरशियाँ? यहाँ ऊपर तीसरी मंजिल पर एक जिम है, उस पर धूल जमी हुई है। कितने लोग जाते हो?

प्र: सर बंद है।

आचार्य: अरे बंद इसीलिए हो गया क्योंकि तुम जाते नहीं हो। जिम बंद हो गया है, पर सड़क पर पत्थर तो अभी भी हैं। दो पत्थर ही लेने हैं, उस पर कपड़ा ही बंधना है और बस काफी है। और कुछ नहीं है तो खुला मैदान तो है न, उसमें दौड़ो। क्या बाँधता है तुम्हें? क्या रोकता है? उसके लिए बस उत्साह चाहिए। पर बुझा-बुझा मन, न खेल पाएगा; न दौड़ पाएगा; न पढ़ पाएगा; न नाच पाएगा। वो बुझा हुआ इसीलिए है क्योंकि अपनी समझ पर, अपने कृष्ण पर विश्वास नहीं है, दूसरों के इशारों पर चले जा रहा है। जो तुम्हारे भीतर ही है उसके साथ नहीं होना चाहते हो। ये नहीं कहते कि, "ज़िंदगी अपने कृष्ण के मुताबिक बिताऊँगा।" तुम कहते हो कि, "जो दूसरे कह दें वही ठीक।" बाहर तुमने हज़ार मालिक बना रखे हैं। कहा था न मैंने कि कंकड़-पत्थर जोड़ रखे हैं और भीतर जो असली चीज़ है, उससे कोई सरोकार नहीं है। मीरा एक कृष्ण की ओर देखती थी, हज़ार से वो नहीं लगी रहती थी। तुम्हारी ज़िंदगी में हज़ार हैं। तुम इन्हें कहते हो कि, "अपनी एक चेतना, एक समझ के आधार पर चलूँगा"? तुम्हारे हज़ार मालिक हैं। "पापा क्या कहेंगे?" दोस्तों ने कुछ आकर बोल दिया तो वो तुम्हारा मालिक बन गया। दुनिया क्या कर रही है उसकी ओर देखते रहते हो और उधर की ओर चल देते हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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