All I am seeing, when I see
All I am is hearing, when I hear
All I am is sentience, when I feel
All I am is understanding, when I know
वक्ता: ये ‘मैं हूँ’ ही इटेलिक्स में क्यों है?
श्रोता १: निरंतरता।
वक्ता: क्या निरंतरता? निरंतरता का मतलब समय हो गया। ‘अभी!’ जो भी ‘मैं हूँ’ वो अभी है। मशीन का कुछ ‘अभी’ नहीं होता; मशीन का बस अतीत या भविष्य होता है; मशीन का ‘वर्तमान’ नहीं होता। मशीन का अतीत होता है जो उसके भविष्य पर शासन करता है।
वाक्य कहता है: “जब मैं देखता हूँ, तो मैं देखना भर हूँ”। क्या कभी ऐसा होता है हमारे साथ कि जब हम देखते हैं तो बस देखना भर होता है? क्या कभी ऐसा होता है कि जब हम सुनते हैं तो हम बस सुनना होते हैं? क्या कभी ऐसा होता है? पता करिए! और यदि ऐसा होता है, केवल दो मिनट के लिए, तो फ़िर ज़िन्दगी भी आपने दो मिनट ही जी है। तो असल में आपकी उम्र क्या है फ़िर, ४ या ५ दिन? जैसे कोई बच्चा!
और जब ४, ५ या १० दिन की उम्र में ही मौत हो जाती है, बच्चे की ही, जो अपनी पूरी आयु नहीं जी पाया, तो ये कहते हैं कि अब ये अकाल मृत्यु हुई है, भूत बन गया। जिन लोगों का ध्यान दिन भर में बस दो ही मिनट का रहता है, वही भूत बनते हैं, या भूतनी।
(श्रोतागण हँसते हैं)
बात समझ रहे हैं? अगर दो ही मिनट के लिए देखना, सुनना या चेतना है, तो मतलब दो ही मिनट जिए। मशीन के साथ तो जीने जैसा कोई शब्द तो होता नहीं न। “मशीन जीती नहीं है, बस होती है”। तो अगर हम दो ही मिनट जी रहे हैं प्रतिदिन, तो आप अगर ६० साल भी जियें, ७० साल भी आपका अस्तित्व रहा, तो आप उसमें जिए कितने पल? कितने दिन जिए? दो मिनट प्रतिदिन के दर से कितने दिन का आपका जीवन हुआ ६० साल में भी? कितने दिन का हो गया?
श्रोता १: १० घंटे।
वक्ता: १० घंटे! बिचारा अस्पताल से बाहर भी नहीं आ पाया था। अस्पताल में ही मर गया था १० दिन का बच्चा। कहाँ जिया? शरीर बड़ा होने का अर्थ ये थोड़े ही है कि जीवन जिया गया है। शरीर समय का घुलाम है, वो बड़ा हो जाएगा, जीवन थोड़े ही जी लिया! बच्चा तो १० घंटे में ही मर गया। इतना सा था, मर गया।
अब कल्पना करिए, पहले तो आपने सोचा था कि यहाँ पर मशीनें बैठी हैं, और अब आप कह रहे हैं कि हम मशीनें पूरी तरह नहीं हैं। हम दिन में दो मिनट तो ध्यान में होते हैं, हालांकि दो मिनट भी बहुत बड़ी बात है। अब यहाँ पर देखिए कोई १० घंटे का बच्चा लेटा हुआ है, कोई ५ घंटे का, कोई १५ ही मिनट पहले पैदा हुआ बच्चा है, सब पड़े हुए हैं, और रो रहे हैं और हाथ-पाँव चला रहे हैं, और ये सब बच्चे ऐसे हैं जो थोड़ी-थोड़ी देर में मर भी जाएँगे। तो ये है हमारा जन्म और ये है उसकी सार्थकता।
श्रोता २: एक विद्यालय में एक मज़ाक या एक कोई वाक्य बहुत मशहूर था। तब तो वैसे ही मारी जाती थी मज़ाक के लिए, अब बात समझ आयी थोड़ी। “बुढ़िया बचपन में ही मर गयी”। और ये तब वैसे ही लगता था कि मज़ाक में कह देते होंगे।
वक्ता: (हँसते हुए) बुढ़िया बचपन में ही मर गयी।
(श्रोतागण हँसते हैं)
ये हमारे ८० वर्ष के गुप्ता जी, जिनका दो दिन की उम्र में देहांत हो गया। और दो फोटो लगी हुई हैं: एक उनके शरीर की, जो बढ़ गया था, ८० साल का हो गया था, और एक उनकी वास्तविक ज़िन्दगी।
कबीर क्या कह रहे हैं?
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय॥
यही अर्थ है इसका।
ये तो मशीन भी कर सकती है न, करती ही हैं, इतने बजे बंद हो जाना है; वो हो जाते हैं, हम भी बंद हो जाते हैं रात के ११ बजे।
शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।