प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जापान ने इतनी जल्दी तरक्की कर ली तो क्या उन्होंने भी किसी से तुलना करके ये सब किया?
आचार्य प्रशांत: तुम्हें वाकई लगता है उन्होंने कम्पेरिज़न करा? किस जापानी ने तुम्हें बताया है?
प्रश्नकर्ता: सर, किसी ने बताया नहीं लेकिन…
आचार्य प्रशांत: किस जापानी ने बताया है? बताओ न!
प्रश्नकर्ता: वो हर चीज़ में बहुत आगे हैं।
आचार्य प्रशांत: अरे हैं बड़े, आगे हैं! पर वो जितनी बुरी हालत में थे — उन पर तो एक ही एटम बम गिरा था, तुम्हारे भारत देश को देखकर लगता है रोज़ ही एटम बम गिरते हैं।
कम्पेरिज़न से ही आदमी बढ़ता होता तो जैसे जापानियों को लगा कि हम पीछे रह गये, युद्ध में भी हार गये, उनके दो शहर भी तबाह कर दिये गए — तो जैसे वो तुलना कर-करके आगे बढ़ गये, तो हमें भी तुलना करके और आगे बढ़ जाना चाहिए था।
भई, अगर वो पीछे थे, तो हम और पीछे थे! अगर तुलना से आदमी आगे बढ़ता होता तो हमें तो सबसे आगे होना चाहिए था, हम सबसे फिसड्डी हैं, जो सबसे फिसड्डी है उसे सबसे ज़्यादा जलन होनी चाहिए और जितनी जलन होगी उतना ही बड़ा रॉकेट बनेगा और भागेगा और आगे निकल जाएगा।
तो क्या तर्क दे रहे हो कि जापानी तुलना करके आगे निकले हैं? जापानी तुलना करके नहीं निकले हैं, जापानी आगे निकले हैं क्योंकि उनमें कुछ है जो उनके बाहरी वातावरण में भी दिखाई देता है।
‘जेम्स एलेन’ की एक किताब है, ‘ऐज़ अ मैन थिंकेथ।’ उसमें उन्होंने दोहरा-दोहराकर एक ही बात कही है कि बाहर तुम कैसे हो ये इस पर निर्भर करता है कि तुम्हारा मन कैसा है। तुम्हारा घर कैसा दिखता है उससे यही पता चलेगा कि तुम्हारा मन कैसा है।
तुम किस गाड़ी में चलते हो उससे यही पता चलता है कि तुम्हारा मन कैसा है, तुम कपड़े कैसे पहनते हो उससे यही पता चलता है। तुम्हारा वज़न ज़्यादा हो रहा है या संतुलित है उससे यही पता चलता है कि तुम्हारा मन कैसा है, बार-बार उसने यही कहा है — ऐज़ अ मैन थिंकेथ , ऐज़ अ मैन थिंकेथ सो डज़ ही बिकमेथ आज अगर जापान तुम्हें साफ़ दिखाई देता है, आज अगर जापान में तुम्हें बड़ी समृद्धि दिखाई देती है तो उसका कारण है जापानी मन। जापानी मन में कुछ है।
आज अगर जापान में ट्रेनें लेट नहीं चलती हैं तो उसका कारण ये है कि जो जापानी मन है वो सुव्यवस्थित है। वो तुलना थोड़े ही कर रहा है कि अमेरिकी ट्रेनें कितनी लेट होती हैं हमारी क्यों नहीं लेट होनी चाहिए। ये उसके मन में कुछ ऐसा है कि वो कहता है, ‘नहीं, समय की बड़ी कद्र है मेरी ट्रेन लेट नहीं चलेगी।’
और भारत में ट्रेन लेट-ही-लेट चलती है तो उसका कारण ये है कि हमारा मन लीचड़ है। हमें कोई दिक्कत ही नहीं होती है कहीं खुद लेट पहुँचने में। जब तुम्हें दिक्कत नहीं होती कहीं लेट पहुँचने में तो तुम्हारी ट्रेनों को क्यों होगी?
ट्रेनों को गाली देते हो, ‘तीन घंटे लेट!’ और तुम कैसे रहते हो? आज क्लास में कितने बजे आये हो? क्या टाइम पर आये थे? खुद लेट घुसते हो — तो ट्रेन खुद चलती है? उसको भी आदमी चलाता है एक इंजन पर बैठा हुआ ड्राइवर, और दस लोग बैठे हैं जो उसकी व्यवस्था देख रहे हैं, ट्रेन खुद तो उड़कर नहीं पहुँचेगी!
जो इंजन ड्राइवर है वो वही आदमी है जो पिछले दिन एक शादी की पार्टी में दो घंटे लेट गया था। वो वही आदमी है न, उसका मन तो वही है। जब वो वहाँ लेट जा रहा है तो ट्रेन भी लेट चल रही है, तो इसमें ताज्जुब क्या है?
हमारी ट्रेनें गन्दी, सड़कें देखो टूटी-फूटी, घर साफ़ होता है बाहर गन्दगी फैली होती है, बाहर गन्दगी फैली होती है क्योंकि मन गन्दा है हमारा। सड़कें टूटी-फूटी हैं क्योंकि बुद्धि टूटी-फूटी है। जैसा इधर है वैसा ही बाहर दिखाई पड़ता है, तुलना की बात नहीं है।
जो तुम हो वही अभिव्यक्त हो जाता है, जो तुम हो वही अभिव्यक्त हो जाता है (दोहराते हुए)। बियॉन्ड द ग्राॅस और क्या थी यही तो थी — जो हो वो प्रकट होकर रहेगा। मन ही तो है न जिससे सारे तुम्हारे कर्म निकल रहे हैं?
मन गन्दा तो सबकुछ तुम्हारे आस-पास गन्दा-ही-गन्दा! होगा! पक्का होगा! मन उद्विग्न तो चेहरा भी उद्विग्न हो जाएगा। मन छटपटा रहा होता है शरीर भी छटपटाने लगता है, वो देखो छटपटा रहा है (इशारे से बताते हुए) बड़ी देर से।
कभी कुर्सी ठोक रही है कभी बगल वाले को ठोक रही है। और लाचारी देखो ऑंखों में! इसी को बोलते हैं, ऑंखों में तूफ़ान सा क्यों है।
( सभी श्रोता हँसते हुए)
कुछ हो रहा है, मन चल रहा है। इधर ठीक करो, बाहर सब अपने आप ठीक हो जाएगा। ये इतनी छोटी सी बात है एचआइडीपी तुमसे बार-बार कहता है, ‘इधर ध्यान दो!’ वही जो वेक्टर ( एक मात्रा घटना है जिसमें दो गुण होते हैं परिणाम और दिशा) था तुम्हारा इधर को आओ वो बैठा है, बाहर की ओर न जाओ!
अन्तर्मुखी बनो, अन्तर्गामी बनो, उसको समझो! यहाँ ठीक कर लिया तो बाहर सब अपने आप ठीक हो जाएगा। नहीं तो कुछ नहीं।
प्रश्नकर्ता: सर नहीं हुआ तो?
आचार्य प्रशांत: हो जाएगा, होता है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने बोला तुलना ज़रूरी नहीं है, स्थिति को समझना ज़रूरी है, पर मुझे समझ नहीं आता समझे कैसे?
आचार्य प्रशांत: तुम्हें कैसे पता चलेगा कि तुम्हें मेरी बात समझ में आ रही है या नहीं?
प्रश्नकर्ता: कम्पेरिज़न।
आचार्य प्रशांत: कहाँ कम्पेरिज़न है? तुम्हें मेरी बात समझ आ रही है या नहीं, तुम ये जानने के लिए ये तुलना करोगे कि उसको समझ में आयी कि नहीं या बस अपने आप को देखोगे?
प्रश्नकर्ता: अपने आप को देखूँगा।
आचार्य प्रशांत: तो तुलना तो नहीं है न! तुम्हें कैसे पता चलेगा कि तुम्हें भूख लगी है कि नहीं? तुलना करोगे? तुलना करोगे क्या? तुम्हें एक सौ चार बुखार है और सभी को बुखार है एक सौ चार — तो ये कहोगे कि मैं स्वस्थ हूँ क्योंकि तुलना से तो यही पता चल रहा है, जितना सबका है उतना मेरा भी है! तुम्हें एक सौ चार बुखार है सबको एक सौ चार बुखार है, तो क्या कहोगे कि मैं स्वस्थ हूँ?
और अगर तुम्हें अन्ठानवे है तापमान, और सबको एक सौ चार है तो कहोगे कि मैं अस्वस्थ हूँ? क्योंकि सबका तो एक सौ चार है, मेरा भी एक सौ चार होना चाहिए! ये बातें अपनी होती हैं, हम खुद जानते हैं तुलना क्या करनी है?
समझ अपनी होती है, किसी पर निर्भर नहीं होती। तुम्हें कुछ समझ में आया कि नहीं आया ये तुम्हारी अपनी आन्तरिक घटना है भई! तुम्हें प्रेम है कि नहीं ये किसी से पूछने जाओगे, तुलना करोगे? ‘तू अपनी बीवी से कितना प्यार करता है? दस की स्केल पर बता! अच्छा, साढ़े आठ! मेरा सात है, इसका मतलब मैं प्यार नहीं करता।’
ये सब हरकत करोगे? प्रेम करोगे, किसी से गले मिलोगे, तो ये कहोगे? ‘पड़ोसी ढाई मिनट मिला था गले, मैं पौने तीन मिनट मिलूँगा। तभी तो प्रेम है, नहीं तो कहाँ! और लोग पता नहीं क्या-क्या तुलना करते हैं।
कद बढ़ाएँ, क्या-क्या बढ़ाएँ और तुलना ही कर रहे हैं। देखा होगा ऑटो पर चलता रहता है। ‘कद बढ़ाएँ, वरना पैसे वापस पाएँ।’ अब कद क्यों बढ़ाना है? क्योंकि पड़ोसी का कद ज़्यादा लम्बा है। ये लम्बाई-चौड़ाई के खेल में कब तक पड़े रहोगे? और हर कोई यही कर रहा है।
तुलना तुम्हारा जोकर बना देती है, जो हो नहीं वो बनकर घूम रहे हो। देखो न लड़कियों को, वो इतने ऊँचे-ऊँचे वो या सर्कस में चलते हैं उस पर चलती हैं, हाँ?
प्रश्नकर्ता: बम्बू।
आचार्य प्रशांत: अरे! बम्बू पर नहीं चलती लड़कियाँ, वो क्या होता है?
प्रश्नकर्ता: हील्स।
आचार्य प्रशांत: हील्स! कौनसी बोलते हैं उनको?
प्रश्नकर्ता: हाइ हील्स।
आचार्य प्रशांत: पेंसिल हील्स, हाइ हील्स। अब कसम से मैं ज़रा सा ऐसे पाँव टेढ़ा करके चल दूँ पन्द्रह मिनट तो सूज-वूज जाएँगे पॉंव, और वो इतना टेढ़ा करके चली जाती है, चली जाती है क्यों? क्योंकि पाँच फ़ुट दो इंच की है और तुलना करती है कि जो मिस वर्ल्ड वगैरह हैं पाँच फ़ुट सात इंच की है, कोई छ: फ़ुट की ही है। तो उसको अपना कद बढ़ाना है तुलना कर-करके, अपना जोकर बना रही है। और जब गिरती है तो बड़ी ज़ोर का गिरती है। चित बिलकुल (अभिनय करते हुए) अब उठेगी नहीं।
प्रश्नकर्ता: फ्रेशर्स डे के दिन हुआ था।
आचार्य प्रशांत: फ्रेशर्स डे को हुआ था? गिरी थी बढ़िया?
( सभी विद्यार्थी साथ में बताते हुए)
प्रश्नकर्ता: सबको नंगे पाँव चलना पड़ा था।
आचार्य प्रशांत: सबको नंगे पाँव चलना पड़ा था? अच्छा था, ऐसा ही होना चाहिए था। अरे! जितना तुम्हें मिला है कद, खुश रहो न! क्या तुम्हें उसमें जोड़-घटाव करना है, अब ये करना है, वो करना है। अब तो हेयर स्पेशलिस्ट आते हैं वो एक का लगा था पता नहीं क्या नाम, अवीर्या क्या! वो बाल बढ़ाता है उससे लगता है कि कद बढ़ गया। ये हेयर स्टाइल होती है उसमें वो बाल यूँ खड़े कर देता है तो दो तीन इंच तो ऐसा लगता है कि…
प्रश्नकर्ता: हाइट बढ़ गयी है।
आचार्य प्रशांत: तो ये सब बीमारियाँ चल रही हैं, नमूना बनना है तुलना कर-करके?
प्रश्नकर्ता: सर, ईगो के बारे में बहुत कुछ बताया गया है बहुत कुछ जाना है। बहुत प्रयास करने के बाद भी मतलब कोई-न-कोई सिचुएशन (परिस्थिति) ऐसी आ जाती है कि मतलब ईगो हम पर हावी हो जाता है और समझ में नहीं आता, बाद में सोचते हैं तो पता चलता है कि हाँ…
आचार्य प्रशांत: अभी अगर बाद में खयाल आ रहा है तो बाद में ही आने दो। पर जितनी जल्दी आये उतना अच्छा! फिर धीरे-धीरे एक समय ऐसा भी आता है कि ठीक उसी समय पकड़ में आ जाती है बात। जब अहंकार सिर उठा रहा होता है तो ठीक उसी समय पकड़ में आने लगती है।
अभी अगर बाद में भी आ रही है तो बात शुभ है, बाद में भी अगर पकड़ में आता है तो देखो, दो घंटे बाद ही समझ आया कि अच्छा अहंकार हावी हो गया था। ठीक है, दो घंटे बाद ही सही, समझ मे तो आयी न।
प्रश्नकर्ता: बात करते-करते ये पता रहता है कि हाँ मैं ईगो कर रहा हूँ लेकिन सामने वाले के बिहेवियर से मतलब वो बढ़ता ही जाता है।
आचार्य प्रशांत: नहीं फिर कुछ पता नहीं है, ये पता वो पता नहीं है। पता होना वो होता है जो तुरन्त घटना में बदल जाए, एक्शन में बदल जाए। अगर बदल नहीं रहा एक्शन में तो पता नहीं है बस सोच रहे हो। जो वास्तव में रियलाइज़ेशन होता है वो त्वरित एक्शन बन जाता है वो वेट नहीं करता।
प्रश्नकर्ता: तो ऐसी कंडीशन में क्या कर सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: कुछ मत करो। करोगे तो तब न जब तुम होओगे करने के लिए, उस वक्त तो तुम बेहोश हो बहे जा रहे हो, तो तुम क्या कर सकते हो? हाँ जब बाद में बात समझ में आये तब जो समझ में आया है वो करो! अगर लगता है कि गलत कर दिया था माफ़ी माँगनी चाहिए, तो जाकर माँग लो।
प्रश्नकर्ता: माफ़ी माँगना बहुत मुश्किल है।
आचार्य प्रशांत: मुश्किल तभी होगा जब अभी तक एहसास ही नहीं हुआ कि बहक गया था। जब साफ़-साफ़ जान जाओगे न कि बहक गया था, तब बिलकुल मुश्किल नहीं होगा। और माफ़ी माँगना कोई फॉरमेलिटी थोड़े ही होती है, माफ़ी मॉंगने का मतलब है कि बात समझ में आ गयी, यही माफ़ी है। उसके लिए कोई बहुत बड़ा आयोजन नहीं करना होता है कि जाकर के पाँव पकड़ रहे हो और फूल दे रहे हो, ये सब।
प्रश्नकर्ता: सर, आपने अभी बताया कि हमारे लिए स्थिति बहुत अलग होती है जब हम प्रेम में नहीं होते हैं। सर, दे ऑल्सो सेड दैट वी शुड लव, डू व्हाट यू लव एंड लव व्हाट यू डू…
आचार्य प्रशांत: न! ये जो भी कहता है पगला है कि लव व्हाट यू डू। कर्म ज्ञान से निकलता है, डूइंग लविंग से निकलती है, लविंग डूइंग से थोड़े ही निकल सकती है। जो लोग कहते हैं लव व्हाट यू डू वो ये कह रहे हैं कि जो भी कचरा-कूड़ा गन्दा काम कर रहे हो कोशिश कर-करके उसी से प्यार करो।
ये बड़ी खतरनाक बात है इसको पकड़ मत लेना! ये बात किसी चोर को बता दी तो वो क्या करेगा? लव व्हाट यू डू। अब वो क्या करेगा?
प्रश्नकर्ता: चोरियाँ अच्छी करेगा।
आचार्य प्रशांत: चोरी ही नहीं, प्यारी-प्यारी चोरी! अब मैं, आइ लव व्हाट आइ डू।
प्रश्नकर्ता: सर, व्हाट अबाउट डू व्हाट यू लव?
आचार्य प्रशांत: हाँ, डू व्हाट यू लव बात ठीक है, उसमें भी लेकिन डूइंग नहीं है। जो तुम्हारा वास्तव में प्रेम है वो तुम्हारे कृत्य में उतरकर रहेगा। तुम्हें डूइंग नहीं करनी पड़ेगी वो भी अपने आप हो जाएगी। तो इसके तो दो हिस्से थे डू व्हाट यू लव एंड लव व्हाट यू डू।
लव व्हाट यू डू तो बिलकुल खारिज हुआ। खत्म! और जो ये है कि डू व्हाट यू लव ये बात आधी-अधूरी सी है, क्योंकि जो तुम्हारा प्रेम होता है न, वहाँ पर तुम्हें कुछ करने की ज़रूरत नहीं होती है अपने आप हो ही जाता है।
प्रश्नकर्ता: सर, पता कैसे चलेगा कि प्रेम है?
आचार्य प्रशांत: पता कैसे चलता है कि प्यास लगी है? पता कैसे चलेगा कि तुम हो? तुम्हें कैसे पता कि तुम हो ज़िन्दा?
प्रश्नकर्ता: सर, आइ एम नॉट।
आचार्य प्रशांत: आइ एम नॉट! अरे, वो है ही नहीं, भागो! यहाँ कुछ भूत-प्रेत का चक्कर है। कैसे पता कि तुम हो? वैसे ही पता होता है कि प्रेम है, बस पता होता है।
प्रश्नकर्ता: सर, पहले जो स्पार्क था जब यहाँ पर नये-नये आये थे तो ऐसे लगता है कि वो बिलकुल ही खत्म हो गया है सारी क्लासेज़ बोर लगने लगी हैं।
आचार्य प्रशांत: बेटा, तुम गलत मन के साथ आये थे न, तुम बड़ी उम्मीदें लेकर के, बड़ी अपेक्षाएँ रखकर आये थे। वास्तविकता कभी तुम्हारी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरेगी। तुम जो भी काम पहले से ही उम्मीद सेट करके करोगे वहाँ तुमको निराशा मिलनी पक्की है।
जीवन में अगर तुमको ज़्यादातर लोग निराश दिखते हैं तो इसका कारण ही यही है कि उन्हें पहले ही पता है कि उन्हें क्या चाहिए। मैं पहले ही तय करके आऊँ कि मुझे तुम लोगों से क्या चाहिए तो मुझे निराश ही लौटना पड़ेगा।
क्योंकि तुम लोग हर बार मुझे कुछ-न-कुछ नया दे देते हो। वो कभी नहीं देते जो मुझे चाहिए पर कुछ नया दे देते हो। अब अगर मैं वो माँगने ही लग जाऊँ, ‘नहीं, जो मैं सोचकर आया था वही पूछो न!’ तो बड़ी दिक्कत हो जाएगी, क्योंकि तुम वो कभी पूछते ही नहीं जो मैं सोचकर आया हूँ।
मैं कहता हूँ ठीक है आओ, अब जो भी ये पूछेंगे, जवाब दे देंगे। जहाँ तुमने बात को पहले ही तय करने की कोशिश की तुमने हताशा के दरवाज़े खोल दिये। बड़ी बहादुरी चाहिए, मस्ती वाली बहादुरी।
बहने दो! कॉलेज है, जीवन है, तुम हो, जवान हो, इतने सारे मौके हैं, अवसर है, पढ़ाई है, खेल-कूद है ,कोकरिकुलर्स हैं, दिल्ली के पास हो। उनको भुनाओ न! पर उनको भुना नहीं पाओगी क्योंकि कुछ होगी अपेक्षा जो पूरी नहीं हो रही होगी।
होने को तो बहुत कुछ हो सकता है, अभी ये सितम्बर चल रहा है यही तो फेस्टिव सीज़न है सब कॉलेजेस के फेस्टिवल्स होते हैं। रौंदेवु दिल्ली का आइआइटी का या तो हो गया होगा या अभी होने वाला होगा। और अभी से लेकर के फ़रवरी तक।
जो जाना चाहे, करना चाहे, उसकी ज़िन्दगी ऐसी रहेगी कि मस्त! तुम बोल सकते हो, तुम नाटक कर सकते हो, तुम नाच सकते हो, तुम खेल-कूद सकते हो, या तुम शिकायत कर सकते हो। क्या करना है? शिकायत करनी है या मौज करनी है?
अब पक्का ही नहीं तुमको निर्णय करना पड़ रहा है। इसमें भी पता है तुम क्या करोगे? शिकायत करोगे बस! जिसे मौज करनी होगी वो कूद पड़ेगा, ‘मौज करनी है।’ चलो तुम्हें एक दूसरा चांस देता हूँ, शिकायत करनी है या मौज करनी है?
प्रश्नकर्ता: मौज करनी है।
आचार्य प्रशांत: भक्क! अभी भी तुम्हें समय लग रहा है, तुम सब बड़े निर्णयवादी लोग हो, तुम्हें बहुत सोचना पड़ता है।
प्रश्नकर्ता: पर सर फिर भी, अगर वहाँ जाकर मौज करें तो हमें यहाँ पर अपने सेशन्स छोड़ने पड़ेंगे।
आचार्य प्रशांत: बेशक, बेशक!
प्रश्नकर्ता: तो उसके लिए भी निर्णय चाहिए न?
आचार्य प्रशांत: अरे! इसमें निर्णय नहीं है न, फिर इसमें सीधे बोलो न, ‘नहीं अभी नहीं जाना है।’ उसमें भी निर्णय नहीं है। ‘नहीं, अभी नहीं जाना, है, अभी कुछ पढ़ रहे हैं।’ मैंने कहा था न, नहीं जाना, इसमें भी निर्णय नहीं चाहिए और जाना है इसमें भी निर्णय नहीं चाहिए।
मौजूद हो, उपस्थित हो, जान रहे हो, तो अपने आप तुरन्त पता है।