टुकड़ा टुकड़ा मन || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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टुकड़ा टुकड़ा मन || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

धरती फाटे, मेघ मिलै, कपडा फाटे डौर,

तन फाटे को औषधि, मन फाटे नहिं ठौर।

~ संत कबीर

वक्ता: धरती फट गई हो, ऐसा ताप पड़ा हो कोई वर्षा न हुई हो और धरती फट उठी हो। तो इलाज संभव है। मेघ आएगा और सींच देगा। फटी धरती दुबारा नम हो जाएगी। बड़ी समस्या नहीं है कोई। पदार्थ की बात है, पदार्थ ही आ करके हल कर देगा। ‘*कपडा फाटे डौर *’-फट गया है कपड़ा, तो सुईं, धागा, डोरी, काम हो जाएगा। फिर कोई बड़ी समस्या नहीं है। ‘तन फाटे को औषधि’ – यहाँ भी पदार्थ की बात है। औषधि आएगी, ठीक कर जाएगी। तन का रोग है, व्याधि चली जाएगी औषधि से। ‘मन फाटे नहिं ठौर’ , पर मन अगर फट गया, मन अग टुकड़ा-टुकड़ा, खंड-खंड हो गया, तो कहाँ ठिकाना पाओगे? कोई सुईं-धागा तुम्हारे काम नहीं आएगा।

मन का फटना समझते हो? मन का फटना क्या? फटा मन कैसा होता है?

श्रोता: बंटा हुआ, विरोधाबास..

वक्ता: हाँ। बढ़िया। और विरोधाबास चारों तरफ हैं, उनको हम क्या बोलते हैं..? जहाँ विरोध ही विरोध है, और बिना विरोध के कुछ हो ही नहीं सकता? द्वैत।

जो मन द्वैत में जीता है, जो मन पदार्थ में जीता है, जो मन बस उसी को सच मान के जीता है, जो दिखाई-सुनाई देता है, जो स्पर्श किया जा सकता है, वही फटा मन है। और कोई नहीं फटा मन है। जो भी मन वस्तुओं में जिएगा, वही फटा मन है। जो भी मन इन्द्रियों में जिएगा, वही फटा मन है।

ये संभव ही नहीं है कि आप पदार्थ को ही सत्य माने, नहीं पदार्थ को असत्य नहीं कह रहे हैं। पदार्थ को असत्य नहीं कह रहे हैं। पदार्थ तथ्य है। पदार्थ की अपनी सत्ता है। एक ही है जो कि पदार्थ के रूप में आविर्भूत होता है। पदार्थ को नकारा नहीं जा रहा है पर पदार्थ क्या है ये तुमने यदि जाना ही नहीं और उसी को आख़िरी मान लिया, तो फँस जाओगे। इसी को फटा मन कहते हैं। इसको दुसरे तरीके से भी समझ सकते हो। मन का एक सिरा तो वो है, जो सदा उसके स्त्रोत के पास ही रहेगा। वहाँ से तुम उसको जुदा कर नहीं सकते। क्योंकि वो जड़ है मन की। मन कितना भी भटकने वाला हो, लेकिन उसका एक सिरा, तो अपने खूंटे से बंधा हुआ ही रहता है। वो खूंटा क्या है?

श्रोता: स्त्रोत

वक्ता: स्त्रोत। दूसरा सिरा मन का, संसार बन के फैलता है। एक सिरा मन का तो सदा अपने खूंटे से बंधा ही रहता है। दूसरा सिरा संसार बनके व्याप्त होता है। दूसरा सिरा जितनी दूर जाता जाएगा पहले से, मन उतना फटा हुआ कहलाएगा। समझ में आ रही है बात? यही है फटा मन। जिसने संसार को और स्त्रोत को दूर कर दिया है। जिसे संसार में ही स्त्रोत दिखाई नहीं पड़ता। जिसने एक भौतिक जगत और दूसरा अध्यात्मिक जगत तैयार कर दिया है। और जो इन दोनों को जो प्रथक समझता है, वहीं है फटा मन। तो *‘**मन फाटे नहिं ठौर’*।

जिस किसी ने ये सोच लिया कि भौतिक जगत और अध्यात्मिक जगत अलग-अलग हैं, और आपको बहुत ऐसे लोग मिलते होंगे जो बात करते होंगें- मैटीरियल (पदार्थ) वर्ल्ड , स्पिरिचुअल (अध्यात्मिक) वर्ल्ड , वो एक नंबर के पगले हैं। उनको ये समझ ही नहीं आ रहा, कि जहाँ तुमने दो दुनिया बनाई, वहीं तुमने अपने फट जाने का इंतज़ाम कर लिया। ये दो अलग-अलग दुनिया हो ही नहीं सकती। दो दुनिया तुम बनाते ही इस कारण हो क्योंकि तुम पदार्थ से ही चिपके हुए हो। और मज़े की बात है कि चिपके पदार्थ से हो, लेकिन पदार्थ का सत्य नहीं जानते। चिपके पदार्थ से हो और पदार्थ की सत्ता बनी रहे, इस कारण पदार्थ को राजा बनाते हो, एक दुनिया का और सत्य को तुम उस दुनिया से बहिष्कृत करते हो। तो तुम कहते हो कि ये पदार्थ कि दुनिया है, यहाँ पर पदार्थ राजा है। हाँ और एक दूसरी दुनिया और होती है, वहाँ पर कुछ और चीजें होती हैं। वहाँ पर क्या चीज़ें होती हैं? वहाँ पर वो पाप, पुण्य, नर्क-स्वर्ग, ईश्वर, देवी-देवता, भगवान, ये इस तरह कि चीजें होती हैं।

जो तुम्हारा सामान्य, दुनयावी आदमी है, गृहस्थ है, वो ऐसे ही तो जीता है। कि एक तो घर है मेरा, जहाँ हर तरीके की ईर्ष्या , लालच, जलन, वासना, पलती है। एक दफ्तर है मेरा जहाँ हर तरीके की धूर्तता , स्वार्थ, चालबाज़ी चलती है। और ये क्या है? ये मेरा भौतिक जगत है। और एक दूसरा जगत भी है। वो कौनसा है? वो गुरु का आश्रम है। वो ईश्वर का मंदिर है। और ये तुमने किया क्या है? ये तुमने इसीलिए किया है कि सत्य को किसी आश्रम में बंद कर दो, प्रेम को किसी मंदिर में बंद कर दो, ताकि तुम घर में और दफ्तर में भ्रष्ट हो सको। सत्य को वहाँ बैठा दो ताकि घर में पदार्थ की सत्ता चल सके।

श्रोता१: अहंकार अपने बने रहने के लिए ये सब करता है।

वक्ता: हाँ। बाँट दो। “भाई वो क्षेत्र सत्य का है।” ये क्षेत्र किसका है? अगर भगवान मंदिर में पाय जाता है, तो फिर घर में कौन है? बड़ी सीधी सी बात है। एक सहज सवाल पूछ रहा हूँ। यदि भगवान मंदिर में है, तो फिर घर में कौन है? शैतान? आप ही ने कहा। आप ही ने दावा किया। अच्छा, घर में भी आते हैं। अगर भगवान पूजा वाले कमरे में हैं, तो शयन कक्ष में क्या है? हैवान? तो ऐसा ही तो होता है। पूजा वाले कमरे में बैठता है भगवान ताकि सोने के कमरे में आप हो सको ‘हैवान’। इसी को कहते हैं फटा हुआ मन- बाँट दो। मन फाटे नहिं ठौर। दो अलग-अलग दुनिया बना दो। और फिर बड़े बुद्धिमत्ता के साथ, बड़े बोधपूर्ण तरीके से बोलो, “कि देखिये आध्यात्मिक बातें अपनी जगह ठीक हैं। लेकिन बच्चों को थोड़ा व्यावहारिक चीज़ें सिखाइए।”

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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