प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर, मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी की हिन्दू कॉलेज की स्टूडेंट (छात्रा) हूँ। कैम्पस (परिसर) में जब भी किसी से ग्रुप (समूह) में या इंडिविजुअल लेवल (व्यक्तिगत स्तर) पर किसी से बात हो रही होती है, तो कन्वर्सेशन (वार्तालाप) का पहला बैरियर (बाधा) होता है कि वार्तालाप में कोई कड़वी बातें नहीं होनी चाहिए, केवल मीठा-मीठा बोलना है। और ज़रा-सा किसी इशू (मुद्दे) पर थोड़ा प्रेस करके (ज़ोर डालकर) किसी को कुछ बोल देते हैं तो वो कहते हैं — '*इट्स माइ चॉइस, डोंट जज मी*।' (यह मेरा चुनाव है, आलोचना मत करो) और आजकल एक नया टर्म (पारिभाषिक शब्द) आ गया है कि वो कहते हैं कि '*स्टॉप एटैकिंग मी, डोंट अटैक मी' (मुझ पर आक्रमण करना बंद करो)।
तो मैं कबीर साहब को पढ़ रही थी, वो कह रहे थे कि ‘निंदक नियरे राखिए’। एक तरफ़ वो कहते हैं कि टॉक्सिसिटी नहीं होनी चाहिए, नेगटिविटी (नकारात्मकता) मत लाओ, तो वो भी सही लगता है। और यहाँ पर बात हो रही है कि ‘निंदक नियरे राखिए’ तो ये भी सही, पॉज़िटिव (सकारात्मक) लगता है क्योंकि जो खोट निकालेंगे, उनको पास रखेंगे तो हम बेहतर होते चलेंगे। तो इसमें मैं आपसे समझना चाह रही थी कि टॉक्सिसिटी मतलब होता क्या है और एक टॉक्सिक पर्सनैलिटी (ज़हरीला व्यक्तित्व) क्या होती है?
आचार्य प्रशांत: टॉक्सिसिटी माने विषैलापन। टॉक्सिक होना माने ज़हरीला होना, है न? साधारण सी बात है।
ज़हर क्या होता है? कब कहते हो कोई चीज़ ज़हरीली है? जब वो जीवन को मार दे। तो जो चीज़ एंटी लाइफ़ (जीवन विरुद्ध) हो उसको टॉक्सिक बोलते हैं, है न? जो चीज़ ज़िन्दगी के खिलाफ़ जाती हो उसको बोलेंगे टॉक्सिक , ज़हरीली, विषैली वग़ैरा-वग़ैरा। तो क्या टॉक्सिक है और टॉक्सिक पर्सनैलिटी क्या होती है, ये सब जानने के लिए पहले ये ज़रूरी है न जानना कि ज़िन्दगी क्या होती है। जब आपको पता होगा कि जीवन किसको कहते हैं, जीना किसको कहते हैं, तभी आप ये जान पाओगे कि टॉक्सिसिटी किसको कहते हैं।
जीना किसको कहते हैं? अब हम अच्छे तरीक़े से जानते हैं कि दो तरह की चीज़ें होती हैं जिनको ज़िन्दगी कहा जा सकता है और दोनों अलग-अलग होती हैं। एक तो यह जो हमारा शरीर है, पूरा फिज़िकल ऐपरैटस (भौतिक उपकरण)। यह चल-फिर रहा हो, यह अपने नैचुरल माने प्राकृतिक तरीक़े से काम कर रहा हो तो हम कह देते हैं कि ज़िन्दा है। तो एक ज़िन्दगी हुई वो जो पूरे तरीक़े से प्रकृति से बंधी हुई है, ठीक है? और जो ज़िन्दगी प्रकृति से बंधी होती है उसका लक्ष्य क्या होता है?
यह बिलकुल गणित के ईक्वेशन्स (समीकरणों) की तरह चलेगा तो ध्यान से साथ-साथ चलना पड़ेगा लेकिन जो बात समझ में आएगी वो बड़े महत्त्व की होगी। तो ये जो प्रकृति से बंधी ज़िन्दगी होती है, इसका लक्ष्य क्या होता है? कंजप्शन (भोग), प्लेज़र (सुख), हैप्पीनेस (खुशी), सेक्योरिटी (सुरक्षा), कॉन्टिन्यूटी (निरन्तरता); यही सब।
एक तो ज़िन्दगी ये हुई, जिसके साथ हमने ये सारे शब्द जोड़ दिए। कौनसे? सुख, सुरक्षा, हैप्पीनेस , प्लेज़र , कॉन्टिन्यूटी , *सेक्योरिटी*। हमने ये सब जोड़ दिया। एक ज़िन्दगी ये हुई। अगर इसको ज़िन्दगी मानेंगे तो फिर टॉक्सिसिटी का एक मतलब निकलेगा लेकिन जिन्होंने ज़िन्दगी को समझा है वो हमसे कह गये हैं कि असली, गहरी ज़िन्दगी दूसरी चीज़ होती है।
वो क्या होती है? वो कहते हैं — तुम ज़िन्दा सिर्फ़ तब हो, जब तुम समझ पा रहे हो ज़िन्दगी को। जो समझ पा रहा है वो ज़िन्दा है, जो समझ नहीं पा रहा है वो मुर्दा है। और मुर्दे भी चल-फिर सकते हैं। कोई एकदम बेहोश हो, वो भी चल-फिर सकता है। लोगों को नींद में चलते नहीं देखा क्या? तो जिन्होंने ज़िन्दगी को समझा है वो कह गये हैं कि — ज़्यादातर लोग जो ज़िन्दा नज़र आते हैं सिर्फ़ इसलिए कि चल-फिर रहे हैं, उठ-बैठ रहे हैं, हँस रहे हैं, बोल रहे हैं, रो रहे हैं, सुख तलाश रहे हैं, अपनी प्रजाति को आगे बढ़ा रहे हैं, अपने लिए सुरक्षा खोज रहे हैं, सेक्योरिटी , कॉन्टिन्यूटी ; उनका पूरा खेल चल रहा है और इसलिए हमें लगता है कि वो ज़िन्दा हैं, वो ज़िन्दा हैं नहीं। जीवित सिर्फ़ उसको माना जा सकता है जो ज़िन्दगी को समझ रहा है। जो यूँही जिये जा रहा है बस, बिना जाने, उसे हम ज़िन्दा नहीं कह सकते।
तो जो दूसरी, गहरी ज़िन्दगी है उसकी पहचान होती है बोध से। समझते हो या नहीं समझते हो, अंडरस्टैंडिंग (समझ)। उसी अंडरस्टैंडिंग से जो जुड़े हुए शब्द हैं वो क्या हैं? फ्रीडम , एक भीतरी आज़ादी; बंधनों से मुक्त होना आंतरिक तल पर, क्लैरिटी , स्पष्टता।
तो दो तरह के जीवन हो गये और इससे टॉक्सिसिटी की फिर दो परिभाषाएँ निकलेंगी। एक जीवन कौन सा हो गया? प्राकृतिक बिलकुल। और उस प्राकृतिक जीवन के चिन्ह क्या होते हैं? प्लेज़र , सेक्सुऐलिटी (लैंगिकता), प्रॉपगेशन (वंश-वृद्धि), अपने लिए सुरक्षा तलाशना, भविष्य के अरमान रखना, आस बाँधना, ये करना, वो करना, 'मैं बच जाऊँ', मौत का डर और उस डर से बचने के तरह-तरह के उपाय — ये सब होती हैं वहाँ पर ज़िन्दगी की पहचान। और अगर ये सब ज़िन्दगी है आपकी नज़र में क्योंकि आप बहुत बेहोश जी रहे हैं, तो आपने इसी को जीवन मान लिया है। आपके लिए सुख और प्लेज़र , ये सब क्या बन गए? ज़िन्दगी। तो फिर आपके लिए टॉक्सिक आदमी कौन होगा? जो आपके अंधे प्लेज़र में बाधा डाल दे। उसको आप तुरंत बोल दोगे, ‘ये तो टॉक्सिक है।' क्योंकि आपके लिए ज़िन्दगी का मतलब ही क्या है? सुख की अंधी दौड़ जिसमें आप जानते भी नहीं आप हो कौन, सुख आपको चाहिए क्या, सुख आपको मिल भी रहा है कि नहीं मिल रहा है। ये आपको कुछ पता नहीं, लेकिन आपको सुख, सुख, सुख, हैप्पीनेस , हैप्पीनेस चिल्लाना बहुत है। तो ऐसे में कोई आकर के आपसे दो-चार गहरी बातें बोल दे तो आपकी हैप्पीनेस को झटका लग जाता है और आप तुरंत बोल दोगे, ये आदमी टॉक्सिक है।
इसी तरीक़े से, आप तमाम तरीकों से अपने लिए सेक्योरिटी जमा करने की कोशिश कर रहे हो, 'मेरे पास एक इस तरह की नौकरी हो जाए, मैं इस तरीक़े की नेटवर्किंग (परिचय-विस्तार) कर लूँ, इतना मैं पैसा जमा कर लूँ, इस-इस डिग्री को हासिल कर लूँ, जितने काम हो सकते हैं सब कर लूँ ताकि मैं डरा हुआ अनुभव न करूँ, भीतर से थोड़ी सी सेक्योरिटी की भावना आये।' और कोई आकर के आपको खोलकर के बताएगा कि देखो ये सब जो कर रहे हो न, इसके बाद भी तुम इनसेक्योर (असुरक्षित) ही रह जाओगे, तो आप तुरंत बोल दोगे, ‘ये आदमी टॉक्सिक है।'
माने जो कोई आपसे सच बोलने आएगा, वो आपको टॉक्सिक लगेगा क्योंकि आप झूठ में जी रहे हो। जो झूठी ज़िन्दगी जी रहे हैं, जिसको हम कह रहे हैं सिर्फ़ प्राकृतिक जीवन, पशुवत जीवन, जानवरों वाला जीवन, मैकेनाइज़्ड (मशीनीकृत) जीवन, प्रोग्राम्ड (कार्यक्रमबद्ध) जीवन। जो लोग ऐसी ज़िन्दगी जी रहे हैं, उनको हर वो इंसान टॉक्सिक लगता है जो उन्हे थोड़ा सच दिखा दे।
झूठ को तो सच टॉक्सिक लगेगा न? अंधेरे को तो उजाला टॉक्सिक लगेगा न? उजाला आता है, अंधेरा मिटने लगता है। अंधेरा बिलकुल ठीक बोल रहा है। उजाले ने अंधेरे के लिए ज़हर का ही तो काम करा है, तो अंधेरा झूठ भी नहीं बोल रहा। उसने बिलकुल ठीक बोला, 'ये टॉक्सिक था, इसने मुझे मिटा दिया। इसने मुझे ज़हर पिला दिया, मैं मिट गया।' अंधेरा मिट गया।
तो आप किस चीज़ को टॉक्सिक मानते हो, ये आपके ऊपर निर्भर करता है और चूँकि ज़्यादातर लोग एकदम बेहोश और अंधेरा जीवन ही जी रहे हैं, इसीलिए अगर वो किसी को टॉक्सिक बोल रहे हैं तो संभावना यही है कि वो इंसान बहुत बढ़िया होगा। अंधेरे में घिरे हुए लोग जिसको टॉक्सिक बोलें, वो निश्चित रूप से बंदा रोशन होगा। होगा कि नहीं होगा? वो बंदा रोशन नहीं होता तो अंधेरे को टॉक्सिक क्यों लगता?
अब यहाँ पर तो बात एकदम संत शिरोमणि ने कह दी है कि ‘निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाए' तो आपको मजबूर होकर के बात को स्वीकारना पड़ता है क्योंकि उनका नाम बहुत बड़ा है। लेकिन यही बात दूसरे शब्दों में आप खुद बोल दें तो आपको तुरंत कह दिया जाएगा टॉक्सिक । माने जो अंधेरा आदमी है वो कहीं-न-कहीं इस बात को भी अपनी ओर से तो टॉक्सिक ही मानता है कि ‘निंदक नियरे राखिए’। कहेगा, ‘ये तो बात ही टॉक्सिक है।’ बस उसकी हिम्मत नहीं होगी इस बात को टॉक्सिक घोषित करने की, क्योंकि कहने वाले का कद बहुत ऊँचा है। हिम्मत नहीं पड़ेगी कि बोल दें कि संत कबीर टॉक्सिक आदमी थे। बस चलता तो बोल देते, बस नहीं चल रहा। समझ में आ रही है बात?
अब आते हैं फिर उनके पास जो थोड़ी बेहतर ज़िन्दगियाँ जी रहे हैं, जो कह रहे हैं, जीवन का मतलब होता है — जानना, समझना, स्पष्टता रखना, आज़ादी रखना, सरलता रखना। इनके लिए फिर टॉक्सिक कौन हो गया? इनके लिए वो टॉक्सिक हो गया जो इनकी आज़ादी छीने। और आपकी आज़ादी कोई आपको बंदूक दिखा कर के नहीं छीनेगा, वो ज़माना नहीं रहा। बंधुआ मजदूरी भी नहीं चलती है, दास-प्रथा भी ख़त्म हो गयी। कोई देश किसी दूसरे पर राज नहीं करता, वो सब तो खत्म हो चुका है। तो अब कैसे किसी को गुलाम बनाया जाता है? अब गुलाम बनाया जाता है लालच दिखाकर के और भावनाएँ दिखाकर के और झूठा प्रेम दिखाकर के। तो ये हुई टॉक्सिसिटी । कोई आपको मीठा-मीठा रसगुल्ला दिखा रहा हो, कह रहा हो, 'आओ-आओ', वो टॉक्सिक है। ये बड़ी उल्टी बात हो गयी।
हमने कहा कि एक सच्चा इंसान कोई आकर के प्रकाशित बात करेगा तो वो बहुत टॉक्सिक लगेगा। लेकिन कोई आकर के आपको रसगुल्ला दिखाएगा तो वो टॉक्सिक लगेगा नहीं जबकि वो टॉक्सिक है। कोई आपसे मीठी-मीठी बात करे, आप बिलकुल यही बोलेंगे, ‘ये तो बड़ा पॉज़िटिव (सकारात्मक) आदमी है।' कोई आपको सच से दूर रखकर के बस आशाओं-उम्मीदों में झुलाता रहे, आपको वो आदमी अच्छा लगता है न? लेकिन वो टॉक्सिक आदमी है।
प्रो-लाइफ़ (जीवन समर्थक) तो बस वो है जो प्रो-ट्रुथ (सत्य समर्थक) हो। ठीक? प्रो-लाइफ़ तो बस वो है जो प्रो-फ्रीडम (मुक्ति समर्थक) हो। और ट्रुथ बेचारे का अनिवार्य लक्षण ये होता है कि वो थोड़ा रगड़ देता है, काट-सा देता है। हिट्स (मारता है), हर्ट्स (चोट देता है), बाइट्स (काटता है)। होता है न? फिर हम कहते हैं — सच कड़वा होता है।
सच कड़वा नहीं होता है, सच तो बिना किसी स्वाद का होता है, सच तो निर्गुण होता है तो सच कड़वा कैसे हो जाएगा? लेकिन सच हमें कड़वा लगता है, क्यों? क्योंकि हम मीठे लोग हैं। हमें मिठास की दरकार रहती है न हर समय। कहीं कोई आ जाए जो मीठा बोल जाए। और कई बार तो ऐसा होता कि कहीं-न-कहीं आपको पता भी होता है कि ये जो मीठा बोल रहा है ये आदमी नालायक है लेकिन फिर भी उसे दूर नहीं कर पाते क्योंकि वो मीठा बोल रहा है। ये हुआ है कि नहीं हुआ है? बिलकुल दिख रहा है कि ये आदमी जो सामने खड़ा है बेवकूफ़ बनाता है, आज़ादी छीनता है, झूठ में फँसाता है, लेकिन फिर भी उससे कड़ाई से बात नहीं कर पाओगे क्योंकि वो एकदम मुस्कुरा-मुस्कुरा करके, 'हें, हें, हें', मीठा-मीठा, मीठा-मीठा। होता है कि नहीं होता?
टॉक्सिक समझ रहे हो कौन है? ज़्यादातर लोग जो आपको मीठे लगते हैं वही टॉक्सिक हैं, ज़्यादातर लोग जो आपको पॉज़िटिव लग रहे हैं, वही टॉक्सिक हैं। असल में जिसको आज पॉज़िटिविटी (सकारात्मकता) बोला जाता है उससे ज़्यादा टॉक्सिक कुछ होता नहीं है।
आप जब कहते हो कोई आदमी पॉज़िटिव है, तो उससे आपका आशय क्या होता है? यही तो कि वो हमेशा उम्मीद बरकरार रखता है कि जो चाहा है वो मिल जाएगा। जो लगातार आशाओं में जीता रहे उसको ही तो आप बोलते हो कि आदमी पॉज़िटिव है। पॉज़िटिव विद रिस्पेक्ट टु व्हॉट ? (सकारात्मक किसके संदर्भ में) पॉज़िटिव माने कि ये किसी चीज़ के होने की उम्मीद रखे हुए है, है न? वो हाँ बोल रहा है। नेगेटिव माने ‘न’ होता है, पॉज़िटिव माने वो ‘हाँ’ बोल रहा है। वो किस चीज़ को ‘हाँ’ बोल रहा है? आप कहते हो एक पॉज़िटिव आदमी है और वो कह रहा है, 'हाँ-हाँ', तो किसको हाँ बोल रहा है? वो हाँ बोल रहा अपनी इच्छाओं को — 'जो मुझे चाहिए, वो अभी भी हो सकता है।' और जो उसे चाहिए, वो हो सकता नहीं है क्योंकि वो खुद ही नहीं जानता उसे चाहिए क्या।
व्यर्थ के लक्ष्य बनाओ और उन्ही लक्ष्यों के पीछे अंधे होकर दौड़े चले जाओ, यही पॉज़िटिविटी है न? तीन बार गड्ढे में गिर चुके हो, चौथी बार खड़े हो, बोलो, 'इस बार फाँद जाऊँगा', यही पॉज़िटिविटी है न? तत्काल विरोध मत कर देना। सोचकर देखना, इसके अलावा पॉज़िटिविटी और क्या होती है।
जब कॉलेज वग़ैरा में बात किया करता था तो मैं पूछता था छात्रों से, 'क्या पॉज़िटिव है, क्या नेगेटिव है, ये तो इसपर निर्भर करता है न कि तुमने ऑरिजिन (स्त्रोत) कहाँ डिफ़ाइन (परिभाषित) करा है।' जो अपनेआप को जहाँ पर सेंटर्ड (केंद्रित) बना लेता है, उसी के अनुसार उसका पॉज़िटिव-नेगटिव बदल जाता है। ऐब्सलूट (पूर्ण) तो होते ही नहीं पॉज़िटिव-नेगटिव , सबकुछ इसपर निर्भर करता कि तुम बने क्या बैठे हो। फ्रांस और अर्जेन्टीना का मैच हो रहा है। अर्जेन्टीना जीत रहा है। फ्रांस के लिए क्या है?
प्र: नेगेटिव ।
आचार्य: अर्जेन्टीना के लिए क्या है?
प्र: पॉज़िटिव ।
आचार्य: तो ये पॉज़िटिव बात है या नेगेटिव बात है? इसपर निर्भर करता है कि तुमने अपनेआप को क्या बना रखा है। बात न पॉज़िटिव है, न नेगेटिव है, कुछ भी नहीं है। लेकिन ये बात हमें समझ में नहीं आती है कि पॉज़िटिव-नेगेटिव से पहले आते हैं ‘हम’। और अगर ‘हम’ ही गलत हैं तो हर वो चीज़ गलत होगी जिसको हम पॉज़िटिव मान रहे हैं।
कसाई के लिए पॉज़िटिव बात क्या है? ज़्यादा बकरे मिल गए, ज़्यादा काटूँगा, ज़्यादा हत्या करूँगा, ज़्यादा खून बहाऊँगा। वो कहेगा, 'आज तो बहुत पॉज़िटिव दिन था, आज खूब खून बहाया।'
तुम कसाई ही बन गए हो तो तुम्हारे पॉज़िटिव पर थू है। तुम बने क्या बैठे हो, महत्त्वपूर्ण बात ये है न? लेकिन हम ये समझते नहीं। और आप क्या बने बैठे हैं, वो इन्हीं दो चीज़ों में से एक होता है — या तो आप वो इंसान बन गए हैं, जो सिर्फ़ प्रकृति के चलाए चल रहा है, प्राकृतिक जीवन वाला इंसान या आप वो बन गए हैं जो कह रहा है, 'नहीं, मैं चेतना का जीव हूँ।' समझ में आ रही है बात?
अगर आप प्रकृति के ही बंदे बन गए हैं तो आपके लिए बस यही चीज़ें पॉज़िटिव होंगी, कौन-सी? इच्छा पूरी हो गई, पॉज़िटिव बात है; पैसा मिल गया, पॉज़िटिव बात है। इसके अलावा और कुछ भी पॉज़िटिव होता है किसी के लिए? कम मेहनत करके ज़्यादा परिणाम मिल गया, पॉज़िटिव बात है; नौकरी मिल गयी, पॉज़िटिव बात है; लड़का-लड़की मिल गए, पॉज़िटिव बात है; लॉटरी लग गयी, पॉज़िटिव बात है; मैं अपनेआप को जिन-जिन दलों और समुदायों से परिभाषित करता हूँ, वो आगे निकल गए, वो भारी पड़ गए, उनकी कहीं जीत हो गयी, ये पॉज़िटिव बात है। तो ये जो पॉज़िटिविटी है, आप देखिए कि कितनी ओछी चीज़ है।
एक बार मैंने कहा था ‘टॉक्सिक पॉज़िटिविटी’ (ज़हरीली सकारात्मकता)। मैं उसको और आगे बढ़ाऊँगा, मैं कहूँगा, 'ऑल पॉज़िटिविटी इज़ टॉक्सिक' (सारी सकरात्मकता ज़हरीली है)। क्योंकि पॉज़िटिविटी का अर्थ ही होता है — मैं बेहोश हूँ और बेहोशी की मेरी इच्छाएँ हैं और मैं उन इच्छाओं को पूरा करने को लेकर बहुत उत्साहित हूँ। ऐसे आदमी को आप पॉज़िटिव बोलते हैं न? मैं बेहोश हूँ, उस बेहोशी में मैंने कई इच्छाएँ बना ली हैं और उन इच्छाओं को पूरा करने को मैं बहुत उत्साहित हूँ, तो मैं पॉज़िटिव आदमी हूँ। और जो मुझसे आकर के कहेगा, 'हाँ, तुझे तेरी मंज़िल मिल जाएगी, जो तू चाहता है वो हो जाएगा', उसको मैं कहूँगा — ये पॉज़िटिव है। और जो कहेगा कि 'नहीं भाई, एक मिनट थम जा, देख ले क्या है …', उसको मैं कह दूँगा — नेगेटिव है या टॉक्सिक है, वग़ैरा-वग़ैरा।
प्रश्न ये उठता है, 'क्या नेगेटिव होना बेहतर है पॉज़िटिव होने से?' नहीं। पॉज़िटिव आदमी कह रहा है, 'मेरी बेहोश इच्छाएँ पूरी हो जाएँगी।' नेगेटिव आदमी कह रहा है, 'मेरी बेहोश इच्छाएँ पूरी नहीं होंगी।' लेकिन दोनों ही अड़े हुए हैं अपनी बेहोश इच्छा पर। अपनी बेहोशी को लेकर के दोनों एकदम अड़े हुए हैं। हमें न पॉज़िटिव आदमी चाहिए, न नेगेटिव आदमी चाहिए। हमें आदमी चाहिए जो इन्क्विज़िटिव (जिज्ञासु) हो। पॉज़िटिव नहीं, नेगेटिव नहीं, *इन्क्विज़िटिव*। जो समझना चाहता है, मैं कौन हूँ, ज़िन्दगी क्या है, चल क्या रहा है, किधर को जा रही हैं इच्छाएँ, कौन सा लक्ष्य बनाने लायक है, कौन सी राह चलने लायक है।
आप इन्क्विज़िटिव हो सकें इसलिए समझाने वालों ने कहा — ‘निंदक नियरे राखिए’, ताकि वो आपकी पॉज़िटिविटी और नेगटिविटी दोनों पर लगाम लगा सकें।
ये जितनी बातें बोल रहे थे कि 'स्टॉप एटैकिंग मी', इसमें ‘मी’ कौन है? ‘मी’ कौन है? वही बेहोश ‘मैं’। वो तुरंत डर जाता है, कहता है, ‘अरे-अरे-अरे!’ जैसे कोई आदमी हो आधी नींद में, आप उसे जगाने की कोशिश करें तो क्या बोलता है? 'जगाओ मत, जगाओ मत।' वही है स्टॉप एटैकिंग मी, स्टॉप वेकिंग मी अप (मुझ पर आक्रमण करना बंद करो, मुझे जगाना बंद करो)। स्टॉप एटैकिंग मी, स्टॉप वेकिंग मी अप क्योंकि मुझे बेहोश ही रहना है। जगूँगा तो तकलीफ़ होगी। जगूँगा तो पता चलेगा कि मेरी हस्ती का ज़र्रा-ज़र्रा दर्द कर रहा है। मैंने इतनी गलत ज़िन्दगी जी है कि ऊपर से लेकर के नीचे तक ज़ख्म ही ज़ख्म हैं। और दर्द से बचना है तो बेहोशी बढ़िया उपाय है, बेहोश पड़े रहो।
बेहोश आदमी को बहुत बुरा लगता है जब उसको रोशनी दिखाई जाए, थोड़ा उसपर पानी का छींटा डाला जाए, जगाया जाए, बहुत बुरा लगता है। उसको क्या बोल देगा? ये टॉक्सिसिटी है।
प्रो-लाइफ़ होने का मतलब समझिए। नॉन-टॉक्सिक (ज़हर रहित) होने का मतलब समझिए। ज़हर के विपरीत जो होता है, उसे हम बोलते हैं अमृत। है न? जिसके बाद मौत नहीं आती। और आप जो प्राकृतिक ज़िन्दगी जी रहे हैं उसमें मौत आती ही आती है, निश्चित है। तो नॉन-टॉक्सिक सिर्फ़ वो हुआ जो आपको आपकी फिज़िकल लाइफ़ (भौतिक जीवन) से ऊपर की कोई लाइफ़ दिखाए। सिर्फ़ उसको कहिए कि ये इंसान टॉक्सिक नहीं है।
जो भी कोई आपको शारीरिकता में, भावुकता में, खींच-खींच करके डुबोता हो, वो आपके लिए टॉक्सिक है। ये सारी चीज़ें शरीर से सम्बन्धित हैं न? भावनाएँ उठ आईं तत्काल, उसका सम्बन्ध किससे है? शरीर से। तो कोई है आपके जीवन में जो आपके भीतर ईमोशंस (भावनाएँ) जगा देता है, वो बहुत टॉक्सिक है। जिसके संसर्ग में आपमें भावनाएँ उठ खड़ी होने लगें, वो टॉक्सिक है न! उसने क्या करा? उसने आपको शरीर बना दिया। और जो हमारे सबसे ख़ास लोग होते हैं हमारी ज़िन्दगी में, वो तो होते ही हमारे जीवन में हैं हमें शरीर की तरह देखकर। होते हैं न?
जो कोई ऐसा हो कि उसके सामने आते ही आपको अपना लिंग याद आने लग जाए, समझ लीजिए वो आपकी ज़िन्दगी का सबसे टॉक्सिक आदमी है। आप इंसान थे थोड़ी देर पहले तक और वो व्यक्ति सामने आया और आपको तत्काल याद आ गया मैं इंसान नहीं हूँ, मैं स्त्री हूँ, क्योंकि वो आपको देख ही ऐसे रहा है कि आपको पता चल गया कि आप स्त्री हैं। बहुत टॉक्सिक आदमी है, उसने फिज़िकल बना दिया न पूरा आपको। उसने मौत में डाल दिया आपको। शरीरी हो जाना माने मृतक हो जाना, ख़त्म हो जाना। जो शरीर बन गया वो समाप्त हो गया न!
और जिस किसी को आप शरीर की तरह देखते हों, जान लीजिए आप बहुत टॉक्सिक हैं उसके लिए। समझ ही गए होंगे कि ये सब जो प्रेमी लोग हैं, इनसे ज़्यादा कोई नहीं टॉक्सिक होता। कोई साधारण आदमी ठीक-ठाक है, चल जाएगा; कोई आपका प्रेमी है, उससे ज़्यादा कोई नहीं टॉक्सिक होगा। और साधारण आदमी भी जिस दिन तक प्रेमी नहीं बना उस दिन तक ठीक था; जिस दिन प्रेमी बन गया उस दिन उससे बड़ा ज़हर जीवन में और कोई नहीं होता। बात आ रही है समझ में?
तो पॉज़िटिव क्या है, नेगेटिव क्या है, टॉक्सिक क्या है — फिर पहली बात पर वापस आता हूँ — ये जानने के लिए हमें जानना होगा ज़िन्दगी क्या है। कब बोलें कि कोई जीवित है? दोहराइए — कोई हँस रहा है, तमन्नाएँ पूरी करने के लिए बेताब है, सुख की, प्लेज़र की तलाश में है, खा रहा है, पी रहा है, अपने शारीरिक आवेगों को आगे बढ़ा रहा है, इतने से हम उसको ज़िन्दा... (नहीं में सिर हिलाते हुए)। क्योंकि देखिए एआई (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का ज़माना है, ये सारे काम तो मशीनें भी कर देंगी।
आपका मस्तिष्क जो कुछ करता है, वो सारा काम एक एआई सिस्टम कर सकता है। और बहुत सारे काम तो वो सिस्टम्स ऐसे भी कर सकते हैं जो आपका मस्तिष्क कर ही नहीं सकता। और आपका शरीर जो कुछ करता है वो सारा काम एक रोबो कर सकता है। तो प्रकृति आपसे जो कुछ करवाती है वो सब कुछ तो एक मुर्दा रोबो और एक मुर्दा एआई सिस्टम भी कर देता है न? तो इसलिए जो लोग शारीरिक तल पर ज़िन्दा हैं, उन्हें मुर्दा माना जाना चाहिए। और इसीलिए वो फिर डरे भी बहुत हुए हैं कि एआई आ गया है, अब हमारा क्या होगा। क्योंकि हम तो मुर्दा ज़िन्दगियाँ ही जी रहे थे, जॉब्स (नौकरियाँ) भी हमारी सब मुर्दा और मेकैनिकल (यांत्रिक) थीं। तो उनको अब डर लग रहा है कि उनकी जॉब्स छिन जाएँगी। उनकी जॉब्स छिन ही इसीलिए जाएँगी क्योंकि एक मुर्दा दूसरे मुर्दे को रिप्लेस (प्रतिस्थापित) कर सकता है।
मुर्दे में होता ही क्या है? आकार होता है, वज़न होता है, उसके भीतर कुछ केमिकल्स (रसायन), रसायन होते हैं, एक प्रकार की उसकी शारीरिक संरचना होती है। उसकी जगह दूसरा मुर्दा डाल दो। मुर्दे और मुर्दे में कितना अंतर है? फिर आप कहेंगे, 'अरे! मेरी नौकरी चली गयी।' किसको मिल गयी? एआई को मिल गयी। कोई फ़र्क नहीं पड़ा, एक मुर्दा हटा दिया गया है, दूसरा मुर्दा लगा दिया गया है।
ज़्यादातर लोग जिसको प्रेम वग़ैरा भी बोलते हैं न, वो भी इतना ही यांत्रिक होता है। एकदम उनका सेट पैटर्न (तय ढांचा) होता है प्रेम का भी। वो काम कोई मशीन भी कर सकती है, बस पता न लगने दीजिएगा कि मशीन है। और मशीन अगर बढ़िया से बनाई गयी है तो पता लगेगा भी नहीं कि मशीन है। आदमी की खाल उसको पहनायी जा सकती है, बढ़िया उसकी प्रोग्रामिंग कर दो, वो सारे भाव, इमोशंस , ये सब भी दर्शाने लग जाएगी।
दो रोबो आमने-सामने हैं, मशीन है, वो आपके सामने है, वो बिलकुल सेन्स (महसूस) कर लेगी कि मूड ऑफ है (मन दुखी है)। उसको प्रोग्राम है, मूड ऑफ है , तुरंत बोलो, 'लेट्स ईट आउट डार्लिंग' (प्रिय! चलो बाहर खाते हैं)। ठीक है, मूड ऑफ था, बाहर रेस्तरां में खाने चले गए। फिर सेंस करो, मूड अभी भी नहीं ठीक हुआ। ठीक है, 'लेट्स पर्चेस सम्थिंग डार्लिंग' (प्रिय! चलो कुछ खरीदते हैं)। और प्रेम क्या होता है? कुछ खरीद दिया, मूड सही हो गया। वापस आ गए, घर आ गए, बेडरूम (शयन कक्ष) की ओर ले चलो, बोलो, 'लेट्स मेक आउट डार्लिंग' (प्रिय! चलो सम्बन्ध बनाते हैं)। वो काम भी मशीन कर देगी, उसमें क्या है, वो तो पूरा ही मेकैनिकल होता है। समझ में आ रही है बात?
जहाँ काम चल रहा है यंत्रवत, जिसमे चेतना की, समझ की, केन्द्रीय जगह नहीं है, वही चीज़ मुर्दा है, वही चीज़ एंटी-लाइफ़ है और इसीलिए वही चीज़ टॉक्सिक है। जिसको आप प्रेम कहते हैं, वो ज़बरदस्त मुर्दा चीज़ होती है क्योंकि उसमें सिर्फ़ पैटर्न्स होते हैं, होते हैं कि नहीं होते हैं? पैटर्न्स के अलावा क्या होता है? आप किसी को देखते हैं, आपमें भीतर कुछ केमिकल्स सिक्रीट (रसायन स्रावित) होने लग जाते हैं, फिर कुछ दिन तक लुका-छिपी, चूहे-बिल्ली का खेल चलता है, फिर प्रपोज़ल (प्रस्ताव) होता है, फिर ये होता है, फिर वो होता है, फिर...।
सबको पता है। स्क्रिप्ट (कथानक) लिख दी जाती है। स्क्रिप्ट पहले लिखी जाती है, फिल्म बन जाती है और जो कुछ पर्दे पर हो रहा होता है वो बिलकुल वास्तविक लगता है क्योंकि हमको पता है ऐसे ही होता है। एक फॉर्मूला है, एक सेट सीक्वन्स (तयशुदा क्रम) है। गर्ल सेस येस (लड़की हाँ बोलती है) तो ऐसे, नो (नहीं) तो ऐसे। फिर ऐसे, ऐसे, ऐसे ...। नहीं मानी तो ट्राइ वन्स अगैन (एक बार फिर प्रयास करो)। लड़ाई हुआ तो, द फ़ादर इज़ अ रास्कल (पिता दुष्ट है)।
तो ये सब काम तो मशीन कर ही लेगी। इस तरह के डब्बे तो मशीनों के लिए ही बनाए जाते हैं, बनाए जाते हैं न? यही सब है *टॉक्सिसिटी*। लेकिन हमें ये कभी टॉक्सिसिटी जैसी लगती ही नहीं।
तो कुल मिलाकर तो बात ये निकली कि हमारी पूरी ज़िन्दगी ही टॉक्सिक है। क्योंकि बचपन से लेकर अर्थी तक हम जो कुछ कर रहे होते हैं, वो सब कुछ क्या होता है? प्रोग्राम्ड (तयशुदा) होता है। और प्रोग्राम्ड तो मशीनें होती हैं और मशीनें तो मुर्दा होती हैं। तो माने हमारी पूरी ज़िन्दगी में ही ज़िन्दगी कहाँ है? मुर्दा से तो हैं पूरे। अगर आप किसी चीज़ को प्रोग्राम कर सकते हैं तो क्या आप उसको ज़िन्दा बोलेंगे? तो हम तो पूरी तरह प्रोग्राम्ड हैं। अस्पताल से श्मशान तक और पालने से अर्थी तक, हमारा तो पूरा ही प्रोग्राम्ड खेल चल रहा है। बताइए, प्रोग्रामिंग से बाहर हम क्या करते हैं? कुछ भी करते हैं? टॉक्सिक है सब कुछ।
नॉन-टॉक्सिक कौन हुआ? जो आकर के आपको बताए कि बेटा, तुम ज़िन्दा नहीं हो। अब जो आपको बताएगा कि आप ज़िन्दा नहीं हो, वो आपको ज़िन्दा करने आया है, ठीक? लेकिन एक बड़ी गड़बड़ हो जाती है। जैसे ही वो आपको बताएगा आप ज़िन्दा नहीं हो, आपको पहली बार पता चलेगा कि आप मुर्दा हो। आपको पता चला है आप मुर्दा हो; मुर्दा आप बहुत पहले से थे। आपको बस ताज़ा-ताज़ा पता चला है, आप मुर्दा हो। लेकिन आप इल्ज़ाम उस व्यक्ति पर लगा दोगे, आप कहोगे, 'इसने मुझे मुर्दा कर दिया।' उसने मुर्दा कर नहीं दिया, उसकी वजह से आपको बस पता चला है कि आप मुर्दा हो। आप कहोगे, 'नहीं, मैं पहले मुर्दा नहीं था, इस इंसान ने आकर मुझे मुर्दा कर दिया।'
जैसे आपके चोट ही चोट लगी है और आप बेहोश पड़े हो। और आप बेहोश पड़े हुए हो तो आपको क्या दर्द पता चल रहा है? नहीं पता चल रहा न। कोई आपको आ कर जगा दे तो आपको दर्द पता लगने लगेगा, ठीक? और जैसे ही दर्द पता लगेगा, आप कहोगे, ये जगाने वाले इंसान ने मुझे दर्द दे दिया। क्या उसने दर्द दिया है? दर्द तो आपके पास बहुत पहले से था, बस आपको पता नहीं चल रहा था। दर्द से बचने के लिए ही आपने बेहोशी चुन रखी थी। लेकिन जो आपको जगाएगा, वो आपको जागृति के साथ-साथ दर्द भी देगा। फिर दर्द का इल्ज़ाम उसपर पड़ेगा। हम कह देंगे, ' टॉक्सिक , टॉक्सिक , टॉक्सिक ।'
बेहोशी जितनी ज़्यादा होगी, टॉक्सिसिटी वग़ैरा के इल्ज़ाम उतने ज़्यादा होंगे हवाओं में। और किसको टॉक्सिक बोला जा रहा है, इससे पता चल जाता है कि ज़माना कैसा चल रहा है। थोड़ी देर पहले मैं कह रहा था कि यही जो दोहा है, इसमें से आप संत कबीर का नाम हटा दीजिए, तुरंत कहा जाएगा कि ये बहुत टॉक्सिक दोहा है। इससे हमारे बारे में पता चलता है, इससे पता चलता है कि ये युग कैसा चल रहा है। हर आदमी — 'बी पॉज़िटिव , बी पॉज़िटिव ' (सकारात्मक रहो, सकारात्मक रहो)। जो जितना टॉक्सिक होगा वो पॉज़िटिविटी की उतनी रट लगाएगा।
सूत्र एकदम सीधा है — जो मुर्दा होता है वही प्रकृतिगत कामनाओं के पीछे भागता है। जब कामनाओं के पीछे भागते हो तो उम्मीदें होती हैं, और उम्मीदें बची रहें इसीलिए पॉज़िटिविटी चाहिए। यानि पॉज़िटिविटी का सीधा सम्बन्ध है प्रकृति की प्रोग्रामिंग (कार्यक्रम) से। जितना जो प्रकृति की प्रोग्रामिंग पर चलेगा, उसको उतनी पॉज़िटिविटी चाहिए। लेकिन जो जितना प्रकृति की प्रोग्रामिंग पर चल रहा है, वो उतना ही ज़्यादा वास्तव में टॉक्सिक है। माने टॉक्सिक ही पॉज़िटिव है। जहाँ देखो पॉज़िटिविटी की बहुत बातें हो रही हैं, समझ लेना यहाँ ज़हर ही ज़हर है।
समझना नहीं चाहते, जिज्ञासा नहीं है, इन्क्विज़िटिवनेस नहीं है, बस क्या है? पॉज़िटिविटी । साल भर पढ़ाई नहीं करी, ‘मैं अभी भी पॉज़िटिव हूँ कि मैं पास हो सकता हूँ।' होना तो ये चाहिए कि तू परीक्षा देने जाए ही नहीं। ये तो ईमानदारी की बात होती न? मान ले एक बटा एक हज़ार संभावना है भी कि तुक्के से तू पास हो जाए, तो भी इंसान होने के नाते ईमानदारी से तुझे ख़ुद ही कह देना चाहिए कि मैं परीक्षा देने भी क्यों जाऊँ। सही बात तो ये है कि मैंने कुछ नहीं पढ़ा और जब कुछ नहीं पढ़ा तो मेरा हक क्या है — पास होना दूर की बात है — मेरा हक क्या है परीक्षा भी लिखने का? उसकी जगह कौनसा राग अलापा जाता है? 'बी पॉज़िटिव' , तुम अभी भी पास हो सकते हो, तुम जाओ। जिसमें एक शब्द भी नहीं है कि 'तूने साल भर किया क्या। और अगर तुझे ये पढ़ाई जँचती नहीं थी तो तू इस कोर्स में, इस डिग्री में एनरोल्ड (पंजीकृत) क्यों है?' वो बात कहीं नहीं आएगी, उठेगी ही नहीं।
गलत व्यापार शुरू कर दिया है। ' बी पॉज़िटिव! जान लगाओ! चल जाएगा, उम्मीद मत छोड़ो।' उम्मीद छोड़नी चाहिए। और अगर गलत व्यापार चल गया तो और बड़ी त्रासदी होगी। अच्छा हो कि वो जल्दी-से-जल्दी बंद हो जाए; अच्छा हो कि जल्दी- से- जल्दी आपको हार मिले।
फ़िज़ूल किस्म की नौकरी की कोशिश कर रहे हो। प्रार्थना होनी चाहिए कि नहीं मिले आपको। मिल गयी तो ज़िन्दगी भर के लिए फँस जाओगे। और ख़ासकर फ़िज़ूल किस्म की कोई सरकारी नौकरी। वहाँ तो यही होता है न, ‘उम्र भर के लिए हो गया ब्याह!’ अब फँसे रहो। जियोगे कैसे? तीस-चालीस साल करनी है नौकरी, करोगे कैसे? 'नहीं, वो तो हम बस सोते-सोते काट देंगे। और होती किसलिए है नौकरी? एक बार घुस जाएँ बस, फिर सोना है।' ये कुछ समझ मे आ रही है बात आपको?
जो आपकी चेतना को गंदा करे, वो टॉक्सिक ; जो आपको और बंधनों में डाले, वो टॉक्सिक ; जो आपके होश के स्तर को गिराए, जो आपको मदहोश कर दे, वो टॉक्सिक ; जो आपकी समझ पर पर्दा डाल दे, आपमें कामना का नशा बैठा दे, वो *टॉक्सिक*। ये है टॉक्सिक आदमी की पहचान।
तो नॉन-टॉक्सिक कौन हुआ फिर? जिसकी संगति में आप पाएँ कि थोड़ा उठ गए हैं। जिसकी संगति में आपको पता चले कि फ़िज़ूल की बातें उतनी देर आपके दिमाग में आयीं ही नहीं। जहाँ आपको जीतने-हारने की नहीं बल्कि पहले ये जिज्ञासा करने की प्रेरणा मिले कि लड़ाई सही कौन सी है। 'जीत-हार बाद में देखेंगे, पहले सही लड़ाई तो चुन लें', वहाँ जानिए कि टॉक्सिसिटी नहीं है।
जिन भी लोगों को आपके आस-पड़ोस में, आपके समाज में, आपके समुदाय में टॉक्सिक बोला जाता हो, वो ज़रूर थोड़े रोचक लोग होंगे। मैं नहीं कह रहा हूँ, उनको तुरंत स्वीकार ही कर लीजिएगा या उनका सम्मान करना तत्काल शुरू कर दें पर उनकी ओर जिज्ञासा से एक बार देखिएगा ज़रूर।
अगर आप सही इंसान को खोज रहे हैं तो ज़्यादा संभावना है कि वो टॉक्सिक लोगों में मिलेगा, तथाकथित टॉक्सिक लोगों में। अगर आपको सही इंसान ही चाहिए तो जहाँ उसके मिलने की सबसे कम संभावना है, वो है पॉज़िटिव लोगों के समूह में। आपके सामने दस पॉज़िटिव लोग खड़े हों, जिनको कहा जाता है पॉज़िटिव हैं, सो-कॉल्ड (तथाकथित) और दस तथाकथित टॉक्सिक लोग खड़े हों, मैं कह रहा हूँ, ‘अच्छा इंसान पाने की ज़्यादा संभावना इन दस टॉक्सिक लोगों में है।' निश्चित कुछ भी नहीं, संभावना की बात कर रहा हूँ।
और घबरा मत जाइएगा, अगर आप सही बात करते हों और उसके कारण आपको टॉक्सिक होने का इल्ज़ाम सहना पड़ता हो, तो कोई बात नहीं, अच्छी बात है।
'बूँद अघात सहै गिरि कैसे। खल के बचन सन्त सह जैसे।'
उसको ऐसे ही सह लीजिए जैसे अभी बाहर बारिश हो रही थी न, तो समझ लीजिए कि पर्वत पर पानी की बूंद पड़ रही है। कितनी चोट लग जाती है पर्वत को! तो वैसे ही सह लीजिए कि एक पानी की बूँद आयी, हम पर्वत हैं, हम पर पड़ गयी, कौन-सी चोट लग गयी।
पहले सेक्योरिटी के इतने साधन नहीं थे। तो अहंकार को उसकी औकात ज़रा जल्दी और आसानी से पता चल जाती थी। बिलकुल अहंकार महामानव बनकर बैठा हुआ है — एक बीमारी हो गयी, आ गया ज़मीन पर। लो देख लो, महामानव! अब दवाइयाँ ही दवाइयाँ हैं। तो अहंकार को उसकी औकात याद दिलाने वाला कोई मिलता नहीं आसानी से।
इन्श्योरेन्स (बीमा) है, कोई बुरी से बुरी चीज़ भी हो गयी तो पीछे से आकर कोई पकड़ लेगा। और सबसे खतरनाक सर्विस इंडस्ट्री (सेवा उद्योग) है, जहाँ पर फ़र्क नहीं पड़ता कि आप कितने बौड़म (पागल) हो, आपको कहा जाता है, ‘यस सर, जी मैम’। आपको इतना ही तो करना है कि आपके पास एक मोबाईल-फोन होना चाहिए, उधर से आता है ...। आप एकदम ही निहायत गिरे हुए, गलीच आदमी हैं, और वहाँ से एक कमसिन आवाज आपसे बोलती है — 'सर!' तुम हो इस लायक, तुम्हें कोई सर बोले? लेकिन आज हर आदमी सर है। तो अहंकार को उसकी औकात याद दिलाने वाला जो तंत्र है वो ध्वस्त हो चुका है। तो वो एकदम ऐसे चौड़ा होकर बैठ जाता है और कोई उसे ज़रा भी कुछ बोले कि तू गड़बड़ चीज़ है, तो बोलता है — 'ये नेगटिव है, डोंट अटैक मी।'
पहले ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी कि कोई आदमी आकर के आपको आपकी जगह दिखाए। पहले आपको स्थितियाँ ही आपकी जगह दिखा देती थीं। अब विज्ञान, टेक्नॉलजी (तकनीक) और अर्थव्यवस्था ऐसी हो गयी हैं कि हमने स्थितियों को कर लिया है काफ़ी हद तक अपने काबू में, बाहरी स्थितिओं को। भीतर तो अभी भी जंगल ही चिल्ला रहा है। पर बाहर-बाहर हमने स्थितियों पर नियंत्रण कर लिया है। तो हमें क्या लगने लग जाता है? ‘मैं कुछ हूँ!’ हो कुछ नहीं आप। और उसका सबूत हैं आत्महत्याएँ, अवसाद और इंसान के दिमाग में जो फ़ितूर और पागलपन और अंधेरा है, वो प्रमाण है इस बात का कि हम कुछ नहीं हैं। पर इंसान के दिमाग में जो कुछ है, वो हाथ में लेकर देखा नहीं जा सकता न। जो भीतर की चीज़ है वो भीतर रह जाती है और बाहर-बाहर अब सब कुछ इतना चिकना हो गया है। क्या सड़कें हैं, रोशनियाँ हैं, क्या विकास हुआ है ज़बरदस्त!
तो बाहर देखता है आदमी, और आँखें बाहर को ही देख सकती हैं, आदमी बाहर को देखता है, कहता है — 'वाह! ये मैंने किया। मैं महामानव हूँ।' और भीतर ही भीतर क्या हो तुम? जैसे कोई घिघियाता हुआ पशु; डरा हुआ, फिर भी कामना से घिरा हुआ।
मेरे ख़्याल से ऋषि भर्तृहरि का था, कहते थे, 'देखो, कामना क्या करवाती है। एकदम दो हड्डी का कुत्ता जिसके दस घाव हैं; उन दस घावों में मवाद भरा हुआ है, उसमें कीड़े पड़े हुए हैं, उसमें से चूँ रहा है उसका सब पस-वस। एकदम दो हड्डी का है, मरने के करीब है। चल भी नहीं पा रहा, पूरा शरीर ज़ख़्मों का एक पिंड भर है, वो कुतिया के पीछे-पीछे भाग रहा है। देखो, क्या करवाती है कामना!'
ऐसा हमारा दिमाग है। भीतर हमारी ये हालत है। लेकिन बाहर स्वास्थ्य ही स्वास्थ्य है। दुनिया की औसत उम्र देखिए कहाँ पहुँच गयी। आम आदमी आज कितना समृद्ध हो चुका है, इतना हम कभी नहीं थे। आसानी से हम मरते ही नहीं। जापान जैसे देशों में जाएँ तो वहाँ पर अब लाखों हुए जा रहे हैं लोग जो सौ के पार के हैं। उनके लिए अब अतिरिक्त इंतिज़ाम करने पड़ते हैं। तो ये जो बाहर हमने सब चिकनी-चिकनी व्यवस्था कर ली है न, इसके कारण भीतर की जो दारुण अवस्था है, भीतर की जो दयनीय हमारी हालत है, वो छुप गयी है। और हक़ीक़त ये है कि बाहर हम जितना बढ़ते जा रहे हैं, भीतर शायद उतना ही गिरते जा रहे हैं।
भीतर जितना गिरते जा रहे हैं, उतना ही हम चाहते हैं कि कोई आकर के हमें बता न दे कि हम गिरे हुए हैं। और कोई-न-कोई जाने-अनजाने आकर आपको जता ही जाता है कि आप गिरे हुए हो, नहीं चाहता तो भी कई बार जता देता है। तब हम तत्काल बोलते हैं — 'ये आदमी टॉक्सिक है।'
भाई तुम कैसे ऐसे मोम के पुतले हो गए कि कोई तुमको ज़रा-सा ऐसे (उँगली) कर देता है और तुम टूट जाते हो? पूछना नहीं चाहोगे कि इतनी कमज़ोरी क्यों है तुममें कि किसी ने दो बातें बोल दीं और हिल जाते हो। बाहरी स्थितियों को तुम जो इतनी कड़ाई से नियंत्रण में रखना चाहते हो इससे क्या पता चलता है? कि स्थितियों का उतार-चढ़ाव तुमसे अब ज़रा भी झेला नहीं जाता। लोग आते हैं, होता है, कहते हैं, '*आई वॉन्ट माय एसी इग्ज़ैक्टली ऐट ट्वेंटी टू पॉइंट फ़ाइव*।' (मुझे मेरी एसी ठीक-ठीक बाईस दशमलव पाँच पर चाहिए)। भाई, तू क्या बन गया?
पहले कुछ होता ही नहीं था तो पूरा जो तापमान का उतार-चढ़ाव था, आदमी पी जाता था। सब झेल लिया। क्योंकि भीतर स्थिरता थी न, तो बाहर उतार-चढ़ाव चलता रहता था, आदमी तब भी उसको झेल जाता था। फिर पंखे आए, चलो कुछ हद तक नियंत्रण किया तुमने तापमान पर शरीर के। फिर कूलर आ गए, फिर एसी आ गए, अब उसको एसी में भी ठीक साढ़े-बाईस डिग्री चाहिए। और चौबीस हो जाता है तो उसके पसीने छूटने लगते हैं और इक्कीस हो जाता है तो वो चिल्लाता है — 'ब्लैंकेट! ब्लैंकेट!' (कंबल)। और कोई उसको अगर ये बात थोड़ा ध्यान दिलाता है, तो बोलता है — 'टॉक्सिक ! एटैकिंग मी!'
जब मैंने बोलना शुरू किया था तो ये शब्द इतना प्रचलित नहीं था, *टॉक्सिसिटी*। तब कॉन्फिडेन्स (आत्मविश्वास) चलता था। तो तब मैंने उन सबको बोला था जो सुनते थे कि कॉन्फिडेन्स इज़ फ़ियर (आत्मविश्वास डर है)। तो ये बात उन्हें बड़ी अजीब लगी थी, 'कॉन्फिडेन्स इज़ फ़ियर?' हाँ! अब उसी बात को दूसरे शब्दों में कहने की ज़रूरत है — दस-बारह साल बीत चुके हैं — 'पॉज़िटिविटी इज़ टॉक्सिसिटी' । और आप देखिएगा, प्रयोग कर लीजिएगा, आप जाएँगे, आप किसी से बोलेंगे, पॉज़िटिविटी इज़ टॉक्सिसिटी , बिना समझे कि इसका अर्थ क्या है; और इसका अर्थ समझाने में भी मुझे एक घंटा लगा है पर उस इंसान को एक मिनट भी नहीं लगेगा, वो बोलेगा — 'या, इन सर्टन सरकमस्टेंसस दैट माइट बी ट्रू, बट लेट्स कन्सिडर द ओवर-ऑल थिंग... (हाँ, कुछ परिस्थितियों में यह सही हो सकता है, परंतु समग्र बात को देखते हैं...)'। चुप! तुझे समझ में भी आया क्या बोला गया? तुझे कुछ भी समझ में आया क्या?
अभी एकाध-दो दिन पहले एक न्यूज़ चैनल ने कहा, आपसे बात करनी है। मैंने कहा, ठीक है। वहाँ गए, उसने दो-तीन लोग और बैठा रखे थे। मैं कुछ बोलूँ, वो बीच में अपना...। फिर मुझे कहना पड़ा, मैंने कहा, 'चुप हो जाओ एकदम। चूँ नहीं आनी चाहिए आवाज़। मुझे बोलने का शौक नहीं है, मैं सिर्फ़ तब बोलूँगा जब मुझसे कोई बात पूछोगे पर जब मैं बोल रहा हूँ तो पहले उसको सुनो और समझो। तुम्हारा अग्रीमेंट-डिसअग्रीमेंट (सहमति-असहमति) नहीं चाहिए। समझ तो लो पहले, फिर उसे स्वीकार नहीं करना तो मत करना। मैं कौनसा अपनी बात थोप रहा हूँ तुम्हारे ऊपर।' समझे बिना बीच में आकर के पैं-पैं-पैं।
आप प्रयोग करिएगा, आप जाकर बोलिएगा किसी को अभी कि पॉज़िटिविटी इज़ टॉक्सिसिटी , उसको हैरत नहीं होगी। होना तो ये चाहिए, अगर इंसान सच्चा है तो आपका मुँह तकने लगे। कहे, 'ये क्या बोल दिया, समझाओ।' कोई नहीं कहेगा समझाओ।
ये जितने सब कॉन्फ़िडेन्ट (आत्मविश्वासी) लोग हैं, ये तत्काल उसपर अपना ओपीनिअन (मत) देना शुरू कर देंगे। तुम ओपीनिअन दे कैसे लेते हो बिना समझे? यही टॉक्सिसिटी है।
हमने कहा था, जीवन अंडरस्टैंडिंग माने बोध में है। और आज का युग समझने का नहीं है, आज का युग बकने का है। कुछ नहीं पता लेकिन बको, खूब बोलो, बोलते जाओ, बोलते जाओ, बोलते जाओ। इम्प्रेसिव (प्रभावकारी), कॉन्फिडेंट , आउटगोइंग (मिलनसार), एक्स्ट्रोवर्ट (बहिर्मुखी) कहलाओ। और ये चारों जो बातें बोलीं, ये सब पॉज़िटिविटी के साथ चलती हैं।