ठूसते जाना रोते जाना || नीम लड्डू

Acharya Prashant

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ठूसते जाना रोते जाना  || नीम लड्डू

तुम मुझे एक आदमी दिखा दो जो इन दोनों कामों के अलावा कोई तीसरा काम करता हो। आम व्यक्ति का सारा जीवन इन्हीं दो कामों में जा रहा है कि नहीं? पहला, ठूसना – और मैं सिर्फ़ मुँह से ठूसने की बात नहीं कर रहा, जेब में ठूसना, आँख में ठूसना, नाक में ठूसना, कान में ठूसना, दिमाग में ठूसना। उसे और चाहिए, उसे और संचय करना है, ठूसना ठूसना ठूसना! और जितना ठूसना उतना ही अतृप्त रहना और रोना। हमारा काम है अपने लिए और अपनों के लिए इकट्ठा करो।

ना क्रांतिकारी के पास अपने लिए कुछ होता है, ना बच्चे के पास अपना कुछ होता है। हमारे पास ‘अपना’ बहुत कुछ होता है। जिसके पास जितना अपने लिए होगा वो उतना रोएगा। जब तक जमा नहीं हुआ है तब तक इसलिए रोएगा कि, “बड़ी मेहनत पड़ रही है जमा करने में”, और जब जमा हो जाएगा तो इसलिए रोएगा कि, “जमा करता जा रहा हूँ पर तृप्ति नहीं मिल रही।“ दोनों ही दशाओं में रोता रहेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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