थोड़ी जान दिखाओ, कभी ललकार लगाओ || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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थोड़ी जान दिखाओ, कभी ललकार लगाओ || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, जैसे इंसान अपने जीवन में अकेले भी कई सारे फ़ैसले लेता है। जैसे मैं पढ़ने के लिए समाज से और परिवार से काफ़ी लड़ रही हूँ। क्या ये सबकुछ अपनेआप ही हो रहा है या ये मेरी अपनी ही लड़ाई है? तो फिर संघर्ष करने से क्या मतलब है? या हथियार डाल देना ही सबसे बड़ी जीत होती है इस लड़ाई में?

आचार्य प्रशांत: बाबा, आपने हथियार डाले हुए हैं और आप दास हैं, इसलिए हथियार उठाना ज़रूरी है न। गीता में अर्जुन को क्यों लड़वा रहे हैं श्रीकृष्ण? अर्जुन को कह रहे हैं, ‘तुम्हारी वर्तमान स्थिति बन्धक की है, दास की है, इसलिए तुम्हें हथियार उठाना ज़रूरी है। तुम लड़ो, ताकि तुम मुक्त हो सको।’ अगर तुम मुक्त हो ही तो तुम्हें नहीं लड़वाऍंगे।

भाई, रंगमंच पर आप उलझे हुए हो, तमाम तरह की गाँठें बाँध ली हैं आपने, तो आपसे कहा जा रहा है, ‘हथियार उठाओ, गाँठें काटो।’ लेकिन जो दर्शक दीर्घा में वहाँ पर नीचे बैठा हुआ है, मस्त बैठा है, उसको थोड़े ही कहा जाएगा कि तू जाकर भिड़ जा। वो तो मुक्त है, उसे क्या करना है। हाँ, वो अलग मुद्दा है कि वो जो मुक्त है, वो अगर ये देखे कि मंच पर गड़बड़ हो रही है, तो वो करुणावश जाकर मंच की गड़बड़ को ठीक करना चाहेगा।

मंच पर क्या गड़बड़ हो रही है? कोई मुक्त है, वो वहाँ पर ऐसे बैठा हुआ है और मंच पर चढ़ गया है एक झुन्नूलाल और सब जो नर्तकियाँ हैं, उनके साथ छेड़छाड़ कर रहा है। तो वो जो वहाँ पर बैठे हुए हैं ज्ञानी, मुक्त, वो क्या करेंगे फिर? वो जाकर झुन्नूलाल को वहाँ से खींचकर नीचे उतारेंगे।

तो फिर ये उनका जगत के साथ रिश्ता बैठता है। इसको लिप्तता नहीं बोलते, इसको करुणा बोलते हैं। ये प्रेम है। वहाँ नीचे बैठे थे, वो स्वयं तो मुक्त हैं, पर देख रहे हैं कि वहाँ मंच पर तो गड़बड़ चल रही है। वो उनको ठीक से नाचने नहीं दे रहा, ख़ुद भी दुख पा रहा है। तो फिर कहते हैं, ‘इधर आ, इधर आ, आ बैठ जा यहाँ, गीता सुन, इधर सुन।’ तो फिर उसको वहाँ से मुक्त कराया जाता है।

लेकिन जो झुन्नूलाल है, वो बोले, ‘मैं संघर्ष क्यों करूँ?’ तू इसलिए कर क्योंकि तू बन्धक है। अर्जुन तुझे तो लड़ना पड़ेगा, युध्यस्व! वो लड़ाई कुछ जीतने के लिए नहीं है, स्वयं को हारने के लिए है। तुझे अपनी दासता हारनी है। जैसे एक विद्वान ने कहा था न, यू हैव नथिंग टू लूज़ बट योर चेन्स (आपके पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के अतिरिक्त कुछ नहीं है)। तुम तो बन्धक हो, लड़ो! लड़े बिना काम कैसे चलेगा तुम्हारा। जो बन्धन में है वो कहे कि मैं नहीं लडूँगा। तो माने क्या कर रहे हो तुम, पक्की दासता पर हस्ताक्षर?

तो ये सब नहीं कि अरे जब कुछ है ही नहीं, तो फिर मैं किसी भी परिवार के प्रति या अन्याय के प्रति क्यों विद्रोह करूँ! और ऐसा भी खूब चला है अध्यात्म में कि चारों तरफ़ आग लगी हुई है और — वो है न नीरो बैठकर बाॅंसुरी बजा रहा था जब रोम जल रहा था। और यही नहीं था, दावत दी थी और बहुत सारे और भी लोग आये थे, वो भी सब बैठकर नाच-गाने में मगन हो रहे थे। श्रीकृष्ण के बाॅंसुरी बजाने और नीरो के बाॅंसुरी बजाने में कुछ अन्तर है कि नहीं है?

हाँ, तो आपको नहीं हक़ है बाॅंसुरी बजाने का, श्रीकृष्ण को हक़ है बाॅंसुरी बजाने का। आप मत कहिए कि दुनिया में जो हो रहा है सो हो रहा है, अरे ये तो सब जब प्रकृति का गुण ही है तो मैं क्यों उलझूँ। तुम उलझो क्योंकि तुम उलझे हुए हो। तुम मुक्त नहीं हो इसलिए उलझो। उलझो ताकि तुम सुलझ सको, इसलिए उलझो।

(भजन मंडली द्वारा कबीर साहब के दोहों को भजा जाता है)

आए हैं सो जाएँगे, राजा रंग फ़कीर। एक सिंहासन चढ़ी चले, एक बँधे ज़ंजीर।।

सुमिरन सुरती लगाय के, मुख ते कछु न बोल। बाहर के पट बन्द कर, भीतर के पट खोल।।

~ संत कबीर

प्र२: नमस्कार सर, आप हमेशा कहते रहते हैं कि हमें अपनी चेतना को उठाना चाहिए। मेरा प्रश्न ये था कि चेतना का उठना और अहम् जो मंच पर है, प्रकृति से लिप्त है, उसमें क्या सम्बन्ध है?

आचार्य: उधर जो कुर्सियाँ खाली पड़ी हुई हैं और जो भरी हुई कुर्सियों पर लोग बैठे हुए हैं, उनकी झलक मिलना, उनसे प्यार हो जाना।

मंच पर हो किसकी हसरत में?

प्र२: अभी तो प्रकृति की।

आचार्य: है न? वहाँ पर सब जो नर्तकियाँ हैं, उनके कारण मंच पर चढ़ गये हो। वहाँ पा कुछ नहीं रहे हो, उनका भी खेल ख़राब कर रहे हो, दुत्कारे भी जा रहे हो, फिर भी मंच पर हो। एक बिन्दु ऐसा आता है जब वहाँ वो जो बैठे हुए हैं, उनकी पुकार सुनाई देती है, उनकी ओर से भी जैसे कोई संगीत आ रहा हो। एक संगीत तो मंच का है, ये लोग नाच रही हैं, तो इनका संगीत है।

एक उधर का भी संगीत है। जैसे श्रीकृष्ण की बाॅंसुरी हो, वो उधर बज रही है। वो प्रकृति के रंगमंच पर नहीं है, वो उधर बज रही है। लेकिन इधर मंच पर तो पूरे ढोल और सौ तरह के बाजे हैं, आर्केस्ट्रा है पूरा, तो वो बाॅंसुरी सुनाई नहीं देती। लेकिन किसी वजह से, वो जो वजह है वो कभी साफ़-साफ़ बतायी नहीं जा सकती, तो उसको कह दिया जाता है अनुग्रह, ग्रेस।

कई बार ऐसा होता है कि मंच पर इतनी ज़ोर की लात पड़ी कि छिटककर मंच के बिलकुल मुहाने पर, एज पर आ गये और वहाँ मजबूर होकर देखना पड़ा उधर सामने जो बैठे हुए थे दर्शक लोग उनकी ओर। कभी कुछ और हो गया। कभी ऐसा हुआ कि जो मंच पर शोर था, उसमें बीच में ज़रा सा एक अन्तराल आ गया, उस अन्तराल में तुम्हें बाॅंसुरी सुनाई दे गयी। और कभी ऐसा हो गया कि नीचे ही जो बैठे हुए थे, उसमें से कोई तुम्हारी ख़ातिर, तुम्हारे प्रेम में, तुम्हारे लिए करुणा करके मंच पर चढ़ आया, जबकि उसे मंच पर चढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं है। उसको फिर अवतार बोल देते हैं। कि उसे कोई ज़रूरत नहीं है कि वो आये, पर वो तुम्हारी ख़ातिर आया है। वो अपना मस्त होकर के वहाँ क्या कर रहा था?

प्र२: द्रष्टा बना हुआ था।

आचार्य: हाँ, वो अपना वहाँ आज़ाद हो गया था। वो तो अपना बैठकर मज़े ले रहा था, पर उसने देखा कि मंच पर बड़ी गड़बड़ चल रही है, तो वो मंच पर आ गया तुम्हारे लिए। हालाॅंकि, मंच नर्क है बिलकुल, पर वो तुम्हारे लिए आ गया और वहाँ पर आकर तुमको उसने दो बातें बता दीं या कुछ और साधन लगा दिया। तो फिर वहाँ से आप नीचे आ गये। तो ये कुछ चीज़ें होती हैं, इसी को बोलते हैं — चेतना का उठना।

जब मंच पर जो हो रहा है उससे वैराग्य हो जाए और मंच के बाहर जो हैं उनकी बातों से प्रीत बढ़ने लग जाए, जब अपनी रोज़ की जो दिनचर्या है और उठा-पटक है, उसके प्रति विरक्ति का भाव आने लगे और गीता की याद आते ही मन पुलकित होने लगे कि आप बोलो कि महीने के मेरे पाॅंच दिन विशेष होते हैं। जब महीने के ये पाॅंच दिन आपके लिए विशेष होने लगें, तो जानना कि चेतना का स्तर बढ़ रहा है। सुबह उठो और याद आये या नोटिफिकेशन (अधिसूचना) आये कि आज सत्र है और मन एकदम खिल जाए, तो जानना चेतना का स्तर बढ़ रहा है।

और सुबह उठो और नोटिफिकेशन (अधिसूचना) आये कि आज सत्र है और बहाने ढूॅंढने लगो कि किस तरह से और क्या अपनेआप को बहाना दे दूॅं कि आज ग़ायब हो जाऊॅं, तो जान लेना कि अभी वो नचनियों से बड़ा मोह है।

समझ में आ रही है बात?

यही बस अपनेआप से आप लोग परीक्षण कर लिया करिए कि जब स्मृति कौन्धती है कि आज सत्र है तो भीतर से क्या प्रतिक्रिया उठती है। अगर सत्र की याद आते ही ये होने लग गया कि

कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आये। अन्तर भीगी आत्मा हरी-भरी बनराय।। ~ कबीर साहब

और जैसे ही सत्र याद आया, ऐसे ही लगने लगा जैसे प्रेम का बादल आकर बरस गया है और चारों तरफ़ हरियाली-ही-हरियाली फैल गयी है बिलकुल, तो समझ लो चेतना का स्तर बढ़ रहा है। जैसे कहते हैं न,

सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग। बरस्या बादल प्रेम का, भींज गया सब अंग।। ~ कबीर साहब

तो अगर ऐसा होने लग जाए, तो समझो कि हो रहा है कुछ। मंच के नीचे वालों की पुकार अब अच्छी लगने लग गयी है। और फिर इसके साथ ही ये होगा कि मंच के ऊपर वालों से एक — जिसको 'वैराग्य' बोल रहे हो, मैं तो उसको 'पितृभाव' बोलता हूँ — फिर लिप्तता नहीं रहती। आपको दिखने लग जाता है कि ये सब मेरे क्या हैं? बच्चे हैं।

वैराग्य ऐसा लगता है जैसे कठोर शब्द हो। वैराग्य शब्द में कहीं-न-कहीं ऐसा लगता है कि छुपी हुई हिंसा है। नहीं, वो मंच को फिर ऐसे देखने लग जाते हैं कि ये मेरे बच्चे हैं, इनके प्रति मेरा कर्तव्य ही यही है कि मैं इनको भी मुक्ति दे दूॅं या कम-से-कम मैं इनको बन्धनों में न डालूँ, इनको परेशान न करूँ। तो ये दोनों चीज़ें एक साथ होती हैं। प्रेम और अहिंसा इसलिए साथ चलते हैं।

प्रेम जब श्रीकृष्ण के प्रति आता है तो प्रकृति के प्रति अहिंसा आ जाती है। कोई कहे कि मुझे श्रीकृष्ण से प्रेम है और वो प्रकृति के प्रति अभी हिंसक है, तो झूठा है न प्रेम? कह रहे हैं, ‘श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम है’, लेकिन लगे हुए जानवर का दूध निकालने में, तो प्रेम झूठा है तुम्हारा। जिसको श्रीकृष्ण से प्रेम होगा वो प्रकृति और पशु के लिए अब हिंसक कैसे रह सकता है?

कृष्ण से प्रेम होता तो तुमने ये दूध-दही का काम कब का बन्द कर दिया होता। तुम ये थोड़े ही करते कि तुम जन्माष्टमी पर भी दूध-दही की नदियाँ बहा देते। ये तो क्या करा है, ये तो बिलकुल ही बेतुका, अनर्गल काम है। दोनों एक साथ चलेंगे।

अगर सिर्फ़ ये होगा कि मंच पर तो लात पड़ रही है, लेकिन मंच से बाहर जो है उससे प्रेम नहीं उठ रहा, तो मंच से तो ऊबे रहोगे, लेकिन क़ैद फिर भी मंच पर रहोगे, क्योंकि लगेगा कोई विकल्प ही नहीं है। ऑडिटोरियम गये हो, ऑडिटोरियम में जो सारी रोशनी होती है वो कहाॅं पर होती है? मंच पर होती है। और जो दर्शकों का स्थान होता है वो पूरा अन्धेरा, काला रखा जाता है। तो जो मंच पर है उसे ऐसा लग सकता है कि मंच के अलावा तो कुछ है ही नहीं।

जो अभिनेता होते हैं, ये बात उनके पक्ष में जाती है। इतना अन्धेरा कर दिया जाता है दर्शकों पर कि आप दर्शकों से आँख नहीं मिला सकते। वो अच्छा रहता है, दर्शकों से आँख मिलाओ तो अभिनेता को अभिनय करने में दिक्क़त आने लग जाती है। तो दर्शकों को अन्धेरे में डुबो दिया जाता है बिलकुल। जो मंच पर होता है उसको लगता है मैं-ही-मैं हूँ।

आप अगर मंच पर चढ़ गये हो प्रकृति के तो आपको बहुत बड़ा एक हज़ार सीट का ऑडिटोरियम है वो दिखाई नहीं देगा। उस एक हज़ार सीट में सब बैठे हुए हैं, योगी, ज्ञानी, ध्यानी सब बैठे हैं। पर आप तो मंच पर हो न, आपको कोई दिखाई नहीं देगा।

आपमें से कितने लोगों ने रंगमंच पर कुछ काम करा है? कुछ दिखाई पड़ता है ऑडिटोरियम में? कुछ नहीं दिखाई पड़ता न? हाँ, इस वक़्त भी आप यहाँ बैठे हुए हो न, ये अभी ये मंच है, यहाँ काम चल रहा है। वो सब बैठे हुए हैं, वो दिखाई नहीं पड़ते। हम इतना खोये रहते हैं मंच की रोशनी में और मंच पर ही जो हमने अपनेआप को ये व्यर्थ किरदार दे दिया है, ज़बरदस्ती का किरदार दे दिया है कि हमको मंच से उतार भी दिया जाता है तो लगते हैं क्या करने? रोने ज़ोर-ज़ोर से कि हाय-हाय उतार दिया। फिर भागकर मंच पर चढ़ जाते हैं। और फेंका बार-बार जाता है मंच से बाहर, ‘उतरो यहाँ से, जगह नहीं है तुम्हारी।’ आसक्ति बड़ी गहरी है, फिर कूदकर चढ़ेंगे। एक बार लात खाऍंगे, दोबारा चढ़ जाऍंगे।

समझ में आ रही है बात?

वो सब मौजूद हैं, लेकिन आँखें हमारी प्रकाश में चौन्धियाई रहती हैं। एक तो वैसे ही अन्धेरे में कुछ दिखाई नहीं देता, वो भी अगर आप एक रोशन जगह पर हो तो अन्धेरा तो फिर बिलकुल ही अभेद्य हो जाता है। अन्धेरा भी देखा जा सकता है अगर अन्धेरे का अभ्यास करो तो। ये आपने देखा है? आप एक अन्धेरे कमरे में घुसते हैं, थोड़ी देर में दिखाई देने लग जाता है। लेकिन अगर आप बहुत ज़्यादा प्रकाशित जगह पर हो, तो फिर तो अन्धेरा बिलकुल ही अपारदर्शी हो जाएगा। कुछ नहीं दिखाई देगा वहाँ।

वो सब हैं, मौजूद हैं, पर हमारी आँखों को ग़लत आदत लग गयी है चकाचौन्ध रोशनियों की। इन्द्रियाँ धोखा इस तरह देती हैं न, वो इतनी रोशनी दे देती हैं, इतनी रोशनी दे देती हैं कि आपको फिर और कुछ दिखाई नहीं देता। सब प्रतीक्षा में हैं, पर क्या करें? वो प्रतीक्षा ही नहीं कर रहे, वो सक्रिय प्रतीक्षा कर रहे हैं। वो ऐसे ही नहीं करते कि बैठे-बैठे प्रतीक्षा कर रहे हैं, अगर वो निष्क्रिय प्रतीक्षा होती तो भारत में अवतारवाद जैसी कोई बात नहीं होती।

भारत में ही नहीं, अवतारवाद दुनिया में लगभग हर जगह रहा है। बहुत सोच-समझकर ये बात कही गयी है कि मुक्ति सिर्फ़ बैठे-बैठे तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर रही है। कइयों ने तो ये कहा है कि तुम उसकी ओर अगर एक क़दम बढ़ाते हो, तो वो तुम्हारी ओर दस क़दम बढ़ाती है। तुम अपनी ओर से थोड़ा सा तो कुछ करो, वो तो कब से बाट जोह रही है। लोगों ने तो यहाँ तक कहा है कि तुम उसकी तरफ़ नहीं बढ़ते, वही तुम्हारी तरफ़ बढ़ती है। वो तुमको रिझाना चाह रही है, वो तुमको बुलाना चाह रही है, पर तुम मंच पर ही डूबे हुए हो।

चेतना के स्तर के बढ़ने का मतलब होता है कि तुमने उसकी बात थोड़ी सुननी शुरू कर दी। वो जो तुमको सदा से बुला ही रहा है, तुमने उसकी बात पर थोड़ा ग़ौर करना शुरू कर दिया। उसके आमन्त्रणों को असम्मान से ठुकराना बन्द कर दिया। इसी को दूसरे पक्ष से कभी-कभी मैं कहता हूँ, ‘चेतना के बढ़ने का अर्थ होता है आत्म गौरव का विकास।’

जिसके भीतर एक खुद्दारी आने लग गयी, इसको मेरे ख़याल से गुरजीएफ़ ने कहा है क्रिस्टलाइज़ेशन ऑफ़ द इगो (अहंकार का क्रिस्टलीकरण) के नाम से — ”सुनर ऑर लेटर एवरीथिंग मस्ट बी न्यू इन यू। फॉर द मोमेंट एवरीथिंग इज़ मेर्डे। मेक रूम सो एज़ टू क्रिस्टलाइज़ ए न्यू फैक्टर फॉर ए न्यू लाइफ़।” — कि जिसका अहंकार थोड़ा सा घनीभूत होने लग गया, उसकी भी समझ लो चेतना का स्तर बढ़ रहा है।

क्योंकि प्रकृति के रंगमंच पर पड़ तो लात ही रही है न? जो अब लात खाने के प्रति थोड़ा सा संवेदनशील हो गया, जिसमें एक विरोध, विद्रोह थोड़ा आने लग गया, उसकी भी चेतना बढ़ रही है।

और ये दोनों बातें अक्सर एक साथ चलती हैं। जैसे-जैसे आपको श्रीकृष्ण की मुरली सुनाई देती है, वैसे-वैसे मंच के प्रति आप में विद्रोह जाग्रत होता है — ये है चेतना का उठना। आप कहते हो, ‘क्या है, ज़रा सी ज़िन्दगी है, उसमें भी जहाँ देखो वहाँ लतियाये जाते रहते हैं, हर समय ये, अरे अगर हम इतने ही नालायक़ हैं तो 'रहना नहीं देश बिराना है। हटाओ सब! बन्द करो।’ ये जो भाव है, ये आना बहुत ज़रूरी है, यही आत्म-गौरव है — 'रहना नहीं देश बिराना है।' और उसके साथ जब ज्ञानियों की पुकार जुड़ जाती है, तो मुक्ति की ओर व्यक्ति बढ़ने लगता है। ये चेतना का ऊर्ध्वगमन है।

आ रही है बात समझ में?

प्र२: जो भी हमारे साथ हो रहा है, जो भी हम हैं, वो तीन चीज़ों की वजह से है — शरीर, समाज और संयोग। तो क्या हमारा जो भी निर्णय है, क्या वो चुनाव है या वो भी संयोग है? क्या कुछ ऐसा है जो हमारा चुनाव हो, संयोग नहीं? मेरा यहाँ बैठना एक संयोग है या चुनाव?

आचार्य: ये तीन मालिक जो कह रहे हैं उसकी उपेक्षा करके आप यहाँ आये हो, तो वो आपका चुनाव है। और उन्हीं तीनों मालिकों के चलाये यहाँ आ गये हो, तो आपकी मजबूरी है। आपको तय करना है। और दोनों वजहों से आप यहाँ हो सकते हो। तीन मालिकों ने आपको आदेश दिया, आप यहाँ आ गये, तो नौकर हो। मजबूरी है, मालिक की बात का पालन करना पड़ेगा, आ गये हैं यहाँ पर। और तीन मालिकों का आदेश कुछ और था, आप यहाँ विद्रोह करके आये हो, तो चुनाव है आपका।

चेतना की आदत होती है समर्पण की और चेतना का स्वभाव है विद्रोही।

चेतना की आदत है सो जाना और चेतना का स्वभाव है ललकारना। तो आप यहाँ पर अगर ललकार कर आये हो, तो ही आये हो। नहीं तो फिर तो ऐसे ही चलते-फिरते आ गये, चलते-फिरते वापस भी चले जाओगे।

आप जानते हो, गीता समागम में हमारे सबसे — जैसे आप यहाँ पर आये हो न बैठे हो — जो हमारे सबसे गहरे और हार्दिक प्रतिभागी हैं, वो कौन हैं? वो ऐसे-ऐसे लोग हैं जिनको सत्र के दिनों में अपना घर छोड़कर जाना पड़ता है। ऐसे-ऐसे लोग हैं, जो इस वक़्त किसी पब्लिक पार्क में बैठे होंगे एक बेंच पर सत्र को सुन रहे हैं, क्योंकि घर में वो सुन नहीं सकते। ऐसी-ऐसी महिलाएँ हैं जिन्हें सत्र सुनने के लिए घर से बाहर निकलना पड़ता है और इस कारण उन्हें असुविधा होती है, ख़तरा उठाना पड़ता है। रात में इस वक़्त भी वो बाहर होंगी।

उन्होंने चुनाव किया है न! वो आयी हैं तीन मालिकों के आदेशों की उपेक्षा करके। वो हैं विद्रोही। आप घर में अपना आराम से बैठे हुए हो, ठीक है, कुछ करने को नहीं, सुनते-सुनते सो भी गये, तो वो थोड़े ही है। पता नहीं कौनसे सत्र में था, एक बार किसी का प्रश्न आया था, ड्राइव करते हुए बोल रहे हैं, ‘यही तरीक़ा है कि मैं सुन सकता हूँ या बात कर सकता हूँ। गाड़ी लेकर निकल जाता हूँ।’

ऐसे-ऐसे लोग हैं, उनके छोटे-छोटे कमरे हैं, छोटे-छोटे घर हैं, वहाँ उनको अनुमति ही नहीं है। ये है न! तब आप आये हो गीता में। हो ही नहीं सकता कि आप श्रीकृष्ण की बात सुनो और जगत आपका साथ दे दे। जो विद्रोह करके आया है, वही चुनाव करके आया है।

रोज़ आते हैं लोगों के दस्तावेज़, किसी का मोबाइल तोड़ दिया गया क्योंकि यहाँ सत्र में सुन रहा था। महिलाओं के साथ ज़्यादा होता है। बोलती हैं, ‘मेरा सब बन्द कर दिया, कार्ड ब्लॉक कर दिया, यूपीआई बन्द कर दिया, अकाउंट बन्द कर दिया।’

मैंने कहा, ‘कोई बात नहीं आप आइए, आप से कौन कह रहा है कि आप योगदान देंगी तो ही आऍंगी।’ पतिदेव ने करा और थप्पड़ और मारे साथ में। तो ये हैं जो आये हैं और इन्हीं की ख़ातिर फिर हम भी मेहनत करते हैं न!

वास्तविक चुनाव हमेशा चुनौती, ललकार के साथ होगा। रश्मिरथी का है, कर्ण हारने लग जाता है, शल्य ताना मारते हैं। तीर-ही-तीर घुस गये हैं कर्ण के या शायद वो स्थिति है कि वो नीचे उतर गये हैं, अर्जुन अब मार ही देंगे। तो कर्ण का उत्तर कुछ इस तरीक़े से है कि

विजय, क्या जानिए, बसती कहाँ है? विभा उसकी अजय हँसती कहाॅं है? भरी वह जीत के हुंकार में है, छिपी अथवा लहू की धार में है?

~ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (रश्मिरथी)

कह रहे हैं, ‘तू बोल रहा है अर्जुन जीत गया, अरे तुझे क्या पता कौन जीता है? उधर जीत का हुंकार होगा-तो-होगा, इधर लहू की धार है। मैं इसलिए जीता हुआ हूॅं। मेरा खून बह रहा है न, विजय मेरी है! लोगों को लगेगा, अर्जुन जीत गया। अर्जुन नहीं जीता है, कर्ण जीता है। तुम्हें क्या पता विजय किसको बोलते हैं!'

समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब नादानों का है। ये खेल जीत से बड़े किसी मकसद के दीवानों का है। जानते स्वाद इसका वे ही, जो सुरा स्वप्न की पीते हैं। दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग खड़े जो जीते हैं।

~ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (रश्मिरथी)

तो जो संसार — आज ये तीन मालिकों की बात करी न, दुनिया, संसार — इनसे खेलना हल्का सौदा नहीं है। ये खेल उनके लिए है, ये ऐसे नहीं है कि हल्का सौदा है कि ऐसे ही कर लिया।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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