तेरी है ज़मीं, तेरा आसमां || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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तेरी है ज़मीं, तेरा आसमां || आचार्य प्रशांत (2014)

तेरी है ज़मीन , तेरा आसमान

तेरी है ज़मीन तेरा आसमान तू बड़ा महरबान, तू बक्शीश कर सभी का है तू, सभी तेरे

ख़ुदा मेरे तू बक्शीश कर

तेरी मर्ज़ी से ऐ मालिक हम इस दुनिया में आये हैं तेरी रहमत से हम सबने ये जिस्म और जान पाए हैं तू अपनी नज़र हम पर रखना किस हाल में हैं ये ख़बर रखना

तू चाहे तो हमें रखे, तू चाहे तो हमें मारे ओ.. तेरे आगे झुकाके सर खड़े हैं आज हम सारे

ओ.. सबसे बड़ी ताक़त वाले तू चाहे तो हर आफत टाले

तेरी है ज़मीन, तेरा आसमान तू बड़ा महरबान, तू बक्शीश कर सभी का है तू, सभी तेरे

ख़ुदा मेरे तू बक्शीस कर

वक्ता:

तेरी है ज़मीन , तेरा आसमान

क्या अर्थ है इसका? एक बात साफ़-साफ़ समझिए, श्रद्धा अंधी नहीं होती है, कि पता नहीं है और जल्दी से भगवान बोल दिया। पहले जानेंगे, उस ‘जानने’ से श्रद्धा आती है। पहले बात समझी जाती है, उस ‘समझने’ से श्रद्धा आती है। श्रद्धा ऐसी थोड़ी होती है कि बस यूँ ही। फ़िर बड़ी नपुन्सक श्रद्धा होगी न, कि कुछ है ही नहीं उसमें। और फ़िर वो हिल भी बहुत जल्दी जाती है इसीलिए। भगवान-भगवान करते रहते हैं, लेकिन सामने से ज़रा ही कोई आफ़त आई और हालत ख़राब हो जाती है। जो भगवान को जानेगा, उसकी ये हालत होगी? ‘ओह माय गॉड’ भी कैसे बोलते हैं? बिल्कुल चिल्ला कर के, कि जान निकली। तो इसलिए जल्दी से नहीं बोल देना ‘भगवान’।

क्या अर्थ हुआ इसका ‘तेरी है ज़मीन, तेरा आसमान’? ज़मीन और आसमान दो सिरे हुए अस्तित्व के। पूरा अस्तित्व जिस स्रोत से आ रहा है, उसकी बात की जा रही है। अच्छा, ‘अस्तित्व किसी स्रोत से आ रहा है’, यह क्यों ज़रूरी है? अस्तित्व किसी श्रोत से आए ही, ये क्यों ज़रूरी है? ज़मीन-आसमान — मतलब सब कुछ। ज़मीन-आसमान, और ज़मीन-आसमान के बीच में जो आता है वो सब, तो सब कुछ। इधर का, उधर का; दायें का, बाएँ का; नीचे का, ऊपर का; अन्दर का, बाहर का; सब शामिल हो गया इसमें। अभी मैंने जो बातें कहीं, आपसे कुछ युग्म शब्द बोले, वो क्या थे? इधर का, उधर का; अन्दर का, बाहर का; नीचे का, ऊपर का; दायें का, बाएँ का; ये क्या हैं?

द्वैत है न, इसी का नाम तो द्वैत है। द्वैत और क्या होता है? इधर का, उधर का; दायें का, बाएँ का; नीचे का, ऊपर का; अन्दर का, बाहर का; द्वैत इसी को कहते हैं न? क्योंकि संसार का मतलब ही है कि कुछ अन्दर है, कुछ बाहर है; कुछ दाएँ है, कुछ बाएँ है; ऊपर है, नीचे है; कुछ अच्छा है, बुरा है — यही सब संसार है — दिखता है, नहीं दिखता है; दिन है, रात है; रौशनी है, अंधेरा है; सुख है, दुःख है। हम क्यों कह रहे हैं कि जो दिखता है, जो संसार है, उसका कोई आधार होना चाहिए? हम क्यों कह रहे हैं? और वहाँ पर भी हमें कोई धारणा बनाने की ज़रूरत नहीं है; हमें कुछ मान लेने की ज़रूत नहीं है; बात बड़ी वैज्ञानिक है। क्यों कह रहे हैं?

क्योंकि जहाँ द्वैत है, वहाँ पर द्वैत का आधार होना ही पड़ेगा। द्वैत का अर्थ ही यही है: “मैं तुझ पर आश्रित, तू मुझ पर आश्रित। और अगर मैं नहीं, तो तू नहीं; और तू नहीं, तो मैं नहीं। मैं दिखता ही इसी कारण हूँ क्योंकि तू दिखता है; तू दिखता ही इसी कारण है क्योंकि मैं दिखता हूँ।” रौशनी शब्द ही इसीलिए है क्योंकि अँधेरा होता है। अँधेरा हो ही न तो रौशनी नहीं हो सकती।

तो इसीलिए रौशनी अपनेआप में कुछ नहीं है। कुछ होना ही चाहिए ‘मूल’ जिससे ये दोनों ही निकलते हैं — रौशनी और अँधेरा। अन्यथा, ये दोनों हो नहीं हो सकते। जहाँ द्वैत है, वहाँ द्वैत के स्रोत को होना ही पड़ेगा। और ये श्रद्धा की बात नहीं है, ये बात पूरी तरह वैज्ञानिक है। हम इतना ही कह रहे हैं कि द्वैत चूँकि खुद अपनेआप में सिर्फ़ एक भ्रम है, इसीलिए वो खुद तो अपनेआप को जन्म दे नहीं सकता।

श्रोता १: ये भी तो हमने माना कि वो भ्रम है।

वक्ता: उसकी परिभाषा ही यही है न, भ्रम हम कह नहीं रहे हैं। उसकी परिभाषा ही यही है, कि रौशनी दिख ही इसलिए रही है क्योंकि बगल में अँधेरा है। ये रौशनी आपको इसीलिए दिख रही है क्योंकि यहाँ परछाई है। अगर सब जगह पर एक ही प्रकार की ही रौशनी हो, तो आप नहीं कह पाएंगे कि रौशन है। इसलिए भ्रम कह रहे हैं न। भ्रम कहने का अर्थ ये नहीं है कि वो है नहीं, भ्रम कहने का ये अर्थ है कि वो है इसलिए क्योंकि उसका विपरीत है। वो और उसका विपरीत एक साथ अस्तित्व में आते हैं। और रौशनी ने अँधेरे को जन्म नहीं दिया, अँधेरे ने रौशनी को जन्म नहीं दिया, दोनों का जन्म एक साथ हुआ। दोनों एक तरह से जुड़वाँ हैं। तो इन जुड़वाँ बच्चों की कोई माँ तो होगी न? उस माँ को देखा नहीं है, पर ये पक्का है कि अगर जुड़वाँ बच्चे हैं, तो माँ होगी।

तो संसार ही, “कोई पूछे कि क्या प्रमाण है कि ईश्वर है?” संसार प्रमाण है, अगर संसार है तो ईश्वर को होना होगा। और चूँकि संसार लगातार है, इसीलिए ईश्वर को भी लगातार होना होगा। वो कहीं एक नहीं हो सकता। क्योंकि संसार का निर्माण भी लगातार हो रहा है, इसीलिए ईश्वर को भी लगातार काम करना है। ऐसा नहीं है कि वो काम करके थम गया है। भई, अभी जो यहाँ रौशनी थी, अब नहीं है। अभी हाथ यहाँ था, अब नहीं है। जब सब कुछ लगातार बदल रहा है, द्वैत का खेल लगातार चल रहा है, तो इसका अर्थ ये है कि जन्म की प्रक्रिया भी अन्व्रत है।

तो आप ये नहीं कह पाओगे कि सृष्टि की रचना इतने साल पहले हुई, उसके बाद सृष्टि अपनेआप चल रही है। सृष्टि की रचना नहीं हुई है, सृष्टि की लगातार रचना हो रही है; लगातार, लगातार रचना हो ही रही है। जहाँ कहीं द्वैत है, वहीं उस द्वैत को निरंतर जन्म भी दिया जा रहा है।

श्रोता २: तो क्या हम ये कह रहे हैं कि स्रोत द्वैत के बाहर है?

वक्ता: द्वैत में ही स्रोत है। बाहर होगा कैसे? क्योंकि बाहर भी जो होगा, उसके लिए कोई भीतर होना ज़रूरी है। हम ये कह रहे हैं कि ‘जो है’, ‘वही है’, उसके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। लगातार उसकी रचना हो रही है, और जो रचना हो रही है, वही वो है। उसके अलावा और कुछ है नहीं। उसके अलावा शून्य है, कुछ नहीं है। तो अगर ‘कुछ है’ कहना है, तो यही कहना पड़ेगा कि रचना में ही है। इसी धूप-छाँव में ही है। इसी को पूजना पड़ेगा। इसी की उपासना करनी पड़ेगी।

तो यहीं पर “तेरी है ज़मीन, तेरा आसमान” इतने में ही द्वैत की बात तो आपको करनी ही पड़ेगी: जहाँ कहीं भी द्वैत के दो सिरे हैं, वो एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। उनका स्रोत होना निश्चित ही है।

श्रोता ३: तो कल एक संवाद सुन रहे थे, तो उसमें ओशो कहते हैं कि “अगर दुनिया में सब चोर हो जाएं, तो कोई चोर नहीं बचेगा।”

वक्ता: कोई चोर नहीं बचेगा।

श्रोता ३: चोर बचता ही इसीलिए है क्योंकि अ-चोर उसके साथ खड़ा है।

वक्ता:

‘तू बड़ा महरबान’

महरबान क्यों बोला जा रहा है? सिर्फ़ इसलिए कि प्रथा है ‘महरबान’ बोलने की? ख़ुदा को महरबान क्यों बोला जा रहा है? क्योंकि “मैं जो हूँ, यही तो संसार है। मेरे लिए तो यही संसार है, और इस संसार का स्रोत ‘तू’ है, तो धन्यवाद तो बोलना पड़ेगा न।” मन को अपने स्रोत को धन्यवाद तो कहना ही पड़ेगा; स्रोत – मन जहाँ से आ रहा है।

इसको आप एक दूसरे रास्ते से भी समझ सकते हैं, कि ज़मीन और आसमान दोनों कहाँ है? मन में हैं। मन जो कुछ भी करता है, मन के जितने तरीके हैं, जितनी प्रक्रियाएं हैं, वो उसकी अपनी तो हैं नहीं। एक पैदा होने वाला बच्चा तो ये सोच कर तो आता नहीं है कि “मुझे इतने से इतनी तरंग दैर्ध्य दिखाई दें, इतनी बातें सुनाई दें, इस प्रकार का मेरा मानसिक आकार हो, ऐसी मेरे मन की ज़मीन हो।”

तो मन का भी स्रोत होगा ज़रूर।

जिसको उपनिषद कहते हैं कि वो आँखों की आँख है, कानों का कान है और मन का मन है। आँखें उसको देख नहीं सकतीं, पर वो आँखों को देखने की शक्ति देता है। कान उसको सुन नहीं सकते, पर कानों को सुनने की ताकत वही है। ज़बान उसका नाम नहीं ले सकती, पर ज़बान को जो भी कहना है, उसकी ताकत वही देता है। मन उसको सोच नहीं सकता, पर मन जो भी कुछ सोचता है उसकी ताकत वही है। तो जब ज़बान की, आँख की, कान की, मन की ताकत वही है, तो महरबान तो उसे कहना ही पड़ेगा न। तो इस कारण महरबान कहा जा रहा है।

“बक्शीश”

ये *‘बक्शीश * शब्द क्या है?

श्रोता ४: अनुकम्पा।

वक्ता: जो मंद बुद्धि का आदमी होता है, वो सोचता है कि यत्न से मिलता है, जतन से मिलता है, ‘कर’ के मिलता है। और जो होशियार आदमी होता है, वो कहता है कि ज़रा देखूँ कि कितना मिला है मुझे मेरे करने से और कितना मिला है मुझे यूँ ही? और वो ये पाता है कि जो कुछ भी तो कीमती है, वो लगातार उसे बस यूँ ही मिल गया है – बक्शीश, कृपा, ग्रेस। ये उसने अर्जित नहीं की है, हक नहीं है उसका, उसको बस दे दी गयी हैं। तो इसीलिए ये नहीं कहा जा सकता कि “सुनो भई, ज़रा बक्शीश भेज देना।” क्योंकि ये तुम्हारा हक नहीं है। तुम अनुनय कर सकते हो कि तू बक्शीश कर, हाथ जोड़ कर के कह सकते हो, मांग नहीं कर सकते। तो गा कर, प्यार से, झुक कर के कह सकते हो। क्योंकि, तुमने अर्जित तो करी नहीं है, कोई तुम्हारा वो इनाम तो है नहीं। वो तो बस ऐसे ही है। उसका कोई कारण नहीं है।

तुम्हें जो रिवॉर्ड मिलते हैं, उनके कारण होते हैं। और कारण में अहंकार होता है। तुम कहते हो, “चूँकि कारण है, तो मैं खुद वो कारण बन जाऊँगा और मुझे मिल जाएगा।“ सौ रूपय कमाने हैं तो इतना काम करो — वो जो काम है, वो सौ रूपय का कारण हुआ, और वो काम तुम कर सकते हो। तो वो सौ रूपये पर क्या हुआ तुम्हारा? अधिकार हो गया न। और अधिकार में अहंकार है, “मैं अधिकारी हूँ”। अधिकार में अहंकार है।

बक्शीश का अर्थ है कि ये सूरज है, इसके बिना एक पल नहीं चल सकते, अंधा ही होगा जिसको दिखाई न दे कि बक्शीश है। बिल्कुल ही मूढ़ होगा जो सुबह उठे और देखे कि सांस ले पा रहा हूँ और सूरज दिख रहा है और फ़िर भी उसके मन में श्रद्धा न आ जाए, जो झुक सा न जाए, बड़ा एहसान फरामोश आदमी होगा जो धन्यवाद न बोले। गहरी कृतघ्नता है ये।

कर क्या लोगे आप अगर अभी हवा सल्फर-ढाई-ऑक्साइड से भर जाए? आपकी मर्ज़ी से तो ऑक्सीजन से नहीं भरी थी? और अभी भर जाए So2 से, कर क्या लोगे? पर आप एक पल को धन्यवाद नहीं देते कि ऑक्सीजन आप दे रहे हो, धन्यवाद। किसको देना है? नहीं पता। आप पलट कर सवाल करोगे “कौन दे रहा है? किसको धन्यवाद बोलें?” ये मन की चाल है, कि “कोई देने वाला थोड़ी है, ये तो ऐसे ही है।” अच्छा, ऐसे ही है? (व्यंग करते हुए) ये जो पूरा विराट तंत्र है, ये ऐसे ही तो है, बड़े होशियार हैं!

श्रोता ४: धन्यवाद कहने में जो मूल बात रहती है वो यही रहती है कि आपको साफ़-साफ़ पता चल जाता है कि यह आपके कारण नहीं हो रहा है।

वक्ता: इतना तो मान लो, चलो किसी ख़ास को मत बोलो कि धन्यवाद, पर इतना तो मान लो कि मैंने नहीं ऑक्सीजन पैदा करी। हम में से कई धुरंधर ऐसे होंगे जो ये भी मानना चाहेंगे कि “मेरी किसी योग्यता की वजह से मुझे ऑक्सीजन मिलती है।” और तर्क भी खोज लेंगे।

श्रोता ५: इसमें वो जाएगा न कि मैंने अपने पिछले जन्म में कुछ अच्छा किया था जिसके कारण मुझे इस जन्म में इंसानी शरीर प्राप्त हुआ है।

वक्ता: हाँ, बिल्कुल। और देखो न ये कितना बढ़िया तरीका निकाल लिया है “मैं पहले से कर्मफल अर्जित करके आया था, इसी कारण मैं इस जन्म में मनुष्य बना हूँ। और पृथ्वी पर मनुष्य बना हूँ तो ऑक्सीजन मिल रही है। अगर मैं ब्रहस्पति ग्रह पर कोई कीड़ा होता, तो वहाँ ऑक्सीजन थोड़ी मिल रही होती। तो मैं यहाँ पर हूँ ही इसलिए क्योंकि मैं बड़ा पुण्यात्मा हूँ।” हो गया! तो ये एहसान फरामोशी की है, ठीक है।

चलो तुमने बड़े पुण्य किये थे, तो उन पुण्य का भी कोई कारण होना चाहिए उससे पिछले जन्म का, क्योंकि इस जन्म में जो तुम हो, उसका कारण पिछला है, तो पिछले का भी कोई कारण होगा और उससे पिछले का भी कोई कारण होगा और उससे पिछले का भी, उसकी बात लेकिन तुम करोगे नहीं। प्रथम कारण की बात तुम करोगे नहीं क्योंकि वहाँ पर तुम अटक जाओगे। तो तुम बस पिछले जन्म तक जाओगे। “इनको इतनी सारी दौलत यूँ ही मिल गयी है, क्यों? अरे, पिछले जन्म में ये ऋषि मुनि थे तो इस बार लॉटरी लग गयी है।”

प्रथम हमेशा है, इस बात को कभी भूलियेगा नहीं। प्रथम किसी सीरीज़ का हिस्सा नहीं है। हमारा मन गणित ने इतना पकड़ रखा है कि हम अर्थमेटिक प्रोग्रेशन में सोचते हैं। हम सोचते हैं कि प्रथम का मतलब है कि एक, दो, तीन, चार, पांच, छ:, सात, आठ, तो जब आठ है तब तो प्रथम है नहीं, ये बड़ी दिक्कत है। इस भाषा में मत सोचिए, क्योंकि अगर आप ‘एक’ से चल कर ‘आठ’ पर आ गए तो ‘एक’ तो पीछे छूट गया न।

प्रथम हमेशा है, प्रथम तब भी है जब ८ है, प्रथम तब भी है जब २०० है। तो प्रथम कारण मैंने कह दिया, धोखे से कह दिया, वो प्रथम ही भर नहीं है, वो प्रथम भी है और आख़िरी भी है। पहला भी है, आखिरी भी है, और बीच में भी है। सैयद (श्रोता को संबोधित करते हुए) कौनसी आयत है जो कहती है कि अव्वल भी है, आख़िरी भी है, और बीच में भी है? याद है कुछ आपको? अर्थ यही है उसका कि केवल पहला बोल कर मत रुक जाना, दिक्कत हो जाएगी। पहला ही भर नहीं है, तो ये शब्दों की भूल है कि प्रथम कारण बोल दिया, वो प्रथम ही भर नहीं है, वो कारणों का करण है। हर वक्त जो हो रहा है, उसका कारण है। अव्वल, आखिरी तो ठीक ही है, मध्य भी वही है। इसी कारण आपके यहाँ पर ये त्रिपुटी है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश की। तो प्रथम भी वही है, अंत में भी वही करेगा – शिव, और बीच में भी वही बैठा है। अब ये सब कहने के तरीके हैं पर बात एक ही तरह की है।

श्रोता ६: शून्य है?

वक्ता: हाँ, तो शून्य है तो सब शून्य है। जब शुरू में भी कुछ नहीं है और आख़िर में कुछ नहीं है तो बीच में भी कुछ कैसे हो सकता है? इससे जीवन का पता चलता है न। जो लोग ये सोचते हों कि जन्म से पहले कुछ नहीं था हमारे और मृत्यु के बाद भी कुछ नहीं होगा हमारे, तो उनको फ़िर ये जान लेना चाहिए कि फ़िर बीच में भी कुछ नहीं होगा। इसी कारण जो लोग इस धारणा में जीते हैं, वास्तव में उनके जीवन में कुछ होता ही नहीं। जो ये कहते हैं कि एक दिन हमारा जन्म हुआ था “हैप्पी बर्थडे”, और एक दिन हम मर जाएंगे “ओह माय गॉड”, वो यही पाते हैं कि उनके बीच में जो जीवन है, मध्य में, उसमें भी कुछ नहीं है। क्योंकि जब अव्वल कुछ नहीं और आखीर कुछ नहीं तो बीच में कहाँ से आ जाएगा। सोचने वाली बात है न ये? पर आप कहते यही हो कि “उस दिन 6 जुलाई 1986, उस दिन से दुनिया हमारी शुरू होती है। और फ़िर एक दिन आएगा सन 2045 में, उस दिन हम साफ़ भी हो जाएंगे।” फ़िर बीच में कुछ हो नहीं सकता। या तो यही साफ़ साफ़ देखो कि अभी कुछ है तो सदा से कुछ था, और सदा रहेगा भी, उसके व्यर्थ हो जाने की कोई संभावना है नहीं।

जब हम कहते हैं ‘स्रोत है’, तो ये मत समझ लीजिएगा कि स्रोत कोई ऐसी चीज़ है जिसने दुनिया बना कर के छोड़ दी है। स्रोत का मतलब ये है कि वो समय का स्रोत है, और समय क्योंकि लगातार है, इसीलिए वो भी लगातार है। वो लगातार बना ही रहा है। एक लगातार चल रही प्रक्रिया है। तो भगवान क्या है? वह लगातार घट रही प्रक्रिया है। और बुद्ध एकदम यही कहते थे, बुद्ध कहते थे कि दुनिया में चीज़ें हैं ही नहीं, सिर्फ़ प्रक्रियाएं हैं। जो तुमको दिखाई पड़ता है कि ‘है’, वो है नहीं। इसीलिए उन्होंने जीवन को नदी कहा है। नदी होती नहीं है, नदी एक प्रक्रिया है। तुम उसे नाम दे देते हो कि नदी है, पर नदी नहीं है, एक प्रक्रिया है बहने की। नदी का बहाव दिखाई पड़ता है इसीलिए आसान है उदाहरण दे पाना, पर जीवन भी वैसा ही है, सब कुछ वैसा ही है। (ऊपर की तरफ़ इशारा करते हुए) ये छत भी नदी है, इसका बहना दिख नहीं रहा है इसीलिए आप इसे छत बोल देते हो। जैसे छत कोई एक रुकी हुई चीज़ हो, छत रुकी हुई चीज़ नहीं है, ये भी एक प्रक्रिया है।

श्रोता ६: यह प्रक्रिया है जिसमें काफ़ी सारी क्रियाएं हो रहीं हैं।

वक्ता: हाँ, तो लगातार जो चल रहा है, जो बह रहा है, ये जो समय है।

श्रोता ७: गतिशील, स्थिर नहीं है।

वक्ता: तो ईश्वर इसीलिए स्थिर नहीं हो सकता। उसको कभी सिंघासन पर मत बैठा दीजिएगा, कि वो दुनिया बना-वना कर के बैठ गया है। फ़ालतू! बोर हो कर के मर जाएगा। वो लगातार बना रहा है। वो गतिशील है, लगातार जो हो रहा है वही कर रहा है, इतना व्यस्त है।

श्रोता ७: सर, विज्ञान भी कहता है कि संसार प्रतिपल फ़ैल रहा है।

वक्ता: न भी फैलाव हो, तो भी चल तो बहुत कुछ रहा ही होता है। सब जो थमा हुआ भी दिखता है, वो थमा कहाँ हुआ है? आपको जो वस्तु स्थिर लगती है, उसके भीतर भी हज़ारों, लाखों मील प्रति सेकंड की रफ़्तार से चीज़ें घूम रही हैं।

श्रोता ७: एन्ट्रापी जिसे कहते हैं।

वक्ता: वो लगातार बढ़ रही है एन्ट्रापी।

“सभी का है तू सभी तेरे”

वक्ता: “*सभी का है तू, सभी तेरे”, * सभी का है तू, मतलब?

श्रोता ४ : सभी का स्रोत है।

वक्ता: बढ़िया। और सभी तेरे?

श्रोता५: सब तेरे से ही आए हैं।

वक्ता: सब तेरे से ही आए हैं। तो अब इसमें आपका कोई व्यक्तिगत ईश्वर नहीं हो सकता है, और अलग-अलग भी नहीं हो सकते। सभी का है तू। और सभी का मतलब यही है कि वो जो हमारा कोहम गया है नीचे, उसका भी, और जो जूता औंधा पड़ा है, उसका भी। और जो पौधा है, उसका भी। और जो लोहा खड़ा है, इसका भी। और जिसने ये कह दिया कि सभी का है तू सभी तेरे, अब ये आदमी हिंसक नहीं रह पाएगा, अब ये आदमी बंटा हुआ भी नहीं रह सकता न।

“तेरी मर्ज़ी से ऐ मालिक हम इस दुनिया में आये हैं “

‘तेरी मर्ज़ी से ऐ मालिक हम इस दुनिया में आये हैं’, अच्छा ठीक है तुम्हें लगता है तुम दुनिया में आए हो, यहीं से शुरुआत कर लेते हैं। सभी को यही लगता है दुनिया में आए हैं, तो किसकी मर्ज़ी से आए हो? पहली बात तो ये क्या अपनी मर्ज़ी से आए हो? कितनों ने तय किया था कि पैदा होना है? किसी ने नहीं। तो तुम कहोगे कि माँ-बाप की मर्ज़ी से आये हैं, उन्होंने भी अक्सर तय वैसे कर नहीं रखा होता है। वो ऐसे ही हो जाता है। पर उन्होंनें तय कर भी रखा हो, तो जो तय करने वाला है, वो खुद किसकी मर्ज़ी से आया है? वो कहेगा कि हमारे माँ-बाप की मर्ज़ी से, और फ़िर और पीछे से। फंस गए! प्रथम तक तो जाना ही पड़ेगा। तो ये जो मध्यस्थ हैं, इनको हटा ही दिया करिए। इनकी मर्ज़ी तो कोई मायने रखती ही नहीं है। इसका मतलब मर्ज़ी एक की ही है, उसी प्रथम की। उसी की मर्ज़ी की बात कर लेते हैं क्योंकि सब की मर्जियां उसी की मर्ज़ी है, संचालित तो वही कर रहा है।

तो इसीलिए सीधे, कि तेरी मर्ज़ी से आए हैं। जो भी कुछ ये दिखता है, जो कुछ है, वो तेरी ही मर्ज़ी से है। ये तो पक्का है कि हमारी मर्ज़ी से नहीं है। कोई कहे कि “नहीं, किसकी मर्ज़ी से है?” कहो, कि इतना तो पक्का है न तुम्हारी मर्ज़ी से नहीं है, बस इतना काफ़ी है। ये भी पक्का है कि तुम्हारी मर्ज़ी से नहीं है, और ये भी पक्का है कि तुम हो दुनिया में — बोलो, ये दोनों बातें पक्की हैं? पहली, कि हो, और दूसरा, कि अपनी मर्ज़ी से नहीं हो। तो इन दोनों को मिला दो तो क्या बात निकलती है? मैं हूँ यहाँ पर और अपनी मर्ज़ी से नहीं हूँ, तो इन दोनों बातों को मिला दो तो क्या निकलेगा?

श्रोता ४: मेरा होना उसकी मर्ज़ी से है।

वक्ता: अरे, उसकी नहीं, ‘उसकी’ छोड़ दो कि उसकी कुछ है।

श्रोता ५: मेरी मर्ज़ी नहीं है।

वक्ता: किसी और की मर्ज़ी से हैं। मैं हूँ भी और अपनी मर्ज़ी से नहीं हूँ, इन दोनों वाक्यों को मिलाइए तो क्या निकलेगा? ‘किसी और’ की मर्ज़ी से हैं। बस उस ‘किसी और’ को नाम दिया जा रहा है ‘तू’। उसी ‘किसी और’ को, वो जो है ‘कोई और’, उसे नाम दिया जा रहा है ‘तू’।

“तेरी रहमत से हम सबने ये जिस्म और जान पाए हैं “

वक्ता: *‘तेरी रहमत से हम सबने*ये जिस्म और जान पाए हैं’। रहमत माने? फ़िर, अनुकम्पा।

श्रोता २: सर, इसमें एक प्रश्न था मेरा मन में, ये इसमें कई जगह मर्ज़ी बोल देते हैं, कई जगह हम अनुकम्पा बोल देते हैं, तो?

वक्ता: अपनी ओर से देखेंगे तो उसकी रहमत है, उसकी ओर से देखेंगे तो उसकी मर्ज़ी है। आप किसी को दान देते हो, दान देना आपकी क्या है?

श्रोतागण: मर्ज़ी।

वक्ता: और जिसको मिल रहा है, उसके लिए क्या है?

श्रोतागण: रहमत।

वक्ता: “तेरी रहमत से हमने ये जिस्म और जान पाए हैं”। हाँ, अब अपनी रहमत से तो पाए नहीं है। कितनों ने तय किया था कि हाथ में पाँच ही उंगलियाँ होनी चाहिए? तो बस वही जो निर्णय ले रहा है, आप उसको क्रमागत उन्नति कहना चाहते हैं तो वो कहें। पर यह इंसानियत की बात है कि जो मुझे मिला है, और मेरी मर्ज़ी से नहीं मिला है, उसके लिए किसी को तो धन्यवाद बोलूँगा। ये इंसानियत की बात है सीधी-सीधी बस, और कुछ नहीं है। मिला तो है ये पक्का है और अपनी मर्ज़ी से नहीं मिला ये भी पक्का है, तो किसी ने तो दिया न, उसको धन्यवाद। मुझे नहीं मालूम किसने दिया। मैं कल्पना नहीं कर रहा हूँ। मैं सिर्फ़ ये कह रहा हूँ कि मिला भी है, और अपने करे से नहीं मिला तो बस धन्यवाद।

श्रोता ५: सर, यदि किसी को मिला है, तो भी अहंकार पुष्ट नहीं हो रहा है?

वक्ता: तो ये अहंकार ही तो गा रहा है, और गा कौन रहा है?

श्रोता ५: तो इससे अहंकार को पोषण नहीं मिलेगा?

वक्ता: नहीं, ये अहंकार का ऐसा गाना है जिसमें अहंकार का विघलन हो रहा है। यह एक आत्मघात-गीत है। प्रार्थना और क्या होती है? प्रार्थना होती है आत्मघात का गीत। एक गीत होता है जिसमें अहंकार और चढ़ता है — ‘वीर तुम बढ़े चलो’, एक तो वो गीत होता है, और एक दूसरा गीत होता है जो यही होता है कि ख़त्म होना है।

“तू चाहे तो हमें रखे , तू चाहे तो हमें मारे

वक्ता: तू चाहे तो हमें रखे, तू चाहे तो हमें मारे। तो तुम्हें क्या लग रहा है, तुम ये जो कपड़े पहनते हो, इन कपड़ो ने तुम्हें सुरक्षा दे रखी है जाड़े से? तुम मोटे से मोटा कपड़ा पहन लो, ० (शून्य) केल्विन पर कपड़ा भी जम जाएगा। तुम्हें क्या लग रहा है, तुम तुम्हारे करे से बचे हुए हो, अगर बचे हो तो?

दिल तुमसे पूछ कर धडक रहा है? रक्त तुमसे पूछ कर बह रहा है? तो तुम्हें ये अहंकार हो भी कैसे गया कि तुम्हारी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी तुम्हारी है? कोई मूर्ख ही आदमी होगा जो कहता हो कि “मुझे अपना ख्याल खुद रखना है”। ये बात उत्तरदायित्व की नहीं है, मूर्खता की है। अपना ख्याल या किसी का भी ख्याल, जो भी कोई ये कहे कि मेरे बच्चों का लालन-पालन करने की ज़िम्मेदारी मेरी है, वो मूर्ख ही है; पूरा ही मूर्ख है। तुम्हें क्या लग रहा है, तुम आज न रहो तो तुम्हारे बच्चों का बड़ा अहित होगा? उनके सर से बोझ हटेगा। सुना है न वही, वो ट्रेन में चढ़े हुए हैं और सर पर संदूक रखा हुआ है, कि “हम तो ले जा रहे हैं। हम ही तो ले जा रहे हैं।” ट्रेन में बैठे हुए हैं और संदूक सर पर है “हम ले जा रहे हैं।”

तो जो अष्टावक्र होता है, उसको ये बात समझ में आ जाती है, इसीलिए वो सिर्फ़ बैठ कर के हँसता है। और बिल्कुल हल्का हो जाता है। और यह बहुत गहरे बोध की बात है। इसीलिए बार-बार कह रहा हूँ कि ये सामान्य आस्था नहीं है कि किसी ने तुम्हें भगवान नाम का झुनझुना दे दिया और तुम बजा रहे हो भगवान-भगवान। उसने जीवन को गहराई से देखा है तब ये बात समझ में आई है। उसके पास तर्क की भी गहरी ताकत है। उसकी बुद्धि भी बड़ी तीखी है। बिल्कुल धार है उसमें। वो उलटे-पुल्टे ख्यालों को वो ख़ुद ही काट देता है।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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